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राष्ट्रीय राजमार्ग-44: जिस पर आप कर सकते हैं धान की खेती..!!!

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   क्या आप सोच सकते हैं कि देश में कोई राष्ट्रीय राजमार्ग ऐसा भी हो सकता है जहाँ सड़क पर बकायदा धान बोई जा सकती है और जहाँ वाहनों को निकालने के लिए हाथियों की मदद ली जाती है. यदि आप इसे व्यंग्य के तौर पर पढ़-समझ रहे हैं क्योंकि राष्ट्रीय राजमार्ग का नाम लेते ही दिमाग में दिल्ली-चंडीगढ़ या दिल्ली-जयपुर जैसी किसी चमचमाती सड़कों की तस्वीर उभर आती है तो यह स्पष्ट कर दें कि यह न केवल सौ टका सच है बल्कि वास्तविक हालात इससे भी बदतर है. फिर भी यदि आपको भरोसा नहीं हो रहा हो तो एक बार असम को त्रिपुरा से जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक-44 का जायजा ले लीजिए क्योंकि इसे देखने के बाद या तो राष्ट्रीय राजमार्ग को लेकर आपकी परिभाषा बदल जाएगी या फिर आप भविष्य में इस सड़क पर आने का सपना भी नहीं देखेंगे. राष्ट्रीय राजमार्ग-44 लगभग 630 किमी लम्बा है जो मेघालय की राजधानी शिलांग से शुरू होकर असम होते हुए त्रिपुरा जाता है और यही एकमात्र राजमार्ग है जो त्रिपुरा को पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों से जोड़ता है. मेघालय और त्रिपुरा के हिस्से में आई सड़क तो कुछ ठीक है परन्तु असम से गुजरने वाली सड़क बद से बदतर स्

महापुरुषों का अपमान: स्वतंत्रता को स्वेच्छाचारिता में बदलता सोशल मीडिया...!!!

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यदि आप सोशल मीडिया के किसी भी प्रकार से जुड़े हैं तो शायद आपको भी आज़ादी के जश्न में मगरूर नई पीढ़ी द्वारा क़तर-व्योंत से तैयार मनगढ़ंत दस्तावेजों, आज़ादी के दौर की ख़बरों के नाम पर नए और छदम अखबारों, महापुरुषों के छिद्रान्वेषण और नए प्रतीक गढ़ने के प्रयासों (दुष्प्रयासों) से दो चार होना पड़ा होगा. ये कैसा जश्न है जिसमें सर्वस्वीकार्य आदर्शों को ढहाने और नए कंगूरे बनाने के लिए इतिहास से ही छेड़छाड़ की जा रही है? नए कंगूरे अवश्य रचे जाने चाहिए क्योंकि देश बस कुछ नायकों के सहारे आगे नहीं बढ़ सकता. हर पीढ़ी को अपने दौर के नायक चाहिए लेकिन इसके लिए नया इतिहास रचने और ऐतिहासिक दस्तावेजों को खंगालने की जरुरत है न कि इतिहास को बदलने या विद्रूप करने की.   इस वर्ष स्वाधीनता दिवस पर देशभक्ति के जिस भोंडे प्रदर्शन से सोशल मीडिया रंगा रहा है उससे तो अब हमें अपने स्वाधीनता दिवस को स्वतंत्रता दिवस कहना उपयुक्त लगने लगा है और शायद आने वाले सालों में इसे स्वतंत्रता दिवस के स्थान पर स्वेच्छाचारिता दिवस, उन्मुक्तता दिवस या निरंकुशता दिवस जैसे नए नामों से पुकारा जाना लगे. दरअसल मुझे तो सोशल मीडिया शब्द पर भी आप

जब ‘हेलो’ को समझ लिया ख़तरनाक उड़नतश्तरी और नई विपदा

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किसी के लिए वह खतरनाक उड़नतश्तरी थी जिसमें से ‘पीके’ टाइप हिंदी-अंग्रेजी फिल्मों से दिखाए गए दूसरे ग्रह के वासी(एलियन) उतरेंगे और धरती पर हमला कर सब कुछ बर्बाद कर चले जाएंगे तो किसी की नजर में यह 1980 के दशक में चर्चित स्काईलैब जैसी कोई घटना घटित होने की आशंका थी. पहले ही जादू-टोनों, डायन और तांत्रिकों के इलाक़े के तौर पर कुख्यात असम में ऐसी किसी भी विचित्र आकृति के दिखने से भय,अफ़वाहों और चर्चाओं का दौर तो शुरू होना ही था. वैसे भी इन दिनों यहाँ राष्ट्रीय नागरिकता पंजीयन(एनआरसी) का काम चल रहा है और बड़ी संख्या में दशकों से यहाँ रह रहे गैर असमिया लोग सरकार के रवैये से नाराज़ चल रहे हैं इसलिए कुछ लोग इसे राज्य सरकार की साज़िश भी मान बैठे. उन्हें लगा कि सरकार ने उन्हें डराने और उन पर नज़र रखने के लिए ड्रोन टाइप कोई उपकरण भेजा है.  दरअसल हुआ यह था कि पूर्वोत्तर के सबसे बड़े राज्य असम के दक्षिणी हिस्से अर्थात् बराक घाटी के लोगों को बीते दिनों एक दुर्लभ और अदभुत खगोलीय घटना से रूबरू होने का अवसर मिला. संयोग से घटने वाली इस घटना में सूर्य के चारों ओर एक गोलाकार इन्द्रधनुषी चक्र नजर आया. बस फिर

बिना वीसा-पासपोर्ट के भारत आए हाथी, अब अदालत में मगजमारी

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हम इसे शरद जोशी की बहुचर्चित कृति ‘अंधों का हाथी’ या फिर सैय्यद अख्तर मिर्ज़ा की विख्यात फिल्म ‘मोहन जोशी हाज़िर हो’ से जोड़कर ‘अंधों का हाथी अदालत में हाज़िर हो’ जैसा कोई नाम दे सकते हैं. लेकिन यह घटना पूरी तरह से सत्य है और इसमें कोई कथात्मक या रचनात्मक मिलावट भी नहीं है. हाँ, ‘वीर-जारा’ जैसी फिल्मों की तरह इसमें भी दो देश जुड़े हैं. यहाँ भारत तो है ही, साथ में परम्परागत रूप से पकिस्तान न होकर उसके स्थान पर बंगलादेश है. दरअसल मामला यह है कि दो हाथियों को अपने सही मालिक की तलाश में इन दिनों अदालत के चक्कर काटने पड़ रहे हैं. दिलचस्प बात यह है कि इस मामले में सीधे तौर पर हाथियों की कोई गलती नहीं है लेकिन उनके स्वामित्व को लेकर शुरुआत में दो और अब तक छह दावेदारों के सामने आ जाने से मामला दिन-प्रतिदिन पेचीदा होता जा रहा है और और जब पेशी नहीं होती तो वन विभाग को इनकी ख़ातिरदारी करनी पड रही है. हाथियों की भारी भरकम खुराक के कारण उनकी मेजबानी वन विभाग पर भारी पड़ रही है. इस रोचक दास्ताँ की सिलसिलेवार चर्चा करें तो यह किस्सा पूर्वोत्तर में असम के एक छोटे से जिले हैलाकांदी का है. यह इलाका गुवाहा

सूरज और बादलों की आँख-मिचौली के बीच बेहिसाब झरनों का कलरव

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ऐसा लग रहा था मानो सूरज और बादलों के बीच ट्वंटी-ट्वंटी जैसा कोई मुकाबला चल रहा हो..कभी बादल भारी तो कभी सूरज. सूरज को जब मौका मिलता वह बादलों का सीना चीरकर अपनी सुनहरी किरणों को धरती पर बिखेर देता और जब बादल अपनी पर आ जाते तो वे सूरज को भी मुंह छिपाने पर मजबूर कर देते. शिलांग से चेरापूंजी जाते समय आपको आमतौर पर सूरज और बादलों की इस आँख-मिचौली का पूरा आनंद उठाने का मौका मिलता है. तक़रीबन पांच से छः हजार फुट की ऊंचाई पर 10 से 20 डिग्री तापमान में एक ओर रिमझिम फुहारों से तरोताज़ा हुए विविध किस्म के आकर्षक पेड़ कतारबद्ध होकर आपका स्वागत करते हैं तो दूसरी ओर हरियाली की चादर को समेटे गहरे ढलान हमारे मन में खौफ़ जगाने की बजाए उन्हें कैमरों में समेटने की चुनौती सी देते हैं. यहाँ प्रकृति का इतना मनमोहक रूप किस्मत से ही नसीब होता है क्योंकि दुनियाभर में सबसे ज्यादा बारिश के लिए विख्यात चेरापूंजी यहाँ आने वाले पर्यटकों के सामने अपनी इस विशेषता को प्रदर्शित करने का कोई मौका नहीं छोड़ता. इसके परिणामस्वरूप पूरा सफ़र बस एवं कार की बंद खिड़कियों और इसके बाद भी पूरी बेशर्मी से अन्दर आती पानी की बूंदों

‘नेट न्यूट्रीलिटी’ यानि इंटरनेट को खेमों में बांटने की साजिश

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इन दिनों सोशल मीडिया से लेकर न्यूज़ चैनलों तक और अख़बारों से लेकर पत्रिकाओं तक में ‘नेट न्यूट्रीलिटी’ का मुद्दा छाया हुआ है. देश के बहुसंख्यक लोगों के लिए यह शब्द एकदम नया,अबूझ और कुछ विदेशी रंग लिए हुए है. इसको सही परिपेक्ष्य में समझाने के लिए पहले दूसरे क्षेत्रों के कुछ उदाहरणों की बात करते हैं. मसलन यदि आपने किसी बिल्डर को उसकी मनमानी कीमत देकर मकान ख़रीदा और गृह प्रवेश के साथ ही बिल्डर आपसे कहने लगे कि आप फलां कमरे में नहीं सोएंगे या फलां कमरे को अपना ड्राइंग रूम नहीं बनाएंगे तो आपको कैसा लगेगा.ज़ाहिर सी बात है जब घर आपका है तो यह आप पर निर्भर करता है कि आप उसका कैसे इस्तेमाल करें. इस बात को एक और उदाहरण से समझा जा सकता है मसलन आपने बिजली या पानी का कनेक्शन लिया है और उसका पूरा निर्धारित शुल्क चुका रहे हैं तो कोई कंपनी या सरकार आपसे यह नहीं कह सकती कि आप इस पानी से बर्तन मत साफ़ कीजिए या नहाइए मत या इस बिजली से फ्रिज मत चलाइए इत्यादि. कुछ इसीतरह का मामला इंटरनेट के साथ है और इसके इस्तेमाल में भेदभाव को ख़त्म करने के लिए ही ‘नेट न्यूट्रीलिटी’ शब्द का ईजाद हुआ. बताया जाता है कि ‘नेट

मोबाइल खोलेगा घर घर में आईआईएम-आईआईटी जैसे नामी शिक्षा संस्थान

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इन दिनों छोटे परदे पर प्रसारित हो रही दूरसंचार सेवा प्रदान करने वाली एक निजी कम्पनी की विज्ञापन श्रृंखला टीवी के साथ साथ सोशल मीडिया पर काफी चर्चित है. रचनात्मक दृष्टि से उत्तम इस विज्ञापन श्रृंखला में उस कम्पनी की मोबाइल इंटरनेट सेवा को किसी विश्वविद्यालय या आईआईएम-आईआईटी जैसे नामी शिक्षा संस्थान की तरह दर्शाया गया है और उस कंपनी के ग्राहक अंग्रेजी सीखने से लेकर हवाई जहाज चलाने और वाहन सुधारने जैसे काम भी मोबाइल कंपनी द्वारा सृजित छदम शैक्षणिक संस्थान से सीखते दर्शाए गए हैं. ये तो रही विज्ञापन की बात परन्तु अब हक़ीकत में भी ऐसा कुछ होने जा रहा है और वो भी सरकारी स्तर पर. फिलहाल यह तो खोज का विषय हो सकता है कि सरकार ने इस कंपनी के विज्ञापनों से प्रेरणा ली है या फिर सरकारी योजना से प्रेरणा लेकर और सरकार में काम की जगजाहिर धीमी रफ़्तार का फायदा उठाकर दूरसंचार कम्पनी ने पहले विज्ञापन शुरू कर दिए. बहरहाल सच्चाई जो भी हो लेकिन इस प्रयास से शिक्षा क्षेत्र में क्रांति आ सकती है.   दरअसल मानव संसाधन विकास मंत्रालय मंत्रालय देश के पूर्वोत्तर राज्यों और खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में आम लोगों त