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अब दो जून की नहीं, डिजिटल रोटी कहिए जनाब!!

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वक्त बदल गया है और उसके साथ बदल गई है हमारी दो जून की रोटी। कभी वह गोल, मुलायम, माँ के हाथ की थी, जिसकी खुशबू से पेट के साथ-साथ तन मन भी भर जाता था। लेकिन अब तो रोटी भी स्टार्टअप हो गई है। पहले रोटी केवल रोटी थी, अब वह ग्लूटेन-फ्री, कीटो-फ्रेंडली, ऑर्गेनिक, मल्टीग्रेन, प्रोटीन-लोडेड हो गई है। बाजार में अब एक रोटी के साथ इतने टैग लगे होते हैं कि लगता है, ये खाने की चीज कम, इंस्टाग्राम की रील ज्यादा है। पहले माँ प्यार से पुचकारती थी कि रोटी खा लो, ठंडी हो जाएगी लेकिन अब रोटी खुद बताती है कि मुझे माइक्रोवेव में गरम करो, वरना मज़ा नहीं आएगा। और अब रोटी दो जून वाली नहीं रही बल्कि कीमती हो गई है। अब दो जून की रोटी कमाने के लिए अब चार पहर काम करना पड़ता है। पहले रोटी गेहूँ खेत से आए घर के गेहूं से बनती थी, अब रोटी सुपरमार्केट से आती है, और उसका दाम सुनकर लगता है जैसे रोटी गेहूँ की नहीं, सोने से बनी है । एक रोटी की कीमत में पहले पूरी थाली आ जाती थी मतलब दाल, चावल, सब्जी, और ऊपर से पापड़ अचार और सलाद फ्री। अब भरपेट रोटी ही मिल जाए तो बहुत है। अब समय खाली पेट भरने का नहीं है बल्कि हेल्थ कॉन्शस भ...

शान और सेहत की सवारी साइकिल

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आज विश्व साइकिल दिवस है। हर साल 3 जून को यह दिवस मनाया जाता है। इस दिन उद्देश्य लोगों को साइकिल चलाने के प्रति जागरुक करना है। इतना तो हम सभी जानते हैं कि नियमित तौर पर साइकिल चलाना शरीर के लिए काफी फायदेमंद है। हमने भी कैंची से लेकर सीट तक भरपूर साइकिल चलाई है। मोटापा घटाने से लेकर शरीर की तंदुरुस्ती के लिए नियमित साइकिल चलाना वरदान है। जानकर कहते हैं कि रोजाना आधा घंटा साइकिल चलाने से हृदय रोग, मोटापा, मानसिक बीमारी, मधुमेह, गठिया रोग जैसी कई गंभीर बीमारियों से बचा जा सकता है।   3 जून, 2018 के दिन पहली बार विश्व साइकिल दिवस मनाए जाने की घोषणा की गई। इसके बाद से हर साल 3 जून के दिन विश्व साइकिल दिवस मनाया जाता है। आज के समय मोटर वाहनों को बढ़ते उपयोग के कारण वातावरण में प्रदूषण काफी बढ़ रहा है। इस कारण वातावरण को प्रदूषण मुक्त रखने के लिए साइकिल का उपयोग जरूरी हो गया है।  इस साल विश्व साइकिल दिवस की थीम एक सतत भविष्य के लिए साइकिल चलाना है। तो आइए, हम भी नियमित साइकिल चलाने का प्रयास करें और साइकिल न भी चला पाएं तो कम से कम कार चलाते समय साइकिल सवार लोगों का सम्मान जरूर ...

भगवान न्यूज चैनलों को सद् बुद्धि दे!!

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इन दिनों यदि आप कोई भी न्यूज चैनल देख रहे हैं और उस पर प्रसारित खबरों से आपका बीपी न बढ़े, आपको गुस्सा न आए और आप झटके से टीवी बंद न करें..ऐसा हो ही नहीं सकता। इसके बाद आपका मन करता है उस चैनल के खिलाफ भड़ास निकालने का लेकिन या तो हम लिख नहीं पाते या शायद अभिव्यक्ति का मंच नहीं मिल पाता और वह गुस्सा मन ही मन में रह जाता है लेकिन यदि मौका मिला तो वह खुलकर बाहर भी आ जाता है।  शायद, यही कारण है कि जैसे ही वरिष्ठ पत्रकार सुधीर निगम ने सोशल मीडिया मुखपोथी पर न्यूज चैनलों के मौजूदा रवैये पर प्रतिक्रिया ज़ाहिर करते हुए लिखा कि ‘नीचता की पराकाष्ठा क्या होती है? घटियापन की इंतहा क्या होती है। जानना चाहते हैं, तो न्यूज चैनल देखिए’…तो उस पर प्रतिक्रियाओं की लाइन लग गई। ऐसा लगा जैसे तमाम पत्रकार, चिंतक, विचारक या न्यूज चैनलों के सतत् पराभव से चिंतित आम लोग ऐसी किसी कठोर और खरी खरी पोस्ट का इंतजार कर रहे थे। न्यूज चैनलों की हठधर्मिता, अमानवीयता और दुःख को बेचने की हरक़त के खिलाफ अधिकतर लोगों में नाराजगी नई बात नहीं है और खासतौर पर समाज का बौद्धिक तबका तो कथित मीडिया की नौटंकी और बेहूदगी से कुलब...

किन्नर समुदाय का रचनात्मक इंद्रधनुष है पुस्तक ‘पूर्ण इदम’ !!

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‘पूर्ण इदम’ का अर्थ है संसार की तमाम संरचनाओं की तरह यह भी पूर्ण है। ‘पूर्ण इदम: सकारात्मक किन्नर विमर्श का संचय’ नामक किताब किन्नर समुदाय पर एक अनूठा और विचारोत्तेजक संकलन है जो समुदाय की जटिल जिंदगियों, उनकी आंतरिक और बाहरी यात्रा,उनके सुख-दुख और भारतीय समाज में उनकी स्थिति को गहनता से प्रस्तुत करता है। किताब का शीर्षक उपनिषदों के दर्शन से प्रेरित है, जो किन्नर समुदाय की संपूर्णता और मानवीय गरिमा को रेखांकित करता है।  किताब में लेखों, कविताओं,नाटक, संस्मरण,कहानियों, लघुकथाएं और साक्षात्कारों का मिश्रण न केवल किन्नर समुदाय के अनुभवों को उजागर करता है, बल्कि पाठकों को उनके प्रति सहानुभूति और समझ विकसित करने के लिए प्रेरित करता है। वैसे,यदि हम किन्नर समुदाय पर उपलब्ध कुछ चर्चित पुस्तकों का उल्लेख करें तो इनमें राहुल सांकृत्यायन की ‘किन्नर देश में’, डॉ बंशीराम शर्मा की ‘किन्नर साहित्य’, प्रदीप सौरभ की ‘तीसरी ताली’ और  महेंद्र भीष्म की ‘मैं पायल हूं’ प्रमुख हैं। इसके अलावा, डॉ मधु शर्मा की ‘किन्नर की कन्या’, ए रेवंती की ‘द ट्रुथ अबाउट मी: ए हिजड़ा लाइफ स्टोरी’ और सुप्रसिद्ध लक्ष्...

हिंदी पत्रकारिता दिवस: गौरवशाली अतीत का गुणगान

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आज 30 मई को  ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ है..हमारे गौरव और गर्व का दिन। यह ‘उदन्‍त मार्त्‍तण्‍ड’ से हिंदी पत्रकारिता का परचम लहराने वाले पंडित युगल किशोर शुक्ल जैसे महारथियों और उनके बाद इस गौरवशाली विरासत और परंपरा को पीढ़ी दर पीढ़ी सहेजने/संवारने और विकसित करने वाले तमाम दिग्गज संपादकों और पत्रकारों का पुण्य स्मरण करने का दिन है। इस पवित्र पेशे की गुणवत्ता को कायम रखने वाले ‘नींव के पत्थरों’ से मौजूदा पीढ़ी को बताने का दिन है।  इसके पहले कि आप में से कोई यह टिप्पणी करें कि ‘उदन्‍त मार्त्‍तण्‍ड’ के ध्वजवाहक का नाम युगल किशोर शुक्ल नहीं बल्कि जुगल किशोर शुक्ल था तो आपकी जानकारी के लिए मैं यहां पद्मश्री से सम्मानित और अपनी तरह के इकलौते माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय और शोध संस्थान, भोपाल के संस्थापक और वरिष्ठ पत्रकार विजय दत्त श्रीधर का स्पष्टीकरण उद्धृत करना चाहूंगा। उन्होंने अपनी एक पोस्ट में बताया है कि “बांग्‍ला में ‘य’ का उच्‍चारण ‘ज’ होता है। इसलिए उन्‍हें पं. जुगल किशोर शुक्‍ल भी कहा जाता है।” मुझे भी इस अनूठे संस्थान के परामर्श मंडल का सदस्य होने का गौरव हासिल ...

तो हो जाए…एक कप अदरक इलायची वाली चाय!!

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गरमागरम चाय की चुस्की के साथ अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस की शुभकामनाएँ..हर साल आज के दिन यानि 21 मई को अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस (International Tea Day) मनाया जाता है, जो न केवल एक पेय की महिमा का उत्सव है, बल्कि इसके पीछे छिपी सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक कहानियों का भी सम्मान करता है।   चाय, जिसे भारत में "चाय" और दुनिया के कई हिस्सों में "टी" के नाम से जाना जाता है, सिर्फ एक पेय नहीं, बल्कि एक जीवनशैली, परंपरा और आत्मीयता का प्रतीक है। वैसे तो, चाय की कहानी हजारों साल पुरानी है, जो चीन से शुरू होकर विश्व के कोने-कोने तक फैली लेकिन भारत में चाय ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान लोकप्रिय हुई, और आज यह देश की आत्मा का हिस्सा है। असम, दार्जिलिंग और नीलगिरी की चाय ने विश्व स्तर पर अपनी सुगंध और स्वाद से पहचान बनाई है।   चाय सिर्फ एक पेय नहीं, बल्कि संस्कृतियों को जोड़ने का माध्यम है। भारत में सुबह की चाय परिवार के साथ बातचीत का बहाना है, तो दोस्तों के साथ "चाय पर चर्चा" विचारों का आदान-प्रदान। चाय उद्योग लाखों लोगों के लिए आजीविका का स्रोत है। भारत, चीन, श्रीलंका, और ...

सौ रुपए में मूक संवाद..!!

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सरहद पर स्थित एक कस्बे में एक व्यक्ति रोज अपने शहर के एटीएम में जाता और  मात्र ₹100 निकालकर वापस लौट आता। उसका यह सिलसिला लगभग रोज चलता रहा । उस एटीएम में तैनात गार्ड को भी आश्चर्य होता कि यह व्यक्ति रोज केवल ₹100 निकालने आता है जबकि वह चाहे तो सामान्य लोगों की तरह एक बार में अपनी जरूरत की राशि निकाल सकता है और बार-बार एटीएम आने से भी बच सकता है, लेकिन अपनी नौकरी की सीमाओं के कारण वह चुपचाप देखता रहता है और कुछ नहीं पूछता।  उस व्यक्ति के रोज आने की वजह से स्वाभाविक तौर पर उनमें नमस्कार जैसा शुरुआती संवाद भी होने लगा । जब उस व्यक्ति के एटीएम आने का यह सिलसिला एक पखवाड़े से भी ऊपर तक चलता रहता है तो गार्ड का धैर्य जवाब दे गया और उसकी जिज्ञासा हिलोरे मारने लगी । अंततः गार्ड ने एक दिन उस व्यक्ति को रोककर पूछ ही लिया  कि साहब,मैं, कई दिन से देख रहा हूं कि आप प्रतिदिन एटीएम आते हैं और केवल ₹100 निकाल कर चले जाते हैं जबकि आप चाहे तो एक ही बार में आपकी जरूरत का पैसा निकाल सकते हैं।  गार्ड के सवाल पर उस व्यक्ति ने मुस्करा कर जो जवाब दिया उससे गार्ड की आँखें भी नम हो गईं। उस व...

क्या है मध्यप्रदेश की पहचान…पोहा जलेबी या कुछ और !!

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लिट्टी चोखा कहते ही हमारे सामने बिहार की छवि उभर आती है। वही, बड़ापाव बोलते ही महाराष्ट्र याद आने लगता है। इडली-बड़ा या डोसा सुनते ही तमिलनाडु से लेकर आंध्र प्रदेश तक तस्वीर सामने आ जाती है और मोमोज सुनते ही पूर्वोत्तर की झलक मिल जाती है… लेकिन, क्या हमारे अपने प्रदेश मध्य प्रदेश का ऐसा कोई खानपान है जिसका नाम लेते ही पूरे प्रदेश की तस्वीर उभर कर सामने आ जाती हो? दरअसल, यह प्रश्न हाल ही में सामने आया जब हमारे प्रदेश की यात्रा पर आए एक परिचित ने पूछा कि जिसतरह हर राज्य के कुछ खान-पान,कपड़े, हस्तशिल्प या अन्य सामग्री वहां की पहचान है तो मध्य प्रदेश की पहचान क्या है? सवाल जरूरी भी है और मौजू भी।  आखिर, हर राज्य की अपनी एक पहचान होती है और होनी भी चाहिए।  यह पहचान उस राज्य की संस्कृति, परंपरा और मोटे तौर पर वहां के उत्पादों की झलक पेश करती है । अब कुछ लोग कह सकते हैं कि हम भी ‘दाल बाफले’ को अपने प्रदेश की पहचान के तौर पर प्रस्तुत कर सकते हैं। निश्चित तौर पर, दाल बाफले लोकप्रिय व्यंजन है लेकिन इसकी लोकप्रियता मालवा क्षेत्र में ज्यादा है जबकि बुंदेलखंड, बघेल या अन्य क्षेत्र में लोग ...

अपनों और अपनेपन का अहसास कराती है ‘आरसी अक्षरों की’

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कविता महज कुछ शब्दों को लिपिबद्ध करना या मन में आए विचारों को लयात्मक रूप देना भर नहीं है बल्कि यह समाज के प्रति जिम्मेदारी है। कविता के जरिए या कहें की साहित्य की किसी भी विद्या के जरिए रचनाकार समाज से रूबरू होने और समाज को आइना दिखाने जैसे दोनों ही काम करते हैं । कभी वह अपने लेखन से समाज को उसकी असलियत से वाकिफ  कराता है तो कभी समाज में व्याप्त रूढ़ियों को सामने लाकर बदलाव का वाहक बनने का प्रयास करता है। सत्तर के दशक में जन्मी हमारी पीढ़ी इस मामले में सौभाग्यशाली है कि उसने सामाजिक परंपराओं को भी जिया है तो सतत बदलाव की प्रक्रिया की साक्षी भी रही है। इस पीढ़ी को कंडे और चूल्हे का भान भी है तो गैस से लेकर इंडक्शन और उसके बाद तक के आविष्कारों के उपयोग का तरीका भी आता है। यही कारण है कि पेशे से हिंदी की सम्मानित शिक्षिका और कवियत्री डॉ मोना परसाई का कविता संग्रह ‘आरसी अक्षरों की’ हमें अपने और अपनेपन के इन्हीं अहसासों से जोड़ती है । यह हमें गांव, घर, चौपाल से लेकर महानगरों तक की प्रवाहमान यात्रा कराता है। ‘आरसी अक्षरों की’ सही मायने में भूत\भविष्य\वर्तमान के बीच का सेतु है। खुद लेखिक...

बिटिया की कविता मम्मी पापा के नाम..!!

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अब इसे मम्मी-पापा से एक हजार किमी से ज्यादा की दूरी कहें या फिर पत्रकार पिता और लेखक मां के संस्कार का असर...बिटिया,पहले ब्लॉगर बनी और अब उसने लिखी पहली कविता (काव्य अभिव्यक्ति  या आधुनिक कविता कहना ज्यादा उचित है)...हो सकता है कविता की कसौटी पर यह कच्ची हो लेकिन भावनाओं के लिहाज से पूरी पक्की है । कविता के शब्द जहां आत्मविश्वास का अहसास कराते हैं, वहीं दिल से आंखों की दूरी को पलभर में पाट देते हैं। हम इसे "बिटिया की कविता मम्मी-पापा के नाम" जैसा अच्छा सा शीर्षक भी दे सकते हैं...पढ़िए, तकनीकी से ज्यादा भाव से,शब्द नहीं मनोभाव से और  कुल मिलाकर ♥️ से। 'अब मैं जीना सीख गई हूं' मम्मी-पापा, आपकी ये नन्हीं सी जान अब सचमुच बड़ी हो गई है। अब जिंदगी जीना  सीख गई हूं मैं।  दुनिया न  बहुत बुरी है..!  बचपन से  यही बताते थे न...? सच कहते हो आप  ये दुनिया  सच में बहुत बुरी है,  पर मैंने भी न,  दुनिया से डील करना  सीख ही लिया है।  अब न ,अँधेरे से  डर नहीं लगता  रात को अचानक  नींद खुलने पर अब  सहम नहीं  जाती हूं ...