शनिवार, 15 जून 2024

भारतीय पराक्रम की स्वर्णिम गाथा है… ‘विजय दिवस’

सोलह दिसंबर दुनिया के इतिहास के पन्नों पर भले ही महज एक तारीख हो लेकिन भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश के इतिहास में यह तारीख कहीं स्वर्णिम तो कहीं काले हर्फो में दर्ज है। भारत में यह तारीख विजय की आभा में दमक रही है तो बांग्लादेश के लिए तो यह जन्मतिथि है । पाकिस्तान के लिए जरूर यह दिन काला अध्याय है क्योंकि इसी दिन उसका एक बड़ा हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान से बांग्लादेश बन गया था। वैसे भी,पाकिस्तान के लिए यह दिन किसी बुरे सपने से कम नहीं था क्योंकि उसकी हजारों सैनिकों को सर झुकाकर भारत की सरपरस्ती में इतिहास की सबसे बड़ी पराजय स्वीकार करनी पड़ी थी। 

इतिहास के पन्नों में दर्ज निर्णायक तारीख जरूर 16 दिसंबर 1971 है, लेकिन पाकिस्तान की कारगुजारियों ने उसकी नींव कई साल पहले डाल दी थी । जब उसकी सेना के अत्याचारों से कराह रहे पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने मदद के लिए भारत से गुहार लगाना शुरू कर दिया था। आखिर, तत्कालीन भारत सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा और फिर भारतीय सैनिकों के शौर्य और पराक्रम का स्वर्णिम पन्ना ‘विजय दिवस’ के नाम से इतिहास में दर्ज हो गया ।

16 दिसंबर 1971 को ढाका में पाकिस्तान की ओर से पूर्वी मोर्चे पर कमान संभाल रहे लेफ्टिनेंट जनरल अमीर अब्दुल्ला खान नियाजी ने भारतीय सेना के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा और हजारों उत्साही लोगों की भीड़ के समक्ष आत्मसमर्पण के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए। हस्ताक्षर के बाद जनरल नियाजी ने अपनी रिवाल्वर जनरल अरोड़ा को सौंपकर पराजय स्वीकार कर ली। इस ऐतिहासिक अवसर पर बांग्लादेश सशस्त्र बल के डिप्टी कमांडर-इन-चीफ एयर कमोडोर ए के खांडकर और भारत की पूर्वी कमान के लेफ्टिनेंट जनरल जे एफ आर जैकब ने आत्मसमर्पण के गवाह की भूमिका निभाई जबकि पाकिस्तान की ओर से तो उसकी सेना के सर झुकाए 90 हजार सैनिक इस पराजय के साक्षी थे।

भारतीय सेनाओं के अदम्य साहस, वीरता, बलिदान और पराक्रम के लिए दुनिया के सैन्य इतिहास की इस अमिट तिथि को हर साल विजय दिवस के रूप में याद किया जाता है। इस दिन ऐतिहासिक युद्ध में जीत हासिल करने वाले भारतीय सैनिकों को देशभर में विनम्र श्रद्धांजलि दी जाती है। इन कार्यक्रमों में प्रधानमंत्री,मुख्यमंत्री सहित देश और प्रदेश की शीर्ष हस्तियां भी शामिल होती हैं। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया पर लिखा 'विजय दिवस पर, हम उन सभी बहादुर नायकों को हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं जिन्होंने 1971 में निर्णायक जीत सुनिश्चित करते हुए कर्तव्यनिष्ठा से भारत की सेवा की. उनकी वीरता और समर्पण राष्ट्र के लिए अत्यंत गौरव का स्रोत है. उनका बलिदान और अटूट भावना हमेशा लोगों के दिलों और हमारे देश के इतिहास में अंकित रहेगी. भारत उनके साहस को सलाम करता है और उनकी अदम्य भावना को याद करता है.' इस साल,रक्षा राज्य मंत्री अजय भट्ट ने नई दिल्ली में विजय दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय युद्ध स्मारक पर श्रद्धांजलि अर्पित की। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और अन्य लोगों के साथ नई दिल्ली में आर्मी हाउस में विजय दिवस की पूर्व संध्या पर 'एट होम' रिसेप्शन में शामिल हुईं।

आइए, अब एक नजर इस विजय दिवस की पृष्ठभूमि पर डालते हैं। दरअसल,भारत से बेमेल विभाजन के बाद बने पाकिस्तान में पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच कभी भी एका नहीं रहा और पश्चिमी पाकिस्तान के प्रभुत्व वाले शासकों ने बंगाली बहुल पूर्वी हिस्से को दबाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह खाई जब और चौड़ी हो गई तब 1970 के दौरान हुए आम चुनावों में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीबुर रहमान की अवामी लीग पार्टी को जबरदस्त समर्थन मिला और उसने सरकार बनाने का दावा किया, लेकिन पाकिस्तानी हुकूमत को यह बर्दाश्त नहीं हुआ कि उसकी नाफरमानी करने वाली कोई पार्टी वहां सत्ता संभाले। 

इसलिए जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व वाली पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार ने येन केन प्रकारेण इस बात के प्रयास शुरू कर दिए कि अवामी लीग को सत्ता न मिले। अपने षड्यंत्र को पूरा करने के लिए उसने सेना को भी मोर्चे पर लगा दिया। पर्याप्त जनसमर्थन के बाद भी सत्ता से दूर रखने की साजिश का अवामी लीग ने राजनीतिक स्तर पर विरोध किया और इससे पूर्वी पाकिस्तान में हालात खराब होते चले गए। लोकतंत्र की आवाज़ को दबाने के लिए पाकिस्तान सरकार ने अवामी लीग के नेता शेख मुजीबुर रहमान को गिरफ्तार कर लिया गया. इस कदम से विरोध हिंसक हो गया और पाकिस्तान के दोनों हिस्सों पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान में हालात बेकाबू होने लगे। पूर्वी पाकिस्तान में हालात बद से बदतर होने के कारण बड़ी संख्या में वहां से शरणार्थी भारत आने लगे।

भारत ने मानवीय आधार पर शरणार्थियों को हरसंभव सहायता प्रदान की। भारत की ओर से मदद देने से पाकिस्तान बौखला गया और उसने भारत को आंख दिखाते हुए हमले करने की धमकियां देना शुरू कर दिया. अपने बिगड़ते अंदरूनी हालात के कारण पाकिस्तानी शासक वास्तव में अपनी सुध बुध खो बैठे और उन्होंने परिणामों और अपने हित अहित की चिंता किए बगैर 3 दिसंबर 1971 को भारत के कई शहरों पर हमला कर दिया. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आधी रात को देश के नाम संबोधन में  पाकिस्तान की ओर से किए गए हमले की जानकारी देते हुए अपनी ओर से भी युद्ध  का ऐलान कर दिया। 

भारत-पाकिस्तान युद्ध करीब 13 दिन तक चला और 16 दिसंबर को भारत की ऐतिहासिक जीत और बंगलादेश के निर्माण के साथ समाप्त हुआ। युद्ध के समापन पर  93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सेनाओं के समकक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था। इस युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी. इस दौरान  करीब 3 हजार 900 भारतीय सैनिकों को अपना सर्वोच्च बलिदान देना पड़ा। पाकिस्तान का तो अंतर राष्ट्रीय बिरादरी के सामने न केवल सर झुका बल्कि उसे भारी नुकसान उठाना पड़ा । 

पाकिस्तान के साथ इस युद्ध में विजयश्री का वरण करने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूर्वी पाकिस्तान को एक नया राष्ट्र बनाने का एलान किया, जिससे बांग्लादेश का जन्म हुआ. इस युद्ध में भारतीय सैनिकों ने साबित कर दिया कि परम पराक्रमी होने के बाद भी भारतीय नीति के पालन करते हुए कभी भी किसी देश पर हमला नहीं करते लेकिन यदि किसी देश ने गलत इरादों और दुश्मनी की मंशा से भारत पर हमला किया तो वे मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम हैं ।

उपलब्धियों का गढ़ है डीआरडीओ

अपनी गर्जना और मारक क्षमता से दुश्मन के कलेजे में सिहरन पैदा करने वाला लड़ाकू विमान ‘तेजस’ हो या जमीन पर अपनी आवाज़ और सटीक गोलाबारी से शत्रु को नेस्तनाबूद करने वाला मुख्य युद्धक टैंक 'अर्जुन एमके-I' या फिर दुश्मन के विमानों को सूंघने में सक्षम ‘अवाक्स’ प्रणाली या शत्रु पर ताबड़तोड़ रॉकेट बरसाने वाला ‘पिनाका’....जब भी किसी नवीनतम हथियार प्रणाली या अत्याधुनिक तकनीक का जिक्र होता है तो डीआरडीओ का नाम हमेशा सबसे प्रमुखता से सामने आता है। डीआरडीओ का अर्थ है - डिफेन्स रिसर्च एंड डेवलपमेंट आर्गेनाईजेशन, इसे हम हिंदी में रक्षा अनुसंधान एवं विकास विभाग के नाम से जानते हैं। छः दशक से ज्यादा समय से भारतीय रक्षा और सुरक्षा तंत्र का मुख्य आधार डीआरडीओ ने हाल ही में अपना 66 वां स्थापना दिवस मनाया है। इन छियासठ सालों में डीआरडीओ ने अस्त्र-शस्त्रों और तकनीक के मामले में भारतीय सेनाओं को इतना दिया है कि यदि उनके केवल नामों का ही यहाँ उल्लेख किया जाए तो कई पन्ने भर जाएंगे। फिर भी कुछ अहम् संसाधनों की बात करें तो  सेना और वायु सेना के लिए पृथ्वी मिसाइल, सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल 'ब्रह्मोस', रिमोट संचालित वाहन 'निशांत', पायलट रहित लक्ष्य विमान 'लक्ष्य-I',  बख्तरबंद इंजीनियर रेकी वाहन, एनबीसी रेकी वाहन, ब्रिजिंग सिस्टम 'सर्वत्र',एकीकृत सोनार प्रणाली, हथियार का पता लगाने वाला रडार 'स्वाति, 3डी निगरानी रडार 'रेवती', नौसेना के लिए इलेक्ट्रॉनिक युद्ध प्रणाली 'संग्रह' ,इलेक्ट्रॉनिक युद्ध प्रणाली 'दिव्य दृष्टि', टॉरपीडो 'वरुणास्त्र' उल्लेखनीय नाम हैं। डीआरडीओ का खजाना उपलब्धियों से भरा हुआ है।

डीआरडीओ का गठन 1958 में भारतीय सेना के तकनीकी विकास प्रतिष्ठान और रक्षा विज्ञान संगठन के साथ तकनीकी विकास एवं उत्पादन निदेशालय को मिलाकर किया गया था। इसका उद्देश्य रक्षा प्रौद्योगिकी के मामले में एकीकृत रवैया अपनाना था। डीआरडीओ तब 10 प्रतिष्ठानों या प्रयोगशालाओं वाला एक छोटा संगठन था। वर्षों से, यह विषयों की विविधता, प्रयोगशालाओं की संख्या, उपलब्धियों और कद के मामले में एक पौधे से वट वृक्ष बन गया है। आज, डीआरडीओ के पास लगभग 41 प्रयोगशालाओं और 5 डी आर डी ओ युवा वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं का विशाल नेटवर्क है, जो भारतीय सेनाओं के जरूरी हर प्रकार की रक्षा प्रौद्योगिकियों को विकसित करने में लगे हुए हैं, इनमें वैमानिकी, आयुध, इलेक्ट्रॉनिक्स, लड़ाकू वाहन, इंजीनियरिंग सिस्टम, इंस्ट्रूमेंटेशन, मिसाइल, उन्नत कंप्यूटिंग और सिमुलेशन जैसी तम प्रणालियाँ शामिल हैं ।

सामान्य भाषा में समझे तो डीआरडीओ भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय की अनुसन्धान और विकास शाखा है, जो अत्याधुनिक रक्षा प्रौद्योगिकियों और महत्वपूर्ण रक्षा प्रौद्योगिकियों और प्रणालियों में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए काम कर रही है। इस संगठन का आदर्श वाक्य "बलस्य मूलम् विज्ञानम्" - विज्ञान ही शक्ति का स्रोत है । डीआरडीओ ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी विशेषकर सैन्य प्रौद्योगिकियों के क्षेत्र में राष्ट्र को मजबूत और आत्मनिर्भर बनाने में कोई कसार नहीं छोड़ी है ।

डीआरडीओ का मूल उद्देश्य विश्व स्तरीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी आधार की स्थापना द्वारा भारत को समृद्ध बनाना और उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धी प्रणालियों और समाधान से सुसज्जित कर हमारी रक्षा सेवा को निर्णायक बढ़त प्रदान करना है । यदि हम इसके ध्येय की बात करें तो इसमें हमारी सुरक्षा सेवाओं के लिए अत्याधुनिक सेंसर, आयुद्ध प्रणाली, प्लेटफॉर्म और संबद्ध उपकरण के उत्पादन का डिजाइन विकास और नेतृत्व करना, युद्ध  के प्रभाव का मुकाबला करने के लिए सेनाओं को प्रौद्योगिकी समाधान प्रदान करना और सैन्य दल के कल्याण को बढ़ावा देना तथा बुनियादी सुविधाओं और प्रतिबद्ध योग्य जनशक्ति का विकास करना तथा मजबूत स्वदेशी प्रौद्योगिकी आधार का निर्माण करना है ।

रक्षा अनुसंधान एवं विकास विभाग के 66 वें स्थापना दिवस पर सचिव एवं  डीआरडीओ के अध्यक्ष डॉ. समीर वी. कामत ने डीआरडीओ की विभिन्न उपलब्धियों पर प्रकाश डाला । उन्होंने इस बात पर प्रसन्नता व्यक्त की कि इस वर्ष 1 लाख 42 हजार करोड़ रुपये से अधिक मूल्य की डीआरडीओ की कई विकसित प्रणालियों को शामिल करने हेतु आवश्यकता की स्वीकृति भी प्रदान की गई है। यह किसी भी वर्ष में डीआरडीओ द्वारा विकसित प्रणालियों के लिए दी गई अब तक की सबसे अधिक राशि है। यह रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भरता का एक महत्वपूर्ण घटक है।

गौरतलब है कि डीआरडीओ ने इस साल 141 से अधिक पेटेंट दाखिल किए और 212 पेटेंट प्रदान किये हैं और उम्मीद है कि आने वाले वर्षों में यह संख्या उल्लेखनीय रूप से बढ़ेगी। डीआरडीओ द्वारा 2019 में शुरू की गई पांच युवा वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं ने भी अब प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया है । खास बात यह है कि अब डीआरडीओ की परीक्षण सुविधाएं उद्योग जगत के उपयोग के लिए खोल दी गई हैं। इसी तरह, अब तक डीआरडीओ द्वारा विकसित 1650 टीओटी भारतीय उद्योगों को सौंपे जा चुके हैं। वर्ष 2023 के दौरान, डीआरडीओ उत्पादों के लिए भारतीय उद्योगों के साथ 109 प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के लिए लाइसेंसिंग समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए। कुल मिलकर हम कह सकते हैं कि भारतीय सेनाओं और रक्षा तंत्र की रीढ़ यह संस्थान आत्मनिर्भरता के जरिये देश की बहुमूल्य राशि तो बचा ही रहा है साथ ही अन्य देशों पर निर्भरता घटाकर स्वदेशी तकनीक के जरिये देश को अलग पहचान,सुरक्षा और विदेशी मुद्रा दिलाने में भी अहम् भूमिका निभा रहा है।

तो,क्या रेणु-प्रेमचंद आएंगे पुस्तक का प्रचार करने

 

जिन्होंने जीवन में एक किताब भी न लिखी-पढ़ी है, वे भी आपको ज्ञान देते नज़र आएंगे कि यार ज्यादा पब्लिसिटी मत करो,जिसे पढ़ना होगा खुद ढूंढकर पढ़ लेगा,किताब है उत्पाद नहीं…टाइप ज्ञान की चौतरफ़ा भरमार दिखेगी। अरे भैया, हम क्या फणीश्वर नाथ रेणु हैं या मुंशी प्रेमचंद, की लोग अपने आप तलाशकर पढ़ लेंगे। कोई भी किताब अपनी विषय वस्तु,भाषा और कथन शैली से गबन, गोदान, राग दरबारी या मैला आंचल बनती है लेकिन यह तो तब पता चलेगा जब पाठकों तक वह किताब पहुंचेगी और उन पाठकों तक किताब पहुंचाने के लिए प्रचार तो जरूरी है वरना जंगल में मोर नाचा किसने देखा इसलिए मेरी किताब ‘अयोध्या 22 जनवरी’ पढ़ो या पुस्तक ‘चार देश चालीस कहानियां’ खरीदो…कहने/पोस्ट करने/मार्केटिंग/सोशल मीडिया पर शेयर करने में क्या बुराई है?


किताब कोई अमिताभ बच्चन, रजनीकांत, शाहरुख या सलमान की फिल्म तो है नहीं कि ‘पहला दिन पहला शो’ देखने वाले टूट पड़ेंगे। वैसे भी, इन नामी गिरामी अभिनेताओं को भी अपनी फिल्म चलाने के लिए कितने धतकरम करने पड़ते हैं, हम सब जानते हैं। फिल्म की लांचिंग से लेकर रिलीज तक सैकड़ों समाचार,इंटरव्यू, चटखारेदार खबरें,फोटो…और पता नहीं क्या क्या। तब जाकर फिल्म के प्रति आकर्षण बनता है और आप बेचारे नवोदित लेखक को ज्ञान दे रहे हैं कि पब्लिसिटी मत करो..क्यों?


हम सभी को रट गया है कि ‘ठंडा मतलब कोकाकोला…’, फिर भी हर गर्मी में दिनरात रटाया जाता है और कोई ज्ञानी नहीं कहता कि भैया, अब बस करो। यही नहीं, उन्हें तो अपना उत्पाद चलाने के लिए धोनी,तेंदुलकर,ऐश्वर्या से लेकर कुत्ते बिल्ली तक का सहारा लेना पड़ता है और हम यदि अपने पाठक के साथ फोटो पोस्ट कर दें तो हायतौबा मचने लगती है। फेसबुक के तमाम मठाधीश टीका टिप्पणियां जाने लगते हैं मानो कोई धर्म विरुद्ध काम हो गया। मेरा मानना है कि पुस्तक भी एक उत्पाद है जिसे लेखक ने स्वयं के पैसे लगाकर,प्रकाशन हाउस के पैसों से या फिर किसी सरकारी संस्थान की वित्तीय मदद से तैयार किया है। लेखन से लेकर प्रकाशन तक तमाम लोगों मसलन टाइपिस्ट, डिजाइनर, मशीनमैन, तकनीशियन, ले आउट बनाने वाला, कवर बनाने वाले की मेहनत जुड़ी होती है इसलिए यदि उसका ढंग से प्रचार प्रसार नहीं हुआ तो सभी के परिश्रम पर पानी फिर जाएगा। 


मेरा प्रयास भी रहता है और सलाह भी यही है कि आपकी किताब आपका और सिर्फ आपका सबसे प्रिय और कीमती प्रोडक्ट है।  उसे सुधी पाठकों तक पहुंचाना प्रकाशक के साथ साथ आपका भी कर्तव्य है इसलिए भरपूर प्रचार प्रसार कीजिए, हर मंच का उपयोग कीजिए जिससे आपकी रचना स्वांत: सुखाय न रहकर पाठकों के हाथों तक पहुंचे तभी आपकी अगली पुस्तक अपने आप पाठकों के आकर्षण का केंद्र बन जाएगी और अमीश त्रिपाठी,चेतन भगत जैसा नाम बनेगा ।


हमने देखा है न कि,बाजार में सैकड़ों प्रकार के साबुन उपलब्ध हैं, फिर भी आए दिन नए नए साबुन बाजार में आ रहे हैं। उनमें से कुछ मार्केट में अपने ‘यूएसपी’ के कारण जम जाते हैं। ग्राहकों को उस उत्पाद यूएसपी का पता तभी चल पाता है जब उस साबुन/उत्पाद का प्रचार होता है। जीवनदायिनी दवाइयों तक को तो प्रचार की जरूरत पड़ती है फिर ज्ञानदायिनी पुस्तकों के प्रचार में,उनके बारे में पाठकों को बताने में और उन्हें सही हाथों तक पहुंचाने में कैसा परहेज और किस बात की शर्म।


मेरा अपना अनुभव है, जब मैंने ‘चार देश चालीस कहानियां’ लिखी तो उसका व्यवस्थित प्रचार भी किया और उसे पाठकों का भरपूर समर्थन मिला जिसे प्रकाशन समूह की भाषा में ‘बेस्टसेलर’ कहते हैं। यदि मैं,किताब प्रकाशित करवाकर घर में रखकर बैठ जाता तो कौन उसे पढ़ पाता। पहली किताब के बाद दूसरी किताब ‘अयोध्या 22 जनवरी’ के लिए तुलनात्मक कम परिश्रम करना पड़ा। चूंकि पहली पुस्तक से पाठक मेरी लेखन और कथन शैली से परिचित हो गए थे इसलिए दूसरी किताब पढ़ने के लिए उनमें से कई पाठक पुनः जुड़े…इसलिए नए लेखकों से अपील है कि बिल्कुल न झेंपे, न ही डरें…खूब प्रचार करें और पाठकों को बताएं कि किताब में क्या खास है उसकी यूएसपी क्या है..तभी वे जुड़ेंगे और तभी पढ़ेंगे और तभी आप लेखक /कवि /कथाकार /व्यंग्यकार के रूप में स्थापित होंगे।



धधकते भोपाल को चाहिए हर घर में भगीरथ..!!

शाम के साढ़े सात बज रहे हैं। आकाशवाणी भोपाल के न्यूज रूम से बाहर निकलते ही ऐसा लग रहा है जैसे किसी भट्टी के पास से गुजर रहे हैं। शाम ढलते ही सूरज को भले ही रात के अंधेरे ने अपने आगोश में समेट लिया पर उसके तेवर झेलना न तो अंधेरे के वश में है और न ही आम लोगों के। ताल तलैयों का शहर भोपाल इन दिनों धधक रहा है। अपनी हरियाली पर इतराने वाला भोपाल अब गर्मी से लाल हो रहा है और यहां रहने वालों का हाल बेहाल।


हरियाली और स्वच्छता की राजधानी में तापमान 44 डिग्री सेल्सियस को भी पार कर गया है। न्यूनतम तापमान भी 31 डिग्री सेल्सियस से नीचे नहीं सरक रहा है। अब, जब रात का सबसे कम तापमान ही 31 डिग्री सेल्सियस हो तो पंखे आग उगलेंगे ही और फाइबर के कूलरों का लड़खड़ाना लाज़िमी है। जंबो और घर के बाहर की गरम हवा को ठंडा कर अंदर भेजने वाले फौलादी कूलर खुद पानी मांग रहें हैं। कूलर का क्या कहें, पुराने एसी ही गर्मी से हांफने लगे हैं और नए रंग-बिरंगे विज्ञापनी एसियों (ACs) को भी अपनी औकात समझ में आ गई है।


सड़कों पर बेवजह चहलकदमी करती छोटी कारें सांझ ढलने का इंतज़ार करती हैं तो दिनभर सड़कों पर हुंदराने वाले बाइक और स्कूटी सवार घरों में दुबक गए हैं। लू के थपेड़ों ने घर से बाहर निकलना मुश्किल कर दिया है। सूर्योदय के बाद मॉर्निंग वॉक करने वालों की सुबह 5 बजे होने लगी है क्योंकि इसके बाद वॉक मॉर्निंग नहीं टार्चर वॉक हो जाती है। ऐसा लग रहा है मानो दुश्मन देश की सेना आग के गोले बरसा रही है। ठंडा पानी प्यास बुझाने की बजाए पेट भरने का काम ज्यादा कर रहा है।


कभी अपने खुशनुमा तेवर,मौसम और लोगों के लिए मशहूर भोपाल ‘सिटी ऑफ लेक’ से बदलकर ‘सिटी ऑफ हीट’ बन रहा है। शहर को स्मार्ट बनाने की खातिर भेंट चढ़ गए हजारों छायादार वृक्षों की आशीष भरी ठंडक पहले ही छिन गई है और अब हर साल सैंकड़ों नए लोगों को बसाने के नाम पर लाक्षागृह के साथ साथ कांक्रीट के जंगल बोकर अपनी तिजौरियां भर रहे लोगों को न शहर के बाशिंदों की परवाह है और न ही हीटर बनते इस खूबसूरत शहर के भविष्य की। 


अभी भी वक्त है क्योंकि अभी नहीं चेते तो भोपाल के जयपुर, हैदराबाद और दिल्ली बनते देर नहीं लगेगी। कुछ कदम तो अनिवार्य रूप से उठाने की जरुरत है मसलन पेड़ काटने की मनमानी खत्म हो और बिना रेन वॉटर हार्वेस्टिंग/वर्षा जल संग्रहण की सुविधा के किसी को भी घर बनाने की मंजूरी नहीं दी जाए। आवासीय कालोनियों और सड़कों के किनारे चंपा, गुलमोहर और यूकेलिप्टस जैसे रूपवान तथा सजावटी पेड़ों के स्थान पर नीम, आम जामुन,पीपल, वट जैसे धीर-गंभीर,छायादार और फलदार वृक्ष लगाएं जाएं। बिना पार्किंग व्यवस्था के कार खरीदने पर पूरी तरह रोक लगाई जाए और घर-घर बिजली बनाने के लिए सौर ऊर्जा की सूर्योदय जैसी योजनाओं को खूब प्रोत्साहित किया जाए। व्यवहारिक तौर पर सोचे तो इन कामों  के लिए सरकारी नियमों के साथ साथ हमारे आपके स्तर पर भी भगीरथी प्रयासों की जरूरत है और बिना घर घर में भगीरथ तैयार किए अपने शहर को बचाना मुश्किल है। 


कुछ आप भी बताइए…कैसे अपने शहरों के प्राकृतिक गुण सहेजे जाएं? कैसे उन्हें आग का गोला बनने से रोका जाए और कैसे,आखिर कैसे गर्मी की अकड़ ठिकाने लगाई जाए…बताइए जरूर!!

अयोध्या पर देश का पहला दस्तावेज

अयोध्या 22 जनवरी, पुस्तक रामलला की प्राणप्रतिष्ठा और मंदिर निर्माण की जानकारियों को समाहित करके लाया गया संभवतः देश का प्रथम दस्तावेज है। ये सच है कि #राममंदिर का प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने जरूरत से ज्यादा कवरेज किया। लेकिन इस कवरेज में अधिकतर, जरूरत का था ही नहीं। यह पुस्तक राम मंदिर और 22 जनवरी की ऐतिहासिक घटना का विस्तारपूर्वक विवरण आपको देती है। 

इसमें दर्ज घटनाएं, जानकारियां, विवरण, उनकी पृष्ठभूमि पढ़ते पढ़ते आप रोमांचित भी होते हैं और यदा कदा आश्चर्यचकित भी। 


पुस्तक को चार भागों उल्लास, विकास, इतिहास और दृष्टि पर्व नामक चार अध्यायों में विभाजित किया गया है, जो आपके विचारों को तारतम्य देते हैं। उल्लास पर्व में अधिकतर सामग्री प्राण प्रतिष्ठा उत्सव से जुड़ी हैं, विकास पर्व में मंदिर और अयोध्या में आए बदलावों को शामिल किया गया है। इतिहास पर्व में ऐतिहासिक घटनाओं, दस्तावेजों का चित्रण साथ ही इस आयोजन पर भी प्रकाश डाला गया है। दृष्टि पर्व में विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा इस आयोजन के बारे में की गई टिप्पणियों को समावेश है।


लेखक संजीव शर्मा

एक संयमित और जिम्मेदार लेखक हैं, ये उनकी इस वर्ष ही दूसरी कृति है। वे अतिरेक से बचते हुए अपने सम्पूर्ण लेखन को प्रामाणिक बनाए रखने में सफल रहे। सुघड़ भाषा, शब्द, विन्यास पढ़ते हुए आने वाले दबाव को संतुलित करते हैं। कुल मिलाकर एक बेहतरीन श्रेणी की पुस्तक है। यह पुस्तक उनके लिए भी है, को इस आयोजन उस दौरान नहीं देख सके और वे भी जो अगले एक दो सालों में अयोध्या जाने वाले हैं। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद आप आयोजन और नई अयोध्या को एक दूसरे व्यापक नजरिए से भी देख सकेंगे। 


इसके प्रकाशक #लोक_प्रकाशन भोपाल हैं। जिन्होंने विषय को गरिमामय अंदाज से ही प्रस्तुत किया। कागज, प्रिंटिंग, कवर, फॉन्ट, लेआउट सभी कुछ शानदार है। इसके प्रमुख  Manoj Kumar  जी अपने हर पुस्तक के हर पक्ष को पूरा समय देते हैं। जिससे चीजें और भी बेहतर होती हैं। लेखन और प्रकाशक की इस जोड़ी ने वाकई कमाल किया है। उन्हें इस उपलब्धि पर बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं। पुस्तक अमेजन पर भी उपलब्ध है, प्रकाशक से भी मंगा सकते हैं। जरूर पढ़िए। 


पुस्तक समीक्षा : अयोध्या 22 जनवरी

लेखक : श्री संजीव शर्मा

प्रकाशक : लोक प्रकाशन, भोपाल

मूल्य: 300 रुपए मात्र

समीक्षक: संजीव परसाई


लेखक के बारे में: 

संजीव शर्मा आकाशवाणी भोपाल, मप्र में समाचार संपादक हैं और भारतीय सूचना सेवा के अधिकारी है। अयोध्या 22 जनवरी आपकी दूसरी पुस्तक है। इससे पहले विभिन्न देशों की यात्राओं पर केंद्रित ‘चार देश चालीस कहानियां’ पुस्तक भी काफी लोकप्रिय हुई थी। आपको माधवराव सप्रे समाचार पत्र संग्रहालय और शोध संस्थान भोपाल और जनसंपर्क सोसायटी ऑफ इंडिया मप्र सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिल चुके हैं।


समीक्षक के बारे में:

संजीव परसाई जाने माने संचार कर्मी और व्यंग्यकार हैं। आप मप्र में स्वच्छ भारत मिशन शहरी के टीम लीडर हैं और कई अभिनव पहल के लिए जाने जाते हैं।


#Ayodhya #RamMandir

रिश्तों की गुल्लक सी है- ‘डायरी का मुड़ा हुआ पन्ना’

हम सभी के जीवन में बचपन से दो चीज अनिवार्य तौर पर शामिल रही हैं- एक है गुल्लक और दूसरी डायरी। गुल्लक का काम माता-पिता और रिश्तेदारों से मिले पैसों को सहेजना था तो डायरी का काम इन सभी के साथ अपने रिश्ते के तानेबाने,सुख-दुख और जीवन में घट रही घटनाओं को सहेजना। 

वरिष्ठ पत्रकार, व्यंग्यकार और लेखक संजय सक्सेना की पुस्तक ‘डायरी का मुड़ा हुआ पन्ना’ रिश्तों की गुल्लक के समान है। जैसे-जैसे आप इसके पन्ने पलटते हैं,आपको अपने आसपास के किरदार, आपके साथ घटी घटनाएं और रिश्तों को सहजने-समेटने का प्रयास अपना सा नजर आता है और आप इसके सहज प्रवाह में बहने लगते हैं। लेखक ने भले ही यह कहा है कि उनकी किताब फेसबुक पर लिखे हुए पोस्ट का संकलन है लेकिन हकीकत यह है कि यह किताब रिश्तों का संकलन है, उनके आसपास के किरदारों का संग्रहण है और कई सारे भावनात्मक पहलुओं का सम्मिश्रण है।


‘डायरी का मुड़ा हुआ पन्ना’ पुस्तक की छोटी-छोटी कहानी हमें हंसाती भी हैं और कई बार गंभीर भी करती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हर लेखा हमें कोई न कोई सीख देकर जाता है.. चाहे फिर वह ‘हंसता हुआ नीम का पेड़ हो’, जो हमारी जीवन शैली का मजाक उड़ाता नजर आता है  या फिर ‘काम से लौट कर भी काम पर लौटती है’ लेख में घर में मां, पत्नी, बहन और बेटी की भूमिका। ‘चौपाल…’ जहां दोस्तों की महफिल सजाती है तो ‘कौन सा मेंढक न है’ लेख जीवन की कुछ और हकीकतों से रूबरू कराता है।


 ‘डायरी का मुड़ा हुआ पन्ना’ हमें मालवा निमाड़ की सौंधी खुशबू से जोड़ती है तो साथ ही आदिवासी संस्कृति की झलक भी पेश करती है। ‘भगोरिया’ और ‘गलचूल’ पर्वों पर केंद्रित लेख जहां हमें आदिवासियों की सहज संस्कृति से जोड़ देते हैं तो ‘नमकीन सत्तू’, ‘लंगोटिया यारी का जमघट’, ‘अटल जी का एकाकीपन’ और ‘आसान नहीं है बशीर भद्र हो जाना’... जैसे लेख समाज के आदर्शों ,उसूलों और  जीवन से जुड़ी घटनाओं से हमें जोड़ते हैं। 


सहज, सरल और आम बोलचाल की भाषा में लिखी गई है पुस्तक  डायरी का मुड़ा हुआ पन्ना वाकई रिश्तों की मजबूत गुल्लक की तरह है जिसे हर घर के महत्वपूर्ण कोने में स्थान मिलना चाहिए ताकि आप अपने रिश्तों को, भावनात्मक पहलुओं को और अपने आसपास के किरदारों को उसमें सहजेते रहें जो आज नहीं तो आने वाले कुछ सालों बाद आपके जीवन के एकाकीपन में रंग भरने का काम करेंगे। लेखक ने खुद लिखा है:


‘काग़ज की ये महक...ये नशा रूठने को है,

ये आख़िरी सदी है...किताबों से इश्क़ की।’


पुस्तक का कवर बेहद खूबसूरत है और उतना ही खूबसूरत है अधिकतर लेखों में जाने-माने शायरों के कुछ चुनिंदा शेर । पुस्तक का प्रकाशन भोपाल के लोक प्रशासन ने किया है। यह प्रकाशन अपनी साफ सुथरी, त्रुटि रहित प्रिंटिंग,पठनीय फॉन्ट  और दर्शनीय कवर के लिए तेजी से लोकप्रिय हो रहा है। यह पुस्तक अमेजन से लेकर इंटरनेट की तमाम लोकप्रिय साइट पर मौजूद है। महज ₹200 में उपलब्ध 155 पन्नों में फैली रिश्तों की यह गुल्लक आपको और आपकी आने वाली पीढ़ी को परस्पर संबंधों के महत्व का पाठ पढाने के लिए  वाकई जरूरी है।


पुस्तक : ‘डायरी का मुड़ा हुआ पन्ना’

लेखक : श्री संजय सक्सेना

मूल्य : 200 रुपए

पृष्ठ संख्या : 155

प्रकाशन : लोक प्रकाशन








मोदी मंत्र: तनाव नहीं उत्सव है परीक्षा

परीक्षा का नाम सुनते ही शरीर में एक फुरफुरी उठना स्वाभाविक प्रक्रिया है। जरूरी नहीं है कि परीक्षा केवल बोर्ड परीक्षा हो बल्कि संघ लोक सेवा आयोग द्वारा ली जाने वाली परीक्षाओं के दौरान भी होनहार से होनहार परीक्षार्थी भी इस तनाव के दौर से गुजरते हैं। दरअसल, सालों से चले आ रहे सामाजिक दबाव, पीढ़ियों से चली आ रही पारिवारिक प्रतिस्पर्धा, अभिभावकों की अज्ञानता एवं लालसा, शिक्षकों की नाम कमाने की चाह और कोचिंग संस्कृति ने बच्चों में हमेशा सबसे अव्वल रहने की ऐसी कामना जगा दी है जिसने समय के साथ परीक्षा के तनाव को जन्म दे दिया है। साल दर साल यह तनाव हमारी आदत और विद्यार्थियों की आदत में घुलता मिलता रहा और अब यह सुस्थापित संस्कृति बन गया है।

परीक्षा और खासकर बोर्ड परीक्षाओं के दौरान आप किसी ऐसे घर में जाकर वहां का वातावरण देखें तो आप आसानी से समझ सकते हैं कि परीक्षा का तनाव कैसे और कहां से उत्पन्न होता है और फलता फूलता है। परीक्षा के दौरान घर को कुरुक्षेत्र का मैदान बना देना अभिभावकों का सामान्य स्वभाव बन गया है। यह स्थिति परीक्षा ही नहीं, परिणामों तथा उसके बाद तक बनी रहती है। किसी दौर में 60 प्रतिशत आना घर ही नहीं शहर में सम्मान की बात होती थी क्योंकि ये प्रतिशत प्रथम श्रेणी कहलाते थे और आज 60 प्रतिशत क्या 75 से 80 प्रतिशत आने पर भी अभिभावक ऐसे मायूस लगते हैं जैसे उनका बच्चा परीक्षा में फेल हो गया है। नब्बे प्रतिशत से अधिक की दौड़ ने घर घर में परीक्षा के तनाव को लोक संस्कृति का रूप दे दिया है। देश के मुखिया को यदि किसी विषय पर अवाम को लगातार संबोधित करना पड़े तो यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि वह विषय कितना गंभीर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सालाना परीक्षा पे चर्चा कार्यक्रम इसी दिशा में किया जा रहा एक उत्कृष्ट एवं सराहनीय प्रयास है। संभवतः दुनिया के किसी देश में प्रधानमंत्री ने इस तरह की अनूठी तथा अनुकरणीय पहल नहीं की है। श्री मोदी सात साल से अपने इस मुहिम को आगे बढ़ा रहे हैं और हर साल उनके इस कार्यक्रम से जुड़ने वाले विद्यार्थियों, अभिभावकों और शिक्षकों की संख्या बढ़ रही है। परीक्षा पे चर्चा कार्यक्रम 2018 में शुरू हुआ  था। इस कार्यक्रम में देश-विदेश के छात्र, शिक्षक और अभिभावक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ परीक्षाओं और स्कूली जीवन से संबंधित चिंताओं पर चर्चा करते हैं। परीक्षा पे चर्चा कार्यक्रम पहली बार साल 2018 में मनाया गया था। इस कार्यक्रम में देश-विदेश दोनों के ही छात्र, शिक्षक और अभिभावक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ परीक्षाओं और स्कूली जीवन से संबंधित चिंताओं पर चर्चा करते हैं। परीक्षा पे चर्चा 2024 के लिए 2 करोड़ से ज्यादा छात्रों, अभिभावकों और शिक्षकों ने रजिस्ट्रेशन करवाया है। केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के मुताबिक, 2.26 करोड़ छात्रों ने श्री मोदी के बहुप्रतीक्षित कार्यक्रम पीपीसी 2024 के लिए पंजीकरण करवाया। MyGov पोर्टल पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक, छात्रों के अलावा 14 लाख से ज्यादा शिक्षकों और 5 लाख अभिभावकों ने परीक्षा पे चर्चा 2024 के लिए पंजीकरण किया है. इस खास प्रोग्राम के दौरान 4 हजार लोगों ने सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बात की। इस साल परीक्षा के दौरान तनाव प्रबंधन पर चर्चा करते हुए श्री मोदी ने कहा कि ये तो नहीं कह सकते कि switch off, प्रेशर बंद, ऐसा तो नहीं कह सकते, तो हमने अपने आप को एक तो किसी भी प्रकार के प्रेशर को झेलने के लिए सामर्थ्यवान बनाना चाहिए, रोते बैठना नहीं चाहिए। मान के चलना चाहिए कि जीवन में आता रहता है, दबाव बनता रहता है। तो खुद को तैयार करना पड़ता है। वहीं, प्रतिस्पर्धा से तनाव की चिंता पर प्रधानमंत्री ने कहा कि अगर जीवन में चुनौतियां न हो, स्पर्धा न हो, तो फिर जीवन बहुत ही प्रेरणाहीन बन जाएगा, चेतनाहीन बन जाएगा, competition होनी ही चाहिए।  परंतु कभी भी हमें ईर्ष्या भाव कतई अपने मन में नहीं आने देना चाहिए। हम अपने दोस्‍तों से स्‍पर्धा और ईर्ष्या के भाव में न डूबें और मैंने तो ऐसे लोग देखे हैं कि खुद फेल हो जाएं, लेकिन अगर दोस्‍त सफल हुआ है तो मिठाई वो बांटता है। मैंने ऐसे भी दोस्‍त देखे हैं कि जो बहुत अच्‍छे नंबर से आए हैं, लेकिन दोस्‍त नहीं आया, इसलिए उसने अपने घर में पार्टी नहीं की, फेस्टिवल नहीं मनाया। परीक्षा के समय तनाव के कारण होने वाली गलतियों पर उन्होंने विस्तार से प्रकाश डालते हुए कहा कि कुछ गलतियां यानी रोजमर्रा को हम थोड़ा observe करें तो पता चलेगा। कुछ गलतियां पेरेंट्स के अति उत्साह के कारण होती हैं। कुछ गलतियां स्टूडेंट्स की अति से sincerity से होती है। मैं समझता हूं, इससे बचा जाए। जैसे मैंने देखा है कि कुछ मां बाप को लगता है कि आज एग्जाम है तो बेटे को नई पेन लाकर के दो। जरा कपड़े अच्छे पहनाकर के भेजो, तो उसका काफी समय तो उसमें एडजस्ट होने में ही निकल जाता है। शर्ट ठीक है कि नहीं है, यूनिफॉर्म ठीक पहना है कि नहीं पहना है। मां बाप से मेरा आग्रह है जो पेन रोज उपयोग करता है न वही दीजिए आप। या वहां पेन दिखाने थोड़ी जा रहा है वो, और परीक्षा के समय किसी को फुर्सत नहीं है आपका बच्चा नया पहनकर के आया, पुराना पहन के आया है। तो इस साइकी से उनको बाहर आना चाहिए। दूसरा कुछ ऐसी चीजें खिलाकर के भेजेंगे कि एग्जाम है ये खाकर जाओ, एग्जाम है ये खाकर जाओ, तो उसको और मुसीबत होती है कि उसका वो comfort नहीं है। आवश्यकता से अधिक उस दिन खाना फिर मां कहेगी कि अरे तुम्हारा तो एग्जाम सेंटर इतना दूर है। तुम रात आते-आते 7 बज जाएगा, ऐसा करो कुछ खाकर जाओ फिर कहेगी कुछ लेकर जाओ। वो resist करने लगता है नहीं, मैं नहीं ले जाऊंगा। वहीं से तनाव शुरू हो जाता है, घर से निकलने से पहले हो जाता है। तो मेरी सभी पेरेंट्स से अपेक्षा है और मेरा सुझाव है कि आप उसको अपनी मस्ती में जीने दीजिए। एग्जाम देने जा रहा है तो उत्साह उमंग के साथ चला जाए बस। जो विद्यार्थियों में लिखने,लिखकर अभ्यास करने और सोशल मीडिया टूल से तैयारी को लेकर प्रधानमंत्री सबसे ज्यादा चिंतित दिखे। उन्होंने कहा कि आजकल यह सबसे बड़ी समस्या है । उन्होंने पूछा कि आप मुझे बताइये, आप exam देने जाते हैं, मतलब आप physically क्या करते हैं। आप physically पेन हाथ में पकड़कर के लिखते हैं, यही करते है न? दिमाग अपना काम करता है लेकिन आप क्या करते हैं, लिखते हैं। आज के युग में आईपेड के कारण, कम्प्यूटर के कारण, मोबाइल के कारण मेरी लिखने की आदत धीरे-धीरे कम हो गई है। जबकि एग्जाम में लिखना होता है। इसका मतलब हुआ कि मुझे अगर एग्जाम के लिए तैयार करना है तो मुझे अपने आपको लिखने के लिए भी तैयार करना है। आजकल बहुत कम लोग हैं, जिनको लिखने की आदत है। अब इसलिए daily जितना समय आप अपने पठन पाठन में लगाते हैं स्कूल के बाद। उसका minimum 50% time, minimum 50% time आप खुद अपनी नोटबुक के अंदर कुछ न कुछ लिखेंगे। हो सके तो उस विषय पर लिखेंगे। और तीन बार चार बार खुद का लिखा हुआ पढ़ेंगे और खुद का लिखा हुआ करेक्ट करेंगे। तो आपका जो improvement होगा किसी की मदद बिना इतना बढ़िया हो जाएगा कि आपको बाद में लिखने की आदत हो जाएगी। तो कितने पेज पर लिखना, कितना लिखने में कितना समय जाता है, ये आपकी मास्टरी हो जाएगी। श्री मोदी ने विद्यार्थियों से आग्रह किया कि आपके एग्जाम में एक बड़ा चैलेंज होता है लिखना। कितना याद रहा, सही रहा, गलत रहा, सही लिखते हैं, गलत लिखते हैं तो वो तो बाद का विषय है। आप अपना ध्यान प्रैक्टिस में इस पर कीजिए। अगर ऐसी कुछ चीजों पर अगर आप ध्यान केंद्रित करेंगे, मुझे पक्का विश्वास है कि एग्जाम हॉल में बैठने के बाद जो uncomfort  या pressure फील करते हैं वो आपको लगेगा ही नहीं क्योंकि आप आदि हैं। अगर आपको तैरना आता है तो पानी में जाने से डर नहीं लगता है आपको क्योंकि आप तैरना जानते हैं। आपने किताबों में तैरना ऐसे होता है और आप सोचते हैं हां मैंने तो पढ़ा था भई हाथ पहले ऐसे करते हैं, फिर दूसरा हाथ फिर तीसरा हाथ फिर चौथा हाथ तो फिर आपको लगता है कि हां पहले हाथ पहले पैर। दिमाग से काम कर लिया, अंदर जाते ही फिर मुसीबत शुरू हो जाती है। लेकिन जिसने पानी में ही प्रैक्टिस शुरू कर दी, उसको कितना ही गहरा पानी क्यों न हो उसको भरोसा होता है मैं पार कर जाऊंगा। और इसलिए प्रैक्टिस बहुत आवश्यक है, लिखने की प्रैक्टिस बहुत आवश्यक है। और लिखना जितना ज्यादा होगा, शार्पनेस ज्यादा आएगी। आपके विचारों में भी शार्पनेस आएगी। और अपनी लिखी हुई चीज को तीन बार, चार बार पढ़कर खुद करेक्ट कीजिए। जितना ज्यादा खुद करेक्ट करोगे, आपकी उस पर ग्रिप बहुत ज्यादा आएगी। तो आपको अंदर बैठकर के कोई प्रॉबल्म नहीं होगी। दूसरा अगल-बगल में वो बड़ी स्पीड से लिख रहा है। मैं तो तीसरे question पर अड़ा हुआ हूं, वो तो सातवें पर चला गया। दिमाग इसमें मत खपाईये बाबा। वो 7 में पहुंचे, 9 में पहुंचे, करे न करे, पता नहीं वो सिनेमा की स्टोरी लिखता होगा, तुम अपने पर भरोसा करो, तुम अपने पर भरोसा करो। अगल-बगल में कौन क्या करता है छोड़ो। जितना ज्यादा अपने आप पर फोकस करोगे उतना ही ज्यादा आपका question paper पर फोकस होगा। जितना ज्यादा question paper पर फोकस होगा इतना ही आपके answer एक-एक शब्द पर हो जाएगा, और ultimately आपको परिणाम उचित मिल जाएगा । प्रधानमंत्री की पहल और नीतियों पर अमल करते हुए सीबीएसई (केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड) ने 9वीं से 12वीं कक्षा तक के विद्यार्थियों के लिए किताबें और नोट्स खोलकर परीक्षा देने की शुरुआत करने का एलान  किया है । जानकारी के अनुसार नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क (एनएफसी) की सिफारिशों के तहत ओपन बुक एग्जाम (ओबीई) को पायलट प्रोजेक्ट के रूप में इसी साल नवंबर-दिसंबर से शुरू किए जाने की संभावना है। हालांकि, ओपन बुक एग्जाम को 10वीं और 12वीं बोर्ड की परीक्षाओं में लागू नहीं किया जाएगा। उम्मीद है कि इससे  छात्रों में परीक्षा के प्रति अनावश्यक तनाव और चिंताओं में कमी आएगी। शुरुआत में पायलट प्रोजेक्ट के अंतर्गत कुछ स्कूलों में ओपन बुक एग्जाम होगा। सभी पक्षों द्वारा आकलन करने के बाद इसे देशभर में लागू किया जाएगा। दुनिया के कई प्रमुख देशों में मसलन नॉर्वे, फिनलैंड, स्वीडन और डेनमार्क के स्कूलों में, अमेरिका लॉ कॉलेज, जर्मनी के इंजीनियरिंग कोर्स, ऑस्ट्रेलिया में मेडिकल की परीक्षाएं और ब्रिटेन में इकोनॉमिक्स के ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स में परीक्षाएं ओपन बुक एग्जाम पद्धति से होती हैं। तकनीकी और गैजेट के बढ़ते इस्तेमाल पर प्रधानमंत्री ने कहा कि हमारे यहां शास्‍त्रों में भी कहा गया है और सहज जीवन में भी कहा गया है...किसी भी चीज की अति किसी का भला नहीं करती है। हर चीज, उसका एक मानदंड होना चाहिए, उसके आधार पर होता है। मैं समझता हूं कि परिवार में कुछ नियम होने चाहिए, जैसे खाना खाते समय डाइनिंग टेबल पर कोई इलेक्ट्रॉनिक गजट नहीं होगा, मतलब नहीं होगा। उन्होंने कहा कि टेक्‍नोलॉजी को बोझ नहीं मानना चाहिए, टेक्‍नोलॉजी से दूर भागना नहीं चाहिए, लेकिन उसका सही उपयोग सीखना उतना ही अनिवार्य है। अगर आप टेक्‍नोलॉजी से परिचित हैं...आपके माता-पिता को पूरी नॉलेज नहीं है...सबसे पहला आपका काम है आज मोबाइल पर क्‍या-क्‍या available है, उनसे चर्चा कीजिए...उनको एजुकेट कीजिए...और उनको विश्‍वास में लीजिए कि देखिए, मैथ में मुझे ये चीजें यहां मिलती हैं, केमिस्ट्री में मुझे ये मिलती हैं, हिस्ट्री में ये मिलती हैं, और मैं इसको देखता हूं, आप भी देखिए। तो वो भी थोड़ी रुचि लेंगे, वरना क्‍या होगा...हर बार उनको लगता होगा कि मोबाइल मतलब ये दोस्‍तों के साथ चिपका हुआ है। मोबाइल मतलब रील देख रहा है। यदि हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस पहल को देश की सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक परिस्थितियों के लिहाज से देखें तो यह स्पष्ट नजर आता है कि परीक्षा से तनाव किसी एक घर, स्कूल, शहर या राज्य  की समस्या नहीं है बल्कि राष्ट्रीय समस्या है और इसका निवारण केवल और केवल किसी विशिष्ट व्यक्ति की बातचीत से ही निकल सकता है क्योंकि उस व्यक्ति की बात विद्यार्थियों के साथ साथ अभिभावक और शिक्षक भी सुन रहे होते हैं। श्री मोदी की बात उन परिवारों तक भी पहुंचती है जिनके बच्चे परीक्षा नहीं दे रहे हैं। इससे समाज के स्तर पर बदलाव की शुरुआत होती है। यह बदलाव पीयर प्रेसर कम करता है जिसका असर अभिभावकों के माध्यम से बच्चों तक पहुंचता है। धीरे धीरे ही सही यह बदलाव अपना असर दिखाएगा और हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए तनाव रहित परीक्षा का वातावरण तैयार कर पाएंगे ताकि फिर किसी परिवार का होनहार बच्चा आत्महत्या जैसा जघन्य कदम न उठाए और किसी परिवार को अपने मासूम लाडले से दूर न होना पड़े।











भारतीय पराक्रम की स्वर्णिम गाथा है… ‘विजय दिवस’

सोलह दिसंबर दुनिया के इतिहास के पन्नों पर भले ही महज एक तारीख हो लेकिन भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश के इतिहास में यह तारीख कहीं स्वर्णिम तो ...