मंगलवार, 2 अगस्त 2011

बिग बी का बच्चा.....!


'पूत के पाँव पालने में' और 'वो तो मुँह में चांदी की चम्मच लेकर पैदा हुआ है' जैसे कुछ  बड़े ही प्रचलित मुहावरें हैं जो बच्चों के भविष्य की ओर इशारा करते हैं.बिग बी यानि सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के घर भी नया मेहमान आने वाला है.वैसे किसी महिला का गर्भवती होना या किसी घर में नया मेहमान आना निश्चित ही पूरे परिवार के लिए खुशी और उल्लास का अनूठा अवसर होता है....आखिर इससे एक नई पीढ़ी का सृजन होता है और सृष्टि की अबूझ पहेलियों को साकार होते देखने का अवसर मिलता है लेकिन जब बात बिग बी के परिवार के बच्चे की हो तो इन चीज़ों को देखने के मायने ही बदल जाते हैं.जब से बिग बी ने एश्वर्या राय बच्चन के गर्भवती होने की खबर दी है तब से मीडिया से लेकर विज्ञापन जगत में यह खबर सरगर्मी से छाई हुई है.बाज़ार की भाषा में कहा जाए तो हर कोई इसको भुनाने में जुटा है.इस मामले में न तो खुद बिग बी पीछे हैं,न इस होने वाले बच्चे के पिता अभिषेक बच्चन और न ही खबरची.अब तो सट्टा कारोबारियों की नज़र-ए-इनायत भी इस बच्चे पर हो गई है.कहा जा रहा है इस नन्ही सी अजन्मी जान के लिंग (लड़का होगा या लड़की) पर ही अब तक करोड़ों रुपये का सट्टा लग चुका है.अगर यही हाल रहा तो उसके जन्म लेने तक उसके रंग,चेहरा-मोहरा किसके जैसा होगा,आँखे एश्वर्या जैसी होंगी या नहीं,आवाज़ और कद बिग बी पर जायेंगे या नहीं, वह अपने दादा और माँ की तरह सफल होगा या फिर अपने पिता की तरह फ्लॉप जैसी तमाम बातों पर सट्टा और मीडिया बाज़ार सक्रिय हो जायेगा.हो सकता है किसी न्यूज़ चैनल के प्राइम टाइम में बैठे कोई ज्योतिषी महोदय एश्वर्या के लक्षणों और बिग बी की गृह दशा के आधार पर इस बच्चे के भूत-वर्तमान और भविष्य का पिटारा खोल दें.
        वैसे जो भी हो,बिग बी का यह बच्चा अभी से कमाई करने लगा है.इन दिनों छोटे परदे पर एक मोबाइल कंपनी की थ्री-जी सेवा का विज्ञापन करते हुए खुद अभिषेक बच्चन अपने बच्चे का ज़िक्र करते नज़र आते हैं.इसके पहले भी एक साबुन के विज्ञापन में अभिषेक -ऐश्वर्या इशारों ही इशारों में बच्चा होने की 'गुड न्यूज़' बताते दिखे थे.सट्टा बाज़ार तो दांव लगा ही रहा है,बिग बी के ट्विट पढ़ने वाले भी बढ़ गए हैं क्योंकि अब सभी ये जानना चाहते हैं कि 'बिग डी अर्थात भविष्य के दादा' अपने पोते को लेकर क्या नई-नई जानकारियां देते हैं.हो सकता है कि वे कभी लिखे कि 'आज बच्चे ने अपनी माँ के पेट में लात मारी या उन्होंने उसे हनुमान चालीसा पढ़कर सुनाई या 'ऐश' इन दिनों मेरी सुपरहिट फ़िल्में देख रही हैं ताकि यह बच्चा अपने पा(अभिषेक) की लगातार फ्लॉप फिल्मों से शुरुआत न करे....इत्यादि इत्यादि.भविष्य में जो भी हो फिलहाल तो इस "जूनियरमोस्ट बिग बी" ने विवादों को गले लगाना शुरू कर दिया है तभी तो मधुर भंडारकर जैसा दिग्गज और समझदार  निर्देशक भी अपनी फिल्म "हीरोइन" के नहीं बन पाने वजह इसी बच्चे को मान रहा है और सरेआम किसी भी अभिनेत्री से मातृत्व का अधिकार छीनने के लिए मायानगरी में पैसा लगाने वालों को लामबंद कर रहा है.शायद इसी को कहते हैं पूत के पाँव पालने में.....!         

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

कमज़ोर ‘पेट’ वाले इसे जरुर पढ़ लें...वरना पछताएंगे

मामू आमिर खान और भांजे इमरान खान द्वारा रचा “डेली वेली” नामक तमाशा देखा.यह गालियों,फूहड़ता,अश्लीलता और छिछोरेपन के मिश्रण से रची एक चुस्त, तेज-तर्रार और सटीक रूप से सम्पादित रियल लाइफ से जुडी कामेडी फिल्म है. जिन लोगों ने छोटे परदे पर फूहडता के प्रतीक ‘एम टीवी’ पर शुरूआती दौर में साइरस ब्रोचा द्वारा बनाये गए विज्ञापन और कार्यक्रम देखे हैं तो उन्हें यह फिल्म उसी का विस्तार लगेगी और शुचितावादियों को हमारी संस्कृति के मुंह पर करारा तमाचा. यदि उदाहरण के ज़रिये बात की जाए तो हाजमा दुरुस्त रखने के लिए हाजमोला की एक-दो गोली खाना तो ठीक है लेकिन यदि पूरा डिब्बा ही दिन भर में उड़ा दिया जाए तो फिर हाजमे और पेट का भगवान ही मालिक है.मामा-भांजे की जोड़ी ने इस फिल्म के जरिये यही किया है.अब यदि आप का पेट पूरा डिब्बा हाजमोला बर्दाश्त कर सकता है तो जरुर देखिये काफी मनोरंजक लगेगी और यदि कमज़ोर पेट के मालिक हैं तो डेली वेली को देखने की बजाये समीक्षाओं से ही काम चला ले. हाँ, जैसे भी-जहाँ भी देखे कम से कम परिवार(माँ,बहन,बेटी-बेटा,पिता,भाई और पत्नी भी) को साथ न ले जाएँ वरना साथ बैठकर न तो वे फिल्म का आनंद उठा पाएंगे और न ही आप....यह फिल्म अकेले-अकेले देखने(दोस्त शामिल) और अलग-अलग पूरा मज़ा लेने की है....तो आपका क्या इरादा है?
यदि आप भूले नहीं हो तो मामा-भांजे की यही जोड़ी कुछ दिन पहले शराबखोरी के समर्थन में जहाँ-तहां बयानबाज़ी करती फिर रही थी.मसला यह था कि महाराष्ट्र सरकार ने राज्य में शराब पीने की सरकारी उम्र अठारह साल से बढ़ाकर इक्कीस बरस कर दी थी.अब इनकी आपत्ति यह थी कि युवाओं से शराब पीने का अधिकार क्यों छीना जा रहा है.खान द्वय का तर्क यह है कि जब युवा अठारह साल की उम्र में मतदान कर सकते हैं तो शराब क्यों नहीं पी सकते? यह तर्क तो लाज़वाब है पर क्या शराब पीना मतदान करने जैसा काम है?शराब इतनी जरुरी चीज है कि उससे देश के युवा महज तीन साल की जुदाई भी सहन नहीं कर सकते?क्या शराबखोरी इतना फायदेमंद है कि देश के सबसे संवेदनशील कलाकारों में गिने जाने वाले आमिर खान तक उसके पक्ष में कूद पड़े? कहीं यह ‘डेली वेली’ फिल्म के प्रचार के लिए तो नहीं था?आमतौर पर फिल्मों के प्रचार के लिए ये हथकंडे अपनाए जाते हैं.कहीं ऐसा तो नहीं कि आज केवल शराब की बात हो रही है पर कल शादी की उम्र पर भी इसीतरह की आपत्ति होने लगे कि युवा जब अठारह साल में वोट डाल सकते हैं तो शादी क्यों नहीं कर सकते? वैसे आमिर ने अपनी फिल्म के द्वारा यही सब दिखाने/सिखाने का प्रयास किया है. अब फैसला युवाओं को ही करना है कि उनको ‘डेली वेली’ के रास्ते पर चलना है या इस रास्ते के खिलाफ कदम उठाना है....!

सोमवार, 4 जुलाई 2011

अन्ना हजारे और हमारे चरित्र का दोगलापन!


शुरुआत एक किस्से से-एक सेठ प्रतिदिन दुकान बंदकर एक संत के प्रवचन सुनने जाते थे और सभी के सामने उस संत का गुणगान कुछ इसतरह करते थे कि मानो उनके समान कोई और संत है ही नहीं और सेठ जी के समान संत का कोई अनुयायी. सेठ जी प्रवचन स्थल पर संत की हर बात का आँख मूंदकर पालन करते थे. संत अपने प्रवचनों में आमतौर पर प्रत्येक जीव से प्रेम करने की बात कहते और मूक जीव-जंतुओं के साथ मारपीट नहीं करने की सीख देते थे. एक दिन सेठ जी प्रवचन में अपने बेटे को भी लेकर गये.बेटे ने श्रद्धापूर्वक संत की बातें सुनी और उन पर अमल की बात मन में गाँठ बाँध ली. कुछ दिन बाद सेठ जी दुकान बेटे के भरोसे छोड खुद प्रवचन सुनने जाने लगे. एक दिन दुकान में एक गाय घुस गयी और दुकान में रखा सामान खाने लगी। यह देखकर सेठ जी का बेटा गाय के पास बैठ गया और उसे सहलाने लगा। थोडी देर बाद जब सेठजी दुकान पहुंचे तो यह दृश्य देखकर आग बबूला हो गए और बेटे को भला-बुरा कहने लगे. इस पर बेटे ने संत के प्रवचनों का उल्लेख करते हुए कहा कि गाय को कैसे हटाता, वह तो अपना पेट भर रही थी और उसे मारने पर जीवों पर हिंसा होती. इस पर सेठ ने कहा ‘बेटा प्रवचन सिर्फ वहीँ सुनने के लिए होते हैं बाहर आकर जीवन में अपनाने के लिए नहीं.’ कुछ यही स्थिति हमारे समाज की है.इसका नवीनतम उदाहरण अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान उमडा जनसमूह और उसकी कथनी और करनी में अन्तर है.
                अन्ना हजारे सार्वजनिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए ‘लोकपाल’ के गठन के लिए संघर्ष कर रहे हैं और आश्चर्य की बात यह है कि अपने कार्य व्यवहार में भ्रष्टाचार का प्रतीक बन चुका मध्यम और उच्च-मध्यम वर्ग ही उनका सबसे बड़ा समर्थक बनकर उभरा है.सरकारी दफ्तरों में खुलेआम रिश्वत लेने वाले बाबू जंतर-मंतर से लेकर आज तक अन्ना के सबसे बड़े पैरोकार हैं.कार्यालीन समय में काम की बजाये बाहर खड़े होकर चाय-पकोड़ी खाते हुए सरकारी कर्मचारी अन्ना के जरिये व्यवथा परिवर्तन का स्वप्न देख रहे हैं और दफ्तर के अंदर जाते ही फिर कामचोरी/रिश्वत/चुगली या फिर भ्रष्टाचार के नए-नए तरीके खोजने में जुट जाते हैं.दफ्तर में बैठकर वे तमाम तरह के कर बचाने और दूसरों को कर चोरी करने के गुर सिखाने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं. यही वर्ग बेटे की शादी में पैसे के फूहड़ प्रदर्शन करने,मनमाना दहेज लेने, दहेज की कमी पर बहू के साथ मारपीट, संतान के रूप में सिर्फ पुत्र की कामना करने और बेटे के लिए कई अजन्मी बेटियों को कोख में ही मार डालने,बाल विवाह का समर्थन करने और व्यवस्था बदलने का वक्त आने पर मतदान के दिन छुट्टी मनाने के लिए बखूबी जाना जाता है .
                    इसीतरह किसी भी प्रदर्शन-आंदोलन में सबसे आगे झंडा लेकर चलने वाला युवा वर्ग परीक्षा में नक़ल करने,पढ़ाई से बंक मारकर सिनेमा देखने,पैसे देकर प्रश्नपत्र खरीदने,लड़कियों के साथ छेड़खानी,लाइन तोड़कर फीस भरने,फर्जी प्रमाणपत्रों के जरिये स्कूल-कालेज में एडमिशन लेने,रिश्वत देकर नौकरी का जुगाड़ करने जैसे उन तमाम कामों में जुट जाते हैं जिनका वे अन्ना के साथ मिलकर विरोध करते रहे हैं.
                         अन्ना या उनकी तरह के आंदोलनों में आर्थिक रूप से सहभागी बनने वाला उच्च वर्ग और कारपोरेट जगत तो देश की साफ़-सुथरी व्यवस्था को पदभ्रष्ट करने और रिश्वत की संस्कृति के संरक्षक के रूप में जाना जाता है.कारपोरेट जगत पर काला धन जमा करने,कर चोरी,सहकारी और स्थानीय तौर पर ग्रामीण उत्पादों के प्रचार-प्रसार में जुटी संस्थाओं को खत्म कर बहुराष्ट्रीय उत्पादों को स्थापित करने,अपने कर्मचारियों का शोषण कर अधिकतम मुनाफा कमाने जैसे आरोप सामान्य रूप से लगते रहते हैं.
          जरा सोचिये हमारी कथनी और करनी में कितना अंतर है?हम जिन बातों के खिलाफ झंडाबरदार बन रहे हैं निजी जीवन में उन्ही बातों पर अमल करने में सबसे पीछे हैं.क्या अन्ना हजारे,स्वामी रामदेव या किसी अन्य के नेतृत्व में नारे लगाने भर से देश में भ्रष्टाचार मिट जायेगा?जब हमारे आचार-व्यवहार में इतना फर्क है तो क्या एक लोकपाल भर बन जाने से सब कुछ ठीक हो जायेगा?अगर हम व्यक्तिगत स्तर पर अपनी इस कथनी और करनी को दुरुस्त कर लें तो फिर न तो किसी लोकपाल की जरुरत होगी और न ही सरकारी डंडे की. ज़रा सोचिये.....?



शनिवार, 4 जून 2011

क्या सलमान-शाहरूख तय करेंगे सत्याग्रह का भविष्य!


                                अपनी ऊल-जलूल हरकतों और गैर क़ानूनी आचरण के लिए चर्चित सलमान खान इन दिनों टीवी चैनलों पर बता रहे है कि भ्रष्टाचार रोकने के लिए स्वामी रामदेव को धरना/अनशन/सत्याग्रह जैसा कदम नहीं उठाना चाहिए? वही अपने सिद्धांतों से ज्यादा पैसे को तरजीह देने वाले एक और कलाकार या मीडिया और चापलूसों के ‘किंग खान’ शाहरूख भी देश में भ्रष्टाचार की रोकथाम और काले धन को वापस लाने के लिए स्वामी रामदेव द्वारा शुरू किये गए सत्याग्रह की मुखालफत कर रहे हैं.वैसे इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि शाहरूख और सलमान उम्दा कलाकार हैं.उनकी फिल्में जनमानस को गहरे तक प्रभावित करती हैं.इन फिल्मों से समाज में कोई बदलाव भले ही नहीं हो पर इनमे मनोरंजन का तत्व तो होता ही है.चंद घंटों के “अभिनय” के लिए करोड़ों रुपये कमाने वाले ये दोनों कलाकार फिल्मी दुनिया के सैकड़ों लोगों का पेट भरने का माध्यम तो हैं ही.समाज के प्रति उनके इस योगदान को भी नकारा नहीं जा सकता लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वे समाज और देश की बेहतरी के लिए किये जा रहे प्रयासों का विरोध करें या इसपर अपना ज्ञान प्रदर्शित करें.
                                   “कलाकार”जैसे सम्मानित पेशे को अंगूठा दिखाकर पैसे कमाने के लिए शादियों/बारात/और जन्मदिन तक में नाचने वाले शाहरूख खान स्वामी रामदेव को सलाह दे रहे हैं कि जिसका जो काम है उसे वही करना चाहिए.मतलब स्वामी रामदेव का काम योग सिखाना है तो उन्हें बस योग ही सिखाना चाहिए और देश की दुर्दशा पर शाहरूख की तरह चुप रहना चाहिए क्योंकि अपना (शाहरूख) जीवन तो अय्याशी से कट रहा है फिर देश भाड़ में जाता है तो जाता रहे अपने को क्या? वैसे प्रतिदिन अखबार पढ़ने वाले और हिन्दी-अंग्रेजी के न्यूज़ चैनलों में सर खपाने वाले जानते हैं कि इन्हीं शाहरूख खान के परम मित्र,व्यावसायिक भागीदार और पल पल के राजदार करीम मोरानी को कामनवेल्थ खेलों के दौरान 200 करोड़ रुपये की रिश्वत के लेन-देन आरोप में पकड़ा गया है और यही किंग खान कसम खा-खाकर मोरानी की बेगुनाही का दावा कर रहे थे.इसके पहले आईपीएल में शाहरूख की टीम पर सट्टेबाजी,टैक्स चोरी,नियमों से खिलवाड़ के आरोप लगते रहे हैं. अब रही बार सलमान खान की तो शायद उन्हें लगता है कि ‘बीइंग हयूमन’ की टीशर्ट पहनकर वे मानवता के प्रवक्ता बन गए हैं.अवैध शिकार के मामले में जेल की हवा खा चुके सलमान स्वामी रामदेव तक को नहीं जानते?इससे उनके दीन-दुनिया के प्रति सरोकारों को जाना जा सकता है. फिटनेस के गुरु माने जाने वाले सलमान यदि योग गुरु को नहीं पहचानते तो इसे उनकी नासमझी कहा जाए या स्टारडम का गुरुर!
                 मीडिया की ख़बरों और वित्तीय क्षेत्र के जानकारों की बातों पर गौर किया जाए तो फिल्मी दुनिया को काले धन का गढ़ माना जाता है.यहाँ प्रति फिल्म खर्च होने वाले करोड़ों रुपये अंडरवर्ल्ड के जरिए काले धन के रूप में आते हैं.यहाँ तक कि अनेक नामी सितारे टैक्स बचाने के लिए अपना भुगतान भी चैक या सफ़ेद धन की बजाए काले धन के रूप में लेना पसंद करते हैं.अब जब भ्रष्टाचार और काले धन पर रोक लगाने की बात चलेगी तो सबसे ज्यादा असर फिल्मी दुनिया के कामकाज पर ही पड़ेगा और शाहरूख-सलमान जैसे तमाम सितारों को होने वाली अनाप-सनाप कमाई भी कम हो जायेगी इसलिए इनका तिलमिलाना स्वाभाविक है. अगर शाहरूख–सलमान अपने दायित्वों को लेकर इतने ही जागरूक हैं तो उन्हें अपनी ओर से पहल करते हुए काले धन से बनी फिल्मों में न काम करना चाहिए और अपना मेहनताना भी चैक से लेना चाहिए.यदि ये दोनों साहस दिखायेंगे तो अन्य सितारों को भी मन मारकर नई व्यवस्था से तालमेल बिठाना पड़ जायेगा. यदि उनमें ऐसा करने की हिम्मत नहीं है तो उन्हें ‘व्यवस्था परिवर्तन’ की मुहिम में रोड़ा नहीं बनना चाहिए अन्यथा जो आम जनता(प्रशंसक) उन्हें अभी सर आँखों पर बिठा रही है वह उन्हें जमीन दिखाने में भी देर नहीं लगायेगी.

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

छी,हम इंसान हैं या हाड़-मांस से बनी मशीनें


हम कैसे समाज में जी रहे हैं?यह इन्सानों की बस्ती है या फिर हाड़-मांस की बनी मशीनों का संसार! यदि समाज में मानवीय सरोकार न हों,मतलबपरस्ती बैखोफ पसरी हो और एक-दूसरे के प्रति संवेदनाएं दम तोड़ चुकी हों तो फिर उसे मानवीय समाज कैसे माना जा सकता है.इंसान तो इंसान जानवर भी किसी अपने की आवाज़ सुनकर उसमें सुर मिलाने लगते हैं,कुत्ते एक दूसरे की रक्षा में दौड़ने लगते हैं और कम ताक़तवर परिंदे भी अपने साथी पर ख़तरा भांपते ही चीत्कार करने लगते हैं और हम महानगरीय सांचे में सर्व-संसाधन प्राप्त लोग अपने से इतर सोचने की कल्पना भी नहीं करते.तभी तो दिल्ली जैसे जीवंत और मीडिया की चौकस नज़रों से घिरे महानगर में दो जीती-जागती,नौकरीपेशा और पारिवारिक युवतियां हड्डियों के ढांचे में तब्दील हो जाती हैं और हमारे कानों पर जूं भी नहीं रेंगती.वे छह माह तक अपने घर में कैदियों की रहती हैं पर पड़ोसियों को तनिक भी चिंता नहीं होती, उनका अपना सगा भाई उन बहनों की सुध लेना भी गंवारा नहीं समझता जिन्होंने उसको अपने पैरों पर खडा करने के लिए खुद का जीवन होम कर दिया.
                        समाज में आ रही जड़ता की यही एक बानगी भर नहीं है.आए दिन ऐसी घटनाएं सामने आ रही है जिनसे पता लगता है कि हम कितने असंवेदनशील होते जा रहे हैं. इंसानी जमीर मर जाने का इससे बदतर उदाहरण क्या होगा कि एक युवती के साथ पिता समान पुरुष बलात्कार का प्रयास करता है और जब वह अपनी इज्ज़त बचाने और मदद के लिए भागती है तो लोग रक्षक बनने की बजाए खुद ही भक्षक बनकर बलात्कार करने लगते हैं.तो क्या अब इंसानियत खत्म हो गयी है?हमारे लिए अपने-पराये का अंतर पुरुष-महिला जिस्म बनकर रह गया है?बहन,बेटी,माँ-बाप,भाई,नाते-रिश्तेदार और पड़ोस जैसे तमाम सम्बन्ध भावनाओं को भूलकर शरीर बन गए हैं और हर व्यक्ति को बस शिकार की तलाश है फिर चाहे वह शिकार कोई अपना हो या पराया!
                              हमारा मिज़ाज कितना मशीनी हो गया है इसका एक और उदाहरण पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में देखने को मिला. संवेदनाहीन नियम-कानूनों का मारा एक परिवार सिर्फ इसलिए सामूहिक रूप से ज़हर खाकर आत्महत्या कर लेता है कि हमारा ‘सिस्टम’ उन्हें चंद दिन गुजारने के लिए एक अदद छत तक मुहैया नहीं करा सका.ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने चोरी-छिपे यह दुस्साहसिक कदम उठाया हो,लेकिन यांत्रिक सोच के कारण कोई उनका दर्द समझ ही नहीं सका और सार्वजनिक ऐलान के बाद भी न तो सरकार ने और न ही सामाजिक संगठनों ने उस परिवार को बचाने का कोई प्रयास किया.हाँ सामूहिक मौत के बाद अब ज़रूर अखबार संवेदनाओं से रंग गए हैं और सरकार घड़ियाली पश्चाताप से.कुछ यही हाल लुटेरों का शिकार होकर अपना एक पैर गंवाने वाली राष्ट्रीय खिलाड़ी अरुणिमा सोनू सिन्हा के मामले में देखने को मिला.न तो ठसाठस भरी ट्रेन में कोई उसकी मदद के लिए आया और न ही पटरी पर मरणासन्न पड़ी सोनू को अस्पताल ले जाने की जहमत किसी ने उठाई. क्या ये चंद मामले पूरी मानवता को कलंकित नहीं करते?मानव के मशीन में बदलने,हमारी बेखबरी,घर की चारदीवारी तक सिमट गयी चिंताओं,मरती संवेदनाओं और दरकते रिश्तों की घोषणा नहीं करते? दुनिया भर में अपने संस्कारों,सार्थक चिंतन और गहरे तक पैठी मानवीय परम्पराओं के लिए सराहा जाने वाला भारतीय समाज अब नोट छापने और दूसरे की छाती पर पैर रखकर सफलता हासिल करने की भेड़ चाल में लगा है जहाँ “पैसा संस्कार है,सुविधाएँ नाते-रिश्ते और सफलता जीवन”, फिर इसके लिए अपनों को ही कुर्बान क्यों न करना पड़े.











गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

समाज में फैले इन ‘सुपरबगों’ से कैसे बचेंगे...!


                     इन दिनों सुपरबग ने अखबारी चर्चा में समाजसेवी अन्ना हजारे और घोटालेबाज़ राजा तक को पीछे छोड़ दिया है.सब लोग ‘ईलू-ईलू क्या है...’ की तर्ज़ पर पूछ रहे हैं ‘ये सुपरबग-सुपरबग क्या है?...और यह सुपरबग भी अपनी कथित पापुलर्टी पर ऐसे इठला रहा है जैसे सुपरफ्लाप ‘गुज़ारिश’ हिट हो गयी हो या सरकार ने सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न से भी आगे बढ़कर ‘दुनिया रत्न’ से सम्मानित कर दिया हो.वैसे भारत के स्वास्थ्य पर्यटन या हेल्थ टूरिज्म से जलने वाले देश सुपरबग के डर को फैलाकर वैसे ही आनंदित हो रहे हैं जैसे किसान अपने लहलहाते खेत देखकर,नेता अपना वोट बैंक देखकर और व्यवसायी काले धन का भण्डार देखकर खुश होता है.इस (दुष्)प्रचार से एक बात तो साफ़ हो गयी है कि किसी भी शब्द के आगे ‘सुपर’ लगा दिया जाए तो वह हिट हो जाता है जैसे सुपरस्टार,सुपरहिट,सुपरकंप्यूटर,सुपरफास्ट,सुपरनेचुरल और सुपरबग इत्यादि. मुझे तो लगता है कि विदेशियों ने जान-बूझकर इसका नाम सुपरबग रखा है ताकि यह कुछ इम्प्रेसिव सा लगे.आखिर सुपरबग कहने/सुनने में जो मजा है वह केवल ‘बग’ में कहाँ!ऐसे समय हमें एक बार फिर अपने एक पूर्व प्रधानमंत्री याद आने लगे हैं जो हर मामले में विदेशी हाथ होने की बात करते थे.यदि वे आज होते तो दम के साथ कह पाते कि सुपरबग मामले में विदेशी हाथ है और यह बात उतनी ही सही है जितना कि काले धन के खिलाफ बाबा रामदेव का अभियान और माडल मोनिका पांडे का ‘न्यूड’ होने का एलान.
                            एक बात मेरी समझ के परे है कि इस सुपरबग को लेकर इतनी घबराहट क्यों?अरे हमारे देश के पानी का स्वाद ऐसे कई बग बरसों से बढ़ा रहे हैं...और फिर पानी तो क्या हमारी तो आवोहवा में ऐसे बगों की भरमार है.इनसे भी बच गए तो भ्रष्टाचार के सुपरबग से कैसे बचेंगे? यह सुपरबग तो देश के हर कार्यालय,मंत्रालय,सचिवालय और तमाम प्रकार के ‘लयों’ में मज़बूती से जड़े जमाये बैठा है और हर आमो-खास के भीतर घुसपैठ करता जा रहा है.इस से किसी तरह बच भी गए तो काले धन के सुपरबग से कैसे बचेंगे.यह तो दिन-प्रतिदिन अपना भार और संख्या बढ़ा रहा है.अब तो यह दूसरे मुल्कों में भी तेज़ी से ‘जमा’ होने लगा है.दशकों के परिश्रम के बाद भी हम महंगाई के सुपरबग का इलाज नहीं तलाश पायें हैं.अब तो यह गरीबों के साथ-साथ अन्य वर्गों का भी खून चूसने लगा है.इस सुपरबग की एक विशेषता यह है कि यह अपनी खुराक सरकारी बयानों से हासिल करता है.जब-जब भी हमारे नेता/मंत्री/सन्तरी और प्रधानमंत्री इस पर काबू पा लेने का बयान देते हैं महंगाई नामक यह सुपरबग और भी सेहतमंद हो जाता है.कई बार तो यह नमक,प्याज,टमाटर और दाल जैसी रोजमर्रा में भरपूर मात्रा में उपलब्ध वस्तुओं को संक्रमित कर उन्हें भी आम आदमी की पहुँच से बाहर कर देता है.कन्या भ्रूण ह्त्या और बेटियों को पैदा नहीं होने देने वाला सुपरबग तो भविष्य में महिला-पुरुष का अंतर ही बिगाड़ने पर तुला है और देश के कुंवारों को शायद विवाह-सुख से ही वंचित कर देगा.इस सुपरबग को निरक्षरता,अन्धविश्वास,कुरीतियों और रुढियों के सुपरबगों ने इतना शक्तिशाली बना दिया है कि हम चाहकर भी इसका समूल नाश नहीं कर पा रहे हैं.इसके अलावा जातिवाद,साम्प्रदायिकता,ऊंच-नीच,भेदभाव,बाल विवाह,अशिक्षा,बेरोज़गारी,प्रतिभाओं का पलायन,गरीबी,छुआछूत जैसे अनेक सुपरबग वर्षों से हमारी जड़ों को खोखला बना रहे हैं और हम पानी में मौजूद एक अदने से सुपरबग से घबरा रहे हैं.अरे जब हमारी रग-रग में व्याप्त ये घातक सुपरबग हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाए तो इस नए नवेले एवं अनजान से सुपरबग की क्या बिसात...!



बुधवार, 6 अप्रैल 2011

आज ‘भारत रत्न’ तो कल शायद ‘परमवीर चक्र’ भी!



              सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न क्यों? उनसे पहले प्रख्यात समाजसेवी और भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगाने वाले अन्ना हजारे को क्यों नहीं? देश में चुनाव सुधारों की नीव रखने वाले टी एन शेषन,योग के जरिए देश-विदेश में भारत का डंका पीटने वाले स्वामी रामदेव, बांसुरी की सुरीली तान से मन मोह लेने वाले पंडित हरिप्रसाद चौरसिया, अभिनय और फिल्मों से भारतीय सिनेमा की दशा और दिशा तय करने वाले मशहूर अभिनेता राज कपूर-गुरुदत्त, अपनी लेखनी से प्रेम और आग एकसाथ बरसाने वाले गीतकार गुलज़ार,आईटी के क्षेत्र में क्रांति लाकर लाखों नौजवानों को सम्मानजनक दर्ज़ा दिलाने वाले उद्योगपति नारायण मूर्ति-अज़ीम एच प्रेमजी, देश के लिए सर्वत्र न्योछावर कर देने वाले शहीद भगत सिंह-चंद्रशेखर आज़ाद, दुनिया भर में ज्ञान और चेतना का पर्याय स्वामी विवेकानंद,पुलिस से लेकर समाजसेवा तक में सबसे आगे किरण बेदी, विविध स्वरों की सम्राज्ञी आशा भोंसले जैसे तमाम ऐसे नाम हैं जो न केवल इस सम्मान के हक़दार हैं बल्कि इस सम्मान को और भी गौरवान्वित करने का माद्दा रखते हैं.लेकिन इन तमाम नामों के लिए कोई विधानसभा या कोई संगठन प्रस्ताव पारित नहीं कर रहा.
                         दरअसल मीडिया की ‘हल्ला ब्रिगेड’ को दिन भर न्यूज़ चैनलों पर बौद्धिक जुगाली करने के लिए कोई न कोई विषय या विवाद चाहिए.विश्व कप क्रिकेट के बाद बेस्वाद लग रहे न्यूज़ चैनलों पर टीआरपी की आग तापने के लिए उन्हें सचिन को भारत रत्न के रूप में एक नया मुद्दा हाथ लग गया है.आज वे भारत रत्न के नाम पर हो-हल्ला मचा रहे हैं.यदि सरकार दवाब में आ गयी(जिसकी संभावना लग रही है) तो कल शायद किसी क्रिकेटर को ‘परमवीर चक्र’ देने की मांग करने लगे? सचिन तेंदुलकर के नाम पर अपनी दुकान जमाने में लगे इन बाइट-वीरों और मौकापरस्त नेताओं को शायद यह भी नहीं पाता होगा कि भारत रत्न हमारे देश का वह सर्वोच्च नागरिक सम्मान है जो कला,विज्ञान और साहित्य के क्षेत्रों में असाधारण उपलब्धियों और सर्वोत्कृष्ट लोकसेवा के लिए दिया जाता है.इसकी शुरुआत २ जनवरी १९५४ से हुई और अब तक ४१ अतिविशिष्ट हस्तियों को यह सम्मान दिया जा चुका है उनमें से कोई भी खिलाड़ी नहीं है.
                               सर्वप्रथम तो खिलाड़ी इस सम्मान के दायरे में ही नहीं आते. हर क्षेत्र के लिए सरकार अलग-अलग सम्मान देती है मसलन खेलों के लिए राजीव गाँधी खेल रत्न है तो सर्वोच्च वीरता के लिए परमवीर चक्र.वैसे भी खेलों केनाम पर पहले ही अनेक पुरूस्कार है.आज यदि सचिन को भारत रत्न दिया गया तो कल कोई परमवीर चक्र भी मांग सकता है या कोई सैनिक भारत रत्न या खेल रत्न की मांग कर सकता है. फिर भी यदि सभी नियम-कानूनों को ताक पर रखकर यदि किसी खिलाड़ी को यह सम्मान दिया जाता है तो उड़न सिख मिल्खा सिंह ,पी टी ऊषा,पहली बार विश्व कप जीतने वाले कपिल देव,हाकी के जादूगर मेजर ध्यान चंद,टेनिस की सनसनी लिएंडर पेस,बैडमिंटन की दिग्गज सायना नेहवाल या इसीतरह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन करने वाले किसी और खिलाडी से शुरुआत क्यों न की जाए? उसके बाद सचिन का भी नंबर आये. इसमें कोई शक नहीं है कि सचिन बेमिसाल हैं लेकिन देश ने भी उनके लिए पलक-पांवड़े बिछाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.वैसे भी सचिन हो या सहवाग या कोई और क्रिकेटर,उनके प्रदर्शन पर हम सरकारी खज़ाना खोल देते हैं.अभी विश्व कप जीतते ही उन पर नोटों,सुविधाओं और उपहारों की बरसात हो रही है.अब तक हर क्रिकेटर को करोड़ों रूपए अलग-अलग सरकारें बाँट चुकी हैं और जो पीछे छूट गई हैं वे भी आम जनता के खून-पसीने की कमाई को अपनी बपौती समझकर इन पर न्योछावर करने के बहाने तलाश रही हैं.मुद्दे की बात यह है कि हमारे क्रिकेटरों को क्रिकेट खेलने के लिए पहले ही अनुबंध के नाम पर अतुलनीय पैसा मिल रहा है और वे विज्ञापनों,आईपीएल के जरिए भी बेशुमार पैसा कूट रहे हैं सो अलग.
                          दरअसल खामी सचिन में नहीं बल्कि क्रिकेट में है.दर्जन भर से भी कम देशों का यह समय खपाऊ और कामचोरी को बढ़ावा देने वाला खेल अपने पैसों के बल पर दूसरे खेलों को बर्बाद कर रहा है.अब देश की नई पीढ़ी कबड्डी,कुश्ती,मुक्केबाज़ी,बास्केटबाल और फ़ुटबाल जैसे वैश्विक खेलों को छोड़कर क्रिकेट की तरफ भागने लगी है.यदि हम क्रिकेटरों को इसीतरह बढ़-चढ़कर महिमामंडित करते रहे तो ओलिंपिक और एशियाई खेलों के लिए हमें ढंग के खिलाड़ी तक नहीं मिलेंगे और १६१ करोड़ की आबादी में से आधे से ज्यादा लोग टीवी-रेडियो से चिपककर अपना और देश का कीमती समय इसीतरह व्यर्थ लुटाते नज़र आयेंगे.





अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...