बुधवार, 14 दिसंबर 2022

आज क्यों जरूरी हैं रसखान और उनका रचना संसार..!!

यह महाकवि रसखान की समाधि है। भगवान कृष्ण के अनन्य भक्त रसखान की स्मृति और वर्तमान परिदृश्य में हिंदू-मुस्लिम समभाव का एक सशक्त स्थल । उप्र के मथुरा के क़रीब गोकुल और महावन के बीच मां यमुना के आंचल में स्थित यह समाधि अपने अंदर पूरा इतिहास समेटे है। घने पेड़ों के बीच बनी रसखान की यह समाधि धर्मनिरपेक्ष सरकारों के दौर में रख रखाव के मामले में वाकई 'निरपेक्ष' ही थी पर 8 दिसंबर 2021 में इसकी क़िस्मत पलटी और करीब साढ़े तीन करोड़ रुपए में इस समाधि का जीर्णोद्धार हुआ और तब जाकर इसे यह मौजूदा गौरवमयी स्वरूप मिला। चौतरफा घिरी हरियाली के बीच बेहद साफ-स्वच्छ रसखान समाधि स्थल आपको बरबस ही कुछ वक्त यहां बिताने के लिए मजबूर कर देता है। यहां निशुल्क विशाल पार्किंग के साथ बैठने की बढ़िया व्यवस्था है तो खानेपीने के लिए कैंटीन भी ।

समाधि स्थल पर लगे पटल के मुताबिक करीब 1551 ईस्वी में मुगल बादशाह हुमायूं के शासनकाल के अंतिम दौर में मची कलह से ऊबकर रसखान बृज भूमि में आ गए थे। ये दिल्ली के एक पठान सरदार थे लेकिन जब लौकिक प्रेम से कृष्ण प्रेम की ओर उन्मुख हुए तो जन्म जन्मांतर तक बृज के होकर रह गए। फिर गोस्वामी विट्ठलनाथ के सबसे बड़े कृपापात्र शिष्य बनकर रसखान ने अपने सहज, सरस, प्रवाहमय लेखन से कृष्ण की विभिन्न लीलाओं को घर घर तक पहुंचा दिया। बृजभाषा का ऐसा सहज प्रवाह अन्यत्र बहुत कम मिलता है। रसखान की रचनाओं में उल्लास, मादकता और उत्कटता तीनों का संयोग है और ब्रज भूमि के प्रति खास मोह भी। उप्र राज्य पुरातत्व विभाग के अनुसार रसखान के 53 दोहे वाले प्रेम वाटिका ग्रंथ के साथ साथ अब तक उनके 66 दोहे, 4 सोरठे, 225 सवैए, 20 कवित्त और 5 पद सहित कुल 310 छंद प्राप्त हुए हैं। उनकी सुजान रसखान भी एक अनमोल कृति है। 85 साल की आयु में 1618 ईस्वी में वे मानव शरीर त्यागकर ईश्वर की स्थाई शरण में चले गए।
आज के दौर में जब धर्म राजनीति का सबसे बड़ा असलहा बन रहा है तब रसखान, धार्मिक विवादों के बीच सफेद ध्वज लिए युद्ध विराम कराने वाले प्रेम और शान्ति के मसीहा नज़र आते हैं। बढ़ती धार्मिक वैमनस्यता की भड़कती आग के इस दौर में रसखान और उनकी रचनाएं शीतल जल की फुहार सी लगती हैं । उनके शब्दों में प्रेम बरसता है। प्रेम को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं:
प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ।
जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोइ॥
मुस्लिम रसखान न्यौछावर हैं कृष्ण पर, समर्पित हैं उनकी भक्ति के लिए और बृजभूमि के कण कण में बिखरे मानववाद के लिए । तभी तो उन्होंने लिखा है:
"मानुष हौं तो वही रसखानि
बसौ ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बसु
मेरा चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को
जो धर्यौ कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तौ बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल-कदंब की डारन॥"
अपने इस पद में रसखान कहते हैं कि यदि मुझे आगामी जन्म में मनुष्य-योनि मिले तो मैं वही मनुष्य बनूँ जिसे ब्रज और गोकुल गाँव के ग्वालों के साथ रहने का अवसर मिले। यदि मुझे पशु-योनि मिले तो मेरा जन्म ब्रज या गोकुल में ही हो, ताकि मुझे नित्य नंद की गायों के मध्य विचरण करने का सौभाग्य प्राप्त हो सके। यदि मुझे पत्थर-योनि मिले तो मैं उसी पर्वत का एक भाग बनूँ जिसे श्रीकृष्ण ने इंद्र का गर्व नष्ट करने के लिए अपने हाथ पर छाते की भाँति उठा लिया था। यदि मुझे पक्षी-योनि मिले, तो मैं ब्रज में ही जन्म पाऊँ ताकि मैं यमुना के तट पर खड़े हुए कदम्ब वृक्ष की डालियों में निवास कर सकूँ।
रसखान की रचनाओं को इसलिए गागर में सागर कहा जाता है क्योंकि इससे कम शब्दों में बृज भूमि की इससे बेहतर व्याख्या और कौन कर सकता है। कृष्ण की बात हो, बृज भूमि की चर्चा निकले और रसखान का ज़िक्र न आएं तो कुछ अधूरा सा लगता है बिल्कुल वैसे ही जैसे सम्पूर्ण भोजन के बाद मीठे से जो तृप्ति मिलती है । कृष्ण की लीलाओं के रसखान के शब्दों में ढलने से वैसा ही आनंद आता है जैसे खाने के बाद कोई पान प्रेमी अपना मनपसंद पान मुंह में दबाकर टहलते हुए उस का बूंद बूंद रसपान करता है । कृष्ण और बृज पर रसखान के दोहे,सोरठे, सवैया और पद पढ़कर कुछ कुछ वैसा ही सुख आता है।
आखिर कुछ तो अनूठा और दिव्य था कृष्ण में तभी तो वे वासुदेव, मोहन, द्वारिकाधीश, केशव, गोपाल, नंदलाल, बाँके बिहारी, कन्हैया, गिरधारी, मुरारी, मुकुंद, गोविन्द, यदुनन्दन, रणछोड़, कान्हा, गिरधर, माधव, मधुसूदन, बंशीधर, और मुरलीधर जैसे विविध नामों से हमारे आसपास मौजूद हैं..और तभी रसखान उनके अनूठे रूप का वर्णन कुछ इस तरह करते हैं:
धूरि भरे अति शोभित श्याम जू,
तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत खात फिरैं अँगना,
पग पैंजनिया कटि पीरी कछौटी।।
वा छवि को रसखान विलोकत,
वारत काम कलानिधि कोटी
काग के भाग कहा कहिए
हरि हाथ सों ले गयो माखन रोटी।।
शायद योगेश्वर श्रीकृष्ण का यही आकर्षण मीरा से राधा तक,सुदामा से उद्धव तक और सूरदास से रसखान तक को देश के कौने कौने से जाति धर्म संप्रदाय और ऊंच नीच की तमाम बेड़ियों को तोड़कर बृज भूमि और कृष्ण की ओर खींच लाता है।

ये दाल टिक्कड़ है

 

ये दाल टिक्कड़ है..देशी घी में लहालोट मतलब तरबतर गरमागरम टिक्कड़ और हरी मिर्च के साथ बघारी (फ्राई) गई दाल…इसकी खुशबू और स्वाद के आगे शाही पनीर और मलाई कोफ्ते की भी क्या बिसात।

हाल ही में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मप्र के श्योपुर जिले के कूनो नेशनल पार्क और कराहल आए तो उनकी यात्रा को आकाशवाणी भोपाल और #दिल्ली के जरिए देशभर के श्रोताओं तक पहुंचाने के लिए हम भी वहां पहुंचे। चूंकि, भोपाल से श्योपुर क़रीब साढ़े तीन सौ से चार सौ किमी दूर है इसलिए राष्ट्रीय राजमार्ग होने के बाद भी छह से आठ घंटे लग ही जाते हैं। ऐसे में खाने के लिए कुछ नया तलाशने की अपनी आदत के चलते हम गुना के आसपास जाट साहब के इस ढाबे पर पहुंच गए। यहां आए तो थे चाय की तलब लेकर लेकिन अनुशासित ढंग से सजे टिक्कड़ ने अपनी ओर ललचाया और हम भी इनसे मुलाकात करने से अपनी जीभ को नहीं रोक पाए ।
..अगर, अब तक न बूझ पाएं हों तो जान लीजिए कि ये गक्कड़ का करीबी रिश्तेदार और हमारी बाटी से अगली पीढ़ी का सदस्य है। दरअसल, पुराने जमाने मे जब यात्री पैदल ही सैकड़ों मील का सफर करते थे तब सीमित संसाधनों में रोटी/पूरी/पराठा या नान तो बन नहीं सकता था इसलिए शायद पेट भरने के लिए टिक्कड़/गक्कड़ का जन्म हुआ था । अब यह कुछ होटलों के महंगे मैन्यू में भी शान और मान सम्मान के साथ मौजूद है।
हमारी नई पीढ़ी की जानकारी के लिए टिक्कड़ गेहूं के मोटे पिसे आटे की छोटे आकार की मोटी रोटी है, जिसे सीधे बिना तवे का उपयोग किये कंडे/उपले की आंच पर सेंक कर बनाया जाता है। हालांकि जाट साहब के इस ढाबे पर इसे सेंकने के लिए मिट्टी के उल्टे तवे का इस्तेमाल हो रहा है। टिक्कड़ की जोड़ी बैगन के भरते या दाल के साथ ज्यादा जमती है । समझने के लिए लिट्टी चोखा और दाल बाटी भी टिक्कड़ के खानदान के ही हैं। दाल बाफले को भी इनका कुछ रईस टाइप का रिश्तेदार मान सकते हैं। नए दौर के बच्चे इसे बिना स्टफिंग वाला बटर पिज़्ज़ा या आटे का पिज़्ज़ा बेस भी मान सकते हैं। करीब सौ रुपए में चार टुकड़ों में विभाजित दो टिक्कड़ और कटोरी भर दाल आपका मन और पेट दोनों भरने के लिए पर्याप्त है।
तो,कभी घर में फुरसत में टिक्कड़ और दाल की जोड़ी बनाइए..खाइए और खिलाइए, लेकिन एक सलाह भी.. टिक्कड़ को अच्छे से सेंकिए वरना यह पेट में गुड़गुड़ का कारण भी बन सकता है।

है न, सब कुछ असाधारण, अविस्मरणीय और अविश्वसनीय..!!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उज्जैन में भगवान महाकालेश्वर मंदिर परिसर के महाकाल लोक का लोकार्पण करते हुए कहा था- ‘महाकाल लोक’ में लौकिक कुछ भी नहीं है। शंकर के सानिध्य में साधारण कुछ भी नहीं है। सब कुछ अलौकिक है, असाधारण है, अविस्मरणीय है, अविश्वसनीय है….और, महाकाल का आशीर्वाद जब मिलता हैं तो काल की रेखाएँ मिट जाती हैं, समय की सीमाएं सिमट जाती हैं, और अनंत के अवसर प्रस्फुटित हो जाते हैं।"....हो सकता है किसी को ये अतिसंयोक्ति लगे, परन्तु हम ने तो महाकाल लोक के शुभारंभ के अगले ही दिन यह महसूस कर लिया कि उज्जैन के राजाधिराज की इच्छा से बाहर कुछ भी नहीं है।

किस्सा कुछ इस तरह से है कि, इस कार्यक्रम के कवरेज के लिए हम भी एक दिन पहले उज्जैन में जम गए थे और 11 अक्टूबर को कवरेज के तत्काल बाद भोपाल लौटने की मनःस्थिति बना चुके थे। वैसे भी वीवीआईपी के कार्यक्रम मिनट टू मिनट तय होते हैं और मोदी जी के कार्यक्रमों में तो यह बात सौ फीसदी सच होती है इसलिए अपन ने भी अपनी वापसी यात्रा तय कर ली थी।
प्रधानमंत्री को लोकार्पण और कार्तिक मेला मैदान पर सभा के बाद 8 बजे उज्जैन से इंदौर और फिर वहां से दिल्ली रवाना होना था। हमने सोचा सभा के साथ साथ ही खबर बन जाएगी और नौ बजे भी निकले तो रात 12-12.30 तक भोपाल पहुंच ही जाएंगे लेकिन महाकाल को तो कुछ और ही मंजूर था। प्रधानमंत्री की सभा करीब एक घंटे देरी से खत्म हुई, फिर सभास्थल पर नेटवर्क के लाले पड़ गए और सभास्थल से सबसे पहले निकलने के बाद भी सड़कों पर जमा सैकड़ों लोगों और उनकी आवाजाही के कारण हमारी कार रफ्तार में बैलगाड़ी से भी मात खाने लगी..फिर क्या था, खिसियाते झुंझलाते क़रीब साढ़े दस बजे नेटवर्क जोन में पहुंचे, फटाफट स्टोरी बनाकर भेजी और निकलने का मन बना ही रहे थे कि पेट ने अपनी पूजा के बिना आगे बढ़ने से इंकार कर दिया । उज्जैन के मारवाड़ी भोजनालय में कुरकुरी रोटियों के साथ घर जैसी स्वादिष्ट सब्जियों के साथ छककर भोजन हुए। पर लज़ीज़ खाने के कारण हमारे सारथी पर नींद की खुमारी छा गई और ऐसे में जान जोखिम में कौन डालता। आप कह सकते हैं कि इसमें असामान्य क्या है,ये तो आमतौर पर होता है.. असामान्य बात यह थी कि हमारे ड्राइवर महाशय रात की यात्राओं के मुरीद हैं और वे दिन की बजाए रात में चलने के लिए हुलस पड़ते हैं,पर इस बार वे ही राजी नहीं हुए और रात्रि विश्राम उज्जैन के नाम हो गया।
बात,इससे आगे भी है..दूसरे दिन सुबह सुबह निकलने का तय हुआ था जो चाय नाश्ते के साथ करीब दस बजे शुरू हो पाया। भोपाल रवानगी के पहले, चलते चलते, मन में आया कि रात की चमक दमक के बाद और मोदी जी की अपील के बाद ऊपर सड़क से ही देखें कि महाकाल लोक की क्या स्थिति है। बस,फिर क्या था.. कार us सड़क पर मुड़ गई और हमने पुल पर से ही महाकाल लोक को मोबाइल कैमरे में समेट लिया। तभी हमारे उज्जैन के साथी हेमेंद्र तिवारी जी ने सलाह दी कि कार से एक बाहरी चक्कर भी लगा सकते हैं । उनकी सलाह मानकर जब रामघाट तक का यह चक्कर पूरा कर महाकाल लोक के नए बने मुख्य द्वार पर पहुंचे तो थोड़ा और लालच बढ़ा कि बस रूद्रसागर तक जाकर अंदर का जायज़ा भी ले लिया जाए। महाकाल की इच्छा को कौन टाल सकता है और हम तीखी हो चली धूप में भी मूर्ति दर मूर्ति निहारते आगे बढ़ते गए और नंदी द्वार, गणेश,शिव बारात,शिव श्रृंगार जैसी दर्जनों विशालकाय मूर्तियों को अपलक ताकते हुए जब वापस लौटने के लिए पलटे तो सामने महाकालेश्वर मंदिर का नवनिर्मित प्रवेश द्वार था…पर दिक्कत यह थी कि बिना स्नान किए महाकाल के दर्शन.. ज़मीर नहीं मान रहा था पर हेमेंद्र अपने शास्त्रों के ज्ञान से रास्ता निकाल लाए और हम मंत्रमुग्ध से ऐसे आगे बढ़ते गए जैसे कोई अदृश्य शक्ति हमारा हाथ थामकर ले जा रही हो..अंदर देखा तो देश विदेश के फूलों से सजे मंदिर की छटा ही निराली थी और सबसे अचंभित करने वाली बात यह कि बाहर नज़र आ रही भीड़ मंदिर के अंदर उतनी तादाद में नहीं दिखाई दी। कुछ मिनट के अंतराल में हम बिल्कुल महाकाल के सामने थे और आमतौर पर सेकेंडों में श्रद्धालुओं को महाकाल के सामने से जबरिया ढकेलने वाले सुरक्षा कर्मियों ने हमसे खुद कहा- 'आरती का समय हो रहा है और हमें पता है कि आप आरती के पहले यहां से जाएंगे नहीं, इसलिए आराम से जगह पर खड़े रहिए'…जबकि उस समय तक हमें सच में नहीं पता था कि यह आरती का समय है। अब महाकाल के आदेश को कौन टाल सकता है..हम रुके और आराम से पूरी आरती की,प्रसाद ग्रहण किया और साक्षी गोपाल के दर्शन कर उनकी गवाही भी दर्ज करा ली.. महाकाल ने जब दर्शन देने का ठान लिया था तो फिर सामान्य कतार में होने के बाद भी महज 10 मिनट में इतने सुकून,शांति,भक्ति और शक्ति से परिपूर्ण दर्शन हुए कि दिन बन गया जबकि पिछली दफा वीआईपी पास के बाद भी ऐसा अवसर नसीब नहीं हो पाया था.. देवाधिदेव भोलेनाथ की कृपा से भीगे तन मन के साथ फिर हमारी कार भोपाल के रास्ते पर फर्राटा दौड़ने लगी…है न सब कुछ अलौकिक, असाधारण, अविस्मरणीय और अविश्वसनीय।
Shariq Noor, Mithlesh Kumar Pandey and 119 others
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बापू की कहानी,पत्थरों की जुबानी..!!

आपके पास महज एक दिन का वक्त है, पता नहीं फिर ये मौका कब नसीब होगा…मेले,ठेले, शापिंग फेस्टिवल, मॉल और हाट बाजारों की रौनक तो हम अक्सर देखते हैं लेकिन यहां कुछ अलग तरह का हुनर है…यहां पत्थर बोल उठे हैं,अपने अलग अलग रंग, आकार प्रकार और पहचान के बाद भी ये एकरूप होकर दुनिया के सबसे बड़े महामानव के आम इंसान से अहिंसा के पुजारी बनने की गाथा गुनगुना रहे हैं। हम बात कर रहे हैं - भोपाल के स्वराज भवन में 14 से 16 अक्टूबर के बीच आयोजित Anita Dubey की प्रस्तर प्रदर्शनी यानि पत्थरों पर जादूगरी की।

अब तक, हम-आपने महात्मा गांधी को विविध कैनवासों और तस्वीरों में देखा है लेकिन इस प्रस्तर प्रदर्शनी में बापू अलग ही रूप में नजर आते हैं। युवा गांधी, बैरिस्टर गांधी,असहयोग करते,चरखा चलाते, बा के साथ, गोलमेज सम्मेलन में, दांडी यात्रा करते और न जाने कितने रूपों में छोटे बड़े पत्थरों के जरिए प्रतिबिंबित होते गांधी। 45 फ्रेम्स और 15 कोटेशन में अनीता दुबे ने साबरमती आश्रम से लेकर चंपारण तक और गांधी टोपी से लेकर उनके तीन बंदरों और बकरी निर्मला तक महात्मा गांधी से जुड़े हर अहम किस्से को अपने पत्थरों से साकार कर दिया है। खास बात यह है कि अनीता जी पत्थरों को बिना तरासे उनके प्राकृतिक रूप में ही इस्तेमाल करती हैं और इसके लिए वे 30 साल से साधना/तपस्या कर रही हैं । अनीता दुबे ने बताया कि गांधीजी पर केंद्रित इस प्रदर्शनी के लिए वे तीन साल से दिनरात एक किए थीं तब जाकर पत्थरों ने बोलना शुरू किया और अब तो वे पूरा गांधीवाद बयान कर रहे हैं।
गांधीजी को एक अलग नजरिए से, नए रूप में और अनूठे अंदाज में देखने का यह अवसर छोड़िए मत..जरूर देखिए क्योंकि ऐसे कलाकारों के हुनर को हमारा समर्थन बहुत जरूरी है ।

अब ये पैसे फिर चलन में आ रहे हैं

 

अब ये पैसे फिर चलन में आ रहे हैं.. चौंकिए मत.. वाकई,पंजी, दस्सी, चवन्नी और अठन्नी कहलाने वाली यह मुद्रा अब फिर से प्रचलन में है…..लेकिन आप इनसे कुछ खरीद नहीं सकते बल्कि अब इन्हें हासिल करने के लिए आपको मौजूदा दौर में चलने वाली मुद्रा खर्च करनी पड़ेगी। दरअसल,अब ये मुद्राएं 'एंटीक ज्वैलरी' में बदल रही हैं और महिलाओं के नाक, कान और गले के सौंदर्य की शोभा बढ़ाती नजर आने लगी है मतलब पहले पैसे से सौंदर्य सामग्री खरीदी जाती थी और अब पैसा खुद सौंदर्य सामग्री बन रहा है।

पंजी, दस्सी, चवन्नी और अठन्नी..हो सकता है नए दौर के बच्चों को यह रैप या रिमिक्स जैसा कोई प्रयोग लगे लेकिन हमारे दौर में इनकी अहमियत आज के पांच और दस रुपए के बराबर थी..इन्हें हम पंजी यानि पांच पैसे, दस्सी दस पैसे, चवन्नी पच्चीस पैसे और अठन्नी को पचास पैसे के तौर पर जानते थे। चवन्नी और अठन्नी तो हाल के कुछ वर्षों तक प्रचलन में थीं।
इस तस्वीर में ध्यान से देखे तो इसमें एक,दो और तीन पैसे भी नज़र आ सकते हैं। कभी एक पैसा आज के एक रुपए जैसी हैसियत रखता था। हमसे से पहले की पीढ़ी इकन्नी, दुअन्नी से भी परिचित रही है पर हमें ये कुछ अलग लगते थे। वही हाल आज की पीढ़ी का है क्योंकि उनके लिए हमारे दौर की ये अहम मुद्राएं आज महत्वहीन है और इसी क्रम में हो सकता है आज के पांच और दस रुपए भविष्य में अबूझ पहेली बन जाएं। हालांकि कागज़ के नोटों के डिजिटल मुद्रा में बदलने और तमाम पेमेंट चैनल के कारण हो सकता है कि भविष्य में हम खुद भी रुपए पैसे को उनके रंग रूप से नहीं,बल्कि बस संख्या से पहचाने।

तेरा ज़िक्र है या इत्र है...महकता हूँ,बहकता हूँ...!!

इन दिनों, रात में आप यदि भोपाल की वीआईपी रोड, मुख्यमंत्री निवास से पॉलिटेक्निक कालेज या फिर तमाम नई बनी कालोनियों के आसपास की सड़कों से गुजरें तो एक भीनी भीनी और मादक सी सुगंध बरबस ध्यान खींचती है। ऐसा लगता है जैसे किसी ने सड़क पर रूम स्प्रे कर दिया है..वाकई,यह रूम स्प्रे ही है लेकिन प्रकृति का। जैसे आम की बौर या मधुमलिती की बेल आसपास के इलाके को महका देती है बिल्कुल उसी तरह इस खास पेड़ की खुशबू हवा में घुलकर मन मोह लेती है..और इन दिनों भोपाल ही नहीं,शायद देश के किसी भी व्यवस्थित शहर में यह इत्र अपनी सुगंध से लोगों का ध्यान खींच रहा होगा। शायद,शीत ऋतु के स्वागत का प्रकृति का यह अपना खास अंदाज़ है।

अपूर्व सुंगध के साथ अपने आकार प्रकार में भी आकर्षक इस पेड़ को सप्तपर्णी कहा जाता है। सप्तपर्णी का अर्थ है सात पत्तियों वाला..इस पेड़ की लंबी पत्तियां सात की संख्या में परस्पर साथ होती है और यही इस पेड़ की सुंदरता का सबसे बड़ा कारण है। जहां तक,विशिष्ट सुगंध की बात है तो इन दिनों मतलब अक्तूबर नवंबर से जनवरी फरवरी तक सप्तपर्णी में विशेष प्रकार के छोटे छोटे सफेद फूल आते हैं जो अपनी महक से पूरे इलाक़े को महका देते हैं। सप्तपर्णी मूल रूप से अपना पेड़ है यानि यह दक्षिण-पूर्वी एशियाई देश और भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जाता है। हालांकि इसे चीन, अफ्रीकी देशों और ऑस्ट्रेलिया में भी देखा गया है। यह पश्चिम बंगाल का राजकीय पेड़ भी है।
सप्तपर्णी को डेविल्स ट्री, स्कॉलर ट्री, डीटा बार्क, ब्लैकबोर्ड ट्री, मिल्कवुड, सप्तपर्णा, सप्तचद, छत्रपर्ण, शारद, सातवीण, छितवन और छातिम जैसे तमाम नामों से भी जाना जाता है। वैसे वैज्ञानिक तौर पर इसे 'एल्स्टोनिया स्कोलैरिस' कहा जाता है। बताया जाता है कि वनस्पति विज्ञानी प्रोफ़ेसर सी. एल्स्टन ने सबसे पहले इस पर शोध किया था और इसलिए इसका वैज्ञानिक नाम एल्स्टोनिया स्कोलैरिस पड़ गया। एक और मजेदार बात यह है कि यह पेड़ केवल खुशबू ही नहीं बिखेरता बल्कि शिक्षा का जरिया भी है। दरअसल, सप्तपर्णी की लकड़ी से स्कूल कालेज में इस्तेमाल होने वाले ब्लैकबोर्ड भी बनते हैं। बच्चों की स्लेट बनाने में भी इसका भरपूर उपयोग होता है इसलिए इसे ‘ब्लैकबोर्ड ट्री’ भी कहा जाता है ।
दिलचस्प बात यह है कि सप्तपर्णी की अनूठी खुशबू ही इसकी जान की दुश्मन बन गई है …अपनी इसी अलग और मादक सुगंध के कारण कई लोग इस पेड़ को अशुभ और शैतान का रहवास भी कहते हैं इसलिए इसे डेविल्स ट्री के नाम से भी जाना जाता है। वे इसे दमा/अस्थमा और सांस की तमाम बीमारियों की जड़ भी मानते हैं। अखबारों की खबरों के मुताबिक़ इन्हीं बातों पर विश्वास करने की वजह से कई शहरों में लोग इसे कटवाने तक लगे हैं।
वास्तव में सप्तपर्णी एक ऐसा सदाबहार वृक्ष है जिसका उपयोग आयुर्वेदिक, सिद्ध और यूनानी चिकित्सा जैसी तमाम देशी उपचार पद्धतियों में दुर्बलता, पीलिया और घाव ठीक करने सहित कई बीमारियों के इलाज में किया जाता है। इसीतरह दाद, खाज और खुजली जैसे चर्म रोगों और मलेरिया के उपचार तक में यह उपयोगी है। बुखार,दस्त और दांत दर्द में भी यह बहुत कारगर है।
और अंत में सबसे खास बात.... सप्तपर्णी मेरी 'बैटर हाफ' का भी सबसे पसंदीदा पेड़ है इस लिहाज से यह हमारा पारिवारिक पेड़ हुआ। अब दुनिया इसे जिस भी नज़र से देखे, अपने लिए तो यह पेड़,इसकी खुशबू और इसका सौंदर्य सबसे प्रिय है। मुझे तो लगता है संजय लीला भंसाली की फिल्म 'गुज़ारिश' में गीतकार ए.एम.तुराज़ भी शायद कभी सप्तपर्णी के इस पेड़ के आसपास से गुज़रे होंगे तभी तो उन्होंने लिखा था:
के तेरा ज़िक्र है या इत्र है
जब-जब करता हूँ
महकता हूँ, बहकता हूँ, चहकता हूँ
शोलों की तरह
खुशबुओं में दहकता हूँ
बहकता हूँ, महकता हूँ
इसलिए, सप्तपर्णी को लेकर फैली अच्छी बुरी बातों को छोड़िए,बस इसकी भीनी भीनी खुशबू में मस्त हो जाइए क्योंकि ये समय निकल गया तो फिर अगले साल ही मदहोश होने का मौका मिल पाएगा।

मंगलवार, 1 मार्च 2022

किसको फुर्सत मुड़कर देखे बौर आम पर कब आता है..


 मौसम में धीरे-धीरे गर्माहट बढ़ने लगी है और इसके साथ ही बढ़ने लगी है आम की मंजरियों की मादक खुशबू...हमारे आकाशवाणी परिसर में वर्षों से रेडियो प्रसारण के साक्षी आम के पेड़ों में इस बार भरपूर बौर/मंजरी/अमराई/मोंजर/Blossoms of Mango दिख रही है और पूरा परिसर इनकी मादक गंध से अलमस्त है....ऐसा लग रहा है  जैसे धरती और आकाश ने इन पेड़ों से हरी पत्तियां लेकर बदले में सुनहरे मोतियों से श्रृंगार किया है और फिर बरसात की बूंदों से ऐसी अनूठी खुशबू रच दी है जो हम इंसानों के वश में नहीं है। चाँदनी रात में अमराई की सुनहरी चमक और ग़मक वाक़ई अद्भुत दिखाई पड़ रही है।  अगर प्रकृति और इन्सान की मेहरबानी रही तो ये पेड़ बौर की ही तरह ही आम के हरे-पीले फलों से भी लदे नज़र आएंगे.....परन्तु आमतौर पर सार्वजनिक स्थानों पर लगे फलदार वृक्ष अपने फल नहीं बचा पाते क्योंकि फल बनने से पकने की प्रक्रिया के बीच ही वे फलविहीन कर दिए जाते हैं....खैर,प्रकृति ने भी तो आम को इतनी अलग अलग सुगंधों से सराबोर कर रखा है कि मन तो ललचाएगा ही..महसूस कीजिए कैसे स्वर्णिम मंजरी की मादकता चुलबुली ‘कैरी’ बनते ही भीनी भीनी खुशबू से मन को लुभाने लगती है और फिर आम के पकने के साथ ही उसकी मीठी-मीठी सुगंध...अहा... मधुमेह से परेशान लोगों के मुंह में भी पानी ला देती है ।

आम की मंजरियों की सुंदरता और मादकता ने हमेशा ही कवियों-लेखकों का मन मोहा है। तभी तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है -“कालिदास ने आम्र कोरकों को बसंत काल का 'जीवितसर्वस्वक' कहा था। उन दिनों भारतीय लोगों का हृदय अधिक संवेदनशील था। वे सुंदर का सम्मान करना जानते थे। गृहदेवियाँ इस लाल हरे पीले आम्र कोरक में देखकर आनंद विह्वल हो जाती थी। वे इस 'ऋतुमंगल' पुष्प  को श्रद्धा और प्रीति की दृष्टि से देखती थीं। आज हमारा संवेदन भोथा हो गया है। पुरानी बातें पढ़ने से ऐसा मालूम होता है जैसे कोई अधभूला पुराना सपना है। रस मिलता है, पर प्रतीति नहीं होती।‘

वहीं,आम की मंजरियों की मादकता पर क़लम चलाने से जाने माने लेखक विद्यानिवास मिश्र भी खुद को नहीं रोक पाए। उनके शब्दों में - 'आम वसंत का अपना सगा है, क्योंकि उसके बौर की पराग-धूलि से वसंत की कोकिला का कविकंठ कषायित होकर और मादक हो जाता है. आम की बौर, नये पल्लव और नये कर्ले और अंखुए कामदेव के बाण बन जाते हैं।'

आम तो वैसे भी फलों का राजा माना जाता है इसलिए राजा साहब की शान में कशीदे काढ़ने से भला कौन रुक सकता है...लेकिन यदि हम 'आम राजा' की तारीफों में डूब गए तो शब्द कम पड़ जाएंगे इसलिए पीले/रसीले/मीठे आम पर बात फिर कभी..फ़िलहाल अपन तो बौर की मादक गंध में अलमस्त हैं और  अपनी बात का समापन कुमार रवींद्र की कविता की उन पंक्तियों से करते हैं, जो  इस मादकता से हमें झंझोड़ कर उठाते हुए आम और आज से जुड़ी वास्तविकता से रूबरू कराती है। वे लिखते हैं:

'अरे बावरे

गीत न बाँचो अमराई का

महानगर में

किसको फुर्सत

मुड़कर देखे

बौर आम पर कब आता है।'


#आम #अमराई #मंजरी #mango #blossom #blossombeauty  #कैरी

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...