मंगलवार, 16 अगस्त 2016

पूर्वोत्तर में भी सिपाहियों ने की थी मंगल पांडे जैसी बगावत...!!

जब भी देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम अर्थात् 1857 में सिपाहियों के विद्रोह (Sepoy Mutiny) की बात चलती है तो हमेशा मेरठ, झाँसी, दिल्ली, ग्वालियर जैसे इलाकों और बिहार, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात जैसे कुछ राज्यों तक सीमित होकर रह जाती है. आज़ादी की अलख जगाने वाले इस सबसे पहले विद्रोह को आमतौर पर उत्तर भारत तक सीमित कर दिया गया है. शायद इस बात को कम ही लोग जानते हैं कि विद्रोह की आग पूर्वोत्तर के राज्यों तक भी आई थी और असम-त्रिपुरा जैसे राज्यों के सिपाहियों की इस विद्रोह में अहम् भूमिका भी थी.
जानकारी के अभाव में पूर्वोत्तर में इस आन्दोलन की गूंज इतिहास में स्पष्ट और उल्लेखनीय मौजूदगी दर्ज नहीं करा पायी और इसका परिणाम यह हुआ कि उत्तर भारत में इस विद्रोह के बाद मंगल पांडे,रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे,नाना साहेब पेशवा,बहादुर शाह ज़फर जैसे तमाम नाम इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में दर्ज होकर घर-घर में छा गए, वहीँ पूर्वोत्तर में इसी विद्रोह में शामिल सिपाहियों के नाम तक कोई नहीं जानता. यहाँ तक की ऐसा कोई विद्रोह भी हुआ था इस बारे में भी लोगों को ठीक ठीक जानकारी नहीं है. हालाँकि, इस लेख का उद्देश्य न तो सिपाहियों के विद्रोह से शुरू हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की क्षेत्रवार तुलना करना है और न ही हमारे महान शहीदों के योगदान को कम करके आंकना है. वैसे भी उत्तर भारत में इस आंदोलन की तीव्रता इतनी ज्यादा थी कि उसकी तुलना किसी और क्षेत्र से हो भी नहीं सकती क्योंकि इस विद्रोह से कई जगह अंग्रेजों के पैर उखड़ गए थे और उनकी सत्ता जाने तक की स्थिति बन गयी थी. ऐसा माना जाता है कि यदि उस समय के सभी राजाओं ने साथ दिया होता तो शायद देश तब ही स्वतंत्र हो जाता.
जब भी पूर्वोत्तर और खासकर असम में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े यत्र-तत्र बिखरे पन्नों को सिलसिलेवार जोड़ने का प्रयास होता है तो मनीराम बरुआ, सूबेदार शेख भीकम, निर्मल हजारिका, महेश चन्द्र बरुआ, मधु मलिक, चारु गुहाइन, रस्तम सिंह जमादार, हवलदार राजाबली खान, गौचंदी खान, चौधुरी और मजुमदार परिवार जैसे कई प्रमुख किरदार सामने आते हैं जिन्होंने सिपाहियों के विद्रोह में रणनीति बनाने से लेकर उन्हें हथियार, पैसा, सहयोग, छिपने के ठिकाने इत्यादि मुहैया कराकर इस विद्रोह को सही दशा-दिशा देने में अहम् भूमिका निभाई थी. इसीतरह चटगांव व सिलहट(अब बंगलादेश में), मौजूदा बराक घाटी या दक्षिण असम के चतला, रौटिला, आज के मासिमपुर और अरुणाचल, लातू बाज़ार, हैलाकांदी और करीमगंज जैसे कई जाने-माने इलाके सामने आते हैं जो विद्रोही सिपाहियों और अंग्रेजी सेना के बीच संघर्ष के गवाह रहे हैं.
बराक घाटी में आज भी गाये जाने वाले ‘जंगिया गीतों’ अर्थात जंग से जुड़े लोकगीतों में इन स्थानों और सिपाहियों के विद्रोह के अहम् किरदारों का भरपूर उल्लेख मिलता है. असम विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर सुबीर कार ने भी अपने स्तर पर इन गीतों के माध्यम से इस इतिहास को सिलसिलेवार ढंग से एकसूत्र में पिरोने का प्रयास किया है. इसीतरह कुछ अन्य इतिहासकारों ने भी समय-समय पर इस दौर की उथल-पुथल का उल्लेख किया है. इतिहासकारों के मुताबिक जहाँ उत्तर भारत में सिपाहियों के विद्रोह की शुरुआत मई 1857 में हो गयी थी वहीँ पूर्वोत्तर में विद्रोह का आरम्भ 18 नवम्बर 1857 को 34 वीं नेटिव इन्फैंट्री रेजिमेंट की बगावत से हुआ. बताया जाता है कि इस रेजिमेंट ने बिल्कुल उत्तर भारत के विद्रोह की शुरुआत के नायक मंगल पांडे के अंदाज़ में चटगांव में बगावत का बिगुल बजाते हुए न केवल हथियार और सरकारी खजाना लूट लिया बल्कि यहाँ जेल में बंद कैदियों को भी आज़ाद कर दिया.
उल्लेखनीय बात यह है कि अगस्त 1857 तक इस रेजिमेंट को अंग्रेजों(तत्कालीन ईस्ट इण्डिया कंपनी) का वफादार माना जाता था लेकिन उत्तर भारत से छन-छनकर आ रही ख़बरों ने यहाँ भी बेचैनी उत्पन्न कर दी थी. कहते हैं न कि अफवाहे आंधी-तूफ़ान की गति से फैलती हैं और यही इस मामले में भी हुआ. उस समय आज की तरह समाचार पत्र, न्यूज़ चैनल और इंटरनेट तो था नहीं कि वास्तविक जानकारी मिल पाए इसलिए इसके-उसके मुंह से फैलती बातों और वहां से यहाँ आने वाले लोगों से सुने किस्सों ने इस बेचैनी को विद्रोह में बदलने में प्रमुख भूमिका निभाई. इसी बीच दानापुर और जगदीशपुर जैसे तुलनात्मक करीबी इलाकों में विद्रोह के समाचारों ने बगावत की सोच को और भी हवा दे दी. जैसे वहां विद्रोही सिपाहियों ने अंतिम मुग़ल शासक बहादुर शाह जफ़र को पुनः राजा बनाने का प्रयास किया था कुछ इसी तर्ज पर यहाँ भी अंग्रेजों के हाथ से सत्ता लेकर अहोम राजकुमार कन्दर्पेश्वर सिंघा को सौंपने की योजना थी और इस योजना का मूल रणनीतिकार मनीराम बरुआ को ही माना जाता है. कहीं-कहीं इनका नाम मनीराम दीवान के रूप में भी दर्ज मिलता है.
इतिहासकार रजनीकांत गुप्ता के हवाले से जानकारी मिलती है कि 18 नवम्बर 1857 को चटगांव में विद्रोह के बाद हवलदार राजाबली खान के नेतृत्व में विद्रोही सिपाही त्रिपुरा से मणिपुर होते हुए असम की मौजूदा बराक घाटी की ओर बढ़े. उन्हें उम्मीद थी कि जनता भी उनके साथ आती जाएगी और स्थानीय राजा भी, लेकिन हुआ उल्टा. अव्वल तो जनता खुलकर साथ नहीं आ पाई और अधिकतर स्थानीय राजाओं ने अंग्रेजों का साथ दिया. कई ने तो अंग्रेज अधिकारियों की अपील पर इन विद्रोही सिपाहियों से निपटने के लिए अपनी सेना तक भेज दी. इस दौरान सिलहट के प्रतापगढ़ और हैलाकांदी के लातू में विद्रोही सिपाहियों तथा अंग्रेज समर्थक सेनाओं के बीच भीषण संघर्ष हुआ और दोनों ही पक्षों को भारी नुकसान उठाना पड़ा. विद्रोही सिपाहियों की ताक़त का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि लातू में सिलहट लाइट इन्फैंट्री के साथ हुई लड़ाई में उन्होंने इस इन्फैंट्री के मुखिया मेजर बियंग तक को मार गिराया था. ऐसा ही एक संघर्ष कछार-मणिपुर सीमा पर भी हुआ था जब तक़रीबन 200 विद्रोही सिपाहियों ने तब की सरकारी सेना के साथ दो घंटे तक मुकाबला किया. विद्रोही सैनिकों की संख्या को लेकर जरुर अलग-अलग आंकड़े मिलते हैं. कहीं इसे 200 तो कहीं 300 बताया गया है.
एक और मजेदार तथ्य यह भी सामने आता है कि आमने-सामने के संघर्ष के दौरान विद्रोही सिपाहियों ने अंग्रेज समर्थक भारतीय या स्थानीय सिपाहियों को अपने साथ मिलाने के लिए उन्हें जाति-धर्म और खानपान तक का वास्ता देकर समझाने का प्रयास किया जब ये सैनिक, अंग्रेजों के प्रति अपनी वफ़ादारी छोड़ने को तैयार नहीं हुए तो उन्हें ‘क्रिश्चियन का कुत्ता’ जैसे संबोधनों से भी उकसाया गया. उत्तर भारत की क्रांति की तरह पूर्वोत्तर में सैनिकों का यह विद्रोह भी जनता और स्थानीय राजाओं का समर्थन नहीं मिलने के कारण असफल हो गया. इस दौरान अधिकतर विद्रोही सिपाही मारे गए. अंग्रेजों की क्रूरता का आलम यह था कि उन्होंने विद्रोही सिपाहियों को सिलचर तथा अन्य कई शहरों में सार्वजनिक रूप से पेड़ से लटकाकर फांसी दी ताकि भविष्य में कोई और यह हिमाकत करने की हिम्मत भी न कर सके. यदि कछार के तत्कालीन सुपरिटेंडेंट आफ पुलिस कैप्टन स्टीवर्ड की रिपोर्ट पर भरोसा किया जाए तो कछार में घुसते समय 185 विद्रोही सिपाही मारे गए थे इनमें से 14 को फांसी दी गयी जबकि 57 गोली लगने से मारे गए. कुछ सिपाही मृत मिले, वहीँ सौ से ज्यादा को अन्य लोगों की मदद से मारा गया. उनके पास से सैंकड़ों हथियार और तक़रीबन 30 हजार रुपए भी मिले थे. ऐसा नहीं है इन सैनिकों को आम जनता से जरा भी सहयोग नहीं मिला बल्कि कई परिवारों ने विद्रोही सैनिकों को शरण/भोजन और जरुरी संसाधन तक उपलब्ध कराए. फिर भी यह जन समर्थन झाँसी की रानी या उनके जैसे अन्य अमर शहीदों को मिले समर्थन की तुलना में नगण्य था. यदि आम जनता उत्तर भारत की तरह पूर्वोत्तर में भी विद्रोही सिपाहियों के समर्थन में खुलकर सामने आ जाती तो शायद आज यहाँ की कहानी भी कुछ अलग होती और यह क्षेत्र बाकी देश से शायद इतना अलग थलग भी नहीं होता.  (तस्वीर:गूगल से साभार)

बुधवार, 20 जुलाई 2016


अभिशाप नहीं,सीधे संवाद का सटीक माध्यम है सोशल मीडिया

इन दिनों इलेक्ट्रानिक मीडिया खासकर न्यूज़ चैनलों और सोशल मीडिया को खरी-खोटी सुनाना एक फैशन बन गया है. मीडिया की कार्यप्रणाली के बारे में ‘क-ख-ग’ जैसी प्रारंभिक समझ न रखने वाला व्यक्ति भी ज्ञान देने में पीछे नहीं रहता. हालाँकि यह आलोचना कोई एकतरफा भी नहीं है बल्कि टीआरपी/विज्ञापन और कम समय में ज्यादा चर्चित होने की होड़ में कई बार मीडिया भी अपनी सीमाएं लांघता रहता है और निजता और सार्वजनिक जीवन के अंतर तक को भुला देता है. वैसे जन-अभिरुचि की ख़बरों और भ्रष्टाचार को सामने लाने के कारण न्यूज़ चैनल तो फिर भी कई बार तारीफ़ के हक़दार बन जाते हैं लेकिन सोशल मीडिया को तो समय की बर्बादी तथा अफवाहों का गढ़ माना लिया गया है. 
आलम यह है कि सोशल मीडिया पर वायरल होते संदेशों के कारण अब ‘वायरल सच’ जैसे कार्यक्रम तक आने लगे हैं  लेकिन, वास्तविक धरातल पर देखें तो न्यू मीडिया के नाम से सुर्खियाँ बटोर रहे  मीडिया के इस नए स्तम्भ का सही ढंग से इस्तेमाल किया जाए तो यह वरदान बन सकता है. कई बार मुसीबत में फंसे लोगों तक सहायता पहुँचाने में फेसबुक,ट्विटर जैसे सोशल मीडिया के लोकप्रिय प्लेटफार्म ने गज़ब की तेज़ी दिखाते हुए अनुकरणीय उदाहरण पेश किए हैं. बाढ़,भूकंप,आग प्राकृतिक आपदाओं के दौरान इस मीडिया की सकारात्मक भूमिका अब सामने आने लगी है. निजी तौर पर सोशल मीडिया की सक्रियता के तो बेशुमार उदाहरण मौजूद हैं लेकिन सरकारी स्तर पर भी यह मीडिया इन दिनों कारगर भूमिका निभा रहा है. हाल ही में रेलमंत्री और उनके मंत्रालय की ट्विटर पर सक्रियता के कारण मुसीबत में फंसे यात्रियों को समय पर सार्थक मदद मिलने के कई किस्से सामने आ रहे है. यहाँ तक कि इस मीडिया के चलते नवजात बच्चे को ट्रेन में दूध से लेकर डायपर तक उपलब्ध कराने जैसी मानवीय पहल देखने को मिली है. ट्रेन में महिलाओं से छेड़छाड़ रोकने और बदमाशों को मौके पर ही गिरफ्त में लेने में भी इस मीडिया ने अहम् भूमिका निभाई है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सोशल मीडिया पर सक्रियता किसी से छिपी नहीं है. वे इस मंच का इस्तेमाल आम जनता के संपर्क में रहने के लिए बखूबी करते हैं और शायद यही कारण है कि ‘स्वच्छ भारत’ और ‘बेटी बचाओ-बेटी पढाओ’ जैसे सामाजिक कल्याण से जुड़े कार्यक्रम शुरू होते ही न केवल आम जनता तक पहुँच जाते हैं बल्कि जन-सामान्य के मन की थाह लेने में भी सहायक बनते हैं. यदि कुछ साल पहले के परिपेक्ष्य में देखे तो यह सब अविश्वसनीय सा लगता है. पहले सामाजिक कल्याण से जुडी सरकारी योजनाएं जन-सामान्य तक तब पहुँच पाती थीं जब कि वे या तो समाप्त होने के कगार पर होती थीं या फिर जन-भागीदारी के अभाव में वे असफल हो जाती थीं. आकाशवाणी से प्रसारित प्रधानमंत्री के ‘मन की बात’ कार्यक्रम में आम लोगों की भागीदारी सोशल मीडिया की वजह से ही संभव हो पायी है. प्रधानमंत्री द्वारा विभिन्न देशों की यात्रा के दौरान सोशल मीडिया के जरिए उस देश की भाषा में सन्देश प्रेषित करने से गर्मजोशी और परस्पर उत्साह का जो माहौल बनता है उससे सुदृढ़ रणनीतिक संबंधों की नींव रखने में भी मदद मिलती है.     
अब तो सरकार के अधिकतर मंत्रालय सोशल मीडिया पर सक्रिय है लेकिन विदेश मंत्रालय की ट्विटर पर सक्रियता से हाल ही में असम के दो परिवारों को नया जीवन मिल गया. चंद शब्दों में अपनी बात को सीधे सम्बंधित व्यक्ति तक तुरंत पहुंचा पाने की कुशलता के कारण इस नए मीडिया ने इन परिवारों के परिजनों को विदेश से सुरक्षित वापस लाने में अनुकरणीय सहायता की.
असम की आराधना बरुआ यूक्रेन में डाक्टरी की पढाई कर रही हैं और सालभर में कम से कम एक बार अपने वतन आना उनके लिए सामान्य बात थी,लेकिन हाल ही में आराधना के लिए यूक्रेन से इन्स्ताबुल होते हुए गुवाहाटी का सफ़र किसी बुरे सपने से कम नहीं था. चूँकि इन्स्ताबुल में विमान को काफी देर तक रुकना था इसलिए आदत के मुताबिक आराधना विमान से बाहर निकलकर चहलकदमी करने लगी. पहले भी वे ऐसा करती रही हैं और यह सामान्य बात थी लेकिन इन्स्ताबुल में हाल ही हुए आतंकी हमले के बाद वहां के सुरक्षा हालात बदल गए थे. इस बार जैसे ही आराधना विमान से बाहर निकली सुरक्षा एजेंसियों ने बिना ट्रांजिट वीसा के बाहर घूमने के आरोप में उसे हिरासत में ले लिया. बिन बुलाए आई इस मुसीबत ने आराधना के होश उड़ा दिए. फिर धीरज से काम लेते हुए उसने किसी तरह असम की बराक घाटी में इन्स्पेक्टर आफ स्कूल के पद पर तैनात अपने पिता को फोन किया. मामले की गंभीरता को समझते हुए बदहवास पिता ने अपने ज़िले हैलाकांदी के डिप्टी कमिश्नर से मदद मांगी. डिप्टी कमिश्नर मलय बोरा ने भी मामले की नजाकत को समझते हुए और सूझ-बूझ का इस्तेमाल कर बिना समय गँवाए तत्काल ट्विटर पर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को सन्देश भेजकर सहायता की गुहार लगाई. विदेश मंत्री ने भी बिना देर किए इन्स्ताबुल में भारतीय दूतावास के एक अधिकारी को आराधना को सुरक्षित भारत भेजने का दायित्व सौंप दिया.
सोशल मीडिया की इस सक्रियता का असर दिखा और आराधना के लिए न केवल सभी जरुरी दस्तावेजों का इंतजाम हो गया बल्कि उसे दूसरी फ्लाइट से भारत रवाना भी कर दिया गया. असम में अपने घर पहुंचकर आराधना ने चैन की सांस ली और सरकार की इस मानवीय पहल के प्रति आभार जताया क्योंकि इसके फलस्वरूप ही वह सुरक्षित अपने घर आ पायी.
असम के ही सिलचर के निवासी जायफुल रोंग्मेई की कहानी तो और भी दिल दहलाने वाली है. एक तेल कंपनी के जहाज पर नाविक की नौकरी कर रहे रोंग्मेई को बिना किसी गलती के नाइजीरिया में तेल चोरी के आरोप में बंदी बना लिया गया था जबकि असलियत में उसके जहाज को ईंधन की कमी के कारण मज़बूरी में नाइजीरिया की सीमा में लंगर डालना पड़ा था. किसी तरह रोंग्मेई की परेशानी की कहानी उसके घर तक पहुंची और फिर स्थानीय विधायक और सांसद के जरिए विदेश मंत्री को इस बात का पता चला तो उन्होंने बिना देर किए रोंग्मेई और उनके साथ नाइजीरिया की जेल में बंद उनके ग्यारह अन्य  भारतीय साथियों को छुड़ाने के प्रयास तेज कर दिए. सरकार की मध्यस्तता के फलस्वरूप रोंग्मेई बीते सप्ताह अपनी पत्नी और छह साल के बेटे के पास घर वापस आ गए.
जरा सोचिए, संपर्कों और साधनों के लिहाज से देश के सबसे कमजोर इलाके पूर्वोत्तर के भी दूर दराज के हिस्सों में रहने वाले इन लोगों के न तो कोई बड़े संपर्क थे और न ही इतना पैसा की उन देशों तक जाकर अपने परिजनों की कोई मदद कर पाते लेकिन सोशल मीडिया के विस्तार ने एक के बाद एक कड़ियाँ जोड़ दी और महीनों का सफ़र मिनटों में पूरा हो गया. नए भारत के इस नए मीडिया के इन सकारात्मक पहलुओं से एक बात तो पूरी तरह साफ़ हो जाती है कि यदि सोशल मीडिया का समझदारी से इस्तेमाल किया जाए तो यह मीडिया आम जनता के कल्याण में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है और उन इलाकों तक भी अपनी पहुँच बना सकता है जहाँ आज तक ट्रेन जैसी बुनियादी सेवा भी उपलब्ध नहीं है.



अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...