सुनो वोटर…कि अब गए दिन चुनाव (बहार) के..!!

जब टीन के बने सांचे पर कभी 'हलधर किसान' तो कभी 'गाय बछड़ा' या फिर 'पंजा' और 'कमल' के फूल की छाप दीवार पर लगाने के लिए जब रंग के साथ लोग आते थे तो हम बच्चों में यह काम करने की होड़ लग जाती थी। पार्टी पॉलिटिक्स से परे छीना झपटी के बाद बच्चे दीवारें रंगने में तल्लीन हो जाते थे और यह काम करने आए लोग मस्त बीड़ी पीने में। जब पार्टी के कार्यकर्ता झंडे/बिल्ले/ बैनर और पोस्टर लेकर आते थे तो टीन और गत्ते के बने बिल्लों को लेने और कमीज़ पर लगाने के लिए मारामारी हो जाती थी। जिसको रिबन के साथ या रिबन के फूल वाला बिल्ला मिल जाता था वो स्वयंभू बॉस बन जाता था। झंडे और बैनर तो बच्चों को मिलना दूर की कौड़ी थी। चुनाव के बाद पार्टियों के बैनर और झंडे कई घरों में पोंछे के कपड़े, खिड़कियों के परदे और इसी तरह के दर्जनों दीगर कामों में खुलकर इस्तेमाल होते थे। गरीब परिवारों में तो वे बुजुर्गों की चड्डी और तकिए के कवर तक बन जाते थे। शहर मानो रंग बिरंगे पोस्टरों,बैनर और झंडों से पट जाता था और आज की चुनावी तिथियों के संदर्भ में कहें तो दीपावली पर भी होली का सा रंगीन नजारा दिखाई पड़...