शनिवार, 6 जनवरी 2024

जब गांधी जी ने पहनी ब्रिटिश सेना की वर्दी…!!

 ‘यह आश्चर्यजनक लग सकता है लेकिन सच है कि वर्ष 1899 में महात्मा गांधी ने ब्रिटिश सैन्य वर्दी पहनी थी।’ रक्षा मंत्रालय की सौ साल से प्रकाशित हो रही आधिकारिक पत्रिका ‘सैनिक समाचार’  के मुताबिक गांधी जी ने बोएर युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना की वर्दी पहनी थी। पत्रिका के हिंदी संस्करण में ‘जब गांधी ने सैनिक की वर्दी पहनी’ शीर्षक वाला यह लेख 9 अक्टूबर, 1977 को प्रकाशित हुआ था और जे पी चतुर्वेदी के इस लेख को सैनिक समाचार के प्रकाशन के सौ साल पूरे होने पर 2 जनवरी 2009 को प्रकाशित शताब्दी अंक और कॉफी-टेबल बुक में पुनः स्थान दिया गया था । रक्षा मंत्रालय द्वारा प्रकाशित की जा रही यह पत्रिका फिलहाल हिंदी और अंग्रेजी सहित तेरह भाषाओँ में नयी दिल्ली से प्रकाशित हो रही है। इस पत्रिका के पाठकों में सभी सैन्य मुख्यालय, अधिकारी, पूर्व सैनिक और दूतावास सहित तमाम अहम् संसथान शामिल हैं.


    वैसे, जनवरी माह का गाँधी जी और सैनिक समाचार दोनों के साथ करीबी रिश्ता है. इस पत्रिका का प्रकाशन देश को मिली स्वतंत्रता से काफी पहले 2 जनवरी 1909 को शुरू हुआ था. तब इसकी कमान ब्रिटिश हाथों में थी और इसका उद्देश्य अंग्रेजी साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले भारत सहित विभिन्न मोर्चो की सैन्य गतिविधियों को साझा करना था. उस दौर में भी पत्रिका को भरपूर पाठक मिलते थे और सम्पादकीय कुशलता का यह आलम था कि विश्व युद्ध के दौरान सैनिक समाचार (तब फौजी अखबार) की टीम ने ‘जवान’ और ‘सैनिक’ के नाम से विशेष परिशिष्ट भी निकले थे. पत्रिका के बारे में विस्तार से जानना इसलिए जरुरी है क्योंकि गांधीजी से सम्बंधित किसी भी बात के उल्लेख से पहले उस बात के सोर्स का पुष्ट होना जरुरी है.

          खैर, यह तो हुई सैनिक समाचार की बात, अब आते हैं मूल विषय पर. सैनिक समाचार के ‘जब गांधी ने सैनिक की वर्दी पहनी’ शीर्षक वाले लेख में यह दावा किया गया है कि महात्मा गांधी ने दूसरे बोएर युद्ध (1899-1902) के दौरान ब्रिटिश सैन्य वर्दी पहनी थी। गांधी जी को ब्रिटिश फौज में क्यों शामिल होना पड़ा और इसके पीछे उनका क्या उद्देश्य था, इस बारे में ‘सैनिक समाचार’ में कहा गया है कि बोएर के दो गणराज्यों में ब्रिटिश सत्ता से आजादी के लिए जब जंग छिड़ी तो वहां अंग्रेज कमजोर स्थिति में थे और अफ्रीकी बोएर की करीब 48 हजार की फौज के सामने उनके पास महज 27 हजार सैनिक ही थे। ऐसे में ब्रिटिश सरकार को अपने सर्वश्रेष्ठ जनरलों को लड़ाई में उतारना पड़ा। इसी दौरान गांधी जी ने एम्बुलेंस यूनिट के गठन की बात सोची । उस समय भारतीय लोगों और ब्रिटिश सैनिकों के कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने की बात सोची भी नहीं जा सकती थी। गांधी जी की मानवीय मदद की पेशकश को स्वीकार कर लिया गया और इस यूनिट का गठन हो गया। 


         इस एम्बुलेंस यूनिट में  गांधी जी सहित 11सौ भारतीय थे जिनमें 800 गिरमिटिया मजदूर थे। इस यूनिट ने बेहद बहादुरी से काम किया था और ब्रिटेन की सेना के कमांडर इन चीफ ने भी इस यूनिट के शौर्य की गाथाएं दर्ज की थीं। अंग्रेज-बोएर जंग की समाप्ति पर  गांधी जी की यूनिट को उत्कृष्ट सेवाओं के लिए पदक से भी सम्मानित किया गया था। लेख में कहा गया है कि गांधीजी ने बोअर युद्ध को अंग्रेजों की मदद करके भारत के लिए आजादी हासिल करने के सुनहरे अवसर के रूप में देखा था। 


       खास बात यह है मुझे भी इस पत्रिका के संपादन का अवसर मिला था और शताब्दी अंक के लिए बनी संपादकीय टीम में भी शामिल होने का गौरव हासिल हुआ था। जब हम लोग शताब्दी अंक तैयार करने के लिए रिसर्च कर रहे थे तब सैनिक समाचार के तमाम पुराने अंकों को खंगालते हुए यह लेख हमारे हाथ लगा। लेख हमारे लिए भी चौंकाने वाला था लेकिन यह गांधी जी की मानवीय संवेदनाओं को उजागर करने वाला था क्योंकि जब गांधी जी महात्मा नहीं बने थे। एक तरह से हम कह सकते हैं कि यह लेख गांधी जी के व्यक्तित्व के उन पहलुओं को हमारे सामने लाता है जिनसे यह पता चलता है कि मोहन दास करमचंद गांधी से महात्मा गांधी और राष्ट्रपिता तक का सम्मान हासिल करने के लिए गांधीजी को किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा और कैसे उनके व्यक्तित्व में मानव से महामानव की आभा जुड़ती गई। सैनिक समाचार से इतर भी जब मैंने इस विषय पर अपना शोध जारी रखा तो कुछ और पहलू भी सामने आए। गांधी जी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ के पृष्ठ 273 पर जुलू विद्रोह नामक चैप्टर में खुद गांधी जी ने लिखा है कि ‘मैंने ही नेटाल के गवर्नर को पत्र लिखकर कहा था कि यदि आवश्यकता हो तो घायलों की सेवा करने वाले हिंदुस्तानियों की एक टुकड़ी लेकर सेवा के लिए जाने को तैयार हूं। तुरंत ही गर्वनर की स्वीकृति सूचक उत्तर मिला।’ गांधी जी ने आगे लिखा है कि ‘स्वाभिमान की रक्षा के लिए और अधिक सुविधा के साथ काम कर सकने के लिए तथा वैसी प्रथा होने के कारण चिकित्सा विभाग के मुख्य पदाधिकारी ने मुझे  सार्जेंट मेजर का मुद्दती पद दिया और मेरी पसंद के तीन साथियों को सार्जेंट का तथा एक साथी को कॉर्पोरल का पद दिया। वर्दी भी सरकार की ओर से मिली और इस टुकड़ी ने छह सप्ताह तक सतत सेवा की।’ गांधी जी ने लिखा है कि ‘स्वयं मुझे गोरे सिपाहियों के लिए भी दवा लाने और उन्हें दवा देने का काम सौंपा गया था।’  इस सेवा के एवज में एंबुलेंस कोर को पदक भी दिए गए थे।


        एक मजेदार तथ्य यह भी है कि जब हमने शताब्दी अंक में यह गांधीजी के सैन्य वर्दी पहनने वाला लेख शामिल किया तो कुछ अखबारों ने इसे हाथों हाथ ले लिया और उन्होंने इस पर इतिहासकारों से बातचीत भी की । तब जाने-माने इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने सैनिक समाचार के इस दावे को खारिज कर दिया था कि गांधी जी एक ब्रिटिश सैनिक थे। उन्होंने कहा कि गाँधी जी को कभी भी ब्रिटिश सेना द्वारा नियुक्त नहीं किया गया था। उन्होंने केवल ब्रिटिश सैनिकों को चिकित्सा सहायता प्रदान करने के लिए एक स्वैच्छिक एम्बुलेंस कोर का गठन किया था जिसमें पूरी तरह से गैर-लड़ाके शामिल थे। यह कहना गलत है कि उन्होंने ब्रिटिश सेना की सेवा की। एक अन्य इतिहासकार  प्रोफेसर बिपिन चंद्र का भी यही मानना था कि गांधी कभी भी ब्रिटिश सेना का हिस्सा नहीं थे और उन्होंने केवल एक स्वैच्छिक एम्बुलेंस कोर का गठन किया था।  कुल मिलाकर जितना यह लेख आश्चर्यजनक है उतनी ही इस पर मिली प्रतिक्रियाएं। वैसे भी गांधी जी का व्यक्तित्व  न तो आज किसी सुबूत या क्रिया प्रतिक्रिया का मोहताज है और न ही उस समय था। गांधी जी महान थे,हैं और रहेंगे।



1 टिप्पणी:

  1. गांधी जी महान थे,हैं और रहेंगे। आग में मिर्ची डालने वाला वाक्य :) :)
    सुन्दर आलेख |

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