अपनों और अपनेपन का अहसास कराती है ‘आरसी अक्षरों की’

कविता महज कुछ शब्दों को लिपिबद्ध करना या मन में आए विचारों को लयात्मक रूप देना भर नहीं है बल्कि यह समाज के प्रति जिम्मेदारी है। कविता के जरिए या कहें की साहित्य की किसी भी विद्या के जरिए रचनाकार समाज से रूबरू होने और समाज को आइना दिखाने जैसे दोनों ही काम करते हैं । कभी वह अपने लेखन से समाज को उसकी असलियत से वाकिफ  कराता है तो कभी समाज में व्याप्त रूढ़ियों को सामने लाकर बदलाव का वाहक बनने का प्रयास करता है।


सत्तर के दशक में जन्मी हमारी पीढ़ी इस मामले में सौभाग्यशाली है कि उसने सामाजिक परंपराओं को भी जिया है तो सतत बदलाव की प्रक्रिया की साक्षी भी रही है। इस पीढ़ी को कंडे और चूल्हे का भान भी है तो गैस से लेकर इंडक्शन और उसके बाद तक के आविष्कारों के उपयोग का तरीका भी आता है। यही कारण है कि पेशे से हिंदी की सम्मानित शिक्षिका और कवियत्री डॉ मोना परसाई का कविता संग्रह ‘आरसी अक्षरों की’ हमें अपने और अपनेपन के इन्हीं अहसासों से जोड़ती है । यह हमें गांव, घर, चौपाल से लेकर महानगरों तक की प्रवाहमान यात्रा कराता है।


‘आरसी अक्षरों की’ सही मायने में भूत\भविष्य\वर्तमान के बीच का सेतु है। खुद लेखिका ने ‘अपनी बात’ में लिखा है कि हो सकता है कि यह कविता संग्रह दुनिया को देखने का केवल मेरा ही नजरिया भर हो या भड़ास निकालने का तरीका लेकिन समाज में आ रहे बदलाव की संवेदना तंतुओं को उभारने की एक कोशिश जरूर है। 


‘आरसी अक्षरों की’ कविता संग्रह में हम जगह-जगह डॉ मोना परसाई की इन्हीं संवेदनाओं से रूबरू होते हैं। कुल 41 कविताओं का यह गुलदस्ता अपने अंदर समाज के विभिन्न रंग और खुशबू समेटे है। यहां प्यार भी है, इंतजार भी है, बच्चे भी हैं, खुशबू  भी है, रिश्ते भी हैं, प्रेम भी है, युद्ध और यादें भी। हर कविता अपने आप में एक संपूर्ण अध्याय है जो अपनी चंद पंक्तियों में गागर में सागर की तरह बहुत कुछ कह जाती है। यदि आप लेखन में ‘बिटवीन द लाइन’ को समझने की महारत रखते हैं तो कविताएं आपके लिए 41 अध्याय से काम नहीं है। 


डॉ मोना परसाई ने अपने आसपास बिखरे आंचलिक और देशज शब्दों के जरिए कविताओं में देसीपन का छौंक लगाकर अपनापन सा ला दिया है। मसलन ‘चलो कहीं ठहरें’ कविता में वे लिखती है:  


मिट्टी के घरौंदों में

आशियाना सजाते 

चलो कहीं ठहरे 

अंतर की सीपी में 

सुख के मोती टटोले 

कई रातें गयी सोते हुए

भी जागते सपनों की धुंध में 

अनजाने अक्स तलाशते

चलो कहीं ठहरे। 


वैसे तो संग्रह की सभी कविताएं चमकते मोती की माला की तरह है लेकिन कई कविताएं ऐसी है जो हमें अंदर तक झकझोर देती हैं और सोचने पर मजबूर करती है। ‘लड़की नदी है’, कविता में वे लिखती हैं: 


बहना जानती है, बहना चाहती है 

बंधन उसका स्वभाव कभी नहीं रहा 

फिर भी बांधा है तुमने उसे

कभी नैतिकता के पहाड़ों के घेरे में

कभी उसकी अपनी 

नाजुक अनुभूतियों के पास में 

परंपराओं के ऊंचे-ऊंचे बांध बनाकर


यह कविता हमें बेटियों को बराबरी का दर्जा देने उन्हें पंख लगाकर उड़ने और खुले आसमान में अपनी मंजिल चुनने का संदेश देती है। कविता के अंत में वह समाज को चुनौती देते हुए स्पष्ट संदेश  देती हैं:


लड़की चिड़िया या तितली नहीं है।

नदी है,

वेग से भरी हुई नदी।। 


ऐसी ही एक और भावनात्मक कविता ‘इंतजार’ में भी गौरैया के बहाने वे बच्चों के इंतजार में अकेलापन काट रहे मां-बाप की भावनाओं को उजागर करते हुए लिखती हैं:


गौरैया जानती है 

उड़ना सीखने पर परिंदे 

नहीं लौटा करते घोंसलों की ओर 

पर बूढ़ी आंखें समझते हुए भी 

नहीं छोड़ती हरकारे का इंतजार 


भावनाओं के दरिया में बहाते हुए ‘यादें’ कविता में वे लिखती हैं:


बस यादें होती हैं, 

चिताओं की तपिश भी,

उन्हें नहीं जला पाती,

बल्कि वे और भी चमक उठती हैं।


डॉ मोना परसाई की भाषा में नमक भी है, गमक भी है, माटी की सोंधी खुशबू भी है और महानगरों के मॉल में व्याप्त नए दौर की सुगंध भी.. जो हमें, हमारे परिवार से भी जोड़ती है और समाज से भी। पुस्तक का सुंदर कवर और सुस्पष्ट छपाई भी प्रशंसनीय है। कुल मिलाकर यह एक पठनीय, संग्रहणीय और पहली पुस्तक होने के नाते सराहनीय भी है। यदि आप कविताओं के मुरीद हैं तो आरसी शब्दों की जरूर पढ़िए… यह आपको निश्चित ही अपनेपन का एहसास कराएगी।


पुस्तक: आरसी अक्षरों की

विधा: कविता संग्रह

रचनाकार: डॉ मोना परसाई 

पृष्ठ: 81

मूल्य: 200 रुपए

प्रकाशक: लोक प्रकाशन, भोपाल


#किताबीकीड़ा  #आरसीअक्षरोंकी 


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