शनिवार, 15 जून 2024

बदलाव का भी लीजिए भरपूर आनंद…!!

पीपल लाल-गुलाबी हो रहा है। अब यह बगल में खड़ी हरी भरी जामुन का असर है या फिर फागुन का…होली और रंग पंचमी का..जो भी इन दिनों पीपल महाराज रंग बदल रहे है, जवान हो रहे हैं। आखिर मौसम के बदलाव से पीपल भी कैसे अछूता रह सकता है..चारों तरफ आम की बौर की मादक गंध फैल रही है..सुनहरी रंगत में बौराये आम के वृक्ष ‘..यों गंधी कुछ देत नहीं,तो भी बास सुबास’ की तर्ज पर पूरे वातावरण को अपनी गंध से महका रहे हैं तो पीपल कैसे इस आनंद से पीछे रह सकता है। रही-सही कसर कोयल की कूक से पूरी हो जा रही है..मीठी तान गूंज रही हो,मादक हवा हो तो पीपल का झूमना,नए रंग में रंगना लाज़िमी है..और पीपल ही क्यों, कहीं पतझड़ और कहीं हरे भरे पेड़ों के बीच पलाश भी तो दहक रहा है। अपने सुर्ख लाल रंग से पेड़ों के बीच वह ऐसा दिखाई देता है जैसे विवाह की जमघट में भी कोई नई नवेली दुल्हन अपने सुर्ख जोड़े के कारण दूर से ही नज़र आ जाती है। जहां पलाश का प्रभाव कम होता है वहां गुलमोहर अपने केसरिया पीले रंगों का जादू फैला देता है…वहीं,पीले,लाल, नीले,सफेद,केसरिया जैसे तमाम रंगों से सजी धजी गुलदाऊदी की लताएं दुल्हन की सहेलियों की तरह अपनी सुंदरता से सब का ध्यान खींच रही हैं तो कहीं अपराजिता के मोरपंखी फूल,परिजात और मधु मालती की भीनी भीनी खुशबू परिवेश को महका रही है…ऐसे में पीपल महाराज पर प्रकृति का रंग क्यूं न चढ़े। 


कहने का आशय यह है कि समय के साथ बदलाव जरूरी है और प्राकृतिक भी। फिर चाहे वह धार्मिक कथाओं में संत सा स्थान पाने वाला पीपल हो या अपनी पत्तियों के वंदनवार से घर को शुद्ध करने वाल आम या भगवान विष्णु को प्रिय अपराजिता या फिर होली में सबसे उपयोगी पलाश…सब बदलते हैं और बदलना भी चाहिए क्योंकि जो बदलाव के प्रति निरपेक्ष हो जाते हैं..वे या तो वक्त के दौर में पीछे रह जाते हैं या फिर बदलाव की गर्त में दबकर समाप्त हो जाते हैं। कोई भी इससे अछूता नहीं है…न व्यक्ति, न संस्थान और न राजनीतिक दल।


 बजाज ने स्कूटर से भरपूर माल बनाने के बाद बदलती हवा को भांप लिया और मोटर साइकिल में नया इतिहास रच दिया लेकिन वेस्पा ने सबक नहीं लिया और आज उसका कोई नामलेवा नहीं है। अब वह किस्से कहानियों तक सिमट गई है। भोपाल में नब्बे के दशक तक एक अख़बार की तूती बोलती थी लेकिन उसने वक्त के साथ करवट नहीं ली और वह नए दौर की कदमताल में पीछे रह गया। 


हमारे आपके आसपास ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जो किसी समय प्रसिद्धि के चरम पर थे,सफलता के शिखर को छू रहे थे, पर दबे पांव आकर उनके पास से गुजर रहे बदलाव को नहीं समझ सके और अब इतिहास का हिस्सा हैं। इसलिए,खुद को समय के साथ रखिए,मांझते रहिए, तराशिये और मजबूत कदमों से आगे बने रहिए क्योंकि पतझड़ के बाद ही कोपल आती हैं और फिर फूल-फल…साथ ही प्रकृति के बदलाव का भी भरपूर आनंद लीजिए…रंगों का, विविध खुशबुओं का,फूलों-पत्तियों का,फलों का और पूरे वातावरण का,गुलाबी होते पीपल का,लाल होते पलाश का और पीले गुलमोहर का, बौर के कैरी और फिर आम बनने का और सबसे ज्यादा खुद का,अपने अंदर-बाहर के बदलावों का…क्योंकि, जीना इसी का नाम है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

भारतीय पराक्रम की स्वर्णिम गाथा है… ‘विजय दिवस’

सोलह दिसंबर दुनिया के इतिहास के पन्नों पर भले ही महज एक तारीख हो लेकिन भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश के इतिहास में यह तारीख कहीं स्वर्णिम तो ...