शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

आम आदमी का दर्द अभिव्यक्त करते गाने

कभी कभी कुछ गाने ऐसे बन जाते हैं जो उस दौर का प्रतिनिधित्व करने लग जाते हैं और आम जनता की आवाज़ बनकर सत्ता प्रतिष्ठान की मुखालफत का माध्यम बनकर लोगों के दिल-ओ-दिमाग में खलबली तक पैदा कर देते हैं.जल्द ही रिलीज होने वाली फिल्म ‘पीपली लाइव’ का यह गीत भी महंगाई के खिलाफ राष्ट्रीय गीत बन गया है.इस गाने के बोल-“सखी सैंया तो खूब ही कमात है,महंगाई डायन खाय जात है.”ने भी लोगों को झकझोर दिया है.आलम यह है कि इस गाने को कांग्रेस विरोध की धुरी बनाने के लिए भाजपा ने बकायदा गीत के कापीराईट हासिल करने के प्रयास शुरू कर दिए हैं. यदि आप भूले न हो तो चंद साल पहले भी एक गाना जनता ही नहीं सरकार की उपलब्धियों की आवाज़ बन गया था.यह गाना था फिल्म ‘स्लमडोग मिलिनियर’ में ऑस्कर विजेता संगीतकार ए आर रहमान का स्वर और संगीतबद्ध किया गया “जय हो”.तब कांग्रेस ने बकायदा इस गीत के अधिकार लेकर इसे अपने चुनाव प्रचार का मुख्य हथियार बना लिया था.इस गीत ने आम जनता पर भी जादू किया और कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो गई. फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ के गीत “आल इज वैल” ने स्कूल-कालेज के छात्रों को स्वर दे दिया था.
ऐसा नहीं है कि आज के दौर में गीतों की लोकप्रियता यह मुकाम हासिल कर रही है.इसके पहले भी फिल्म ‘उपकार' का मशहूर गीत “मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती” तत्कालीन दौर में किसानों के दिल की धड़कन बन गया था.यह वह समय था जब देश में जवाहरलाल नेहरु और लालबहादुर शास्त्री के नाम ईश्वर की तरह लिए जाते थे.यह हरित क्रांति का दौर था एवं हमारे देश की मिटटी वाकई में सोना उगलती थी. इसी फिल्म'पूरव और पश्चिम' का एक  गाना “भारत का रहने वाला हूँ,भारत की बात सुनाता हूँ” ने भी देश को पश्चिमी सभ्यता से हटकर पहचान दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी.इसीतरह जब देश नवनिर्माण के दौर से गुजर रहा था और आम लोग कंधे-से कंधा मिलाकर देश को बनाने में जुटे थे तब फिल्म ‘नया दौर’ का गीत “साथी हाथ बढ़ाना ,एक अकेला थक जाए तो मिलकर बोझ उठाना” देश की आवाज़ बन गया था.
            इसके अलावा फिल्म नाम के गीत “चिट्ठी आई है वतन से चिट्ठी आई है”, फिल्म परदेश के गीत “ये मेरा इंडिया...”,लताजी की आवाज़ में अमर गीत “जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी” आज भी हमारी आँखों में पानी ला देते है. यदि आपकी स्मृति में भी ऐसे ही कुछ प्रतिनिधित्व गीत हैं तो उन्हें इस लड़ी में पिरोने में सहयोग कीजिये क्योंकि एक-एक मोती से ही तो सुरों की यह माला पूरी होगी और हम मिलजुलकर इस प्रतिनिधि गीतों को एक बार फिर याद कर पाएंगे....

सोमवार, 12 जुलाई 2010

रसोई और बिस्तर के अलावा भी है औरत

स्त्री पर पुरातन काल से कवियों की कूची चलती रही है.हर कवि/कवियत्री ने स्त्री को अपनी-अपनी आँखों से देखा है और बदलते काल और दौर के साथ स्त्रियों को लेकर अभिव्यक्तियाँ बदलती रही हैं.शायद इसलिए हमें विभिन्न समयों में स्त्री को विविध कोणों से समझने का अवसर मिलता है.पिछले दिनों कर्नाटक महिला हिंदी सेवा समिति,बंगलुरु के तत्वावधान में 'समकालीन महिला लेखन' पर एक संगोष्ठी का आयोजन हुआ.इसमें कई जानी-मानी वक्ताओं ने अपने विषय केन्द्रित संबोधनों में स्त्रियों से जुडी अनेक कविताओं/क्षणिकाओं का उल्लेख किया. मैंने कुछ चुनिन्दा कविताओं को आपके लिए बटोरने का प्रयास किया है.जो बदलती स्त्री से रूबरू कराती हैं. खास बात यह है कि ये महिलाएं "अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी "वाली परिपाटी से हटकर सोचती हैं.

प्रज्ञा रावत कहती हैं-

जितना सताओगे उतना उठुगीं

जितना दबाओगे उतना उगुगीं

जितना बाँधोगे उतना बहूंगी

जितना बंद करोगे उतना गाऊँगी

जितना अपमान करोगे उतनी निडर हो जाउंगी

जितना सम्मान करोगे उतनी निखर जाउंगी

वहीँ निर्मला पुतुल पूछती हैं-

क्या तुम जानते हो

एक स्त्री के समस्त रिश्ते का व्याकरण ?

बता सकते हो तुम

एक स्त्री को स्त्री द्रष्टि से देखते

उसके स्त्रीत्व की परिभाषा ?

अगर नहीं

तो फिर जानते क्या हो तुम

रसोई और बिस्तर के गणित से परे

एक स्त्री के बारे में....?

उधर सविता सिंह ज़माने पर राय रखती हैं-

यह बहुत चालाक सभ्यता है

यहाँ चिड़ियाँ को दाने डाले जाते हैं

यहाँ बलात्कृत स्त्री

अदालत में पुन: एक बार कपडे उतारती है

इस सभ्यता के पास

स्त्री को कोख में ही मार देने की पूरी गारंटी है...

एक समकालीन कवियत्री का कहना है-

ओढ़ता,बिछाता,और भोगता

शरीर को जीता पुरुष

शरीर के अतिरिक्त

कुछ भी नहीं होता

उसका प्यार-दुलार,मनुहार

सभी कुछ शरीर की परिधि से

बंधा होता है...

लेकिन औरत, शरीर के बाहर भी

बहुत कुछ होती है...

वहीँ अमिता शर्मा कहती हैं-

सही है तुम्हारा लौटना

सही है मेरा लौटना

और सबसे सही है

हमारा अलग-अलग लौटना...

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

कब बदलेगा ‘पाल’ और ‘हीरामन तोते’ का फर्क


एक बार स्वामी विवेकानंद को नाराज़ करने के लिए एक विदेशी ने पूछा कि यूरोप के लोग दूध की तरह सफ़ेद हैं तो अफ्रीका के लोग कोयले की तरह काले,फिर इंडिया के लोग क्यों आधे-अधूरे रह गए हैं?इसपर विवेकानंद ने उससे पूछा कि तुमने कभी रोटी को बनते देखा है?जब रोटी सफ़ेद रह जाती है तो उसे कच्चा माना जाता है और हम उसे नहीं खाते.इसीतरह जब रोटी जलकर काली हो जाती है तो उसे भी नहीं खाया जाता लेकिन जो रोटी ठीक ठाक चिट लगी होती है तो उसको सभी चाव के साथ खाते हैं.दरअसल हम भारतीय लोग इस बीच वाली रोटी की तरह हैं बिलकुल संतुलित.....अब दुःख की बात यह है कि स्वामी विवेकानंद जैसे तमाम विद्वान चाहकर भी विदेशियों के दिमाग में हम भारतियों को लेकर बने भेदभाव को नहीं मिटा पाए.यही कारण है कि यदि यूरोप का एक ऑक्टोपस विश्व कप फुटबाल की भविष्वाणी करता है तो दुनिया भर का मीडिया और सेलिब्रिटी उसके मुरीद हो जाते हैं जबकि यही काम हमारा हीरामन तोता सदियों से कर रहा है तो उसे पोंगा-पंडित,रुढिवादिता और पोंगापंथी जैसे तमाम विशेषणों से नवाज़ा जाता है.यहाँ तक कि आज भी वे भारत को तांत्रिकों ,बाबा-बैरागियों और गंवारों का देश मानते हैं.क्या फुटबाल जैसा सूझ-बुझ और परिश्रम से भरे खेल को एक ऑक्टोपस के सहारे जीता जा सकता है?यदि नहीं तो फिर जर्मनी के लोग उस ऑक्टोपस को कच्चा खा जाने कि बात क्यों कर रहे हैं जिसने जर्मनी की हार की भविष्यवाणी कर दी थी?वहीँ स्पेन के लोग इसे अपना भगवान तक मानने लगे हैं.
विडम्बना तो यह है कि हमारे हीरामन की भविष्यवाणियों पर नाक –मुंह सिकोड़ने वाली देशी हस्तियाँ भी ऑक्टोपस के गुणगान कर रही हैं.महानायक अमिताभ बच्चन से लेकर फरहा खान,अभिषेक,लारा दत्ता मंदिरा बेदी ने इसकी तारीफ के कशीदे काढ दिए हैं.तो क्या हम आज भी गुलामी की मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाए हैं? ....यदि ऐसा नहीं होता तो आज भी आकर्षक हीरामन तोते और आठ टांगों वाले बदसूरत ऑक्टोपस के बीच यह फर्क नहीं नज़र आता.
अनुरोध:मेरी बात का कतई यह मतलब न निकला जाए कि मैं तोते,बिल्ली या ऑक्टोपस के ज्योतिष का समर्थक हूँ.मेरा मानना है कि पशु-पक्षियों का इन फालतू के कामों में इस्तेमाल होना ही नहीं चाहिए.

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...