बुधवार, 25 सितंबर 2024

ढाई राज्यपाल और दो मुख्यमंत्रियों वाला अनूठा शहर…!!

एक शहर में ढाई राज्यपाल और दो मुख्यमंत्री!!…पढ़कर आप भी चौंक गए  न? हम-आप क्या, कोई भी आश्चर्य में पड़ जाएगा कि कैसे एक शहर या सीधे शब्दों में कहें तो एक राजधानी में कैसे दो मुख्यमंत्री और ढाई राज्यपाल हो सकते हैं। राजनीति की स्थिति तो यह है कि अब एक ही दल में वर्तमान मुख्यमंत्री अपने ही दल के पूर्व मुख्यमंत्री को बर्दाश्त नहीं करते तो फिर एक ही शहर में यह कैसे संभव है कि ढाई राज्यपाल और दो मुख्यमंत्री हों और फिर भी कोई राजनीतिक विवाद की स्थिति नहीं बनती।   अब तक मुख्यमंत्री पद पर एक से ज्यादा दावेदारियां, ढाई-ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री और कई उपमुख्यमंत्री जैसी तमाम कहानियां हम आए दिन समाचार पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते रहते हैं लेकिन कोई शहर अपने सीने पर बिना किसी विवाद के दो मुख्यमंत्रियों की कुर्सी रखे हो और उस पर तुर्रा यह कि मुख्यमंत्रियो से ज्यादा राज्यपाल हों तो उस शहर पर बात करना बनता है।   देश का सबसे सुव्यवस्थित शहर चंडीगढ़ वैसे तो अपने आंचल में अनेक खूबियां समेटे है लेकिन दो मुख्यमंत्री और ढाई राज्यपाल की खूबी इसे देश ही क्या दुनिया भर में अतिविशिष्ट बनाती है। जैसा की हम सभी जानते हैं कि चंडीगढ़ शहर, पंजाब और हरियाणा की राजधानी है इसलिए यहां पंजाब के मुख्यमंत्री भी रहते हैं तो हरियाणा के मुख्यमंत्री का भी सचिवालय है। अब जब मुख्यमंत्री दो हैं तो पंजाब और हरियाणा के राज्यपाल भी दो ही होंगे। लेकिन लेख का शीर्षक तो ढाई राज्यपाल' की बात कर रहा है तो फिर सवाल उठता है कि ये आधे राज्यपाल का गणित क्या है?   दरअसल चंडीगढ़, पंजाब और हरियाणा की राजधानी होने के साथ साथ केंद्रशासित प्रदेश भी है इसलिए यहां लेफ्टिनेंट गवर्नर भी होते हैं। वैसे,अभी यह दायित्व भी पंजाब के राज्यपाल गुलाब चंद कटारिया के पास है इसलिए ढाई राज्यपाल लिखा है। यदि चंडीगढ के प्रशासक या लेफ्टिनेंट गवर्नर का दायित्व किसी अन्य व्यक्ति के पास होता तो हमें तीन राज्यपाल लिखना पड़ता। यहां मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि ढाई राज्यपाल से आशय इस पद की गरिमा और दायित्वों पर टिप्प्णी करना नहीं है बल्कि दोहरा चार्ज होने के कारण हल्के फुल्के अंदाज में ढाई लिखा गया है। वैसे, लेफ्टिनेंट गवर्नर के 'पॉवर' की बात करें तो कई मामलों में वे पूरे मुख्यमंत्री पर भारी पड़ते हैं और दिल्ली से बेहतर इसका ज्वलंत उदाहरण और क्या हो सकता है।  इतने राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के कारण चंडीगढ़ का सेक्टर एक और दो वीआईपी रुतबा रखते हैं। इतना अहम शहर होने के बाद भी यहां 'वीआईपी मूवमेंट' उत्तर भारत के शहरों की तरह परेशान नहीं करता बल्कि आम लोगों की आवाजाही के बीच वीआईपी भी समन्वय के साथ 'मूव' करते रहते हैं। चंडीगढ़ का इतिहास और दो मुख्यमंत्रियों वाला शहर बनने की कहानी भी अनूठी है। दरअसल, आजादी के बाद  पंजाब का एक हिस्सा पाकिस्तान चला गया और उसकी तत्कालीन राजधानी लाहौर भी।  फिर शेष पंजाब,हरियाणा और हिमाचल को मिलाकर बने संयुक्त प्रांत की राजधानी के लिए 1953 में चंडीगढ़ बनाया गया। बताया जाता है कभी शिमला भी पंजाब की राजधानी थी। एक नवम्बर 1966 को पंजाब और हरियाणा अलग हो गए और इसके बाद, 1971 में हिमाचल प्रदेश का स्वतंत्र अस्तित्व वजूद में आ गया।   हिमाचल को तो शिमला के रूप राजधानी की सौगात मिल गई परंतु हरियाणा और पंजाब का मन चंडीगढ़ पर अटक गया और जैसे महाभारत में द्रौपदी को अनचाहे ढंग से पांच पांडवों की पत्नी का दर्जा मिला था वैसे ही चंडीगढ़ को दो राज्यों की राजधानी का गौरव मिल गया । तब यही तय हुआ था कि हरियाणा के लिए अलग राजधानी मिलने तक चंडीगढ़ उसकी भी राजधानी बनी रहेगी। खास बात यह है कि छह दशक पूरे करने जा रहे इस शहर ने द्रौपदी की तरह कभी अपने आत्मसम्मान को खंडित नहीं होने दिया और अपने गौरव को हमेशा सर्वोपरि रखा है। शायद, इस शहर की खूबसूरती, व्यवस्थापन, पर्यावरण देखकर ही केंद्र सरकार का मन भी इस पर आया होगा और 1966 में उसने अपना एक प्रतिनिधि यहां बिठा दिया और इस तरह देश के सबसे खूबसूरत शहरों में से एक चंडीगढ़ दो मुख्यमंत्रियों और तीन राज्यपालों का अनूठा शहर बन गया। 

‘बालूशाही’ के बहाने बदलाव की बात…!!

बालूशाही के बहाने आज बदलाव की बात…दरअसल, पिछले कुछ महीनों का अनुभव है कि बालूशाही एक बार फिर मिठाइयों की जीतोड़ प्रतिस्पर्धा में अपनी पहचान बनाती दिख रही है। पिछले दिनों हुए कुछ बड़े और अहम् आयोजनों में मिठाई के लिए आरक्षित स्थान पर बालूशाही ठाठ से बैठी दिखी…कहीं इसे गुलाब जामुन का साथ मिला तो कहीं किसी और मिठाई का और कहीं-कहीं तो इसकी अकेले की बादशाहत देखने को मिली। इससे शुरूआती नतीजा यही निकाला कि बालूशाही मिठाइयों की मुख्य धारा में लौट रही है और धीरे-धीरे अपना खोया हुआ अस्तित्व पुनः हासिल कर रही है। 

इन दिनों पिज़्ज़ा, बर्गर,केक और पेस्ट्री में डूब-उतरा रही नयी पीढ़ी ने तो शायद बालूशाही का नाम भी नहीं सुना होगा। इस पीढ़ी को समझाने के लिए हम कह सकते हैं कि बालूशाही हमारे जमाने का मीठा बर्गर था या फिर आज का उनका प्रिय डोनट। समझाने तक तो ठीक है, लेकिन ‘कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली’ वाले अंदाज में कहें तो बालूशाही की बात और अंदाज़ ही निराला है।

 मैदे और आटे की देशी घी के साथ गुत्थम गुत्था वाली नूराकुश्ती के बाद उठती सौंधी और भीनी सुगंध और फिर चीनी की चाशनी में इलायची की खुशबू के साथ गोते लगाती गोल मटोल बालू। दरअसल बालू इसलिए क्योंकि शाही सरनेम तो इसे चीनी और इलायची का आवरण ओढ़ने के बाद ही मिलता है। कई जगह इसे बालुका भी कहते हैं जिसका अर्थ होता है बाटी या गेंहू से बनी गेंद। जब यह बालुका, चाशनी को पीकर और उसमें नहाकर शाही तेवर अपनाते हुए इतनी मुलायम हो जाती है कि मुंह में रखते ही घुल जाती है। 

देखने में कचौरी की छोटी-मीठी बहन और आकार में लड्डू की दीदी बालूशाही किसी समय हर शादी-ब्याह,पार्टी और पंगत का सबसे प्रमुख आकर्षण होती थी। अपने मीठे पर सूखे कलेवर के कारण इसे कहीं भी लाना-ले जाना और रिश्तेदारी में भेजना भी आसान था क्योंकि न तो यह गुलाब जामुन खानदान की तरह रस टपकाकर कपडे ख़राब करती है और न ही लड्डू की तरह भरभरा कर बिखर जाती है बल्कि यह तो ‘माँ’ की तरह ऊपर से कठोर और अन्दर से नरम स्वभाव वाली है।

 हमारी बालूशाही खोया और छेना की छरहरी मिठाइयों की तरह भी नहीं है जिनके स्वाद की असलियत दो चार दिन में खुल जाती है और वे बेस्वाद हो जाती हैं जबकि बालूशाही तो कई दिनों तक अपने स्वाद को अपने अंदर सहेजे रहती है। उत्तरप्रदेश और बिहार में तो बताते हैं कि आज भी बालूशाही का राज चल रहा है और नए दौर की मिठाइयाँ इसके इर्द-गिर्द उसी तरह संख्या बढाने का काम काम करती हैं जैसे विवाह में दुल्हन की सहेलियां। उत्तरप्रदेश के बरेली के श्यामगंज में रम्कूमल की दुकान पर मिलने वाली शुद्ध देशी घी में बन रहीं करीब 100 साल पुरानी बालूशाही की मिठास आज भी लोगों को अपनी ओर खींच लाती है। बरेली का झुमका तो पहले ही बरेली के बाजार को देश भर में लोकप्रिय बना गया लेकिन यहाँ की बालूशाही ने झुमके को भी पीछे छोड़ दिया। 

 भारत ही क्या, हमारे हमजाया पाकिस्तान-बांग्लादेश और नेपाली व्यंजनों में भी यह ऊँचे दर्जा रखती है।  बालूशाह, मक्खन बड़ा,भक्कम पेड़ा और या बाडुशा जैसे नामों से लोकप्रिय बालूशाही के नाम से भी जाना जाता है.जब बालूशाही में क्षेत्र के अनुसार कई तरह के बदलाव भी देखने को मिलते हैं मसलन उत्तर भारत में बालूशाही ज़्यादा मालदार होती है, वहीँ, दक्षिण में आमतौर पर सूखी और कम मीठी । लेकिन इस विविधता के बावजूद, बालूशाही इन दोनों ही इलाकों में अपनी खास पहचान रखती है ।

 खास बात यह है कि बालूशाही पूरीतरह से स्वदेशी है और हमारे देश में ही जन्मी और सैकड़ों साल से अपने खास स्वाद के साथ विकसित हुई है। यही कारण है कि जयपुर और घनघोर मालवा में यह मक्खन बड़ा के बदले नाम से नजर आती है. इन्हीं वहीं,मक्खन बड़ा दक्षिण में बेकिंग सोडा से यारी कर यह बाडुशा कहलाने लगती है तो गोवा जाकर वहां की खुली आवोहवा में यह भक्कम पेड़ा बन जाती है.

 बालूशाही की वापसी से यह बात भी साबित होती है कि किसी का भी समय सदैव एक सा नहीं रहता, वह बदलता जरूर है।बस, इसके लिए धीरज और कुछ समयानुरूप बदलाव की जरूरत होती है। इसलिए, यदि आप अभी गुमनामी के दौर से गुजर रहे हैं तो निश्चिंत रहिए वक्त आपका भी बदलेगा और आप भी अपने समाज की मुख्य धारा में एक दिन अवश्य ही वापस लौटेंगे।

 और हां एक और बात, जो लोग इन दिनों सोन पापड़ी का मज़ाक बना रहे हैं वे भी ध्यान रखें कि सुनहली रंगत वाली यह मिठाई एक दिन फिर शादी-पार्टियों की शान बनेगी और तब आपको उसके डिब्बे बिना खोले किसी और के यहां भेज देने का पछतावा होगा। वैसे भी, वंदे भारत जैसी ट्रेनों में सोन पापड़ी अपने परिवार को छोड़कर अकेले नई पैकिंग में नजर आने लगी है। आप भी, समय के मुताबिक खुद में कुछ बदलाव लाइए और फिर देखिए,समाज आपको कैसे हाथों हाथ लेता है।

वे अपने से हैं, सभी के हैं, तभी तो परम प्रिय हैं गणेश…,!!

वे खुश मिजाज हैं, बुद्धि, विवेक, शक्ति, समृद्धि, रिद्धि-सिद्धि के दाता हैं, अष्ट सिद्धि और नौ निधि के ज्ञानी हैं, फिर भी उनमें जरा भी घमंड नहीं है, बिलकुल सहज और सरल हैं इसलिए लोकप्रिय है और प्रथम पूज्य भी । भक्तों की रक्षा के लिए वे दुष्टों का संहार करते हैं तो भक्तों की इच्छा पर अपना सर्वत्र देने में भी पीछे नहीं रहते। वे सभी के हैं…सभी के लिए हैं तभी तो परम प्रिय हैं गणेश।   

वे सहज हैं, सरल हैं और सर्व प्रिय भी। बच्चों को वे अपने बालसखा लगते हैं तो युवा उन्हें सभी परेशानियों का हल मानते हैं । बुजुर्गों के लिए वे आरोग्यदाता और विघ्नहर्ता हैं तो महिलाओं के लिए सुख समृद्धि देने वाले मंगलमूर्ति। यह देवताओं में तुलना की बात नहीं है लेकिन भगवान गणेश जैसी व्यापक, सर्व वर्ग और हर उम्र में लोकप्रियता ईश्वर के किसी भी अन्य रूप को इतने व्यापक स्तर पर हासिल नहीं है। सभी वर्ग, जाति और उम्र के लोग श्री गणेश को अपने सबसे करीब पाते हैं इसलिए वे लोक देव हैं।   

उनकी भक्ति और आराधना के कोई कठोर नियम नहीं हैं। उनकी पूजा में सरलता, सार्वभौमत्व और व्यापक अपील है। आप ढाई दिन पूजिए या दस दिन, मिट्टी से बनाइए या पान सुपारी से या फिर किसी ओर सामग्री से,विधि विधान से पूजिए या केवल हाथ जोड़कर स्मरण करिए…वे आपसे खुश ही रहेंगे ।  गणेश जी को विघ्नहर्ता और बुद्धि के देवता के रूप में पूजा जाता है। गणेश जी को विघ्नहर्ता इसलिए माना जाता है क्योंकि वे जीवन में आने वाली बाधाओं को दूर करते हैं। उनकी बुद्धि और ज्ञान के किस्से घर घर में मशहूर है। 

गणेश जी की सौम्य और मिलनसार छवि है, जो लोगों को उनसे जुड़ने में मदद करती है।  गणेश जी सभी जाति और धर्म के लिए पूज्य हैं, इसलिए  उन्हें घर घर में पूजा जाता है।  भगवान गणेश को लोक देवता इस कारण से भी माना जाता है क्योंकि वे विभिन्न भारतीय परंपराओं और समाजों में व्यापक रूप से पूजित हैं। गणेश जी की पूजा हर वर्ग और जाति के लोग करते हैं, और उनकी उपस्थिति घर के हर कोने में महसूस की जाती है। 

गणेश को बाधाओं को हटाने वाले और समृद्धि के देवता के रूप में पूजा जाता है, जिससे वे सभी लोगों के लिए प्रिय बन जाते हैं। उनकी सरलता, समर्पण, और असीमित दया के कारण वे आम जनमानस के बीच गहरे तौर पर जुड़ गए हैं।  गणेश की सुंदरता, उनके विशेष रूप हाथी का सिर, मानव शरीर और उनके दया भाव की वजह से उन्हें हर उम्र के लोग पसंद करते हैं।  

गणेश की कथाएँ और उपदेश जीवन की महत्वपूर्ण सीख देती हैं, जैसे धैर्य, समर्पण, और कठिनाइयों का सामना करना, जो हर उम्र के लोगों के लिए प्रेरणादायक होते हैं। कुल मिलाकर कहने का अर्थ यह है कि यदि आप सरल,सहज,मददगार और मिलनसार हैं तो आपका बेढब स्वरूप भी सब को प्रिय लगने लगते है वरना खराब स्वभाव और लोक व्यवहार की कमी आपकी सुंदरता को भी कुरूप बना सकती है। आप में क्षमता है तो आप भगवान गणेश की तरह चूहे पर बैठकर भी दुनिया जीत सकते हैं वरना जहाज भी कम पड़ जाते हैं।..और, सबसे जरूरी है सभी को साध लेने का गुण जो आपको बच्चों से लेकर महिलाओं और बुजुर्गों  तक से अपनापन दिला सकता है। तो, इन दस दिनों में रिद्धि सिद्धि के दाता की भक्ति के साथ उनके स्वभाव,व्यक्तित्व और सोच की सहजता को जीवन में उतारने का प्रयास करिए और फिर देखिए कैसे समय के साथ सुख समृद्धि से आपकी झोली भरती जाएगी।

गणेश विसर्जन…मानो, मतदान की रात!!

 

कबीर दास जी ने लिखा है..’लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल, लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल'...कुछ यही हाल अनंत चतुर्दशी के दिन मुंबई,भोपाल और जबलपुर जैसे तमाम शहरों का था। कबीर ने यह दोहा भले ही किसी और भाव में लिखा था लेकिन फिलहाल तो यह गणेश विसर्जन के माहौल पर सटीक लग रहा था क्योंकि

हर तरफ गणेश जी ही गणेश जी थे..कहीं छोटे से खूबसूरत गणेश तो कहीं लंबे चौड़े लंबोदर, कहीं पंडाल को छूते गणेश तो कहीं भित्ति चित्र में सिमटे गणेश। भोपाल में एक पंडाल ने तो भगवान गणेश के जरिए मां भगवती और भोले शंकर दोनों को साध लिया। उन्होंने शेर पर मां दुर्गा की वर मुद्रा वाली शैली में भगवान गणेश को बिठा दिया और उन्हें शिवशंकर की तरह जटा जूट के साथ नीले रंग में रंग दिया…मतलब, आप विघ्नहर्ता के साथ शक्ति और शिव को भी महसूस कर सकें। 

खैर, अनंत चतुर्दशी के माहौल पर ही कायम रहें तो तमाम घाटों पर एक के बाद एक गणेश चले आ रहे थे। कहीं, साइकिल पर गणेश तो कहीं रिक्शे पर, मोटरसाइकिल पर, कार में और यहां तक कि ट्रैक्टर और ट्रक में भी। जहां देखो वहां बस भगवान गणेश और उनके साथ था हजारों स्त्री/पुरुष/युवाओं/बच्चों का हुजूम…जो डीजे पर बज रहे अलग अलग धुन के कानफोडू गीतों पर एक ही ढंग से नाचता-कूदता सड़कों/घाटों को रौंदने पर आमादा था।

सड़कों पर गूंजती पुलिस की सीटियां और इशारे उनके नृत्य के जोश को कम करने के बजाए बढ़ाने में ‘बघार लगाने जैसा’ काम कर रहे थे। सबसे दर्शनीय आलम तो घाटों पर था…बिल्कुल मतदान वाले दिन जैसा। कल्पना कीजिए,मतदान के बाद मतपेटी और अन्य चुनावी सामग्री जमा कराने के लिए कैसा कोहराम मचता है…सभी चाहते हैं कि उनकी वोटिंग मशीन जमा हो और वे गंगा नहाएं। कुछ यही हाल विसर्जन स्थल पर प्रतिमाएं सौंपने का था। सभी इस चक्कर में थे कि फटाफट अपनी मूर्ति सौंपे और घर पहुंचे लेकिन ‘पहले मैं,पहले मैं’ की चिल्लपो में कोई भी आगे नहीं बढ़ पा रहा था जबकि भोपाल सहित तमाम शहरों में नगर निगम और जिला प्रशासन ने क्रेन और भीमकाय मशीनों के जरिए विसर्जन की आसान व्यवस्था कायम की थी।  

वैसे भी,हम भारतीय मौलिक रूप से आसान व्यवस्था को भी कठिन बनाने में माहिर हैं इसलिए किसी को भगवान गणेश को क्रेन के हवाले करने की जल्दी थी तो कोई मंडल सपरिवार यहां भी फुरसत से आरती करने में जुटा था।

बारिश और कारों की धमा चौकड़ी के कारण विसर्जन घाट में बना कीचड़ का दरिया मानो चप्पल जूतों से होकर कपड़ों पर मॉर्डन आर्ट बनाने को बेताब था । फिर भी, उसी में छप छप करके अपने साथ साथ अन्य लोगों को अपनी कीचड़-कारी का नमूना पेश करते लोगों में अपनी अपनी प्रतिमाएं सौंपने की होड़ मची थी। हड़बड़ी में कुछ लोगों ने अपने वाहन भी इतने बेतरतीब तरीके से खड़े किए थे कि गलती से भी कोई बिना कीचड़ में लिपटे न निकल सके। इस सबके बाद भी विसर्जन वीर पूरे जोश में थे और कुछ तो होश तक खो चुके थे। इस तरह के टुन्न बहादुरों को नियंत्रित करना ज्यादा मुश्किल था क्योंकि उत्साह में उनके क्रेन पर चढ़कर प्रतिमा की जगह खुद विसर्जित होने का खतरा ज्यादा था। फिर भी सरकारी अमले ने आपा नहीं खोया और विसर्जन कार्यक्रम ‘गणपति बप्पा मोरया अगले बरस तू जल्दी आ..’ की गर्जना और मंगल कामना के साथ बिना किसी अमंगल के पूरा हो गया।



 


शनिवार, 15 जून 2024

भारतीय पराक्रम की स्वर्णिम गाथा है… ‘विजय दिवस’

सोलह दिसंबर दुनिया के इतिहास के पन्नों पर भले ही महज एक तारीख हो लेकिन भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश के इतिहास में यह तारीख कहीं स्वर्णिम तो कहीं काले हर्फो में दर्ज है। भारत में यह तारीख विजय की आभा में दमक रही है तो बांग्लादेश के लिए तो यह जन्मतिथि है । पाकिस्तान के लिए जरूर यह दिन काला अध्याय है क्योंकि इसी दिन उसका एक बड़ा हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान से बांग्लादेश बन गया था। वैसे भी,पाकिस्तान के लिए यह दिन किसी बुरे सपने से कम नहीं था क्योंकि उसकी हजारों सैनिकों को सर झुकाकर भारत की सरपरस्ती में इतिहास की सबसे बड़ी पराजय स्वीकार करनी पड़ी थी। 

इतिहास के पन्नों में दर्ज निर्णायक तारीख जरूर 16 दिसंबर 1971 है, लेकिन पाकिस्तान की कारगुजारियों ने उसकी नींव कई साल पहले डाल दी थी । जब उसकी सेना के अत्याचारों से कराह रहे पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने मदद के लिए भारत से गुहार लगाना शुरू कर दिया था। आखिर, तत्कालीन भारत सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा और फिर भारतीय सैनिकों के शौर्य और पराक्रम का स्वर्णिम पन्ना ‘विजय दिवस’ के नाम से इतिहास में दर्ज हो गया ।

16 दिसंबर 1971 को ढाका में पाकिस्तान की ओर से पूर्वी मोर्चे पर कमान संभाल रहे लेफ्टिनेंट जनरल अमीर अब्दुल्ला खान नियाजी ने भारतीय सेना के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा और हजारों उत्साही लोगों की भीड़ के समक्ष आत्मसमर्पण के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए। हस्ताक्षर के बाद जनरल नियाजी ने अपनी रिवाल्वर जनरल अरोड़ा को सौंपकर पराजय स्वीकार कर ली। इस ऐतिहासिक अवसर पर बांग्लादेश सशस्त्र बल के डिप्टी कमांडर-इन-चीफ एयर कमोडोर ए के खांडकर और भारत की पूर्वी कमान के लेफ्टिनेंट जनरल जे एफ आर जैकब ने आत्मसमर्पण के गवाह की भूमिका निभाई जबकि पाकिस्तान की ओर से तो उसकी सेना के सर झुकाए 90 हजार सैनिक इस पराजय के साक्षी थे।

भारतीय सेनाओं के अदम्य साहस, वीरता, बलिदान और पराक्रम के लिए दुनिया के सैन्य इतिहास की इस अमिट तिथि को हर साल विजय दिवस के रूप में याद किया जाता है। इस दिन ऐतिहासिक युद्ध में जीत हासिल करने वाले भारतीय सैनिकों को देशभर में विनम्र श्रद्धांजलि दी जाती है। इन कार्यक्रमों में प्रधानमंत्री,मुख्यमंत्री सहित देश और प्रदेश की शीर्ष हस्तियां भी शामिल होती हैं। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया पर लिखा 'विजय दिवस पर, हम उन सभी बहादुर नायकों को हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं जिन्होंने 1971 में निर्णायक जीत सुनिश्चित करते हुए कर्तव्यनिष्ठा से भारत की सेवा की. उनकी वीरता और समर्पण राष्ट्र के लिए अत्यंत गौरव का स्रोत है. उनका बलिदान और अटूट भावना हमेशा लोगों के दिलों और हमारे देश के इतिहास में अंकित रहेगी. भारत उनके साहस को सलाम करता है और उनकी अदम्य भावना को याद करता है.' इस साल,रक्षा राज्य मंत्री अजय भट्ट ने नई दिल्ली में विजय दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय युद्ध स्मारक पर श्रद्धांजलि अर्पित की। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और अन्य लोगों के साथ नई दिल्ली में आर्मी हाउस में विजय दिवस की पूर्व संध्या पर 'एट होम' रिसेप्शन में शामिल हुईं।

आइए, अब एक नजर इस विजय दिवस की पृष्ठभूमि पर डालते हैं। दरअसल,भारत से बेमेल विभाजन के बाद बने पाकिस्तान में पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच कभी भी एका नहीं रहा और पश्चिमी पाकिस्तान के प्रभुत्व वाले शासकों ने बंगाली बहुल पूर्वी हिस्से को दबाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह खाई जब और चौड़ी हो गई तब 1970 के दौरान हुए आम चुनावों में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीबुर रहमान की अवामी लीग पार्टी को जबरदस्त समर्थन मिला और उसने सरकार बनाने का दावा किया, लेकिन पाकिस्तानी हुकूमत को यह बर्दाश्त नहीं हुआ कि उसकी नाफरमानी करने वाली कोई पार्टी वहां सत्ता संभाले। 

इसलिए जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व वाली पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार ने येन केन प्रकारेण इस बात के प्रयास शुरू कर दिए कि अवामी लीग को सत्ता न मिले। अपने षड्यंत्र को पूरा करने के लिए उसने सेना को भी मोर्चे पर लगा दिया। पर्याप्त जनसमर्थन के बाद भी सत्ता से दूर रखने की साजिश का अवामी लीग ने राजनीतिक स्तर पर विरोध किया और इससे पूर्वी पाकिस्तान में हालात खराब होते चले गए। लोकतंत्र की आवाज़ को दबाने के लिए पाकिस्तान सरकार ने अवामी लीग के नेता शेख मुजीबुर रहमान को गिरफ्तार कर लिया गया. इस कदम से विरोध हिंसक हो गया और पाकिस्तान के दोनों हिस्सों पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान में हालात बेकाबू होने लगे। पूर्वी पाकिस्तान में हालात बद से बदतर होने के कारण बड़ी संख्या में वहां से शरणार्थी भारत आने लगे।

भारत ने मानवीय आधार पर शरणार्थियों को हरसंभव सहायता प्रदान की। भारत की ओर से मदद देने से पाकिस्तान बौखला गया और उसने भारत को आंख दिखाते हुए हमले करने की धमकियां देना शुरू कर दिया. अपने बिगड़ते अंदरूनी हालात के कारण पाकिस्तानी शासक वास्तव में अपनी सुध बुध खो बैठे और उन्होंने परिणामों और अपने हित अहित की चिंता किए बगैर 3 दिसंबर 1971 को भारत के कई शहरों पर हमला कर दिया. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आधी रात को देश के नाम संबोधन में  पाकिस्तान की ओर से किए गए हमले की जानकारी देते हुए अपनी ओर से भी युद्ध  का ऐलान कर दिया। 

भारत-पाकिस्तान युद्ध करीब 13 दिन तक चला और 16 दिसंबर को भारत की ऐतिहासिक जीत और बंगलादेश के निर्माण के साथ समाप्त हुआ। युद्ध के समापन पर  93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सेनाओं के समकक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था। इस युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी. इस दौरान  करीब 3 हजार 900 भारतीय सैनिकों को अपना सर्वोच्च बलिदान देना पड़ा। पाकिस्तान का तो अंतर राष्ट्रीय बिरादरी के सामने न केवल सर झुका बल्कि उसे भारी नुकसान उठाना पड़ा । 

पाकिस्तान के साथ इस युद्ध में विजयश्री का वरण करने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूर्वी पाकिस्तान को एक नया राष्ट्र बनाने का एलान किया, जिससे बांग्लादेश का जन्म हुआ. इस युद्ध में भारतीय सैनिकों ने साबित कर दिया कि परम पराक्रमी होने के बाद भी भारतीय नीति के पालन करते हुए कभी भी किसी देश पर हमला नहीं करते लेकिन यदि किसी देश ने गलत इरादों और दुश्मनी की मंशा से भारत पर हमला किया तो वे मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम हैं ।

उपलब्धियों का गढ़ है डीआरडीओ

अपनी गर्जना और मारक क्षमता से दुश्मन के कलेजे में सिहरन पैदा करने वाला लड़ाकू विमान ‘तेजस’ हो या जमीन पर अपनी आवाज़ और सटीक गोलाबारी से शत्रु को नेस्तनाबूद करने वाला मुख्य युद्धक टैंक 'अर्जुन एमके-I' या फिर दुश्मन के विमानों को सूंघने में सक्षम ‘अवाक्स’ प्रणाली या शत्रु पर ताबड़तोड़ रॉकेट बरसाने वाला ‘पिनाका’....जब भी किसी नवीनतम हथियार प्रणाली या अत्याधुनिक तकनीक का जिक्र होता है तो डीआरडीओ का नाम हमेशा सबसे प्रमुखता से सामने आता है। डीआरडीओ का अर्थ है - डिफेन्स रिसर्च एंड डेवलपमेंट आर्गेनाईजेशन, इसे हम हिंदी में रक्षा अनुसंधान एवं विकास विभाग के नाम से जानते हैं। छः दशक से ज्यादा समय से भारतीय रक्षा और सुरक्षा तंत्र का मुख्य आधार डीआरडीओ ने हाल ही में अपना 66 वां स्थापना दिवस मनाया है। इन छियासठ सालों में डीआरडीओ ने अस्त्र-शस्त्रों और तकनीक के मामले में भारतीय सेनाओं को इतना दिया है कि यदि उनके केवल नामों का ही यहाँ उल्लेख किया जाए तो कई पन्ने भर जाएंगे। फिर भी कुछ अहम् संसाधनों की बात करें तो  सेना और वायु सेना के लिए पृथ्वी मिसाइल, सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल 'ब्रह्मोस', रिमोट संचालित वाहन 'निशांत', पायलट रहित लक्ष्य विमान 'लक्ष्य-I',  बख्तरबंद इंजीनियर रेकी वाहन, एनबीसी रेकी वाहन, ब्रिजिंग सिस्टम 'सर्वत्र',एकीकृत सोनार प्रणाली, हथियार का पता लगाने वाला रडार 'स्वाति, 3डी निगरानी रडार 'रेवती', नौसेना के लिए इलेक्ट्रॉनिक युद्ध प्रणाली 'संग्रह' ,इलेक्ट्रॉनिक युद्ध प्रणाली 'दिव्य दृष्टि', टॉरपीडो 'वरुणास्त्र' उल्लेखनीय नाम हैं। डीआरडीओ का खजाना उपलब्धियों से भरा हुआ है।

डीआरडीओ का गठन 1958 में भारतीय सेना के तकनीकी विकास प्रतिष्ठान और रक्षा विज्ञान संगठन के साथ तकनीकी विकास एवं उत्पादन निदेशालय को मिलाकर किया गया था। इसका उद्देश्य रक्षा प्रौद्योगिकी के मामले में एकीकृत रवैया अपनाना था। डीआरडीओ तब 10 प्रतिष्ठानों या प्रयोगशालाओं वाला एक छोटा संगठन था। वर्षों से, यह विषयों की विविधता, प्रयोगशालाओं की संख्या, उपलब्धियों और कद के मामले में एक पौधे से वट वृक्ष बन गया है। आज, डीआरडीओ के पास लगभग 41 प्रयोगशालाओं और 5 डी आर डी ओ युवा वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं का विशाल नेटवर्क है, जो भारतीय सेनाओं के जरूरी हर प्रकार की रक्षा प्रौद्योगिकियों को विकसित करने में लगे हुए हैं, इनमें वैमानिकी, आयुध, इलेक्ट्रॉनिक्स, लड़ाकू वाहन, इंजीनियरिंग सिस्टम, इंस्ट्रूमेंटेशन, मिसाइल, उन्नत कंप्यूटिंग और सिमुलेशन जैसी तम प्रणालियाँ शामिल हैं ।

सामान्य भाषा में समझे तो डीआरडीओ भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय की अनुसन्धान और विकास शाखा है, जो अत्याधुनिक रक्षा प्रौद्योगिकियों और महत्वपूर्ण रक्षा प्रौद्योगिकियों और प्रणालियों में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए काम कर रही है। इस संगठन का आदर्श वाक्य "बलस्य मूलम् विज्ञानम्" - विज्ञान ही शक्ति का स्रोत है । डीआरडीओ ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी विशेषकर सैन्य प्रौद्योगिकियों के क्षेत्र में राष्ट्र को मजबूत और आत्मनिर्भर बनाने में कोई कसार नहीं छोड़ी है ।

डीआरडीओ का मूल उद्देश्य विश्व स्तरीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी आधार की स्थापना द्वारा भारत को समृद्ध बनाना और उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धी प्रणालियों और समाधान से सुसज्जित कर हमारी रक्षा सेवा को निर्णायक बढ़त प्रदान करना है । यदि हम इसके ध्येय की बात करें तो इसमें हमारी सुरक्षा सेवाओं के लिए अत्याधुनिक सेंसर, आयुद्ध प्रणाली, प्लेटफॉर्म और संबद्ध उपकरण के उत्पादन का डिजाइन विकास और नेतृत्व करना, युद्ध  के प्रभाव का मुकाबला करने के लिए सेनाओं को प्रौद्योगिकी समाधान प्रदान करना और सैन्य दल के कल्याण को बढ़ावा देना तथा बुनियादी सुविधाओं और प्रतिबद्ध योग्य जनशक्ति का विकास करना तथा मजबूत स्वदेशी प्रौद्योगिकी आधार का निर्माण करना है ।

रक्षा अनुसंधान एवं विकास विभाग के 66 वें स्थापना दिवस पर सचिव एवं  डीआरडीओ के अध्यक्ष डॉ. समीर वी. कामत ने डीआरडीओ की विभिन्न उपलब्धियों पर प्रकाश डाला । उन्होंने इस बात पर प्रसन्नता व्यक्त की कि इस वर्ष 1 लाख 42 हजार करोड़ रुपये से अधिक मूल्य की डीआरडीओ की कई विकसित प्रणालियों को शामिल करने हेतु आवश्यकता की स्वीकृति भी प्रदान की गई है। यह किसी भी वर्ष में डीआरडीओ द्वारा विकसित प्रणालियों के लिए दी गई अब तक की सबसे अधिक राशि है। यह रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भरता का एक महत्वपूर्ण घटक है।

गौरतलब है कि डीआरडीओ ने इस साल 141 से अधिक पेटेंट दाखिल किए और 212 पेटेंट प्रदान किये हैं और उम्मीद है कि आने वाले वर्षों में यह संख्या उल्लेखनीय रूप से बढ़ेगी। डीआरडीओ द्वारा 2019 में शुरू की गई पांच युवा वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं ने भी अब प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया है । खास बात यह है कि अब डीआरडीओ की परीक्षण सुविधाएं उद्योग जगत के उपयोग के लिए खोल दी गई हैं। इसी तरह, अब तक डीआरडीओ द्वारा विकसित 1650 टीओटी भारतीय उद्योगों को सौंपे जा चुके हैं। वर्ष 2023 के दौरान, डीआरडीओ उत्पादों के लिए भारतीय उद्योगों के साथ 109 प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के लिए लाइसेंसिंग समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए। कुल मिलकर हम कह सकते हैं कि भारतीय सेनाओं और रक्षा तंत्र की रीढ़ यह संस्थान आत्मनिर्भरता के जरिये देश की बहुमूल्य राशि तो बचा ही रहा है साथ ही अन्य देशों पर निर्भरता घटाकर स्वदेशी तकनीक के जरिये देश को अलग पहचान,सुरक्षा और विदेशी मुद्रा दिलाने में भी अहम् भूमिका निभा रहा है।

तो,क्या रेणु-प्रेमचंद आएंगे पुस्तक का प्रचार करने

 

जिन्होंने जीवन में एक किताब भी न लिखी-पढ़ी है, वे भी आपको ज्ञान देते नज़र आएंगे कि यार ज्यादा पब्लिसिटी मत करो,जिसे पढ़ना होगा खुद ढूंढकर पढ़ लेगा,किताब है उत्पाद नहीं…टाइप ज्ञान की चौतरफ़ा भरमार दिखेगी। अरे भैया, हम क्या फणीश्वर नाथ रेणु हैं या मुंशी प्रेमचंद, की लोग अपने आप तलाशकर पढ़ लेंगे। कोई भी किताब अपनी विषय वस्तु,भाषा और कथन शैली से गबन, गोदान, राग दरबारी या मैला आंचल बनती है लेकिन यह तो तब पता चलेगा जब पाठकों तक वह किताब पहुंचेगी और उन पाठकों तक किताब पहुंचाने के लिए प्रचार तो जरूरी है वरना जंगल में मोर नाचा किसने देखा इसलिए मेरी किताब ‘अयोध्या 22 जनवरी’ पढ़ो या पुस्तक ‘चार देश चालीस कहानियां’ खरीदो…कहने/पोस्ट करने/मार्केटिंग/सोशल मीडिया पर शेयर करने में क्या बुराई है?


किताब कोई अमिताभ बच्चन, रजनीकांत, शाहरुख या सलमान की फिल्म तो है नहीं कि ‘पहला दिन पहला शो’ देखने वाले टूट पड़ेंगे। वैसे भी, इन नामी गिरामी अभिनेताओं को भी अपनी फिल्म चलाने के लिए कितने धतकरम करने पड़ते हैं, हम सब जानते हैं। फिल्म की लांचिंग से लेकर रिलीज तक सैकड़ों समाचार,इंटरव्यू, चटखारेदार खबरें,फोटो…और पता नहीं क्या क्या। तब जाकर फिल्म के प्रति आकर्षण बनता है और आप बेचारे नवोदित लेखक को ज्ञान दे रहे हैं कि पब्लिसिटी मत करो..क्यों?


हम सभी को रट गया है कि ‘ठंडा मतलब कोकाकोला…’, फिर भी हर गर्मी में दिनरात रटाया जाता है और कोई ज्ञानी नहीं कहता कि भैया, अब बस करो। यही नहीं, उन्हें तो अपना उत्पाद चलाने के लिए धोनी,तेंदुलकर,ऐश्वर्या से लेकर कुत्ते बिल्ली तक का सहारा लेना पड़ता है और हम यदि अपने पाठक के साथ फोटो पोस्ट कर दें तो हायतौबा मचने लगती है। फेसबुक के तमाम मठाधीश टीका टिप्पणियां जाने लगते हैं मानो कोई धर्म विरुद्ध काम हो गया। मेरा मानना है कि पुस्तक भी एक उत्पाद है जिसे लेखक ने स्वयं के पैसे लगाकर,प्रकाशन हाउस के पैसों से या फिर किसी सरकारी संस्थान की वित्तीय मदद से तैयार किया है। लेखन से लेकर प्रकाशन तक तमाम लोगों मसलन टाइपिस्ट, डिजाइनर, मशीनमैन, तकनीशियन, ले आउट बनाने वाला, कवर बनाने वाले की मेहनत जुड़ी होती है इसलिए यदि उसका ढंग से प्रचार प्रसार नहीं हुआ तो सभी के परिश्रम पर पानी फिर जाएगा। 


मेरा प्रयास भी रहता है और सलाह भी यही है कि आपकी किताब आपका और सिर्फ आपका सबसे प्रिय और कीमती प्रोडक्ट है।  उसे सुधी पाठकों तक पहुंचाना प्रकाशक के साथ साथ आपका भी कर्तव्य है इसलिए भरपूर प्रचार प्रसार कीजिए, हर मंच का उपयोग कीजिए जिससे आपकी रचना स्वांत: सुखाय न रहकर पाठकों के हाथों तक पहुंचे तभी आपकी अगली पुस्तक अपने आप पाठकों के आकर्षण का केंद्र बन जाएगी और अमीश त्रिपाठी,चेतन भगत जैसा नाम बनेगा ।


हमने देखा है न कि,बाजार में सैकड़ों प्रकार के साबुन उपलब्ध हैं, फिर भी आए दिन नए नए साबुन बाजार में आ रहे हैं। उनमें से कुछ मार्केट में अपने ‘यूएसपी’ के कारण जम जाते हैं। ग्राहकों को उस उत्पाद यूएसपी का पता तभी चल पाता है जब उस साबुन/उत्पाद का प्रचार होता है। जीवनदायिनी दवाइयों तक को तो प्रचार की जरूरत पड़ती है फिर ज्ञानदायिनी पुस्तकों के प्रचार में,उनके बारे में पाठकों को बताने में और उन्हें सही हाथों तक पहुंचाने में कैसा परहेज और किस बात की शर्म।


मेरा अपना अनुभव है, जब मैंने ‘चार देश चालीस कहानियां’ लिखी तो उसका व्यवस्थित प्रचार भी किया और उसे पाठकों का भरपूर समर्थन मिला जिसे प्रकाशन समूह की भाषा में ‘बेस्टसेलर’ कहते हैं। यदि मैं,किताब प्रकाशित करवाकर घर में रखकर बैठ जाता तो कौन उसे पढ़ पाता। पहली किताब के बाद दूसरी किताब ‘अयोध्या 22 जनवरी’ के लिए तुलनात्मक कम परिश्रम करना पड़ा। चूंकि पहली पुस्तक से पाठक मेरी लेखन और कथन शैली से परिचित हो गए थे इसलिए दूसरी किताब पढ़ने के लिए उनमें से कई पाठक पुनः जुड़े…इसलिए नए लेखकों से अपील है कि बिल्कुल न झेंपे, न ही डरें…खूब प्रचार करें और पाठकों को बताएं कि किताब में क्या खास है उसकी यूएसपी क्या है..तभी वे जुड़ेंगे और तभी पढ़ेंगे और तभी आप लेखक /कवि /कथाकार /व्यंग्यकार के रूप में स्थापित होंगे।



आइए, मेघा रे मेघा रे...के कोरस से करें 'मानसून' का स्वागत

मेघा रे मेघा रे...सुनते ही आँखों के सामने प्रकृति का सबसे बेहतरीन रूप साकार होने लगता है, वातावरण मनमोहक हो जाता है और पूरा परिदृश्य सुहाना ...