सोमवार, 14 जून 2010

गायें खा रही हैं "गौमांस" और इंसान.....


फिल्म गोपी का एक गीत "रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलयुग आएगा,हंस चुनेगा दाना और कौवा मोती खायेगा..." आज भी लोकप्रिय है और मौजूदा परिस्थितियों पर बिलकुल सटीक लगता है क्योंकि जब गाय ही घास की जगह मांस और कई जगह तो गोमांस(beef) खाने लगे तो इस गाने में की गई भविष्यवाणी सही लगने लगती है. चौंक गए न आप भी यह सुनकर? मेरा हाल भी यही हुआ था. दरअसल जुगाली करना हमेशा ही फायदेमंद होता है. अब यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि जुगाली का मतलब बौद्धिक वार्तालाप होता है. आज हम कुछ मित्र ऐसे ही भोजनावकास में जुगाली कर रहे थे तो हाल ही में खाड़ी देशों की यात्रा से लौटे एक मित्र ने चर्चा के दौरान बताया कि अधिकतर खाड़ी देशों में गायें मांस युक्त चारा(fodder) खा रही हैं. उनका कहना था कि वहां हरी घास तो है नहीं और न ही हमारी तरह भरपूर मात्र में भूसा उपलब्ध है इसलिए गायों को मांस आधारित चारे से गुजारा करना पड़ता है. कई देशों में तो गायों को गाय के मांस वाला चारा ही खिलाया जाता है. यह जानकारी मेरे लिए तो चौकाने वाली थी शायद आप में से भी कई ही लोग यह बात जानते होंगे? इसी बातचीत के दौरान दिल्ली में काफी समय से रह रहे एक मित्र ने बताया कि दिल्ली के सफदरजंग इन्क्लेव में कमल सिनेमा के पास एक मांस की दुकान है जहाँ अक्सर गाय घूमती रहती हैं और वे खुलेआम पड़े मांस के टुकड़ों को खाती रहती हैं.मित्र ने मजाक में कहा कि यदि आप एक 'लेग- पीस' वहां फेंको तो कई गाय भागती हुई आ जाएँगी. बातचीत के दौरान मुझे भी अपने बचपन में आँखों देखा एक किस्सा याद आ गया. हम लोग मध्यप्रदेश के करेली कस्बेमें रहते थे.वहां एक कंजड मोहल्ला काफी बदनाम था, दरअसल यहाँ महुए को सड़ाकर देशी शराब बनायीं जाती थी और बाद में सड़े-गले महुए को यूँ ही सड़क पर फेंक दिया जाता था.इसके चलते उस इलाके कि ज़्यादातर गायें सडा महुआ खाने की आदी हो गयी थी. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि जिस दिन उन्हें पर्याप्त मात्रा में महुआ नहीं मिलता वे दूध नहीं देती या सामान्य दिनों की तुलना में काफी कम मात्रा में दूध देती थी.एक तरह से उस इलाके की गायें महुआ के नशे की आदी हो गयी थी. सोचिये क्या समय आ गया है जब गायों को देशी शराब और मांस खाना पड़ रहा है? क्या हम इस लायक भी नहीं रहे कि धार्मिक रूप से माता मानी जाने वाली गाय को भरपेट चारा तक उपलब्ध नहीं करा सकते? कहाँ हैं हमारे तथाकथित 'धर्मरक्षक',जो किसी गैर हिन्दू के फिजूल के बयाँ पर इतनी हाय-तौबा मचाते हैं कि देश में दंगे की स्थिति बन जाती है या वे हिन्दू वीर ,जो ज़रा-ज़रा सी बात पर कत्ले-आम पर उतारू हो जाते हैं? यहाँ इस जानकारी का उल्लेख करने का उद्देश्य किसी की भावनाओं या रीति-रिवाजों का मजाक उड़ना नहीं है बल्कि इंसानों के तानाशाही पूर्ण रवैये और मनमानी हरकतों से प्रकृति के साथ हो रहे खिलवाड़ को उजागर करना भर है. यदि अभी भी हमने पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ बंद नहीं की तो आज हमारे पालतू पशुओं का यह हाल है कल हमारा हाल इससे भी बदतर हो जायेगा?

11 टिप्‍पणियां:

  1. प्राकृतिक संसाधनों को छेड़े जाने के परिणामस्वरूप उपजी हुई बहुत चिंताजन स्थिति है यह...!!

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  2. ab prakriti ko chhedoge to yahi haal hoga...ham bhi yahi karne wale hain...

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  3. वाह जी वाह खुब लिखा है। एक तरफ तो हमारे लिए शर्म की बात ही है।

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  4. वाकई दुःख की बात है. गंगा का पानी कैंसरकारक हो गया, गायों को मांसभक्षण करना पद रहा है और धर्म के रक्षक वेलेन्ताइन्स डे मनाने वालों को मुर्गा बना रहे हैं.

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  5. क्या करे इनके हिस्से पर तो आवारा कमीने इंसान ने कब्जा कर लिया , और अब उलटे इन्हें आवारा कहता है !

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  6. संस्कृ्ति रक्षकों को भला क्या पडी है...उन्हे अपने गदर्भ राग अलापने से फुर्सत मिले तो वो लोग इस सब चीजों के बारे में सोच पाएं....बहरहाल प्रकृ्ति से खिलवाड के दुष्परिणाम तो भोगने ही पडेंगें..आज पशु भोग रहे हैं,कल को इन्सान भोगेगा..

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  7. वास्तव में यह मेरे लिए चौकाने वाली जानकारी है. यह बहुत ही पीड़ादायक है.
    हमने प्रकृति का जीवचक्र बिगाड़ दिया है जिसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं.

    Dharmendra Pant

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  8. बेहतरीन पोस्ट शर्मा जी आपके पोस्ट जनसत्ता और दैनिक जागरण में प्रकाशित हो रहे हैं, मालूम था एक दिन ये तो होगा ही
    बधाई आपकी सक्रियता के लिए ....शुभकामनाएं

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  9. मुझे याद है कि जब मैं छोटा था और कुछ वर्ष गाँव में ही रहते हुए यह देखता था कि गाय जब बूढ़ी हो जाती थी और दूध देना बंद कर देती थी तो हिन्दू,जो गाय को माता की संज्ञा देते हैं, ही उसे कसाई को बेच अपना पिंड छुड़ा कर आ जाते थे और ऐसा गाँवों में आजकल भी निरंतर हो रहा है...
    आपने एक सार्थक पोस्ट लिखी इसके लिए शुभकामनाएं...

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  10. आपने एक घिन्न पैदा करने वाली जानकारी को उजागर किया है। वस्तुत: इन कसाई और माँसभक्षियों नें न केवल मानव के प्रकृतिक आहार को बिगाडा है बल्कि निर्दोष पशुओं के आहार को भी भ्रष्ट कर दिया है। यह प्रकृति के साथ भ्रष्टाचार है।
    जीवदया पर करूणा दृष्टि रखने वाले भी कहाँ तक पहूँचे? फिर भी उनकी क्षमता अनुकूल गौशालाओं आदि का निर्माण हो रहा है। किन्तु मांसभक्षियों की गिद्ध भूख और पशु संरक्षण के संसाधनों में बहुत बड़ा अन्तर है, खाने वाले एक दिन में हजारों को सफाचट करने सामर्थ्य रखते है क्योंकि मांस पैदा करना मोटे लाभ उद्योग बना है जबकि पशुरक्षावादियों को प्रत्येक पशु को उसकी उम्र तक पालन पोषण करना पड़ता है। यह बहुत बड़ा गैप है जो निरंतर माँस प्रचारको द्वारा बढ़ाया जा रहा है।

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  11. और संरक्षण पालन पोषण का उत्तरदायित्व मात्र तथाकथित 'धर्मरक्षकों'का ही नहीं है, पर्यावरण से प्रेम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को आगे आना होगा, पशु-रक्षको, जीवदयावादियों, करूण संवेदनाधारियों को भी आगे आना पडेगा। मात्र व्यंग्य से यह घृणित समस्या सुलझने वाली नहीं। सभी करूणा और दया या रहम में मानने वालो को बनते योगदान करना ही चाहिए। किनारे बैठ देखना विद्रुपता कही जाएगी।

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