सोलह साल में आत्महत्या या फिर ऑनर किलिंग
जन्म:1994 मौत:2010
मृत्यु का कारण: परिवार वालों के मुताबिक ऑनर किलिंग अर्थात दबंगों ने असमय गला घोंट कर मार डाला. वहीँ दूसरे पक्ष का कहना है कि बढ़ती आवारागर्दी और लापरवाही ने जान ले ली.
सोलह साल की उम्र बड़ी कमसिन होती है.इस उम्र में जवानी और रवानगी आती है,सुनहरे सपने बुनने की शुरुआत होती है परन्तु यदि इसी आयु में दुनिया देखने के स्थान पर दुनिया छोड़ना पड़ जाये तो इससे ज़्यादा दुखद स्थिति और क्या हो सकती है?लेकिन यह हुआ और सार्वजनिक रूप से हुआ,सबकी आँखों के सामने हुआ और सब लोग इस असमय मौत पर भी दुखी होने की बजाए खुशियाँ मानते रहे दरअसल उसके काम ही ऐसे थे कि अधिकतर लोग उसके मरने की दुआ मनाने लगे थे. कहा जाता है कि यदि कोई भी दुखी व्यक्ति दिल से बददुआ दे दे तो वह असर दिखाती है और जब एक साथ हज़ारों लोग किसी के मरने की दुआ करने लगे तो फिर उसे तो भगवान भी नहीं बचा सकता.यह बात अलग है कि मरने वाली के सम्बन्धी इसे ऑनर किलिंग का मामला बता रहे हैं. उनका कहना है कि अपना सम्मान बचाने या यों कहे कि अपनी नाक ऊँची रखने कि खातिर सरकार ने उसकी बलि चढ़ा दी.
चलिए में और पहेलियां न बुझाते हुए यह साफ़ कर दूं कि यह सारी बात दिल्ली के लोगों की लाइफ-लाइन मानी जाने वाली ब्लू-लाइन बसों की हो रही है. इन बसों को राजधानी की सड़कों से हटाने का फरमान जारी हो चुका है.किसी भी सेवा के लिए सोलह बरस का कार्यकाल बहुत छोटा होता है और जब बात सार्वजानिक परिवहन प्रणाली की हो तो इतना समय तो शैशवकाल के समान है.हालाँकि ‘प्राइवेट बस परिवार’ के लिए यह कोई नई बात नहीं है. ब्लू लाइन की बड़ी बहन कहें या जन्मदाता रेड लाइन ,उसे तो दो साल में ही अकाल मौत का शिकार होना पड़ गया था.रेड लाइन ने तो दो साल में ही अपने लाल रंग को खून का पर्याय बना कर दिल्ली की सड़कों को आम लोगों के खून से लाल कर दिया था इसलिए सरकार को इनके स्थान पर शांत-सौम्य और खुशहाली के प्रतीक नीले रंग की बसों को उतारना पड़ा,लेकिन ब्लू लाइन की जन्मदाता आखिर थी तो रेड लाइन....इसलिए रंग बदलने से स्वभाव तो नहीं बदल सकता? फिर क्या था ब्लू लाइन ने रक्तपात का नया दौर शुरू कर दिया. दिल्ली की सड़कों पर दौड़ रही लगभग ढाई हज़ार ब्लू लाइन बसों ने एक दशक में एक हज़ार से ज़्यादा लोगों की जान ले ली.इतने लोग तो साल भर में पकिस्तान समर्थित आतंकवादी भी नहीं मार पाए. सिर्फ इसी साल अक्तूबर तक 65 लोगों की जान इन बसों के कारण गई. ब्लू लाइन ने 2004 में 105, 2005 में 175, 2006 में 160, 2007 में 154, 2008 में 33 तथा 2009 में 123 लोगों को कुचल दिया.
वैसे बस संचालक अपनी गलती मानने को तैयार नहीं है उनका कहना है कि हम ‘ऑनर किलिंग’ का शिकार बने हैं.सरकार ने नई नवेली मेट्रो ट्रेन की चकाचौंध में बसों को असमय ही सड़कों से हटा दिया. उन्हें राष्ट्रमंडल खेलों से भी शिकायत है. बस मालिकों के अनुसार यदि ये खेल नहीं होते तो दिल्ली में सुविधाओं की स्थिति में सुधार नहीं आता और सरकार की वक्र द्रष्टि उन पर नहीं पड़ती.खैर मुद्दा चाहे जो भी हो आम लोगों की जान तो कम से कम बच ही गयी.यदि ये बसें इसीतरह बेखौफ सड़कों को रोंदती हुई दौड़ती रहती तो न जाने और कितने लोगों को असमय अपने प्राण गंवाने पड़ते....
छपते-छपते: हाईकोर्ट के आदेश पर दिल्ली के कुछ इलाकों में ब्लू लाइन को चलते रहने की अनुमति फिलहाल मिल गयी है इसलिए अब इन इलाकों के लोगों का भगवान ही मालिक है.
मृत्यु का कारण: परिवार वालों के मुताबिक ऑनर किलिंग अर्थात दबंगों ने असमय गला घोंट कर मार डाला. वहीँ दूसरे पक्ष का कहना है कि बढ़ती आवारागर्दी और लापरवाही ने जान ले ली.
सोलह साल की उम्र बड़ी कमसिन होती है.इस उम्र में जवानी और रवानगी आती है,सुनहरे सपने बुनने की शुरुआत होती है परन्तु यदि इसी आयु में दुनिया देखने के स्थान पर दुनिया छोड़ना पड़ जाये तो इससे ज़्यादा दुखद स्थिति और क्या हो सकती है?लेकिन यह हुआ और सार्वजनिक रूप से हुआ,सबकी आँखों के सामने हुआ और सब लोग इस असमय मौत पर भी दुखी होने की बजाए खुशियाँ मानते रहे दरअसल उसके काम ही ऐसे थे कि अधिकतर लोग उसके मरने की दुआ मनाने लगे थे. कहा जाता है कि यदि कोई भी दुखी व्यक्ति दिल से बददुआ दे दे तो वह असर दिखाती है और जब एक साथ हज़ारों लोग किसी के मरने की दुआ करने लगे तो फिर उसे तो भगवान भी नहीं बचा सकता.यह बात अलग है कि मरने वाली के सम्बन्धी इसे ऑनर किलिंग का मामला बता रहे हैं. उनका कहना है कि अपना सम्मान बचाने या यों कहे कि अपनी नाक ऊँची रखने कि खातिर सरकार ने उसकी बलि चढ़ा दी.
चलिए में और पहेलियां न बुझाते हुए यह साफ़ कर दूं कि यह सारी बात दिल्ली के लोगों की लाइफ-लाइन मानी जाने वाली ब्लू-लाइन बसों की हो रही है. इन बसों को राजधानी की सड़कों से हटाने का फरमान जारी हो चुका है.किसी भी सेवा के लिए सोलह बरस का कार्यकाल बहुत छोटा होता है और जब बात सार्वजानिक परिवहन प्रणाली की हो तो इतना समय तो शैशवकाल के समान है.हालाँकि ‘प्राइवेट बस परिवार’ के लिए यह कोई नई बात नहीं है. ब्लू लाइन की बड़ी बहन कहें या जन्मदाता रेड लाइन ,उसे तो दो साल में ही अकाल मौत का शिकार होना पड़ गया था.रेड लाइन ने तो दो साल में ही अपने लाल रंग को खून का पर्याय बना कर दिल्ली की सड़कों को आम लोगों के खून से लाल कर दिया था इसलिए सरकार को इनके स्थान पर शांत-सौम्य और खुशहाली के प्रतीक नीले रंग की बसों को उतारना पड़ा,लेकिन ब्लू लाइन की जन्मदाता आखिर थी तो रेड लाइन....इसलिए रंग बदलने से स्वभाव तो नहीं बदल सकता? फिर क्या था ब्लू लाइन ने रक्तपात का नया दौर शुरू कर दिया. दिल्ली की सड़कों पर दौड़ रही लगभग ढाई हज़ार ब्लू लाइन बसों ने एक दशक में एक हज़ार से ज़्यादा लोगों की जान ले ली.इतने लोग तो साल भर में पकिस्तान समर्थित आतंकवादी भी नहीं मार पाए. सिर्फ इसी साल अक्तूबर तक 65 लोगों की जान इन बसों के कारण गई. ब्लू लाइन ने 2004 में 105, 2005 में 175, 2006 में 160, 2007 में 154, 2008 में 33 तथा 2009 में 123 लोगों को कुचल दिया.
वैसे बस संचालक अपनी गलती मानने को तैयार नहीं है उनका कहना है कि हम ‘ऑनर किलिंग’ का शिकार बने हैं.सरकार ने नई नवेली मेट्रो ट्रेन की चकाचौंध में बसों को असमय ही सड़कों से हटा दिया. उन्हें राष्ट्रमंडल खेलों से भी शिकायत है. बस मालिकों के अनुसार यदि ये खेल नहीं होते तो दिल्ली में सुविधाओं की स्थिति में सुधार नहीं आता और सरकार की वक्र द्रष्टि उन पर नहीं पड़ती.खैर मुद्दा चाहे जो भी हो आम लोगों की जान तो कम से कम बच ही गयी.यदि ये बसें इसीतरह बेखौफ सड़कों को रोंदती हुई दौड़ती रहती तो न जाने और कितने लोगों को असमय अपने प्राण गंवाने पड़ते....
छपते-छपते: हाईकोर्ट के आदेश पर दिल्ली के कुछ इलाकों में ब्लू लाइन को चलते रहने की अनुमति फिलहाल मिल गयी है इसलिए अब इन इलाकों के लोगों का भगवान ही मालिक है.
andaaj a bya aacchha hai .
जवाब देंहटाएंnice one ...aise hi likhte rahiye !
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