दिल्ली की झुलसा देने वाली गर्मी में दोपहर के तीन बजे इंदिरा गाँधी स्टेडियम के
बास्केटबाल कोर्ट में पसीने से लथपथ सातवीं कक्षा की आद्या से लेकर ग्यारहवीं के
अखिलेश तक हर एक बच्चे की आँखों में एक ही सपना नजर आता है-पहले स्कूल और फिर देश
के लिए खेलना. पैसों,प्रसिद्धि,प्रतिष्ठा और प्रभाव से भरपूर क्रिकेट के
सर्वव्यापी आतंक के बीच इन बच्चों का पैंतालीस डिग्री तापमान में घर से बाहर
निकलकर दूसरे खेलों में रूचि दिखाना देश के लिए भी उम्मीद की किरण जगाता है. बास्केटबाल
ही क्यों बच्चों के ऐसे झुण्ड सुबह सात बजे से लेकर शाम छह बजे तक
बैडमिंटन,टेनिस,फ़ुटबाल से लेकर अन्य तमाम खेलों में उत्साह के साथ तल्लीन नजर आते
हैं. न उन्हें तपते कोर्ट की चिंता है और न ही आने-जाने में होने वाली परेशानियों
की. भोपाल,इंदौर,पटना लखनऊ से लेकर अहमदाबाद तक कमोवेश यही स्थिति है.बस फर्क है
तो शायद सुविधाओं का मसलन दिल्ली में भारतीय खेल प्राधिकरण के उम्दा कोचों से लेकर
कई निजी प्रशिक्षक बच्चों में खेलने की जिज्ञासा बढ़ा रहे हैं तो दूसरे शहरों में
कम सुविधाओं और कम नामी कोच के बाद भी बच्चे जी-जान से जुटे हैं. गर्मी की
छुट्टियाँ पड़ते ही बच्चे और उनके अभिभावक भविष्य के लिए नए रास्ते खोलने में जुट
गए हैं क्योंकि गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में मार्कशीट पर दमकते अंकों भर से गुजारा
नहीं है इसलिए कुछ न कुछ तो हटकर आना ही चाहिए.
यहाँ बात प्रतिस्पर्धा की
नहीं बल्कि अन्य खेलों में बच्चों की बढ़ती दिलचस्पी की हो रही है. बच्चे न भी समझे
तो भी उनके माता-पिता तो इस बात को बखूबी जानते हैं कि उनका “सरदारा सिंह” देश के लिए कितनी भी ट्राफियां और
तमगे बटोर ले फिर भी विराट कोहली या महेंद्र सिंह धोनी की लप्पेबाजी के बराबर सुर्खियाँ
और ऐशोआराम ताउम्र नहीं जुटा पाएगा. मार्के की बात यही है कि यह सब जानने के बाद
भी उन्होंने क्रिकेट को अपना धर्म और क्रिकेटरों को अपना भगवान नहीं माना. वे अपने
बच्चों को प्रकाश पादुकोण, सानिया मिर्जा ,पीटी उषा और दीपिका कुमारी बनाकर भी खुश
हैं. खेल से लेकर सिनेमा में और लेखन से लेकर राजनीति तक में लीक से हटकर काम करने
वाला या धारा के विपरीत चलने वाला यह
विद्रोही तबका ही उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद जगाता है. यह विद्रोही प्रवृत्ति नहीं
तो क्या है कि निजी ए़वं कारपोरेट सेक्टर में मिल रही मोटी तनख्वाह के बाद भी
सैकड़ों युवा सेना में भर्ती होकर देश के लिए कुर्बान होने को तत्पर हैं या फिर
प्रबंधन की ऊँची फीस वाली शिक्षा के बाद विदेश में लाखों रुपये महीने के वेतन को
त्यागकर नवयुवक देश में ही कुछ कर दिखाने का संकल्प ले लेते हैं. वैसे भी जब लाखों-करोड़ों
रुपए के बारे-न्यारे करने वाले क्रिकेट के तथाकथित ‘भगवानों’ के
आचरण,नीयत,धनलोलुपता और समर्पण पर ही सवाल खड़े होने लगे हों और मिलीभगत से बने
फटाफट क्रिकेट की कालिख गहराने लगी हो तब यह और भी जरुरी हो जाता है कि बच्चे उन वास्तविक
खेलों से रूबरू हों जहाँ एक-एक पदक के लिए दुनिया भर के तमाम देशों के सैकड़ों दिग्गज
खिलाड़ी जान लड़ा देते हैं न की अँगुलियों पर गिने जा सकने वाले देशों के बीच होने
वाले ‘कथित’ मुकाबले में चंद चौके-छक्के लगाकर रातों रात शोहरत बटोरने वाले खेल
से. नई पीढ़ी के पसीने की गंध से क्रिकेट के पीछे आँख बन्द कर भागने वाले
प्रायोजकों और मीडिया के खबरनवीसों को भी शायद होश आए और वे भी क्रिकेट की
मृगतृष्णा से बाहर निकलकर असली खेलों और खिलाड़ियों का महत्व समझ सकें.