प्रख्यात कवि दुष्यंत कुमार किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं.समय पर कटाक्ष करती उनकी कविताएँ आज भी उतनी ही मौजूं हैं.देश के स्वतन्त्रता दिवस की ६३ वीं वर्षगांठ पर दुष्यंत जी के गुलिश्तां से पेश हैं चंद सशक्त और समयानुकूल कविताएँ: १ एक गुडिया की कई कठपुतलियों में जान है, आज शायर ये तमाशा देख कर हैरान है. ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए, यह हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है एक बूढा आदमी है मुल्क में या यों कहो, इस अँधेरी कोठारी में एक रौशनदान है. मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के कदम, तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है. इस कदर पाबंदी-ए-मज़हब की सदके आपके जब से आज़ादी मिली है, मुल्क में रमजान है कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए, मैंने पूछा नाम तो बोला की हिदुस्तान है. मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ, हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है. २ आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख, पर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख। एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ, आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख। अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह, यह हक़ीक़...