सोमवार, 4 जुलाई 2011

अन्ना हजारे और हमारे चरित्र का दोगलापन!


शुरुआत एक किस्से से-एक सेठ प्रतिदिन दुकान बंदकर एक संत के प्रवचन सुनने जाते थे और सभी के सामने उस संत का गुणगान कुछ इसतरह करते थे कि मानो उनके समान कोई और संत है ही नहीं और सेठ जी के समान संत का कोई अनुयायी. सेठ जी प्रवचन स्थल पर संत की हर बात का आँख मूंदकर पालन करते थे. संत अपने प्रवचनों में आमतौर पर प्रत्येक जीव से प्रेम करने की बात कहते और मूक जीव-जंतुओं के साथ मारपीट नहीं करने की सीख देते थे. एक दिन सेठ जी प्रवचन में अपने बेटे को भी लेकर गये.बेटे ने श्रद्धापूर्वक संत की बातें सुनी और उन पर अमल की बात मन में गाँठ बाँध ली. कुछ दिन बाद सेठ जी दुकान बेटे के भरोसे छोड खुद प्रवचन सुनने जाने लगे. एक दिन दुकान में एक गाय घुस गयी और दुकान में रखा सामान खाने लगी। यह देखकर सेठ जी का बेटा गाय के पास बैठ गया और उसे सहलाने लगा। थोडी देर बाद जब सेठजी दुकान पहुंचे तो यह दृश्य देखकर आग बबूला हो गए और बेटे को भला-बुरा कहने लगे. इस पर बेटे ने संत के प्रवचनों का उल्लेख करते हुए कहा कि गाय को कैसे हटाता, वह तो अपना पेट भर रही थी और उसे मारने पर जीवों पर हिंसा होती. इस पर सेठ ने कहा ‘बेटा प्रवचन सिर्फ वहीँ सुनने के लिए होते हैं बाहर आकर जीवन में अपनाने के लिए नहीं.’ कुछ यही स्थिति हमारे समाज की है.इसका नवीनतम उदाहरण अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान उमडा जनसमूह और उसकी कथनी और करनी में अन्तर है.
                अन्ना हजारे सार्वजनिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए ‘लोकपाल’ के गठन के लिए संघर्ष कर रहे हैं और आश्चर्य की बात यह है कि अपने कार्य व्यवहार में भ्रष्टाचार का प्रतीक बन चुका मध्यम और उच्च-मध्यम वर्ग ही उनका सबसे बड़ा समर्थक बनकर उभरा है.सरकारी दफ्तरों में खुलेआम रिश्वत लेने वाले बाबू जंतर-मंतर से लेकर आज तक अन्ना के सबसे बड़े पैरोकार हैं.कार्यालीन समय में काम की बजाये बाहर खड़े होकर चाय-पकोड़ी खाते हुए सरकारी कर्मचारी अन्ना के जरिये व्यवथा परिवर्तन का स्वप्न देख रहे हैं और दफ्तर के अंदर जाते ही फिर कामचोरी/रिश्वत/चुगली या फिर भ्रष्टाचार के नए-नए तरीके खोजने में जुट जाते हैं.दफ्तर में बैठकर वे तमाम तरह के कर बचाने और दूसरों को कर चोरी करने के गुर सिखाने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं. यही वर्ग बेटे की शादी में पैसे के फूहड़ प्रदर्शन करने,मनमाना दहेज लेने, दहेज की कमी पर बहू के साथ मारपीट, संतान के रूप में सिर्फ पुत्र की कामना करने और बेटे के लिए कई अजन्मी बेटियों को कोख में ही मार डालने,बाल विवाह का समर्थन करने और व्यवस्था बदलने का वक्त आने पर मतदान के दिन छुट्टी मनाने के लिए बखूबी जाना जाता है .
                    इसीतरह किसी भी प्रदर्शन-आंदोलन में सबसे आगे झंडा लेकर चलने वाला युवा वर्ग परीक्षा में नक़ल करने,पढ़ाई से बंक मारकर सिनेमा देखने,पैसे देकर प्रश्नपत्र खरीदने,लड़कियों के साथ छेड़खानी,लाइन तोड़कर फीस भरने,फर्जी प्रमाणपत्रों के जरिये स्कूल-कालेज में एडमिशन लेने,रिश्वत देकर नौकरी का जुगाड़ करने जैसे उन तमाम कामों में जुट जाते हैं जिनका वे अन्ना के साथ मिलकर विरोध करते रहे हैं.
                         अन्ना या उनकी तरह के आंदोलनों में आर्थिक रूप से सहभागी बनने वाला उच्च वर्ग और कारपोरेट जगत तो देश की साफ़-सुथरी व्यवस्था को पदभ्रष्ट करने और रिश्वत की संस्कृति के संरक्षक के रूप में जाना जाता है.कारपोरेट जगत पर काला धन जमा करने,कर चोरी,सहकारी और स्थानीय तौर पर ग्रामीण उत्पादों के प्रचार-प्रसार में जुटी संस्थाओं को खत्म कर बहुराष्ट्रीय उत्पादों को स्थापित करने,अपने कर्मचारियों का शोषण कर अधिकतम मुनाफा कमाने जैसे आरोप सामान्य रूप से लगते रहते हैं.
          जरा सोचिये हमारी कथनी और करनी में कितना अंतर है?हम जिन बातों के खिलाफ झंडाबरदार बन रहे हैं निजी जीवन में उन्ही बातों पर अमल करने में सबसे पीछे हैं.क्या अन्ना हजारे,स्वामी रामदेव या किसी अन्य के नेतृत्व में नारे लगाने भर से देश में भ्रष्टाचार मिट जायेगा?जब हमारे आचार-व्यवहार में इतना फर्क है तो क्या एक लोकपाल भर बन जाने से सब कुछ ठीक हो जायेगा?अगर हम व्यक्तिगत स्तर पर अपनी इस कथनी और करनी को दुरुस्त कर लें तो फिर न तो किसी लोकपाल की जरुरत होगी और न ही सरकारी डंडे की. ज़रा सोचिये.....?



शनिवार, 4 जून 2011

क्या सलमान-शाहरूख तय करेंगे सत्याग्रह का भविष्य!


                                अपनी ऊल-जलूल हरकतों और गैर क़ानूनी आचरण के लिए चर्चित सलमान खान इन दिनों टीवी चैनलों पर बता रहे है कि भ्रष्टाचार रोकने के लिए स्वामी रामदेव को धरना/अनशन/सत्याग्रह जैसा कदम नहीं उठाना चाहिए? वही अपने सिद्धांतों से ज्यादा पैसे को तरजीह देने वाले एक और कलाकार या मीडिया और चापलूसों के ‘किंग खान’ शाहरूख भी देश में भ्रष्टाचार की रोकथाम और काले धन को वापस लाने के लिए स्वामी रामदेव द्वारा शुरू किये गए सत्याग्रह की मुखालफत कर रहे हैं.वैसे इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि शाहरूख और सलमान उम्दा कलाकार हैं.उनकी फिल्में जनमानस को गहरे तक प्रभावित करती हैं.इन फिल्मों से समाज में कोई बदलाव भले ही नहीं हो पर इनमे मनोरंजन का तत्व तो होता ही है.चंद घंटों के “अभिनय” के लिए करोड़ों रुपये कमाने वाले ये दोनों कलाकार फिल्मी दुनिया के सैकड़ों लोगों का पेट भरने का माध्यम तो हैं ही.समाज के प्रति उनके इस योगदान को भी नकारा नहीं जा सकता लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वे समाज और देश की बेहतरी के लिए किये जा रहे प्रयासों का विरोध करें या इसपर अपना ज्ञान प्रदर्शित करें.
                                   “कलाकार”जैसे सम्मानित पेशे को अंगूठा दिखाकर पैसे कमाने के लिए शादियों/बारात/और जन्मदिन तक में नाचने वाले शाहरूख खान स्वामी रामदेव को सलाह दे रहे हैं कि जिसका जो काम है उसे वही करना चाहिए.मतलब स्वामी रामदेव का काम योग सिखाना है तो उन्हें बस योग ही सिखाना चाहिए और देश की दुर्दशा पर शाहरूख की तरह चुप रहना चाहिए क्योंकि अपना (शाहरूख) जीवन तो अय्याशी से कट रहा है फिर देश भाड़ में जाता है तो जाता रहे अपने को क्या? वैसे प्रतिदिन अखबार पढ़ने वाले और हिन्दी-अंग्रेजी के न्यूज़ चैनलों में सर खपाने वाले जानते हैं कि इन्हीं शाहरूख खान के परम मित्र,व्यावसायिक भागीदार और पल पल के राजदार करीम मोरानी को कामनवेल्थ खेलों के दौरान 200 करोड़ रुपये की रिश्वत के लेन-देन आरोप में पकड़ा गया है और यही किंग खान कसम खा-खाकर मोरानी की बेगुनाही का दावा कर रहे थे.इसके पहले आईपीएल में शाहरूख की टीम पर सट्टेबाजी,टैक्स चोरी,नियमों से खिलवाड़ के आरोप लगते रहे हैं. अब रही बार सलमान खान की तो शायद उन्हें लगता है कि ‘बीइंग हयूमन’ की टीशर्ट पहनकर वे मानवता के प्रवक्ता बन गए हैं.अवैध शिकार के मामले में जेल की हवा खा चुके सलमान स्वामी रामदेव तक को नहीं जानते?इससे उनके दीन-दुनिया के प्रति सरोकारों को जाना जा सकता है. फिटनेस के गुरु माने जाने वाले सलमान यदि योग गुरु को नहीं पहचानते तो इसे उनकी नासमझी कहा जाए या स्टारडम का गुरुर!
                 मीडिया की ख़बरों और वित्तीय क्षेत्र के जानकारों की बातों पर गौर किया जाए तो फिल्मी दुनिया को काले धन का गढ़ माना जाता है.यहाँ प्रति फिल्म खर्च होने वाले करोड़ों रुपये अंडरवर्ल्ड के जरिए काले धन के रूप में आते हैं.यहाँ तक कि अनेक नामी सितारे टैक्स बचाने के लिए अपना भुगतान भी चैक या सफ़ेद धन की बजाए काले धन के रूप में लेना पसंद करते हैं.अब जब भ्रष्टाचार और काले धन पर रोक लगाने की बात चलेगी तो सबसे ज्यादा असर फिल्मी दुनिया के कामकाज पर ही पड़ेगा और शाहरूख-सलमान जैसे तमाम सितारों को होने वाली अनाप-सनाप कमाई भी कम हो जायेगी इसलिए इनका तिलमिलाना स्वाभाविक है. अगर शाहरूख–सलमान अपने दायित्वों को लेकर इतने ही जागरूक हैं तो उन्हें अपनी ओर से पहल करते हुए काले धन से बनी फिल्मों में न काम करना चाहिए और अपना मेहनताना भी चैक से लेना चाहिए.यदि ये दोनों साहस दिखायेंगे तो अन्य सितारों को भी मन मारकर नई व्यवस्था से तालमेल बिठाना पड़ जायेगा. यदि उनमें ऐसा करने की हिम्मत नहीं है तो उन्हें ‘व्यवस्था परिवर्तन’ की मुहिम में रोड़ा नहीं बनना चाहिए अन्यथा जो आम जनता(प्रशंसक) उन्हें अभी सर आँखों पर बिठा रही है वह उन्हें जमीन दिखाने में भी देर नहीं लगायेगी.

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

छी,हम इंसान हैं या हाड़-मांस से बनी मशीनें


हम कैसे समाज में जी रहे हैं?यह इन्सानों की बस्ती है या फिर हाड़-मांस की बनी मशीनों का संसार! यदि समाज में मानवीय सरोकार न हों,मतलबपरस्ती बैखोफ पसरी हो और एक-दूसरे के प्रति संवेदनाएं दम तोड़ चुकी हों तो फिर उसे मानवीय समाज कैसे माना जा सकता है.इंसान तो इंसान जानवर भी किसी अपने की आवाज़ सुनकर उसमें सुर मिलाने लगते हैं,कुत्ते एक दूसरे की रक्षा में दौड़ने लगते हैं और कम ताक़तवर परिंदे भी अपने साथी पर ख़तरा भांपते ही चीत्कार करने लगते हैं और हम महानगरीय सांचे में सर्व-संसाधन प्राप्त लोग अपने से इतर सोचने की कल्पना भी नहीं करते.तभी तो दिल्ली जैसे जीवंत और मीडिया की चौकस नज़रों से घिरे महानगर में दो जीती-जागती,नौकरीपेशा और पारिवारिक युवतियां हड्डियों के ढांचे में तब्दील हो जाती हैं और हमारे कानों पर जूं भी नहीं रेंगती.वे छह माह तक अपने घर में कैदियों की रहती हैं पर पड़ोसियों को तनिक भी चिंता नहीं होती, उनका अपना सगा भाई उन बहनों की सुध लेना भी गंवारा नहीं समझता जिन्होंने उसको अपने पैरों पर खडा करने के लिए खुद का जीवन होम कर दिया.
                        समाज में आ रही जड़ता की यही एक बानगी भर नहीं है.आए दिन ऐसी घटनाएं सामने आ रही है जिनसे पता लगता है कि हम कितने असंवेदनशील होते जा रहे हैं. इंसानी जमीर मर जाने का इससे बदतर उदाहरण क्या होगा कि एक युवती के साथ पिता समान पुरुष बलात्कार का प्रयास करता है और जब वह अपनी इज्ज़त बचाने और मदद के लिए भागती है तो लोग रक्षक बनने की बजाए खुद ही भक्षक बनकर बलात्कार करने लगते हैं.तो क्या अब इंसानियत खत्म हो गयी है?हमारे लिए अपने-पराये का अंतर पुरुष-महिला जिस्म बनकर रह गया है?बहन,बेटी,माँ-बाप,भाई,नाते-रिश्तेदार और पड़ोस जैसे तमाम सम्बन्ध भावनाओं को भूलकर शरीर बन गए हैं और हर व्यक्ति को बस शिकार की तलाश है फिर चाहे वह शिकार कोई अपना हो या पराया!
                              हमारा मिज़ाज कितना मशीनी हो गया है इसका एक और उदाहरण पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में देखने को मिला. संवेदनाहीन नियम-कानूनों का मारा एक परिवार सिर्फ इसलिए सामूहिक रूप से ज़हर खाकर आत्महत्या कर लेता है कि हमारा ‘सिस्टम’ उन्हें चंद दिन गुजारने के लिए एक अदद छत तक मुहैया नहीं करा सका.ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने चोरी-छिपे यह दुस्साहसिक कदम उठाया हो,लेकिन यांत्रिक सोच के कारण कोई उनका दर्द समझ ही नहीं सका और सार्वजनिक ऐलान के बाद भी न तो सरकार ने और न ही सामाजिक संगठनों ने उस परिवार को बचाने का कोई प्रयास किया.हाँ सामूहिक मौत के बाद अब ज़रूर अखबार संवेदनाओं से रंग गए हैं और सरकार घड़ियाली पश्चाताप से.कुछ यही हाल लुटेरों का शिकार होकर अपना एक पैर गंवाने वाली राष्ट्रीय खिलाड़ी अरुणिमा सोनू सिन्हा के मामले में देखने को मिला.न तो ठसाठस भरी ट्रेन में कोई उसकी मदद के लिए आया और न ही पटरी पर मरणासन्न पड़ी सोनू को अस्पताल ले जाने की जहमत किसी ने उठाई. क्या ये चंद मामले पूरी मानवता को कलंकित नहीं करते?मानव के मशीन में बदलने,हमारी बेखबरी,घर की चारदीवारी तक सिमट गयी चिंताओं,मरती संवेदनाओं और दरकते रिश्तों की घोषणा नहीं करते? दुनिया भर में अपने संस्कारों,सार्थक चिंतन और गहरे तक पैठी मानवीय परम्पराओं के लिए सराहा जाने वाला भारतीय समाज अब नोट छापने और दूसरे की छाती पर पैर रखकर सफलता हासिल करने की भेड़ चाल में लगा है जहाँ “पैसा संस्कार है,सुविधाएँ नाते-रिश्ते और सफलता जीवन”, फिर इसके लिए अपनों को ही कुर्बान क्यों न करना पड़े.











अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...