देश में इन
दिनों ‘राष्ट्रीय पेय’ को लेकर बहस जोरों पर है. इस चर्चा की शुरुआत योजना आयोग के
उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने की है. उन्होंने चाय को राष्ट्रीय पेय बनाने
का सुझाव दिया है. अहलुवालिया का मानना है कि देश में दशकों से भरपूर मात्रा में
चाय पी जा रही है इसलिए इसे राष्ट्रीय पेय का दर्जा दे देना चाहिए. इस बात में कोई
दो राय नहीं हो सकती कि किसी एक पेय को राष्ट्रीय पेय का दर्जा दिया जाना चाहिए.जब
देश राष्ट्रीय पशु,पक्षी,वृक्ष इत्यादि घोषित कर सकता है तो राष्ट्रीय पेय में
क्या बुराई है? यह भी देश को एक नई पहचान दे सकता है और परस्पर जोड़ने का माध्यम बन
सकता है. हां ,यह बात जरुर है कि किसी भी पेय को राष्ट्रीय पेय के सम्मानित स्थान
पर बिठाने से पहले उसे देश के एक अरब से ज्यादा लोगों की पसंद-नापसंद की कसौटियों
पर खरा उतरना जरुरी है.

चाय विरोधी इन सभी तर्कों और चाय की खूबियों से
तो इत्तेफ़ाक रख्रे हैं लेकिन वे अंग्रेजों की इस देन को अपनाने को तैयार नहीं
है.उनके मुताबिक लस्सी पंजाब से लेकर गुजरात तक लोकप्रिय है और फिर छाछ/मही/मट्ठा
के रूप में इसके सस्ते परन्तु सेहत के अनुरूप विकल्प भी मौजूद हैं. यह अनादिकाल से
हमारी दिनचर्या में शुमार है और रामायण-महाभारत जैसे पावन ग्रंथों तक में इसका
उल्लेख मिलता है.सबसे खास बात यह है कि यह हमारी संस्कृति और परंपरा से जुडी गाय
और उससे मिलने वाले उत्पादों दूध-दही-घी-मक्खन की बहुपयोगी श्रृंखला का ही हिस्सा
है. चाय और लस्सी से शुरू हुई इस बहस में अब दक्षिण भारत के घर-घर में पी जाने
वाली और दुनिया भर में अत्यधिक लोकप्रिय काफ़ी, फलों के रस, हर छोटे-बड़े शहर में
मिलने वाला गन्ने का रस और नींबू पानी से लेकर नारियल पानी जैसे तमाम घरेलू पेय भी
जुड़ते जा रहे हैं. अपनी कम कीमत,सेहत के अनुकूल और आसानी से उपलब्धता के फलस्वरूप
इन पेय पदार्थों को न तो राष्ट्रीय पेय की दौड़ से हटाया जा सकता है और न ही इनके
महत्व को कम करके आँका जा सकता है.अब चिंता इस बात की है राष्ट्रीय पेय को लेकर
छिड़ी यह बहस पहले ही भाषा और धर्म के आधार पर बंटे देश को टकराव का एक मौका और न
दे दे .