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युगांडा का जिंजा शहर : जहां बसते है गांधी जी के प्राण

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  My Rwanda-Uganda visit with Vice President: One        जैसा कि आप सभी जानते ही हैं कि मुझे उपराष्ट्रपति श्री मो हामिद अंसारी जी के साथ 19-23 फरवरी 2017 तक अफ्रीकी देशों Rwanda और Uganda की यात्रा का सुअवसर मिला।मैं प्रयास करूंगा कि इस यात्रा के किस्सों , इन देशों की खूबसूरती एवं खूबियों से आपको रूबरू कराऊं।फिलहाल शुरुआत जिंजा में महात्मा गांधी की प्रतिमा से।नील नदी के उद्गम स्थल पर 1997 से स्थापित यह प्रतिमा यहां भारतीयता के साथ साथ शांति और सद्भाव की भी परिचायक है। यहां इसकी देखभाल की जिम्मेदारी बैंक आफ बड़ौदा ने संभाल रखी है। खास बात यह है कि यहीं नील नदी के उद्गम स्थल पर महात्मा गांधी की इच्छा के मुताबिक उनकी अस्थियां भीं विसर्जित की गई थी। जिंजा , राजधानी कंपाला से करीब 81 किमी दूर है और भारतीय लोगों का गढ़ है। यहां के सबसे धनी लोगों में माधवानी समूह(अभिनेत्री मुमताज वाला) , जय मेहता (मिस्टर जूही चावला) और रूपारेलिया समूह है जो तीनों भारतीय हैं।    #Uganda #Nile #MahatmaGandhi #Jinja #Vicepresident #Mehtagroup #MadhvaniGroup #RupareliaGroup #HamidAnsari

स्टेट हाउस यानि युगांडा में सत्ता का शक्तिशाली गढ़

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                                  My Rwanda-Uganda visit with Vice President: Two        ये है युगांडा के  राष्ट्रपति का आधिकारिक निवास यानि स्टेट हाउस ( State House) या राष्ट्रपति भवन...वैसा ही जैसा दिल्ली में हमारा राष्ट्रपति भवन है या फिर अमेरिका का व्हाइट हाउस. राजधानी कम्पाला( Kampala) से लगभग 37 किलोमीटर दूर एंटेबे ( Entebbe) शहर में बना यह स्टेट हाउस तक़रीबन साढ़े 17 हजार वर्गमीटर में फैला है. अन्य देशों से आने वाले मेहमानों का स्वागत यहीं किया जाता है. हाल ही में 22-23 फरवरी के दौरान हमारे उपराष्ट्रपति श्री मो हामिद अंसारी युगांडा गए थे हमें भी इस स्टेट हाउस को अन्दर से देखने का मौका मिला. इस झक सफेद इमारत का निर्माण हमारे राष्ट्रपति भवन (पहले वाइसराय भवन) की तरह ब्रिटिश हुकूमत ने कराया था. तब एंटेबे  ही युगांडा की राजधानी थी. युगांडा को 1966 में आज़ादी मिली और तब से यह यहाँ के राष्ट्रपति का स्थायी आवास और सत्ता का आधिकारिक केंद्र है. चूँकि एंटेबे में ही युगांडा का अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है इसलिए कम्पाला के राजधानी बनने के बाद भी एंटेबे शहर का महत्व बना हुआ है. वैसे युगा

नोटबंदी के बाद मीडिया में आ रही निराशाजनक ख़बरों के बीच रोशनी की किरणें बन रही........ असल किरदारों की सच्ची कहानियां

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  एक: रणविजय महज 22 साल के हैं और सिविल इंजीनियर होने के बाद भी पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण सिलचर (असम) में अपने पैतृक फल व्यवसाय में पिता का हाथ बंटाते हैं. जब उन्होंने 8 नवम्बर के बाद आम लोगों को छोटे नोटों के लिए जूझते/मारामारी करते देखा तो खुद के पास मौजूद 10 हज़ार मूल्य के सौ-सौ के नोट लेकर खुद ही बैंक पहुँच गए और बदले में बड़े नोट ले आए. इतना ही नहीं, फिर इन्होने अपने आस-पास के फल व्यवसायियों को समझाना शुरू किया और चार दिन बाद ही स्टेट बैंक की लाइन में नोट बदलने के लिए लगे सैंकड़ों लोगों की तालियों के बीच उन्होंने 50 हज़ार के छोटे नोट बैंक को सौंपे...अब वे इस राशि को और बढ़ाने की योजना में जुटे हैं....सलाम रणविजय   दो: प्रमोद शर्मा युवा व्यवसायी हैं और सिलचर के व्यापारिक क्षेत्र गोपालगंज में रहते हैं. नोटबंदी/बदलाव के बाद,वे रोज देखते थे कि आम लोग दो हज़ार का नया नोट लेकर छुट्टे पैसे के लिए यहाँ-वहां भटक रहे हैं और अपने लिए जरुरी सामान भी नहीं खरीद पा रहे. उन्होंने राजू वैद्य,शांति सुखानी और अबीर पाल जैसे अपने अन्य दोस्तों से सलाह मशविरा किया और जुट गए आम लोगों को बैंक के अल

सोचिए, कहीं आप देश विरोधी तत्वों की कठपुतली तो नहीं बन रहे !!

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नोट बदलने की प्रक्रिया को आमजन की समस्या से देशव्यापी विकराल मुद्दा बनाने के पीछे कहीं वे लोग तो नहीं है जिनकी करोड़ों की संपत्ति पर चंद घंटों में पानी फिर गया? आम जनता की आड़ में कहीं पेशेवर दिमाग तो काम नहीं कर रहे जो समस्या को हाहाकार में बदलने में जुटे हैं और भविष्य में सरकार के इस अच्छे कदम को बुरे अंजाम में बदलने की साजिश रच रहे हैं ? जैसे कश्मीर में भीड़ की आड़ में आतंकियों के सुरक्षा बलों पर हमला करने की ख़बरें मिली रहती हैं इसीतरह धीरज और स्वेच्छा से नोट बदलने लाइन में लगे आम आदमी के मनोबल को तोड़ने के लिए कहीं राजनीतिक ताकतें और माफिया तो षड्यंत्र में नहीं जुट गए हैं ? और मीडिया महज उनके हाथ की कठपुतली बन रहा हो ? मुझे पता है मेरी इस बात से असहमत लोग मुझे ‘भक्त’ करार दे सकते हैं परन्तु कुछ तो खटक रहा है और कहीं न कहीं कुछ तो पक रहा है ! भीड़ को अराजक बनाने के लिए एक पत्थर ही काफी होता है जबकि यहाँ तो पूरा मसाला मौजूद है. कहीं भीड़ की आड़ में काले धन को सफ़ेद करने का धंधा तो शुरू नहीं हो गया ? सामान्य समझ तो यही कहती है कि कुछ तो गड़बड़ है और शायद सरकार ने भी इसे भांप लिया है तभी

बड़े बड़े बैंकों पर भारी हैं हमारे भिखारी बैंक

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कहते हैं न कि ‘घूरे के भी दिन फिरते हैं’..आज यह बात साबित हो गयी है. नोट बंद करने के फैसले ने देश के ‘भिखारी बैंक” को किसी भी नामी बैंक से ज्यादा बड़ा बना दिया है. वैसे घूरे जैसे सर्वथा जमीनी शब्द से अनजान पीढ़ी की जानकारी के लिए बता देना जरुरी है कि ‘घूरा’ कचरे के ढेर को कहते हैं और उनकी शब्दावली में वे इसे डस्टबिन का बड़ा भाई भी समझ सकते हैं. अपने देश में यदि सबसे ज्यादा फुटकर/खुल्ले पैसे हैं तो वे भिखारियों की अंटी में, और वहीँ दबे दबे वे नोट पूरा जीवन गुजार देते हैं. एक-दो, दस-पांच और पचास-सौ के नोटों के मामले में हमारे भिखारी आज की स्थिति में किसी भी बैंक की शाखा को मात दे सकते हैं. वैसे भी बीते कुछ सालों से भिखारियों ने एक-दो रुपए छोड़कर भीख को ‘अपग्रेड’ करते हुए 10 रुपए प्रति ‘कस्टमर’ कर दिया था इसलिए छोटे नोटों के मामले में हमारे भिखारी किसी ‘मोबाइल एटीएम’ से कम नहीं है. मैं तो सरकार को सुझाव देना चाहता हूँ कि जब तक नोट बदलने की ‘क्राइसिस’ दूर नहीं हो जाती तब तक भिखारियों को भी चलता फिरता एटीएम मानकर उन्हें भी नोट बदलने का अधिकार दे देना चाहिए. इसका फायदा यह होगा कि बैंकों

दूसरे मुल्क में भी भारतीय सेना ने चटाई पाकिस्तान को धूल

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दुनिया भर के देशों से आयीं चुनिन्दा 121 टीमों के बीच हुए चपलता , सतर्कता , दम-ख़म , मानवीय पहल और मानसिक मजबूती के अंतरराष्ट्रीय कैम्ब्रियन पेट्रोलिंग मुक़ाबले में भारतीय सेना की 8 गोरखा राइफल्स की दूसरी बटालियन ने स्वर्ण पदक जीतकर देश का सिर गौरव से ऊँचा कर दिया. बोलचाल की भाषा में हम इसे सैन्य अभ्यास का ‘मिलिट्री ओलंपिक’ कह सकते हैं. खास बात यह है कि इस मुक़ाबले में पाकिस्तानी सेना ने भी हिस्सा लिया था.  इस वर्ष कैम्ब्रियन पेट्रोलिंग में लातविया , मैक्सिको , नेपाल , कनाडा , इटली , जोर्जिया , जर्मनी , पाकिस्तान , आस्ट्रेलिया , न्यूजीलैंड , चेकोस्लोवाकिया , आयरलैंड , बोस्निया , बेल्जियम , चिली , ब्राजील सहित दुनिया के कई जाने-माने देशों की सेनाओं ने हिस्सा लिया था. वैसे 2011 तथा 2014 में भी भारतीय सैनिक इस मुक़ाबले में स्वर्ण पदक जीत चुके हैं. इसके अलावा 2015 में भी भारतीय टुकड़ी को रजत पदक मिला था. दरअसल कैम्ब्रियन पेट्रोलिंग ब्रिटेन के वेल्स की कैम्ब्रियन पहाड़ियों में हर साल होने वाला अन्तरराष्ट्रीय सैन्य अभ्यास है। इसकी शुरुआत 1959 में वेल्स प्रादेशिक सेना के सैनिकों के लिए की ग

बहिष्कार नहीं, बलशाली भारत है चीन का इलाज

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इन दिनों सोशल मीडिया पर चीन में बने सामान का बहिष्कार करने की अपील को लेकर होड़ मची है. यहाँ तक परस्पर व्यापार, राजनयिक लोकाचार और आर्थिक ताने-बाने को समझने वाले लोग भी चीनी सामान के बहिष्कार की भेड़चाल में शामिल हैं. बहिष्कार के लिए चीन की बनी लाइट, आतिशबाजी, दिए नुमा मोमबत्ती और दीपावली की सजावट से जुडी सामग्री नहीं खरीदने की अपील की जा रही है. कई राजनीतिक दल, मुख्यमंत्री और इसी कद के तमाम नेता भी अपनी सभाओं में बहिष्कार की बातें जोर-शोर से उठा रहे हैं. आम तौर पर सभी अपीलों में यही बताया जा रहा है कि चीन ने हर कदम पर पकिस्तान का साथ दिया है और दे भी रहा है इसलिए उसे सबक सिखाने के लिए चीन में बने इन सामानों का बहिष्कार कीजिए जिससे चीन को व्यापारिक नुकसान हो और आर्थिक दबाव में उसे भारत विरोधी रुख छोड़ना पड़े. मैं भी इस बात से पूरी तरह इत्तेफ़ाक रखता हूँ कि कोई भी देश, जो हमारे राष्ट्रीय हितों के खिलाफ काम कर रहा है उसे सबक सिखाया जाना जरुरी है. फिर चाहे इसके लिए उस देश में बने सामानों का बहिष्कार करना पड़े या फिर उस देश का ही. इस बात पर दो राय  नहीं हो सकती कि चीन आरम्भ से पकिस्तान क