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लू से भी बचिए और लू उतारने से भी..!!

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आमतौर पर परस्पर बोलचाल में लू या लपट से जुड़े एक मुहावरे का बहुत ज्यादा इस्तेमाल होता है। यह मुहावरा है ‘लू उतारना’। कहीं भी, विवाद बढ़ने पर यह कहा जाता है कि हम ‘दो मिनट में तुम्हारी लू उतार’ देंगे। इस मुहावरे में लू से आशय निश्चित तौर पर घमंड उतारने या बेइज्जती करने से है, लेकिन तकनीकी तौर पर देखें तो यह मुहावरा भी लू से जुड़ी गर्मी की वजह से ही रचा गया होगा । दिमाग पर गर्मी चढ़ना भी एक तरह से लू लगने जैसा ही  है । हम सब जानते हैं कि गर्मी के दिनों में लू किस हद तक खतरनाक होती है। अब आपके दिमाग में यह सवाल जरूर आ सकता है कि विदा लेते मानसून और ठंडक के आगमन के बीच लू का क्या काम? लू, बेमौसम बरसात की तरह अभी कैसे टपक पड़ी तो इसकी जरूरत इसलिए पड़ी है क्योंकि मध्य प्रदेश सरकार ने हाल ही में लू को लेकर एक बड़ा फैसला किया है।  इस फैसले में लू को प्राकृतिक आपदा में शामिल कर लिया गया है । यह कदम उठाने वाला मप्र देश का संभवतः तीसरा या चौथा राज्य है।  अब तक केरल या दक्षिण के गंभीर लू ग्रस्त राज्यों ने ही इस दिशा में पहल की है। इस फैसले का फायदा यह होगा कि अब लू से होने वाली मृत्य...

मीठा राजमार्ग…जहां बन रहे है मदहोश करने वाले फूल !!

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मीठा राजमार्ग, पढ़कर अचंभा सा लगता है न क्योंकि अब तक मीठी गली, ठंडी सड़क जैसे नाम तो अमूमन सुनने को मिलते रहे हैं लेकिन ‘मीठा राजमार्ग’ कुछ अलग है। तो, आइए चलते हैं प्रदेश के एक ऐसे मीठे राजमार्ग के सफ़र पर, जहां यदि आप कुछ देर ठहर गए तो यहां बन रहे फूल की खुशबू से शर्तिया मदहोश होकर ही आगे बढ़ पाएंगे।  तो यह है मप्र का राजमार्ग क्रमांक 45 । इन दिनों, जैसे ही आप भोपाल से बरेली होते हुए नरसिंहपुर जिले की ओर बढ़ते हैं तो आप को एक मीठी, मादक सी और जानी पहचानी सी खुशबू अपनी ओर खींचने लगती है। जैसे जैसे आप नरसिंहपुर के क़रीब पहुंचने लगते हैं राजमार्ग पर मिठास और बढ़ जाती है तथा आपको रुककर इसे महसूस करने के लिए खींचती है। यदि रुक गए तो तय है कि जुबान पर फूल की मिठास लिए बिना आगे नहीं बढ़ सकते और नहीं रुके तब भी दिल ओ दिमाग पर छा गई इस मीठी सी मदहोश कर देने वाली खुशबू से पीछा नहीं छुड़ा सकते।  राजमार्ग क्रमांक 45 पर हर साल इन दिनों में यह मिठास और मदहोशी छाई रहती है और अब तो यह मीठापन यहां के लोगों के स्वभाव और तासीर का हिस्सा बन गया है। तभी तो ओशो यानि आचार्य रजनीश की वाणी और आज के ...

कब तक हमसे बचोगे धुस्का..!!

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इतनी शिद्दत से यदि भगवान को भी याद किया होता तो शायद वे भी पसीज जाते लेकिन ‘धुस्का’ को मुझ पर कोई दया नहीं आई।  धुस्का की तलाश में हमने रांची के वे सभी इलाके छान मारे, जहां आमतौर पर धुस्का की मौजूदगी पाई जाती है लेकिन तलाश पूरी नहीं हो पाई। धुस्का और इसकी उपलब्धता के इलाकों के जानकार साथियों की सहायता भी ली लेकिन उनमें से अधिकतर ने हाथ खड़े कर दिए। यहां तक कि वापिसी में एयरपोर्ट के रास्ते में हमने सभी संभावित ठिकानों पर छापेमारी की लेकिन जैसे ईडी, सीबीआई या पुलिस के डर से अपराधी छिप जाते हैं,इसी तरह धुस्का भी जैसे गायब हो गया था।  आखिर,हमने ही हार मान ली और दिल पक्का कर अगली बार धुस्का के लिए ही झारखंड की यात्रा करने की प्रतिज्ञा के साथ वापसी की उड़ान पकड़ ली।  झारखंड-बिहार से बाहर के मित्रों के लिए धुस्का कुछ उसी तरह की अबूझ पहेली है जैसे महानगरों के लोगों और शायद नई पीढ़ी के लिए टपका।  धुस्का और टपका वैसे तो अलग अलग विषय हैं और इनमें कोई समानता भी नहीं है।  लेकिन,हमने फिर भी एक समानता तलाश ही नहीं…पानी। टपका आमतौर पर बारिश में पैदा होता है और घर के कोने कोने म...

यह ठेठ मालवी अंदाज़ बनाए रखिए मुख्यमंत्री जी!!

आमतौर पर राजनीतिक पत्रकार वार्ताएं नीरस होती हैं क्योंकि नेता या तो पत्रकार वार्ता के पहले ही सब बता चुके होते हैं या फिर कुछ बताना नहीं चाहते। ऐसे में यदि पत्रकार वार्ता निवेश और आर्थिक विषय पर हो तो उसके और भी बोझिल होने के खतरे रहते हैं क्योंकि हजारों लाखों करोड़ रुपए के आंकड़े और उनका घिसा पिटा सा प्रस्तुतीकरण खबर के केंद्र होता है जो रुचिकर तो नहीं हो सकता । इसलिए जब यूनाइटेड किंगडम (यूके) और जर्मनी की यात्रा से लौटने के बाद मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव की पत्रकार वार्ता की सूचना मिली तो यही उम्मीद थी कि रोज छप रहे निवेश प्रस्तावों और आंकड़ों के अलावा कुछ नहीं होगा। वैसे भी पत्रकार वार्ता का विषय भी इन देशों की यात्रा से जुटाए गए निवेश की जानकारी देना था इसलिए बिना कोई उम्मीदें पाले अपन भी मुख्यमंत्री निवास पहुंच गए।  मुख्यमंत्री निवास का सभागार ठसाठस भरा था। दर्जनों कैमरे मशीनगन की तर्ज पर सीधे उस स्थान पर निशाना साधे थे जहां मुख्यमंत्री को बैठना था। वहीं, रिवॉल्वर और बंदूकों जैसे छोटे मोटे हथियारों की तरह यूट्यूबर्स और पोर्टल वीरों के कैमरे सभागार में यत्र तत्र सर्वत्र बिखरे पड़...

मैंने नहीं कहा रेस्ट इन पीस..!!

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मैंने नहीं कहा RIP या भगवान तुम्हारी आत्मा को शांति दे या न ही मैंने दी विनम्र श्रद्धांजलि..क्यों दे, श्रद्धांजलि या क्यों करें तुम्हारी आत्मा की शांति की प्रार्थना…तुमने ऐसा कौन सा तीर मार दिया जो शांति की कामना करें। अरे, कोई ऐसे अपने परिवार को बीच मँझधार में छोड़कर जाता है क्या?  मासूम से प्रांजल का दिल कब तुम्हारी सेवा करते करते कड़ा हो गया,तुम्हें तो ढंग से पता भी नहीं है...भाभी महीनों से कैसे तुमसे अपने आंसू छिपाकर तुम्हें हौंसला देती थी और तुमने एक बार में ही उनके विश्वास को, उनकी तपस्या को तार तार कर दिया। बिटिया प्रियम तो अब तक ठीक से समझ भी नहीं पाई कि तुमने उसके सर से अपने स्नेह की छाया दूर कर दी है । वह आज भी तुम्हारे सभी दोस्तों से वैसे ही आगे बढ़कर मिल रही थी जैसे तुम्हारे सामने मिलती थी। जब तुम एंबुलेंस में अपने पैतृक निवास ललितपुर की यात्रा के लिए लेटे थे और भाभी का करुण क्रंदन बाहर तक द्रवित कर रहा था लेकिन तुम मजबूत कलेजा किए लेटे रहे!! उस चीत्कार पर तुम्हें उठ बैठना था,दिलासा देना था भाभी को,प्रांजल को..लेकिन तुम अपनी ही दुनिया में मगन थे तो हम क्यों तुम्हारी आत्...

रावण के बहाने समाज की बात…!!

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समाज में एक बार फिर रावण ‘आकार’ लेने लगा है। हर साल इन्हीं दिनों में देश के तमाम शहरों में रावण जन्म लेने लगता है और धीरे-धीरे उसका आकार विशाल और रूप भयंकर होता जाता है। आमतौर पर मानव जीवन में बच्चों के जन्म में 9 महीने का समय लगता है लेकिन रावण तो रावण है इसलिए वह 9 महीने का सफर महज 9 दिन में पूरा कर लेता है। वैसे भी बुरी प्रवृत्तियों के विस्तार में समय कहां लगता है। अच्छाइयों को जरूर आदत बनने में कई कसौटियों से गुजरना पड़ता है।   फिलहाल, रावण का धड़ बन गया है। इसमें अहम तथ्य यह है कि जन्म के साथ ही रावण फूलना शुरू कर देता है। यह फुलाव घमंड का हो सकता है,असीमित शक्ति का और शायद संपन्नता का भी। जैसे-जैसे रावण दहन का समय नजदीक आता जाएगा रावण का शरीर और सिर घमंड से बढ़ते जाएंगे। एक सिर वाला रावण दस सिर का हो जाएगा।…और फिर जैसा कि कहावतों/मुहावरों में कहा जाता है कि ‘पाप का घड़ा भर गया है’,’बुराई का अंत निकट है’ या फिर ‘बुराई का अंत अच्छाई से होता है,’ वाले अंदाज में तमाम बड़े आकार प्रकार के बाद भी रावण को अंततः जलना पड़ता है।    वैसे, इन दिनों समाज में समय के साथ-...

हिंदी के हत्यारे…आप/हम,और कौन!!

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' हिंदी के हत्यारे’…पढ़कर आप चौंक गए न और हो सकता है कुछ लोग शायद नाराज भी हो गए होंगे क्योंकि हमारी अपनी सर्वप्रिय और मीठी हिंदी भाषा के साथ हत्यारे जैसा क्रूर शब्द सुनना अच्छा नहीं लगता । लेकिन, जब मैं यह कहूं कि मैं,आप और हम सभी हिंदी के हत्यारे हैं तो शायद आपको और भी ज्यादा बुरा लग सकता है और लगना भी चाहिए क्योंकि जब तक बुरा नहीं लगेगा तब तक हम अपनी गलतियों को सुधारने या खुद को बेहतर बनाने के लिए प्रयास नहीं करेंगे। किसी भाषा में मिलावट, व्याकरण बिगाड़कर,उसकी अनदेखी करना और उसकी बनावट एवं बुनावट से छेड़छाड़ करते जाना उसे तिल तिल कर मारना ही तो है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी कहा कि ‘मातृभाषा का अनादर मां के अनादर के समान है।जो मातृभाषा का अनादर करता है वह देशभक्त कहलाने के लायक नहीं है।’ जब गांधी जी जैसी संजीदा और संयम वाली शख्सियत मातृभाषा का सम्मान नहीं करने वालों को देशद्रोही जैसा मानने की हद तक कट्टर हो सकती है तो हमारी हिंदी भाषा को बर्बाद करने वालों को हिंदी के हत्यारे कहने में क्या बुराई है।  हम सब हिंदी की हत्यारे हैं। यहां हम सब का मतलब मैं/हम/आप/ मीडिया/ सिनेमा/ ब...

आइए, मेघा रे मेघा रे...के कोरस से करें 'मानसून' का स्वागत

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मेघा रे मेघा रे...सुनते ही आँखों के सामने प्रकृति का सबसे बेहतरीन रूप साकार होने लगता है, वातावरण मनमोहक हो जाता है और पूरा परिदृश्य सुहाना लगने लगता है। भीषण गर्मी और भयंकर तपन, उमस, पसीने की चिपचिपाहट के बाद मानसून हमारे लिए ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण प्रकृति,जीव जंतु और पक्षियों के लिए एक सुखद अहसास लेकर आता है। मई की चिलचिलाती गर्मी के साथ ही पूरा देश मानसून की बात जोहने लगता है और जैसे जैसे मानसून के करीब आने का संदेशा मिलता है मन का मयूर नाचने लगता है। पहली बारिश की ठंडक भरी फुहारों में भीगते लोग, पानी में धमा-चौकड़ी करती बच्चों की टोली, झमाझम बारिश के बीच गरमागरम चाय पकौड़े, कोयले की सौंधी आंच पर सिकते भुट्टे....क्या हम इससे अच्छे और मनमोहक दृश्य की कल्पना कर सकते हैं। वैसे भी,भारत में मानसून आमतौर पर 1 जून से 15 सितंबर तक 45 दिनों तक सक्रिय रहता है और देश के ज्यादातर राज्यों में दक्षिण-पश्चिम मानसून ने दस्तक दे दी है।   समुद्र की ओर बढ़ते मेघ जल की लहरों के साथ मिल जाते हैं, जो एक स्थल की खूबसूरती को दोगुना कर देते हैं। उनके संगम पर सूरज की किरणों का खेल, उनकी तेज रोशनी और च...

पाठकों ने इस तरह बना दिया ‘अयोध्या 22 जनवरी’ पुस्तक को दस्तावेज

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और ‘अयोध्या 22 जनवरी’ पुस्तक से दस्तावेज बन गई। अखबारों में आज छपी खबरों, मीडिया की नामचीन हस्तियों की संजीदा मौजूदगी, परिजनों,पत्रकारीय जीवन के साथियों, आकाशवाणी की टीम और विभिन्न क्षेत्रों के अनेक जाने माने लोगों की उपस्थिति और उनकी प्रतिक्रियाओं ने ‘अयोध्या 22 जनवरी’ को दस्तावेज बना दिया।   शनिवार 29 जून को रीडर्स क्लब भोपाल के ‘लेखक से मिलिए’ कार्यक्रम के दिन मौसम विभाग ने पहले ही भारी बारिश की चेतावनी देकर डरा दिया था। इसके बाद दिन चढ़ते ही शैतान बादलों ने अपनी धुंआधार कलाबाजियों से मौसम विभाग की चेतावनी को सच्चाई बना दिया। हम मतलब Manoj Kumar  भैया, मेरे हमनाम Sanjeev Persai ,अपनी ही राशि के Sanjay Saxena  और हम कदम Manisha Sanjeev जी..फिक्रमंद थे कि ऐसी बरसात में कोई कैसे आ पाएगा? लेकिन पढ़ने/सुनने/कहने की पुस्तक प्रेमियों की चाह को बारिश की धमा चौकड़ी भी नहीं रोक पाई।  कुछ भीगते,कुछ बचते बचाते लोग जुटने लगे और चार बजे के लिए निर्धारित कार्यक्रम में साढ़े चार बजे तक 9 मसाला रेस्त्रां का सभागार खचाखच भर गया (वैसे भी, भारतीय समय तो यही है कार्यक्रम शुरू होन...

एक सौ एक नॉट आउट…!!

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सौ साल पूरे करना किसी भी प्रसारण माध्यम/संस्थान के लिए गर्व की बात है। हमारे देश में विधिवत रेडियो प्रसारण का आज 101 वां जन्मदिन है।  23 जुलाई, 1927 को इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी (IBC) अस्तित्व में आई और यहीं से रेडियो प्रसारण को सरकारी संरक्षण और प्रोत्साहन मिला. यही कारण है कि 23 जुलाई राष्ट्रीय प्रसारण दिवस के रूप में मनाया जाता है.  वैसे निजी तौर पर रेडियो प्रसारण 1923 से शुरू हो गया था। 8 जून 1936 को इसे ऑल इंडिया रेडियो (AIR) नाम  दिया गया और 1957 में आकाशवाणी नाम अपनाकर कर यह रेडियो प्रसारण का पर्याय बन गया ।  हर साल नेशनल ब्रॉडकास्टिंग दिवस सेलिब्रेट करने का उद्देश्य रेडियो का महत्व याद दिलाना है।  इन सौ सालों में रेडियो ने सतत रूप से जवान होते हुए कई उपलब्धियां हासिल की हैं। अब नए नवेले डिजिटल रूप में साफ आवाज़, अल्फाज़ और अंदाज़ में यह मोबाइल फोन और कार के साउंड सिस्टम के जरिए हर घर तक पहुंच रहा है और हर दिल में जगह बना रहा है। यह हर जेब का हिस्सा भी बन चुका है।   हाल ही में रायटर और ऑक्सफोर्ड जैसे नामचीन संस्थानों के सर्वे में आकाशवाणी और आक...

क्या रेडियो डाइंग मीडियम है?

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रेडियो डाइंग मीडियम है? रेडियो कौन सुनता है? आकाशवाणी में कैरियर की क्या संभावनाएं हैं? रेडियो प्रसारण कितने प्रकार के हैं?आकाशवाणी के समाचारों की कॉपी कैसे लिखी जाती है? यह अख़बार की न्यूज से कितनी अलग है? जैसे तमाम सवालों के साथ #lnctbhopal के ‘स्कूल ऑफ़ जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन’ के विद्यार्थियों की टीम तैयार थी…अवसर था-#राष्ट्रीयप्रसारणदिवस पर ‘बदलते वक्त के साथ बदलता रेडियो’ विषय पर संवाद का।   सोशल मीडिया, पॉडकास्ट और इससे आगे बढ़ चुकी नई पीढ़ी के साथ सौ साल पुराने मीडियम की बात करना और उन्हें बातचीत में रुचि के साथ जोड़े रखना आसान नहीं है लेकिन #LNCT के सुलझे हुए गुरुओं Anu Shrivastava जी, @ManishkantJain और अन्य सहयोगियों की विद्वान टीम तथा अनुशासित विद्यार्थियों ने इस संवाद को आसान बना दिया और चर्चा संपन्न होने के बाद अधिकतर विद्यार्थियों की व्यक्त/अनकही प्रतिक्रिया यही थी कि- रेडियो और खासकर #आकाशवाणी में इतना कुछ है,हमें पता ही नहीं था।   कुछ विदेशी विद्यार्थियों को भी भारत के लोक प्रसारक के बारे में बताने का मौका मिला। उम्मीद ही नहीं पूरा विश्वास है क...

बूंदों,बादलों,पानी और हरियाली का मेला!!

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नीचे लबालब पानी,ऊपर शरारती बूंदें और चारों ओर मानसून में नहाकर चमकदार हरे रंग में रंगे वृक्षों से भरा घना जंगल। हम किसी अबूझ द्वीप या विदेश की किसी सिनेमाई लोकेशन की बात नहीं कर रहे बल्कि अपने शहर भोपाल के इर्द गिर्द बसे कई प्राकृतिक श्वसन तंत्रों में से एक कोलार डैम की बात कर रहे हैं। इन दिनों यहां प्रकृति की नैसर्गिक सुंदरता कई गुना बढ़ गई है।   चेहरे के साथ अठखेलियां करती कभी नन्हीं तो कभी बादलों से तर माल उड़ाकर आईं मोटी बूंदे, कभी भिगोकर तो कभी छींटें मारकर हमारे आसपास अपनी मौजूदगी का सतत अहसास कराती रहती हैं। वहीं, काले, घने, मचलते बादल एक छोर से दूसरे छोर तक रेस लगाते से नज़र आते हैं। ऐसा लगता है अभी टूटकर बरस पड़ेंगे और आपके पास छाते में छिपकर कार में घुसने के अलावा कोई और विकल्प नहीं रहेगा..लेकिन जैसे ही आप डरकर भागते हैं,ये नटखट और बदमाश बादल खिलखिलाते हुए कोलार बांध को दूर से निहारने के लिए कहीं ओर टहलने निकल जाते हैं।  आप, बादलों और बूंदों के खेल में ठीक से शामिल भी नहीं हो पाते हो कि नीचे कोलाहल करती विशाल जलराशि अपनी ओर ध्यान खींचने का पुरजोर प्रयास करती दिख...

समोसे-कचौरी पर क्यों मेहरबान हैं ‘सरकार’

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आप इन दिनों किसी भी सरकारी या गैर सरकारी आयोजन में जाइए, वहां खाने-पीने के नाम पर जो पैकेट दिए जाते हैं या फिर जो सामग्री परोसी जाती है उसमें समोसे, कचौरी, हॉट डॉग, बर्गर और गुलाब जामुन होना सामान्य बात है। वहीं, सामान्य ट्रेन तो छोड़िए वंदे भारत, शताब्दी और राजधानी जैसी प्रीमियम ट्रेनों में भी ब्रेकफास्ट से लेकर खाने तक के मैन्यू में समोसा, कचौरी, आइसक्रीम और गुलाब जामुन मिलना आम है। समोसा कचौरी और आइसक्रीम तो ट्रेन के खानपान का सबसे अनिवार्य हिस्सा है। कोई भी मौसम हो आपको भोजन के साथ दिन हो या रात आइसक्रीम जरूर दी जाएगी। हाल ही में मुझे विज्ञान के आईआईटी-आईआईएम स्तर के एक संस्थान के कार्यक्रम में शामिल होने का मौका मिला। वहां भी अतिथियों से लेकर विद्यार्थियों तक को खाने के नाम पर समोसा, कचौरी, हॉट डॉग और पेटिस जैसी सामग्री परोसी गई । हर सरकारी और प्राइवेट सेक्टर की कैंटीन में समोसा-कचौरी का सबसे अहम स्थान पर बैठकर इठलाना आम बात है। समोसा और कचौरी ही क्यों, गोलगप्पे, चाट, जलेबी, पकोड़े, सैंडविच, केक, ब्रेड, ब्रेड पकौड़े, मोमोज, चाउमिन, पराठे, कटलेट, फ्रेंच फ्राइज़ जैसी तमाम स्वादिष्ट ...

एक शहर से साक्षात्कार…!!

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नब्बे के दशक में जवानी की दहलीज पर पांव रखते और आंखों में उजले सपने लिए हम लोग अपने अपने कस्बों से भोपाल के लिए उड़ चले थे। पृष्ठभूमि समान थी और परवरिश भी,सपने भी साझा थे और संघर्ष भी, पैसे भी सीमित थे और परिवारिक संस्कार भी एक जैसे, इसलिए ‘दुनिया गोल है’ के सिद्धांत पर अमल करते हुए हम साल-छह महीने के अंतराल में आखिर एक दूसरे से मिल ही गए और फिर हमने शुरू किया अपने सपनों का साझा सफर। तब एक गीत की यह पंक्तियां हमें राष्ट्रीय गीत सी लगती थी: ‘छोटे-छोटे शहरों से, खाली भोर-दुपहरों से, हम तो झोला उठाके चले। बारिश कम-कम लगती है, नदियां मद्धम लगती है, हम समंदर के अंदर चले।’ वाकई, हमारा सफर कुएं से समंदर का था..अपने कस्बे से भोपाल जैसे बड़े शहर और प्रदेश की राजधानी में आना, किसी समंदर से कम नहीं था। यह बात अलग है कि प्रदेश की राजधानी भी बाद में पीछे छूट गई और कैरियर के विस्तार की रफ्तार राष्ट्रीय राजधानी तक ले गई। बहरहाल,सफर साझा था तो सामान भी,साथ भी और परस्पर सहयोग भी साझा ही था। इसका परिणाम यह हुआ कि ‘हम’ यानि मैं, इस पुस्तक के लेखक संजीव परसाई,मित्र संजय सक्सेना और अग्रज जैसे मित्र और इस प...

अब्बू खां का कुत्ता

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भोपाल का नाम तो सुना ही होगा आपने...तालाबों-झीलों और खूबसूरत वादियों वाला शहर अपनी फुट-हिल्स और हरियाली के लिए प्रसिद्ध है. यहाँ का बड़ा तालाब समंदर सा नजर आता है और पूरे शहर की प्यास बुझाने का काम करता है.  बड़े तालाब के किनारे बसा है भोपाल का सबसे वीआईपी और सुन्दर इलाका श्यामला हिल्स. यही की एक बस्ती में रहते थे अब्बू खां. वैसे तो अब्बू खां का भरा पूरा परिवार था लेकिन जवान होते ही बच्चे पंख फैलाकर उड़ गए और उन्होंने शहर में दीगर ठिकानों पर अपने घोंसले बना लिए. बेग़म असमय ही खुदा को प्यारी हो गयीं और अब्बू खां निपट अकेले रह गए. दरअसल, वे अपने खानदानी आशियाने का मोह छोड़ नहीं पाए और बच्चों के दड़बे नुमा घोंसलों में इतनी जगह नहीं थी कि वे अपनी हसरतों के साथ अब्बू खां की इच्छाओं को जगह दे सकें.  जैसा की होता है, अब्बू खां और बच्चों के बीच ईद का समझौता हो गया मतलब ईद पर बच्चे या तो अब्बू खां से मिलने आ जाते या फिर अब्बू खां किसी बच्चे के साथ ईद मनाने चले जाते. समय सुकून से गुजर रहा था और रही अकेलेपन की बात तो अब्बू खां को कुत्ता पालने का शौक था और वे कुत्ते को ही अपना साथी बना लेते थे,...

ढाई राज्यपाल और दो मुख्यमंत्रियों वाला अनूठा शहर…!!

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एक शहर में ढाई राज्यपाल और दो मुख्यमंत्री!!…पढ़कर आप भी चौंक गए  न? हम-आप क्या, कोई भी आश्चर्य में पड़ जाएगा कि कैसे एक शहर या सीधे शब्दों में कहें तो एक राजधानी में कैसे दो मुख्यमंत्री और ढाई राज्यपाल हो सकते हैं। राजनीति की स्थिति तो यह है कि अब एक ही दल में वर्तमान मुख्यमंत्री अपने ही दल के पूर्व मुख्यमंत्री को बर्दाश्त नहीं करते तो फिर एक ही शहर में यह कैसे संभव है कि ढाई राज्यपाल और दो मुख्यमंत्री हों और फिर भी कोई राजनीतिक विवाद की स्थिति नहीं बनती।   अब तक मुख्यमंत्री पद पर एक से ज्यादा दावेदारियां, ढाई-ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री और कई उपमुख्यमंत्री जैसी तमाम कहानियां हम आए दिन समाचार पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते रहते हैं लेकिन कोई शहर अपने सीने पर बिना किसी विवाद के दो मुख्यमंत्रियों की कुर्सी रखे हो और उस पर तुर्रा यह कि मुख्यमंत्रियो से ज्यादा राज्यपाल हों तो उस शहर पर बात करना बनता है।   देश का सबसे सुव्यवस्थित शहर चंडीगढ़ वैसे तो अपने आंचल में अनेक खूबियां समेटे है लेकिन दो मुख्यमंत्री और ढाई राज्यपाल की खूबी इसे देश ही क्या दुनिया भर में अतिविशिष्ट बनात...

‘बालूशाही’ के बहाने बदलाव की बात…!!

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बालूशाही के बहाने आज बदलाव की बात…दरअसल, पिछले कुछ महीनों का अनुभव है कि बालूशाही एक बार फिर मिठाइयों की जीतोड़ प्रतिस्पर्धा में अपनी पहचान बनाती दिख रही है। पिछले दिनों हुए कुछ बड़े और अहम् आयोजनों में मिठाई के लिए आरक्षित स्थान पर बालूशाही ठाठ से बैठी दिखी…कहीं इसे गुलाब जामुन का साथ मिला तो कहीं किसी और मिठाई का और कहीं-कहीं तो इसकी अकेले की बादशाहत देखने को मिली। इससे शुरूआती नतीजा यही निकाला कि बालूशाही मिठाइयों की मुख्य धारा में लौट रही है और धीरे-धीरे अपना खोया हुआ अस्तित्व पुनः हासिल कर रही है।  इन दिनों पिज़्ज़ा, बर्गर,केक और पेस्ट्री में डूब-उतरा रही नयी पीढ़ी ने तो शायद बालूशाही का नाम भी नहीं सुना होगा। इस पीढ़ी को समझाने के लिए हम कह सकते हैं कि बालूशाही हमारे जमाने का मीठा बर्गर था या फिर आज का उनका प्रिय डोनट। समझाने तक तो ठीक है, लेकिन ‘कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली’ वाले अंदाज में कहें तो बालूशाही की बात और अंदाज़ ही निराला है।  मैदे और आटे की देशी घी के साथ गुत्थम गुत्था वाली नूराकुश्ती के बाद उठती सौंधी और भीनी सुगंध और फिर चीनी की चाशनी में इलायची की खुशबू के सा...

वे अपने से हैं, सभी के हैं, तभी तो परम प्रिय हैं गणेश…,!!

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वे खुश मिजाज हैं, बुद्धि, विवेक, शक्ति, समृद्धि, रिद्धि-सिद्धि के दाता हैं, अष्ट सिद्धि और नौ निधि के ज्ञानी हैं, फिर भी उनमें जरा भी घमंड नहीं है, बिलकुल सहज और सरल हैं इसलिए लोकप्रिय है और प्रथम पूज्य भी । भक्तों की रक्षा के लिए वे दुष्टों का संहार करते हैं तो भक्तों की इच्छा पर अपना सर्वत्र देने में भी पीछे नहीं रहते। वे सभी के हैं…सभी के लिए हैं तभी तो परम प्रिय हैं गणेश।    वे सहज हैं, सरल हैं और सर्व प्रिय भी। बच्चों को वे अपने बालसखा लगते हैं तो युवा उन्हें सभी परेशानियों का हल मानते हैं । बुजुर्गों के लिए वे आरोग्यदाता और विघ्नहर्ता हैं तो महिलाओं के लिए सुख समृद्धि देने वाले मंगलमूर्ति। यह देवताओं में तुलना की बात नहीं है लेकिन भगवान गणेश जैसी व्यापक, सर्व वर्ग और हर उम्र में लोकप्रियता ईश्वर के किसी भी अन्य रूप को इतने व्यापक स्तर पर हासिल नहीं है। सभी वर्ग, जाति और उम्र के लोग श्री गणेश को अपने सबसे करीब पाते हैं इसलिए वे लोक देव हैं।    उनकी भक्ति और आराधना के कोई कठोर नियम नहीं हैं। उनकी पूजा में सरलता, सार्वभौमत्व और व्यापक अपील है। आप ढाई दिन पूजिए या ...

गणेश विसर्जन…मानो, मतदान की रात!!

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  कबीर दास जी ने लिखा है..’लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल, लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल'...कुछ यही हाल अनंत चतुर्दशी के दिन मुंबई,भोपाल और जबलपुर जैसे तमाम शहरों का था। कबीर ने यह दोहा भले ही किसी और भाव में लिखा था लेकिन फिलहाल तो यह गणेश विसर्जन के माहौल पर सटीक लग रहा था क्योंकि हर तरफ गणेश जी ही गणेश जी थे..कहीं छोटे से खूबसूरत गणेश तो कहीं लंबे चौड़े लंबोदर, कहीं पंडाल को छूते गणेश तो कहीं भित्ति चित्र में सिमटे गणेश। भोपाल में एक पंडाल ने तो भगवान गणेश के जरिए मां भगवती और भोले शंकर दोनों को साध लिया। उन्होंने शेर पर मां दुर्गा की वर मुद्रा वाली शैली में भगवान गणेश को बिठा दिया और उन्हें शिवशंकर की तरह जटा जूट के साथ नीले रंग में रंग दिया…मतलब, आप विघ्नहर्ता के साथ शक्ति और शिव को भी महसूस कर सकें।  खैर, अनंत चतुर्दशी के माहौल पर ही कायम रहें तो तमाम घाटों पर एक के बाद एक गणेश चले आ रहे थे। कहीं, साइकिल पर गणेश तो कहीं रिक्शे पर, मोटरसाइकिल पर, कार में और यहां तक कि ट्रैक्टर और ट्रक में भी। जहां देखो वहां बस भगवान गणेश और उनके साथ था हजारों स्त्री/पुरुष/युवाओं...

भारतीय पराक्रम की स्वर्णिम गाथा है… ‘विजय दिवस’

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सोलह दिसंबर दुनिया के इतिहास के पन्नों पर भले ही महज एक तारीख हो लेकिन भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश के इतिहास में यह तारीख कहीं स्वर्णिम तो कहीं काले हर्फो में दर्ज है। भारत में यह तारीख विजय की आभा में दमक रही है तो बांग्लादेश के लिए तो यह जन्मतिथि है । पाकिस्तान के लिए जरूर यह दिन काला अध्याय है क्योंकि इसी दिन उसका एक बड़ा हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान से बांग्लादेश बन गया था। वैसे भी,पाकिस्तान के लिए यह दिन किसी बुरे सपने से कम नहीं था क्योंकि उसकी हजारों सैनिकों को सर झुकाकर भारत की सरपरस्ती में इतिहास की सबसे बड़ी पराजय स्वीकार करनी पड़ी थी।  इतिहास के पन्नों में दर्ज निर्णायक तारीख जरूर 16 दिसंबर 1971 है, लेकिन पाकिस्तान की कारगुजारियों ने उसकी नींव कई साल पहले डाल दी थी । जब उसकी सेना के अत्याचारों से कराह रहे पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने मदद के लिए भारत से गुहार लगाना शुरू कर दिया था। आखिर, तत्कालीन भारत सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा और फिर भारतीय सैनिकों के शौर्य और पराक्रम का स्वर्णिम पन्ना ‘विजय दिवस’ के नाम से इतिहास में दर्ज हो गया । 16 दिसंबर 1971 को ढाका में पाकिस्तान की ओ...