सोमवार, 1 जनवरी 2024

नए दौर के 'रक्तबीज' से कैसे निपटेगा चुनाव आयोग…!!

जैसे जैसे मतदान की तारीख़ क़रीब आ रही है चुनाव प्रबंधन से जुड़ी एजेंसियों के माथे की सिकन बढ़ रही है। प्रदेश में चुनाव आयोग के मुखिया और मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी अनुपम राजन भी खुलकर अपनी चिंता जाहिर कर रहें हैं। इस चिंता का कारण है-मीडिया की दो प्रमुख धाराओं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया का तेज़ी से होता विस्तार। भोपाल स्थित प्रशासन अकादमी में पिछले दिनों हुई मीडिया कार्यशाला में जब 'मीडिया की ओर से मीडिया की भूमिका' को लेकर सवालों की बौछार हुई और मास्टर ट्रेनर सहित अन्य अधिकारी उसका पूरी तरह से सामना नहीं कर पाए तो उस मुश्किल वक्त में अनुपम राजन ने मोर्चा संभाला और बड़ी साफगोई से स्वीकार किया कि चुनाव आयोग भी मीडिया की भूमिका को लेकर मीडिया द्वारा उठाए गए सवालों के जवाब तलाश रहा है और अब तक कोई समीचीन समाधान नहीं मिल पाया है।

अब बात उन चिंताओं की, जिनको लेकर खुद मीडिया भी चिंतित है। सबसे बड़ी चिंता न्यूज़ चैनलों का देशव्यापी विस्तार है। दरअसल,आदर्श आचार संहिता के दौरान 48 घंटे पहले चुनाव प्रचार बंद करना पड़ता है और किसी भी मीडिया के जरिए सार्वजनिक रूप से चुनाव प्रचार नहीं किया जा सकता लेकिन राज्यों के चुनाव के दौरान यह आम बात हो गई है कि राष्ट्रीय स्तर के नेता किसी अन्य राज्य या राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में बैठकर टीवी चैनलों पर कुछ ऐसी बातें कह देते हैं जिसका प्रसारण चुनावी राज्यों सहित देशभर में होता है और उसका सीधा असर चुनावी राज्य में भी पड़ सकता है। एक तरह से चुनाव प्रचार भी हो जाता है और वे आचार संहिता के उल्लघंन के आरोप से भी बच जाते हैं। चुनाव आयोग चाहकर भी इस मामले में कुछ नहीं कर पाता।
दूसरा प्रश्न, चुनावी राज्यों में नेताओं के 'वन टू वन इंटरव्यू' से जुड़ा है। सवाल यह है कि ऐसे साक्षात्कार को क्या पेड न्यूज माना जा सकता है ? क्योंकि सूचनात्मक इंटरव्यू और प्रचारात्मक इंटरव्यू के बीच इतनी महीन सी रेखा है कि कब कोई न्यूज चैनल उसे लांघ जाए,पता ही नहीं चलेगा जबकि अख़बार में यह खुलकर स्पष्ट रहता है। न्यूज़ चैनलों को तो किसी तरह मॉनिटर भी किया जा सकता है लेकिन सोशल मीडिया का क्या!!…वह तो आंधी-तूफान की तरह काम करता है। जब तक चुनाव आयोग के कारिंदे सोशल मीडिया पर जारी किसी प्रचार वीडियो/पेड/फेक न्यूज की जड़मूल तक पहुंचकर उसे हटाएंगे तब तक वह पेड/फेक कंटेंट 'रक्तबीज' की तरह हजारों-लाखों में बदलकर 'इनफिनिटी' हो जाएगा जिसका अंतिम छोर तलाशना असंभव है। अब चुनाव आयोग कोई मां दुर्गा तो है नहीं कि रक्त की बूंद बूंद सुखाकर उसे खत्म कर दें इसलिए सोशल मीडिया को लेकर चौतरफा घेराबंदी तक इस पर लगाम कसना आसान नहीं है।
अब सोचिए, एआई यानि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे मायासुर का साथ पाकर सोशल मीडिया चुनाव की निष्पक्षता और खासकर 'लेबल प्लेइंग फील्ड' यानि प्रचार के समान अवसर देने की नीति की कैसे धज्जियां उड़ा सकता है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि एआई की माया ऐसी है कि यह किसी की भी आवाज़/रूप बदलकर दो मिनट में सालों के परिश्रम को गुड़ गोबर कर सकता है। सोशल मीडिया और एआई की संयुक्त ताक़त से निपटना किसी भी सरकारी तंत्र के लिए अभी तो लगभग नामुमकिन है।
मोटे तौर पर देखें तो चुनाव के लिए बने 'मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट' शुरुआत में प्रिंट मीडिया और आकाशवाणी-दूरदर्शन जैसे सरकारी माध्यमों को ध्यान में रखकर बने थे। ये माध्यम अपने स्तर पर खुद ही इतनी सावधानी बरतते हैं कि चुनाव आयोग को आचार संहिता लागू करने में कोई खास मशक्कत नहीं करनी पड़ती लेकिन टीवी और नए दौर के इंटरनेट मीडिया का प्रवाह इतना तीव्र है कि इन दोनों पर बांध बांधना अभी तो दूर की कौड़ी लग रहा है। हालांकि प्रौद्योगिकीय प्रगति ने निगरानी तंत्र को मजबूत बनाने में मदद की है और निर्वाचन आयोग भी तकनीकी के इस्तेमाल में पीछे नहीं है, फिर भी तू डाल डाल मैं पात पात की तर्ज़ पर आदर्श आचार संहिता तोड़ने/बनाने का खेल जारी है। शायद इसलिए मध्य प्रदेश के मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी अनुपम राजन को कहना पड़ा कि चुनौती बहुत बड़ी और दुरूह है। जिस पर किसी कागज़ी इंस्ट्रक्शंस से काबू नहीं पाया जा सकता। इसके लिए व्यवहारिक धरातल पर काम करने की जरूरत है और हम लोग पुरजोर प्रयास भी कर रहे हैं। उन्होंने इस मामले में मीडिया की भागीदारी सुनिश्चित करते हुए यह भी कहा कि मीडिया की 'क्रेडिबिलिटी' बनाए रखना मीडिया की भी ज़िम्मेदारी है।
अब देखना यह है कि मीडिया अपने ही सवालों, विश्वसनीयता खोने के खतरे और लोकतंत्र के यज्ञ में अपनी अनिवार्य निष्पक्ष भूमिका को बनाए रखने के लिए अपनी ही नई पीढ़ी से कैसे निपटता है…पांच राज्यों के चुनावों में उठे ये सवाल भविष्य में होने वाले बड़े चुनावों की निष्पक्षता और सभी दलों को समान अवसर की मजबूत बुनियाद बन सकते हैं।

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