गुरुवार, 3 अक्तूबर 2024

हिंदी के हत्यारे…आप/हम,और कौन!!

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हिंदी के हत्यारे’…पढ़कर आप चौंक गए न और हो सकता है कुछ लोग शायद नाराज भी हो गए होंगे क्योंकि हमारी अपनी सर्वप्रिय और मीठी हिंदी भाषा के साथ हत्यारे जैसा क्रूर शब्द सुनना अच्छा नहीं लगता । लेकिन, जब मैं यह कहूं कि मैं,आप और हम सभी हिंदी के हत्यारे हैं तो शायद आपको और भी ज्यादा बुरा लग सकता है और लगना भी चाहिए क्योंकि जब तक बुरा नहीं लगेगा तब तक हम अपनी गलतियों को सुधारने या खुद को बेहतर बनाने के लिए प्रयास नहीं करेंगे। किसी भाषा में मिलावट, व्याकरण बिगाड़कर,उसकी अनदेखी करना और उसकी बनावट एवं बुनावट से छेड़छाड़ करते जाना उसे तिल तिल कर मारना ही तो है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी कहा कि ‘मातृभाषा का अनादर मां के अनादर के समान है।जो मातृभाषा का अनादर करता है वह देशभक्त कहलाने के लायक नहीं है।’ जब गांधी जी जैसी संजीदा और संयम वाली शख्सियत मातृभाषा का सम्मान नहीं करने वालों को देशद्रोही जैसा मानने की हद तक कट्टर हो सकती है तो हमारी हिंदी भाषा को बर्बाद करने वालों को हिंदी के हत्यारे कहने में क्या बुराई है। 

हम सब हिंदी की हत्यारे हैं। यहां हम सब का मतलब मैं/हम/आप/ मीडिया/ सिनेमा/ बाजार और सरकारी कार्यालय सभी शामिल हैं। सबसे पहले हमारी बात कि आखिर ‘हम-आप’ हिंदी की हत्यारे कैसे हुए? अगर सही मायने में देखें और समझे तो हम हर दिन हिंदी की या अपनी भाषा की हत्या करते हैं। हिंदी में लेख/कविता/कहानी लिखना हिंदी की सेवा है लेकिन दिन प्रतिदिन उसकी अवहेलना करना अपराध। उदाहरण के लिए हम, अपने परंपरागत रिश्तों को आंटी और अंकल कहकर संबोधित करते हैं। हम, अपने बच्चों से कहते हैं कि वे आगंतुकों को आंटी कहें या उन्हें अंकल कहकर बुलाएं। क्या, दादी/ नानी/ मामी/ चाचा/ मौसी/ भाभी जैसे रिश्तों को अंकल-आंटी से पूरा कर सकते हैं । जिस भाषा के पास अहम पारिवारिक रिश्तों के लिए शब्द नहीं हैं तो वह ममेरे भाई, फुफेरे भाई या चचेरी बहन जैसे विस्तृत रिश्तों के लिए संबोधन कहां से लाएगी? ऐसी कंगाल अंग्रेजी भाषा को अपनाने के लिए हम अपनी मातृभाषा को ठुकराने के लिए तत्पर हैं।

हम, दूसरी बड़ी गलती करते हैं कि अपने बच्चों को रिश्तेदारों के सामने नमूने की तरह पेश करते हुए उनसे अंग्रेजी की फलाना ढिकाना पोएम सुनाने का अनुरोध करते हैं या फिर उनसे कहते हैं बेटा 100 तक काउंटिंग सुनाओ।  हम कितनी बार यह कहते हैं कि बेटा गिनती सुनाओ या   हिंदी की कोई कविता सुनाओ । फिर हमारा यही बच्चा जब बाजार में सामान लेने जाता है और दुकानदार उससे कहता है कि उनचालीस रुपए हुए तो वह आंखें फाड़ कर मुंह ताकता रह जाता है या फिर कहता है भैया इंग्लिश में बताओ । नई पीढ़ी की इस कमी पर केंद्रित कई सारे चुटकुले बाजार में और मोबाइल पर उपलब्ध है जैसे कि दो लड़कियां एक गोलगप्पे की दुकान पर जाती है और वहां गोलगप्पे खाने के बाद वह दुकानदार से पूछती कितने पैसे हुए तो वह कहता है उन्नचास रुपए… लड़कियां सोचती है कि दुकानदार उन्हें ठगने की कोशिश कर रहा है और एक लड़की थोड़ा ज्यादा स्मार्टनेस दिखाते हुए कहती है कि भैया, हम तो हंड्रेड देंगे । बार बार समझाने के बाद अंततः दुकानदार भी सोचता है कि भाई जब बैठे ठाले दोगुने पैसे मिल रहे हैं तो लेने में क्या बुराई है। सोचिए, यह चुटकुला हकीकत भी हो सकता है। अगर उन बच्चियों के मां-बाप ने उन्हें सिखाया होता है कि 49 का मतलब एक कम 50 रुपए है तो शायद वह 100 रुपए देकर नहीं आतीं।

इसी प्रकार आम बोलचाल में हम सामान्य चीजों के भी अंग्रेजी नाम इस्तेमाल करने लगे हैं जैसे कि हम कहेंगे वीक डेज, वीकेंड, मंडे, ट्यूसडे, थर्सडे या फिर सैटरडे । हम कितनी बार कहते हैं कि सोमवार मंगलवार,बुधवार या फिर वीकेंड को हफ्ते या सप्ताहांत जैसे शब्दों से याद करते हैं। जब हम खुद दिन प्रतिदिन की प्रक्रिया में अंग्रेजी शब्दों का मोह नहीं छोड़ पा रहे  तो हम अपनी नई पीढ़ी में या अपने बच्चों में अपनी भाषा के बीज कैसे रोपित करेंगे ? कुछ यही हाल रंगों को लेकर है। अब हम नीला, हरा, गुलाबी या बैंगनी कितनी बार  कहते हैं उल्टा रेड/ग्रीन/ यलो/ पिंक या पर्पल की बात ज्यादा करते हैं। तो हुए न, हम हिंदी के हत्यारे..!! यह महज कुछ उदाहरण है जबकि भाषा की विकृतियां दिन प्रतिदिन हमारी जीवन शैली का हिस्सा बनती जा रही हैं। यदि आप खुद अपने बोले गए शब्दों का अध्ययन करने बैठे तो आप स्वयं महसूस करेंगे कि हमारी भाषा में 30 से 40 फीसदी अंग्रेजी घुस गई है और हम हिंदी के पिछड़ने का रोना रो रहे हैं। 

हिंदी के हत्यारों में दूसरा नाम है- बाजार। हम आए दिन सुनते हैं ‘यह दिल मांगे मोर’, ‘ठंडा मतलब कोका-कोला’, ‘आई एम कॉम्प्लान बॉय’, ‘यही है राइट चॉइस बेबी’ या और भी ऐसे तमाम तरह के विज्ञापन और उनकी बेसिर पैर की लाइन…जो हमें सुनने में बहुत अच्छी लगती हैं और हम उन्हें अपने व्यवहार में भी अपनाते जाते हैं। इसी तरह पैट शॉप, ग्रीटिंग कार्ड, शॉपिंग मॉल या और भी इसी तरह के तमाम शब्द जो बाजार हमारे सामने पेश करता जा रहा है और हम भी आंख बंद  कर उनको अपनाते जा रहे हैं। बाजार तो मोटे तौर पर अंग्रेजी के हवाले है ही..यदि हम अपने आसपास की कुछ स्थानीय दुकानों या और छोटे-मोटे बाजारों को छोड़ दें तो किसी भी बड़े शॉपिंग मॉल मेंअंग्रेजी का बोलबाला खुलकर दिखता है और हिंदी कहीं किसी कोने में दबी सहमी नजर आती है। 

हिंदी के हत्यारों में तीसरा नाम आता है मीडिया का । मीडिया यानि समाचार पत्र,  टीवी चैनल, पत्रिकाएं या इसी तरह के अन्य माध्यम । मीडिया में इन दिनों हिंग्लिश का इस्तेमाल परवान पर है। यदि आप अपने घर आने वाले अखबार के पन्ने पलटे तो आप आसानी से समझ जाएंगे की अंग्रेजी किस तरह से हिंदी मीडिया पर हावी होते जा रही है। हिंदी के कुछ अखबारों की सुर्खियों पर नजर डाली जाए तो इस तरह के उदाहरण रोज ही  मिल जाते हैं जैसे  ‘पेट्स को खुश रखने हजारों के गिफ्ट’, ‘केंद्रीय मंत्री को मिली क्लीन चिट’, ‘गुणवत्ता में फेल हुए नमूने’, ‘धर्म की पाठशाला में सीखा टाइम और लाइफ स्टाइल मैनेजमेंट’, ‘कैश में खरीदा टीवी’, ‘वर्क लाइफ में संतुलन साधने की चुनौती’। वहीं,टीवी चैनलों में करप्शन, क्राइम, अटैक, मर्डर जैसे शब्द बहुतायत में देखने/ सुनने/पढ़ने को मिल जाते हैं । दिल्ली के एक अखबार ने तो हिंग्लिश को लगभग अपना लिया है। 

हिंदी के हत्यारों में चौथा नाम है सिनेमा का । सिनेमा ने जहां हिंदी भाषा को जनप्रिय और देशभर में फैलाने में सबसे अहम भूमिका निभाई है लेकिन भाषा को बर्बाद करने में भी यह पीछे नहीं है। उदाहरण के लिए यदि हम हिंदी फिल्मों के शीर्षकों पर ही सरसरी नज़र दौड़ाएं तो ऐसा लगता है कि हिंदी में उनके पास कोई उपयुक्त शब्द ही नहीं थे। मसलन ‘मिस्टर एंड मिसेस 55’, ‘लव इन शिमला’, ‘दाग:द फायर’, ‘गोलमाल अगेन’, ‘जेंटलमैन’, ‘सिंघम रिटर्न’ जैसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे। ऐसा नहीं है कि हिंदी नाम वाली फिल्में लोकप्रिय नहीं होती। आखिर ‘जिस देश में गंगा बहती है’ और ‘जब जब फूल खिले’ से लेकर ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ जैसी तमाम फिल्में बहुत लोकप्रिय हुई हैं। इसके अलावा फिल्मों के सफल अभिनेता और अभिनेत्री हिंदी में रोजी-रोटी कमाकर अंग्रेजी में संवाद करके गर्वित महसूस करते हैं। कुछ यही हाल टीवी पर आ रहे तमाम धारावाहिकों का है। वे खुलेआम हिंदी की टांग तोड़ते नजर आते हैं। कोरोना दौर में जन्में ओटीटी  ने तो मानो हिंदी का समूल नाश करने की कसम ले ली है। विदेशों की नकल करती ओटीटी की विषय वस्तु और भाषा हर पल यह साबित करती है कि उसका जन्म ही मातृ भाषा से बलात्कार करने के लिए हुआ है । 

हिंदी के हत्यारों में आखिरी नाम है सरकारी कार्यालय । इन कार्यालयों में ज्यादातर अपने दैनिक कामकाज में बेवजह कठिन और दुरूह हिंदी शब्दों का इतना अधिक इस्तेमाल करते हैं कि आम व्यक्ति तो दूर शायद लिखने वालों की समझ में भी उनके पूरे अर्थ नहीं आते होंगे। उदाहरण के लिए ट्रेन के लिए लोह पथ गामिनी या मोबाइल के लिए चलित दूरभाष। शायद आप में से कुछ ही लोगों का पाला पुलिस थानों से पड़ा होगा लेकिन यदि आप इस जगह से रूबरू हुए हैं तो आपको पता होगा कि थानों में प्रथम सूचना रिपोर्ट- एफआईआर जिस भाषा में लिखी जाती है उसे समझ पाना उन हवलदार साहब के बस में भी नहीं होता जो उसे लिखते हैं।  

केंद्रीय गृह मंत्रालय के अंतर्गत राजभाषा विभाग ने भी सरकारी कामकाज में कठिन हिंदी शब्दों के स्थान पर सहज और सरल शब्दों के इस्तेमाल की सलाह दी है। जैसे प्रत्याभूति, मिसिल,अभिलेख और शास्ति जैसे शब्दों के स्थान पर क्रमशः गारंटी, फाइल,रिकॉर्ड और जुर्माना जैसे ज्यादा प्रचलित शब्द ।  वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग भी अपनी तरफ से हिंदी को सहज और सरल बनाने के लिए लगातार प्रयास कर रहा है। 1960 में बने संस्थान ने अब तक आठ लाख से ज्यादा शब्द गढ़े हैं जो अब प्रचलन में भी हैं जैसे संगणक के लिए कंप्यूटर या संसद सदस्यों के लिए सांसद । कहने का मतलब यह है कि सरकार के स्तर पर भी भाषा को सहज एवं सरल बनाए रखने के लिए तमाम प्रयास हो रहे हैं बस जरूरत हमें उन्हें अपनाने की है।

सरकारी महकमों में एक चलन और बड़ी तेजी से बढ़ा है, वह है किसी योजना के परिष्कृत संस्करण को अंग्रेजी में लिखा जाना मसलन मोदी 3.0 या फिर उज्जवला 2.0 या इसी तरह के अन्य शब्द जबकि उनके स्थान पर मोदी सरकार का तीसरा कार्यकाल या उज्ज्वला का दूसरा संस्करण जैसे आसान शब्द उपलब्ध हैं।  कुल मिलाकर किसी दूसरे व्यक्ति या दूसरी भाषा को दोष देने की बजाय सबसे पहले हमें अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए कि हम खुद अपनी भाषा को बर्बाद करने में कितने और किस हद तक जिम्मेदार हैं। सबसे पहले हमें अपने आप से, अपने घर से, अपने बच्चों से,अपनी परस्पर बातचीत से और अपने दफ्तर से शुरुआत करनी होगी तभी हम अपनी भाषा के मान, सम्मान और गुणवत्ता को बरकरार रख पाएंगे। 



बुधवार, 25 सितंबर 2024

आइए, मेघा रे मेघा रे...के कोरस से करें 'मानसून' का स्वागत

मेघा रे मेघा रे...सुनते ही आँखों के सामने प्रकृति का सबसे बेहतरीन रूप साकार होने लगता है, वातावरण मनमोहक हो जाता है और पूरा परिदृश्य सुहाना लगने लगता है। भीषण गर्मी और भयंकर तपन, उमस, पसीने की चिपचिपाहट के बाद मानसून हमारे लिए ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण प्रकृति,जीव जंतु और पक्षियों के लिए एक सुखद अहसास लेकर आता है। मई की चिलचिलाती गर्मी के साथ ही पूरा देश मानसून की बात जोहने लगता है और जैसे जैसे मानसून के करीब आने का संदेशा मिलता है मन का मयूर नाचने लगता है। पहली बारिश की ठंडक भरी फुहारों में भीगते लोग, पानी में धमा-चौकड़ी करती बच्चों की टोली, झमाझम बारिश के बीच गरमागरम चाय पकौड़े, कोयले की सौंधी आंच पर सिकते भुट्टे....क्या हम इससे अच्छे और मनमोहक दृश्य की कल्पना कर सकते हैं। वैसे भी,भारत में मानसून आमतौर पर 1 जून से 15 सितंबर तक 45 दिनों तक सक्रिय रहता है और देश के ज्यादातर राज्यों में दक्षिण-पश्चिम मानसून ने दस्तक दे दी है।   समुद्र की ओर बढ़ते मेघ जल की लहरों के साथ मिल जाते हैं, जो एक स्थल की खूबसूरती को दोगुना कर देते हैं। उनके संगम पर सूरज की किरणों का खेल, उनकी तेज रोशनी और चांद की रोशनी के साथ एक अद्वितीय और अविस्मरणीय दृश्य बनाता है। मेघों की सुंदरता को वर्णित करना कठिन है, क्योंकि वे प्राकृतिक रूप से बेहद आकर्षक, खूबसूरत और चमकीले होते हैं। मेघों का गगन में आवरण, उनकी बृहत्ता, और उनके रूपांतरण की रौनक देखकर आत्मा को अद्वितीय सुंदरता का अनुभव होता है। मेघों की उच्चता, गहराई, और उनकी चलने की गति से हमें व्यापकता का अनुभव होता है, जो हमें अद्भुतता का अनुभव देता है।मेघों के रंग, आकार और आकृति उन्हें एक अनूठी पहचान देती है। मेघों की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व भी है, क्योंकि वे वर्षा की सूचना देते हैं और प्राकृतिक प्रक्रियाओं का एक अभिन्न हिस्सा हैं। इसके अलावा, मेघों शांति और संतोष की भावना पैदा करता है।   मानसून के आगमन से धरती का चेहरा बदल जाता है। यह एक ऐसा अवसर होता है जब वायु में ठंडक आ जाती है और वातावरण प्राकृतिक सौंदर्य से भर जाता है। मानसून भारतीय समाज के लिए एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक प्रक्रिया है, जो जीवन को नई ऊर्जा और उत्साह से भर देती है। मानसून के दौरान  धरती खूबसूरत हो जाती है क्योंकि वर्षा से प्राकृतिक रंग-बिरंगी वनस्पतियों की खूबसूरती और बढ़ जाती है। पेड़-पौधों का हरा रंग और फूलों की विविधता धरती को विशेष रूप से आकर्षक बनाती है। इसके साथ ही, मानसून के समय में धरती पर बरसने वाली वर्षा से प्राकृतिक जल स्रोतों की चमक बढ़ जाती है, जो नदियों और झीलों को जीवंत करती है। इस प्रकार, मानसून के समय में धरती की सुंदरता और जीवनशैली में विविधता बढ़ जाती है।   मानसून हमेशा ही फिल्मों,कवियों और संगीतकारों का पसंदीदा विषय रहा है। हिंदी फिल्मों में किसी समय में बारिश के गीत के बिना फिल्म पूरी ही नहीं होती थी। सुपर स्टार अमिताभ बच्चन से लेकर हेमा मालिनी तक और माधुरी दीक्षित-श्रीदेवी से लेकर रवीना टंडन तक ने बारिश पर केन्द्रित सुपरहिट गीत प्रस्तुत किये हैं। इन गीतों ने मानसून के उल्हास व उन्माद को सुन्दर शैली में प्रदर्शित किया है। उनमें प्रदर्शित भावनाएं हमारे हृदय को छू जाती हैं। बचपन में वर्षा के बीच छप-छप से लेकर प्रेम में सराबोर प्रेमीजोड़ों की एक दूसरे से मिलने की तड़प तक और  मानसून की बाट जोहते किसानों के बूंदे देखते ही उल्हास में परिवर्तित होते भावों को हिंदी फिल्मों के गीतों में मनमोहक चित्रण देखने को मिलता है। इन सदाबहार गीतों से तन के साथ-साथ मन भी भीग जाता है। जैसे गीत प्यार हुआ इकरार हुआ..., हाय हाय ये मजबूरी ये मौसम और ये दूरी..,इक लड़की भीगी भागी..,जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात..., काटे नहीं कटते, ये दिन ये रात...,लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है.., रिमझिम रिमझिम, रूमझुम रूमझुम...,कोई लड़की है जब वो हंसती है .., अब के सावन.., घनन घनन जब घिर आये बदरा.., बरसों रे मेघा मेघा..., आज रपट जाएं तो हमें न उठइयो..., भीगी भीगी रातों में..., टिप टिप बरसा पानी.. और जो हाल दिल का, इधर हो रहा है.. जैसे लोकप्रिय, कर्णप्रिय, दर्शनीय और मनमोहक गीतों के बिना इन फिल्मों की कल्पना की जा सकती है। बारिश पर कविताएँ हमेशा ही रोमांटिक होती हैं और तमाम नामी कवि भी बारिश के आकर्षण से बच नहीं सके हैं जैसे हरिवंश राय बच्चन ने बादल घिर आए कविता में लिखा है:  बादल घिर आए, गीत की बेला आई। आज गगन की सूनी  छाती भावों से भर आई,  चपला के पांवों की आहट  आज पवन ने पाई,  बादल घिर आए, गीत की बेला आई।  वहीं,बारिश की बूंदे कविता में कंचन अग्रवाल लिखती हैं:  छम छम पड़ती बारिश की बूंदे, भले ही बैरंग होती हैं l लेकिन जब धरती पर पड़ती हैं, तो उसका रंग निखार देती हैं l टप टप पड़ता बारिश का पानी, जब धरती की मिट्टी को गले लगाता है l इस अदृश्य मिलाप से धरती का रंग, कुछ ही दिनों में हरा भरा हो जाता है।  वहीँ, सुप्रसिद्ध गीतकार कवि गुलज़ार बारिश होती है तो कविता में कहते हैं:  बारिश होती है तो  पानी को भी लग जाते हैं पाँव दर-ओ-दीवार से टकरा के गुज़रता है गली से और उछलता है छपाकों में किसी मैच में जीते हुए लड़कों की तरह    मानसून भारतीय मौसम का एक महत्वपूर्ण अवधारणा है। यह वर्षा के मौसम को संदर्भित करता है जो भारतीय उपमहाद्वीप में जुलाई से सितंबर तक चलता है। मानसून भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए तो और भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह फसलों के लिए पानी प्रदान करता है और खेती को समृद्धि प्रदान करता है। मानसून देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग समय में प्रारंभ होता है और उसकी उस इलाके के हिसाब से अलग अलग विशेषताएं भी होती हैं। मानसून के आने से पहले, हवा ऊपरी समुद्री सतह पर संग्रहित गर्म होती है, और जब यह हवा स्थलीय तापमान से ठंडी होती है, तो वह वर्षा के रूप में गिरती है। मानसून दो प्रकार के होते हैं: उत्तरी मानसून और दक्षिणी मानसून। भारत में, उत्तरी मानसून गर्मियों में होता है जबकि दक्षिणी मानसून शीतकाल में होता है। भारत में बारिश की मात्रा क्षेत्र और समय के आधार पर भिन्न होती है। कुछ क्षेत्रों में अधिक बारिश होती है जबकि कुछ में कम। विभिन्न क्षेत्रों में वर्षा की सामान्य मात्रा 500 मिमी से 3000 मिमी तक हो सकती है। उत्तर पश्चिमी और पूर्वी भारत में, बारिश का समय और मात्रा भी अलग-अलग होता है। हालांकि, मानसून के साथ हादसे भी आते हैं, जैसे की बाढ़ और चक्रवात। इन हादसों से नुकसान होता है, जिससे लोगों को पीड़ा और परेशानी का सामना करना पड़ता है। पूर्वी भारत और खासतौर पर बिहार,असम में तो मानसून जीवन मरण का कारण बन जाता है। लेकिन मानसून के न होने से खेतों में पानी की कमी हो सकती है, जिससे फसलों का प्रभावित हो सकता है और खेती पर असर पड़ सकता है। इसी तरह, मानसून के न होने से पानी की कमी हो सकती है, जो पीने के पानी और सामान्य उपयोग के लिए अधिकतम विपरीत प्रभाव डाल सकती है। मानसून के न होने से जलवायु परिवर्तन हो सकता है, जैसे कि तापमान में वृद्धि, सूखा, और वनों में पेड़ों की असामयिक मृत्यु। मानसून के न होने से सबसे ज्यादा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ सकता है, क्योंकि खेती, पर्यटन, उत्पादन और अन्य क्षेत्रों में व्यापार पर नकारात्मक प्रभाव हो सकता है। जिसका असर देश की अर्थव्यवस्था और विकास पर भी पड़ सकता है...इसलिए मानसून हमारे लिए सबसे जरुरी है तो आनंद लीजिये मानसून का,रिमझिम फुहारों का और प्रकृति के बदलते नज़रों का।  छतरियां हटाके मिलिए इनसे। ये जो बूंदे हैं, बहुत दूर से आईं हैं।।  

पाठकों ने इस तरह बना दिया ‘अयोध्या 22 जनवरी’ पुस्तक को दस्तावेज

और ‘अयोध्या 22 जनवरी’ पुस्तक से दस्तावेज बन गई। अखबारों में आज छपी खबरों, मीडिया की नामचीन हस्तियों की संजीदा मौजूदगी, परिजनों,पत्रकारीय जीवन के साथियों, आकाशवाणी की टीम और विभिन्न क्षेत्रों के अनेक जाने माने लोगों की उपस्थिति और उनकी प्रतिक्रियाओं ने ‘अयोध्या 22 जनवरी’ को दस्तावेज बना दिया।  

शनिवार 29 जून को रीडर्स क्लब भोपाल के ‘लेखक से मिलिए’ कार्यक्रम के दिन मौसम विभाग ने पहले ही भारी बारिश की चेतावनी देकर डरा दिया था। इसके बाद दिन चढ़ते ही शैतान बादलों ने अपनी धुंआधार कलाबाजियों से मौसम विभाग की चेतावनी को सच्चाई बना दिया। हम मतलब Manoj Kumar  भैया, मेरे हमनाम Sanjeev Persai ,अपनी ही राशि के Sanjay Saxena  और हम कदम Manisha Sanjeev जी..फिक्रमंद थे कि ऐसी बरसात में कोई कैसे आ पाएगा? लेकिन पढ़ने/सुनने/कहने की पुस्तक प्रेमियों की चाह को बारिश की धमा चौकड़ी भी नहीं रोक पाई। 

कुछ भीगते,कुछ बचते बचाते लोग जुटने लगे और चार बजे के लिए निर्धारित कार्यक्रम में साढ़े चार बजे तक 9 मसाला रेस्त्रां का सभागार खचाखच भर गया (वैसे भी, भारतीय समय तो यही है कार्यक्रम शुरू होने का)। वैसे, सर्व गुण संपन्न पत्रकार Ahmad Rashid Khan  ने पहले ही भविष्यवाणी कर दी थी कि बेफिक्र रहिए सर, बहुत लोग आएंगे। साथ ही, मौसम वैज्ञानिक Gurudatta Mishra जी की मौजूदगी से भी हम आश्वस्त हो गए थे कि बाकी लोगों को भी आने का मौका मिलेगा।

 पहले मूल रूप से लगाई गई कुर्सियां भरी, फिर अतिरिक्त और उसके बाद व्यवस्थापकों ने हाथ खड़े कर दिए कि अब और कुर्सियां नहीं लग सकती और न ही अब कुर्सियां बची हैं। जगह की हो रही कमी को महसूस कर पहले परिजनों ने कुछ कुर्सियां छोड़ी और बाद में आकाशवाणी के साथियों ने दिल बड़ा किया ताकि मेहमान बैठ सकें। कुछ लोगों ने बाहर से रिमझिम के बीच कार्यक्रम का आनंद लिया। फिर अनुशासित प्रस्तोता और संचार विशेषज्ञ संजीव ने कमान संभाली।

 चूंकि कार्यक्रम एक घंटे में समेटना था (उस सभागार में आगे भी एक कार्यक्रम था और हमने तय भी यही किया था) इसलिए वक्ता भी सीमित रखे गए थे लेकिन पाठकों पर किसी का जोर चला है क्या…!! स्थिति यह बन गई कि मूल वक्ता पीछे छूट गए और उत्साही पाठक बोलते गए। संजीव ने समय की कमी के मद्देनजर भरपूर प्रयास किए और एडवोकेट Yogesh Verma  जैसे कुछ अपने लोगों को सादर न बोलने के लिए मना भी लिया तो Pushpendra Mishra जी जैसे वक्ताओं को समय की सीमा में बांध दिया। फिर भी, वरिष्ठ पत्रकार चंद्रहास शुक्ला,मौसम वैज्ञानिक और मेरे छात्रावासी जीवन के वरिष्ठ गुरुदत्त मिश्रा जी, जाने माने योग गुरु Devi Dayal Bharti  जी, भारतीय सूचना सेवा के साथी Ajay Upadhyay , वरिष्ठ पत्रकार शुरैई नियाजी,जनसंपर्क अधिकारी रीतेश दुबे, जाने माने कमेंट्रैटर Prashant Singh Sengar ,समाचार वाचक Dharana Sachdev और राशिद अहमद खान को अपनी बात रखने का मौका मिल ही गया।

 मनीषा जी को भी अपने मनोभाव समेटने पड़े तो मनोज भैया ने अपना संबोधन और संजीव ने अपनी पटकथा सीमित कर ली। वरिष्ठ पत्रकार Ajay Bokil , Sarman Nagele, वरिष्ठ जनसंपर्क अधिकारी Manoj Dwivedi ,भारतीय सूचना सेवा के Prashant Sharma और समीर वर्मा, मित्र @सुरेंद्र गुप्ता और Hema Gupta  जी, डा अनामिका रावत, जानी मानी पत्रकार, उद्घोषक Sanyukta Banerjee , समाजसेवी और पर्यावरणविद डा रचना डेविड सहित कई विशिष्ट जनों की मौजूदगी ने कार्यक्रम की गरिमा बढ़ा दी।

 इसके बाद शुरू हुआ अनूठा प्रश्नोत्तर सत्र। दोस्त,लेखक और संचारक संजय सक्सेना ने अपनी रोचक शैली में प्रश्नों के गोले दागे और हम भी निर्भीक सिपाही की तरह शब्दों की ढाल से उनका सामना करते गए। पुस्तक क्यों से लेकर हर पुस्तक के शीर्षक में अंकों के इस्तेमाल,हर लेख में चौपाई क्यों जैसे प्रश्नों के जरिए संजय ने ‘अयोध्या 22 जनवरी’ के लेखन के पीछे की कहानी पाठकों तक पहुंचा दी।

 तब तक 9 मसाला रेस्त्रां की टीम गरमा गरम पकौड़े और चाय लेकर हाजिर हो गई। बारिश के बीच चाय पकौड़े की भारतीय मेजबानी और मनमोहक/लज़ीज़ सुगंध भी उपस्थित लोगों के बोलने/सुनने के इरादों को डिगा नहीं सकी। दरअसल, घड़ी की सुइयां शाम के 6 बजे के आगे पहुंच गई थी इसलिए अगले आयोजन की तैयारी के मद्देनजर 9 मसाला की टीम चाहती थी कि लोग जल्दी खाएं और जाएं..पर  सभागार में मौजूद लोगों के इरादे थे कि खायेंगे जरूर पर जाएंगे पूरा सुन/देख कर ही। 

 खैर, किसी तरह बोलने सुनने का दौर थमा तो स्मृतियों को सहेजने के लिए मोबाइल के कैमरे मैदान में आ गए…अनगिनत फोटो, मौके पर खरीदी गई दर्जनों किताबों पर हस्ताक्षर का गौरव, ढेर सारी सराहना और फिर ऐसे ही किसी आयोजन में मिलने के वादे के बीच यह कार्यक्रम संपन्न हुआ। 

कार्यक्रम का सबसे महत्वपूर्ण चरण यह था कि शुरुआत में रीडर्स क्लब ने सुप्रसिद्ध साहित्यकार प्रोफेसर शरद पगारे को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की और दो मिनट का मौन रखा।

 #अयोध्या22जनवरी 

#ayodhya22january

एक सौ एक नॉट आउट…!!


सौ साल पूरे करना किसी भी प्रसारण माध्यम/संस्थान के लिए गर्व की बात है। हमारे देश में विधिवत रेडियो प्रसारण का आज 101 वां जन्मदिन है।  23 जुलाई, 1927 को इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी (IBC) अस्तित्व में आई और यहीं से रेडियो प्रसारण को सरकारी संरक्षण और प्रोत्साहन मिला. यही कारण है कि 23 जुलाई राष्ट्रीय प्रसारण दिवस के रूप में मनाया जाता है. 

वैसे निजी तौर पर रेडियो प्रसारण 1923 से शुरू हो गया था। 8 जून 1936 को इसे ऑल इंडिया रेडियो (AIR) नाम  दिया गया और 1957 में आकाशवाणी नाम अपनाकर कर यह रेडियो प्रसारण का पर्याय बन गया ।  हर साल नेशनल ब्रॉडकास्टिंग दिवस सेलिब्रेट करने का उद्देश्य रेडियो का महत्व याद दिलाना है।

 इन सौ सालों में रेडियो ने सतत रूप से जवान होते हुए कई उपलब्धियां हासिल की हैं। अब नए नवेले डिजिटल रूप में साफ आवाज़, अल्फाज़ और अंदाज़ में यह मोबाइल फोन और कार के साउंड सिस्टम के जरिए हर घर तक पहुंच रहा है और हर दिल में जगह बना रहा है। यह हर जेब का हिस्सा भी बन चुका है। 

 हाल ही में रायटर और ऑक्सफोर्ड जैसे नामचीन संस्थानों के सर्वे में आकाशवाणी और आकाशवाणी से प्रसारित समाचारों को देश भर के सभी मीडिया में सबसे विश्वसनीय माना गया है। 

तकनीकी के साथ कदम से कदम मिलाते हुए आकाशवाणी की सेवाएं अब रेडियो से भी आगे मोबाइल ऐप newsonair पर लाइव उपलब्ध हैं और आप दुनियाभर में कहीं से भी एक टच पर भोपाल से लेकर देश के किसी भी रेडियो स्टेशन का प्रसारण सुन सकते हैं।   

इसके अलावा,हमारे समाचार बुलेटिन और समसामयिक कार्यक्रम यूट्यूब, एक्स और फेसबुक पर भी उपलब्ध हैं जिन्हें आप अपनी सुविधा से कभी भी और कहीं भी सुन सकते हैं। इसलिए,सबसे विश्वसनीय/सटीक/सहज और सहयोगी माध्यम के हमारे जीवन से जुड़ने-ज़िंदगी का हिस्सा बनने और तमाम उतार चढ़ाव के बाद भी निरंतर सहभागी के रूप में कायम रहने की बधाई। रेडियो इसी तरह फले फूले… सभी रेडियो प्रेमियों को बधाई-शुभकामनाएं🙏

क्या रेडियो डाइंग मीडियम है?


रेडियो डाइंग मीडियम है? रेडियो कौन सुनता है? आकाशवाणी में कैरियर की क्या संभावनाएं हैं? रेडियो प्रसारण कितने प्रकार के हैं?आकाशवाणी के समाचारों की कॉपी कैसे लिखी जाती है? यह अख़बार की न्यूज से कितनी अलग है? जैसे तमाम सवालों के साथ #lnctbhopal के ‘स्कूल ऑफ़ जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन’ के विद्यार्थियों की टीम तैयार थी…अवसर था-#राष्ट्रीयप्रसारणदिवस पर ‘बदलते वक्त के साथ बदलता रेडियो’ विषय पर संवाद का।  

सोशल मीडिया, पॉडकास्ट और इससे आगे बढ़ चुकी नई पीढ़ी के साथ सौ साल पुराने मीडियम की बात करना और उन्हें बातचीत में रुचि के साथ जोड़े रखना आसान नहीं है लेकिन #LNCT के सुलझे हुए गुरुओं Anu Shrivastava जी, @ManishkantJain और अन्य सहयोगियों की विद्वान टीम तथा अनुशासित विद्यार्थियों ने इस संवाद को आसान बना दिया और चर्चा संपन्न होने के बाद अधिकतर विद्यार्थियों की व्यक्त/अनकही प्रतिक्रिया यही थी कि- रेडियो और खासकर #आकाशवाणी में इतना कुछ है,हमें पता ही नहीं था।  

कुछ विदेशी विद्यार्थियों को भी भारत के लोक प्रसारक के बारे में बताने का मौका मिला। उम्मीद ही नहीं पूरा विश्वास है कि इस संवाद सत्र के बाद विद्यार्थियों की यह गलतफहमी दूर हो गई होगी कि रेडियो डाइंग मीडियम है और वे यह बात भी समझ सके होंगे कि रेडियो वक्त के साथ बदलता माध्यम है और भविष्य की संभावनाओं से भरपूर भी…कुल मिलाकर, एक अच्छा दिन,मजेदार संवाद और सिखाने से ज्यादा सीखने वाला भी।

बूंदों,बादलों,पानी और हरियाली का मेला!!

नीचे लबालब पानी,ऊपर शरारती बूंदें और चारों ओर मानसून में नहाकर चमकदार हरे रंग में रंगे वृक्षों से भरा घना जंगल। हम किसी अबूझ द्वीप या विदेश की किसी सिनेमाई लोकेशन की बात नहीं कर रहे बल्कि अपने शहर भोपाल के इर्द गिर्द बसे कई प्राकृतिक श्वसन तंत्रों में से एक कोलार डैम की बात कर रहे हैं। इन दिनों यहां प्रकृति की नैसर्गिक सुंदरता कई गुना बढ़ गई है।  

चेहरे के साथ अठखेलियां करती कभी नन्हीं तो कभी बादलों से तर माल उड़ाकर आईं मोटी बूंदे, कभी भिगोकर तो कभी छींटें मारकर हमारे आसपास अपनी मौजूदगी का सतत अहसास कराती रहती हैं। वहीं, काले, घने, मचलते बादल एक छोर से दूसरे छोर तक रेस लगाते से नज़र आते हैं। ऐसा लगता है अभी टूटकर बरस पड़ेंगे और आपके पास छाते में छिपकर कार में घुसने के अलावा कोई और विकल्प नहीं रहेगा..लेकिन जैसे ही आप डरकर भागते हैं,ये नटखट और बदमाश बादल खिलखिलाते हुए कोलार बांध को दूर से निहारने के लिए कहीं ओर टहलने निकल जाते हैं। 

आप, बादलों और बूंदों के खेल में ठीक से शामिल भी नहीं हो पाते हो कि नीचे कोलाहल करती विशाल जलराशि अपनी ओर ध्यान खींचने का पुरजोर प्रयास करती दिखती है। अथाए पानी, दूर दूर तक बस पानी ही पानी…जैसे समंदर हो। बड़े तालाब का तो फिर भी ओर-छोर दिखता है परंतु कोलार डैम में बस पानी ही पानी दिखता है। यहां पानी ने पेड़ों के समूह को खास गोलाकार अंदाज में अपनी बांहों में समेट रखा है जैसे थोड़ी-थोड़ी दूर पर पानी के गमलों में किसी ने पेड़ लगा दिए हों। 

वैसे तो रहीम कह गए हैं कि ‘बिन पानी सब सून..’, लेकिन यहां पानी से भी आकर्षक है चटक हरियाली,आंखों को लुभाती, मोबाइल के कैमरों पर कब्ज़ा जमाती और हर फोटो के लिए खूबसूरत बैकग्राउंड बनाती हरियाली। आप चाहकर भी अपने आपको रोक नहीं सकते और जब पेड़ों,पानी, बादल,बूंदों (छुट्टी के दिनों में डीजल पेट्रोल भी) की मिली-जुली महक आपकी सांसों से होती हुई फेफड़ों में पहुंचती है तो वे भी फूलकर 56 इंच के होना चाहते हैं ताकि कुछ हफ्ते या महीने की शुद्ध हवा को जमा कर सकें। 

कोलार रोड पर बैरागढ़ चीचली के बाद कालापानी जैसे अंतिम गांव को पार करते ही आप प्रकृति की इस लीला के साक्षी बनने लगते हैं। सड़क के दोनों ओर से ताका झांकी करते कई प्रजातियों के पेड़ आपके साथ साथ चलते हैं। रास्ते में,लाल कोयले पर सिंकते पीले भुट्टो की खुशबू से यदि आप मदहोश नहीं हुए तो अपने समय पर कोलार डैम पहुंच जायेंगे और भुट्टों ने मोहपाश में बांध लिया तो कुछ देर बाद।  

हरियाली और जंगल का आलम यह है कि ऊंचाई से दिखते सड़क के कुछ टुकड़े अपने अस्तित्व के लिए लड़ते दिखते हैं। यदि आप भदभदा के गेट के दीदार और यहां जुटती भीड़ से ऊब चुके हैं तो आपके लिए कोलार डैम सर्वोत्तम विकल्प है। इसी तरह, यदि कलियासोत पर बाघ की मौजूदगी डराती है और केरवा की सड़क पर लगता जाम परेशान करता है तो जनाब,परिवार के साथ कोलार डैम का रुख करिए…यहां आपको फिलहाल प्रकृति की गोद में बैठ कर सुकून ही मिलेगा। 

अंत में एक सुझाव भी: कोलार या कहीं भी प्रकृति से साक्षात्कार करने जाएं तो अपनी कार दूर खड़ी कर पैदल ही घूमे।तभी आप इतना कुछ महसूस कर पाएंगे।

समोसे-कचौरी पर क्यों मेहरबान हैं ‘सरकार’

आप इन दिनों किसी भी सरकारी या गैर सरकारी आयोजन में जाइए, वहां खाने-पीने के नाम पर जो पैकेट दिए जाते हैं या फिर जो सामग्री परोसी जाती है उसमें समोसे, कचौरी, हॉट डॉग, बर्गर और गुलाब जामुन होना सामान्य बात है। वहीं, सामान्य ट्रेन तो छोड़िए वंदे भारत, शताब्दी और राजधानी जैसी प्रीमियम ट्रेनों में भी ब्रेकफास्ट से लेकर खाने तक के मैन्यू में समोसा, कचौरी, आइसक्रीम और गुलाब जामुन मिलना आम है। समोसा कचौरी और आइसक्रीम तो ट्रेन के खानपान का सबसे अनिवार्य हिस्सा है। कोई भी मौसम हो आपको भोजन के साथ दिन हो या रात आइसक्रीम जरूर दी जाएगी। हाल ही में मुझे विज्ञान के आईआईटी-आईआईएम स्तर के एक संस्थान के कार्यक्रम में शामिल होने का मौका मिला। वहां भी अतिथियों से लेकर विद्यार्थियों तक को खाने के नाम पर समोसा, कचौरी, हॉट डॉग और पेटिस जैसी सामग्री परोसी गई । हर सरकारी और प्राइवेट सेक्टर की कैंटीन में समोसा-कचौरी का सबसे अहम स्थान पर बैठकर इठलाना आम बात है। समोसा और कचौरी ही क्यों, गोलगप्पे, चाट, जलेबी, पकोड़े, सैंडविच, केक, ब्रेड, ब्रेड पकौड़े, मोमोज, चाउमिन, पराठे, कटलेट, फ्रेंच फ्राइज़ जैसी तमाम स्वादिष्ट और जीभ ललचाने वाली और जंक फूड परिवार का अभिन्न अंग सामग्रियां हर छोटे बड़े शहर और दफ्तर का अनिवार्य हिस्सा हैं। ये सभी सामग्रियां स्वाद से भरपूर हैं और निश्चित ही यह लेख पढ़ते वक्त आपके मुंह में भी पानी आ रहा होगा लेकिन क्या आप जानते हैं कि तेल, नमक, चीनी और फैट से भरपूर यह खान-पान हमारी सेहत को कितना नुकसान पहुंचा रहा है? सोचिए, जिस देश में मधुमेह से पीड़ित लोगों की संख्या करोड़ों में हो और उतनी ही संख्या में लोग बीपी यानी उच्च रक्तचाप से पीड़ित हो वहां ट्रेन से लेकर शैक्षणिक संस्थानों तक और सरकारी आयोजनों से लेकर गैर सरकारी पार्टियों तक में खुलकर जंक फूड परोसा जाता है। हम सब जानते हैं कि जंक फूड का मतलब ऐसे खाने से है जो स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक है। फिर भी न तो इस बात की फिक्र आयोजकों को है और न ही आम तौर पर खाने वालों को। बाजार में तो जंक फूड की दुकानें सजी हुई है। रेहड़ी पटरी से लेकर लक दक मॉल में बड़े बड़े ब्रांड के खान-पान सेंटर तक में इनकी भरमार है। रही सही कसर, पिज़्ज़ा-बर्गर और इसी तरह के अन्य विदेशी खान-पान ने पूरी कर दी है। परिवार के परिवार बिना अपनी सेहत की चिंता किए आए दिन जंक फूड की पार्टियां कर रहे हैं । बाजार का तो समझ में आता है क्योंकि वह मुनाफे के लिए ही काम करता है लेकिन आम लोगों और खासकर शैक्षणिक और सरकारी संस्थाओं का क्या? उन्हें तो कम से कम इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने खान-पान के जरिए आदर्श स्थापित करें। एक और सरकार मोटे अनाज को भगवान का प्रसाद यानी श्रीअन्न कहकर बढ़ावा दे रही है, वहीं उसके ही मातहत संस्थान दिन रात जंक फूड खिलाकर आम लोगों को बीमार बनाने का काम कर रहे हैं।


इंटरनेशनल डायबिटीज फेडरेशन की रिपोर्ट के अनुसार 20 से 79 साल की उम्र के 463 मिलियन लोग डायबिटीज की बीमारी से ग्रसित हैं। यह इस आयु वर्ग में दुनिया की 9.3 फीसदी आबादी है। रिपोर्ट कहती है कि चीन, भारत और अमेरिका में सबसे अधिक डायबिटीज के वयस्क मरीज हैं।


2021 के अध्ययन के अनुसार, भारत में 10 करोड़ से ज्यादा लोग मधुमेह से ग्रसित हैं और इतने ही  प्री-डायबिटीज थे, जबकि 31 करोड़ से ज्यादा लोगों को उच्च रक्तचाप था। इसके अलावा, 25 करोड़ से ज्यादा लोग मोटापे का शिकार हैं। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) द्वारा 2017 में जारी अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार, अनुमान है कि भारत में गैर संचारी रोग के कारण होने वाली मौतों का अनुपात 1990 में 37.9 प्रतिशत से बढ़कर 2016 में 61.8 प्रतिशत हो गया है । भारत में मधुमेह और इसके दुष्प्रभावों की वजह से दस करोड़ से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है । जबकि इंटरनेशनल डायबिटीज फेडरेशन की रिपोर्ट कहती है कि 20-79 आयु वर्ग को होने वाली डायबिटीज के मामले में भारत दूसरे नंबर पर है। 


जिस देश में जीवन शैली से जुड़ी बीमारियों की स्थिति इतनी भयानक हो और हम फिर भी शौक से हर शादी/पार्टी में जंक फूड ठूंस ठूंस कर खा रहे हैं तो हमारा भविष्य क्या और कैसा होगा,इसका सहज अंदाजा लगा सकते हैं। 2019 में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया है कि खराब आहार से वैश्विक स्तर पर तंबाकू की तुलना में ज्‍यादा लोगों की मौत होती है। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में वयस्‍क किसी न किसी रूप में अस्‍वस्‍थ खा रहे हैं, जिससे कुपोषण जैसी समस्‍याएं बढ़ती जा रही हैं। हमारे आहार में जंक फूड का दायरा इतना बढ़ चुका है कि भारत में 25 प्रतिशत से ज्‍यादा वयस्‍क सप्ताह में एक बार भी हरी पत्तेदार सब्जियों का सेवन नहीं करते। नतीजा वे बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं। 


जंक फूड में मैदा और आलू से भी ज्यादा हानिकारक तेल होता है। वही तेल, जिसमें डूबते उतराते समोसे-कचौरी और ब्रेड पकौड़े देखकर हमारी लार टपकने लगती  है। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया) के अनुसार एक बार खाद्य तेल के प्रयोग के बाद दोबारा उपयोग करने से कैंसर जैसी बीमारी का खतरा रहता है। तेल को बार-बार गर्म करने से धीरे-धीरे फ्री रेडिकल्स बनने से एंटी आक्सीडेंट की मात्रा खत्म होने लगती है। इसमें खतरनाक कीटाणु जन्म लेने लगते हैं, जो खाने के साथ चिपक कर हमारी सेहत को नुकसान पहुंचाते हैं। इससे बॉडी में कोलेस्ट्रॉल की मात्रा भी तेजी से बढ़ जाती है। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण की गाइडलाइन के अनुसार खाद्य तेल को तीन बार से ज्यादा इस्तेमाल नहीं करना चाहिए । लेकिन घर से लेकर बाजार तक एक ही तेल का बार बार इस्तेमाल सामान्य बात है और मजे की बात यह है कि नियम जो भी हों परंतु तेल के बार बार उपयोग पर किसी को आपत्ति नहीं है।


भारत में जंक फूड के उत्पादन और 22सेबिक्री को नियंत्रित करने वाले कोई विशेष कानून नहीं हैं। देश में खाद्य उत्पादों की सुरक्षा और गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण ही जिम्मेदार है। हालांकि, जंक फूड से संबंधित नियम इसके उपभोग से संबंधित बढ़ती चिंताओं को दूर करने के लिए पर्याप्त व्यापक नहीं है। प्राधिकरण ने उच्च वसा, नमक और चीनी वाले खाद्य पदार्थों की बिक्री और विपणन के लिए दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इन दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि ऐसे खाद्य पदार्थों को स्कूलों के 50 मीटर के भीतर बेचा या विज्ञापित नहीं किया जा सकता है, और इन खाद्य पदार्थों के विज्ञापन टेलीविजन पर बच्चों के कार्यक्रमों के दौरान प्रसारित नहीं किए जा सकते हैं। हालाँकि, ये दिशा-निर्देश स्वैच्छिक हैं, और इनका पालन न करने पर कोई दंड नहीं है। इसलिए सबसे जरूरी है कि जंक फूड को स्वाद के साथ सेहतमंद बनाने के लिए कुछ अनिवार्य कानूनी पहल होनी चाहिए मसलन कुछ देशों में शुरुआत हुई है जैसे कोलंबिया में ऐसे खाद्य पदार्थों पर टैक्स की दर बढ़ा दी गई है। द गार्जियन की रिपोर्ट के अनुसार, प्रभावित खाद्य पदार्थों पर अतिरिक्त टैक्‍स 10 फीसदी से शुरू होगा, जो अगले साल बढ़कर 15 प्रतिशत हो जाएगा और 2025 में 20 प्रतिशत तक पहुंच जाएगा। हेल्थ पॉलिसी वॉच वेबसाइट की रिपोर्ट के अनुसार, टैक्‍स के दायरे में ऐसे सभी अल्ट्रा-प्रोसेस्‍ड फूड शामिल किए गए हैं, जिनमें ज्‍यादा चीनी, नमक और सैचुरेटेड फैट , सॉसेज, अनाज, जेली और जैम, प्यूरी, सॉस और मसाला शामिल हैं। मैक्सिको जैसे कुछ अन्य देशों में भी कदम उठाए गए हैं लेकिन हम नियमों और जागरूकता के अभाव में अपने पेट को बीमारियों की गोदाम और देश को बीमारियों का गढ़ बना रहे हैं।


 क्या हम खानपान में कुछ अभिनव प्रयास नहीं कर सकते!! खासतौर पर ट्रेन, स्कूल कालेज की कैंटीन,सरकारी दफ्तरों की कैंटीन और सरकारी आयोजनों में मोटे अनाज से बने सेहतमंद खाद्य पदार्थ ही उपलब्ध हों, ट्रेन में शाकाहारी/मांसाहारी खाने की चॉइस के साथ साथ मधुमेह और उच्च रक्तचाप वाले लोगों के लिए अलग खाना परोसा जाए और समोसे कचौरी या आइसक्रीम को सरकारी मैन्यू से पूरीतरह बाहर कर दिया जाए। मैदे के बिस्किट और कुकीज़ को आटे या श्रीअन्न से बनाया जाए और ट्रेन/कैंटीन में पोहा,उपमा, इडली सांभर, बाजरे की खिचड़ी, चीला जैसे लज़ीज़ और सेहतमंद खानपान को शामिल किया जाए। पहले ही हम बहुत देर कर चुके हैं,यदि अभी भी जरूरी कदम नहीं उठाए गए तो हमारे साथ साथ नई पीढ़ी भी बीमार बनती जाएगी और आने वाले सालों में हमारा युवा ‘डिविडेंड’ के स्थान पर देश के लिए बोझ बन जाएगा।


हिंदी के हत्यारे…आप/हम,और कौन!!

' हिंदी के हत्यारे’…पढ़कर आप चौंक गए न और हो सकता है कुछ लोग शायद नाराज भी हो गए होंगे क्योंकि हमारी अपनी सर्वप्रिय और मीठी हिंदी भाषा क...