बुधवार, 14 दिसंबर 2022

हमारी एकसाथ यात्रा बहुत छोटी है !


एक महिला बस में चढ़ी और एक आदमी के बगल में खाली पड़ी सीट पर बैठ गई...जगह कम होने और सामान ज्यादा होने के कारण और शायद जानबूझकर भी, वह महिला अपने सहयात्री को सामान से चोट पहुंचाती रही ।
जब काफी देर तक भी पुरुष चुप रहा, तो अंततः महिला ने उससे पूछा - क्या मेरे सामान से आपको चोट नहीं पहुंच रही और आपने अब तक कोई शिकायत क्यों नहीं की?
उस आदमी ने हल्की सी मुस्कान के साथ उत्तर दिया: "इतनी छोटी सी बात से परेशान होने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हमारी *एक साथ यात्रा बहुत छोटी है,* ...मैं अगले पड़ाव पर उतर रहा हूँ।"
इस जवाब ने औरत को मानसिक ग्लानि से भर दिया और उसने उस आदमी से माफ़ी माँगते हुए कहा कि आपके इन शब्दों को स्वर्णिम अक्षरों में लिखने की ज़रूरत है !!
यह बात हम सभी पर लागू होती है। हम में से प्रत्येक को यह समझना चाहिए कि इस दुनिया में हमारा समय इतना कम है कि इसे बेकार तर्कों, ईर्ष्या, जलन, प्रतिस्पर्धा, नाराज़गी,दूसरों को क्षमा न करने, असंतोष और परस्पर बुरे व्यवहार के साथ अपने समय और ऊर्जा को बेकार में बर्बाद करना कितना उचित है?
क्या किसी ने आपका दिल तोड़ा? शांत रहो क्योंकि हमारी परस्पर *यात्रा बहुत छोटी है..*
क्या किसी ने आपको धोखा दिया या अपमानित किया? आराम से रहें - तनावग्रस्त न हों क्योंकि उसका और आपका साथ साथ *सफर बहुत छोटा है...*
क्या किसी ने बिना वजह आपका अपमान किया? शांत रहो, उसे अनदेखा करो क्योंकि उसके साथ आपका *सफर बहुत छोटा है...*
क्या किसी ने ऐसी टिप्पणी की जो आपको पसंद नहीं आई? शांत रहो, उपेक्षा करो और क्षमा करो । आख़िर हम दोनों का साथ साथ *सफर बहुत छोटा है...।*
जो भी समस्याएँ हमारे सामने आती हैं, उसे महज एक समस्या माने, अगर हम उसके बारे में ही दिनरात सोचते रहेंगे तो जीवन का आनंद कब लेंगे...हमेशा याद रखें कि *हमारी किसी के साथ भी यात्रा बहुत छोटी है...*
ये सच है कि हमारी यात्रा की लंबाई कोई नहीं जानता….कल किसी ने नहीं देखा….कोई नहीं जानता कि वह अपने पड़ाव पर कब पहुंचेगा। परंतु यह भी उतना ही सत्य है कि:
*साथ साथ हमारी यात्रा बहुत छोटी है...।*
इसलिए,आइए हम दोस्तों और परिवार की सराहना करें….उन्हें हमेशा खुश रखें...उनका सम्मान करें..उन्हें मान दें।
तभी तो हम स्वयं और शायद हमारे आसपास के लोग भी परस्पर खुशी,आनंद, प्रसन्नता और कृतज्ञता से भरे रहेंगे...।
*आखिर हमारी एक साथ यात्रा है ही कितनी.!!* (अनाम लेखक की अंग्रेजी कथा से प्रेरित)

आज क्यों जरूरी हैं रसखान और उनका रचना संसार..!!

यह महाकवि रसखान की समाधि है। भगवान कृष्ण के अनन्य भक्त रसखान की स्मृति और वर्तमान परिदृश्य में हिंदू-मुस्लिम समभाव का एक सशक्त स्थल । उप्र के मथुरा के क़रीब गोकुल और महावन के बीच मां यमुना के आंचल में स्थित यह समाधि अपने अंदर पूरा इतिहास समेटे है। घने पेड़ों के बीच बनी रसखान की यह समाधि धर्मनिरपेक्ष सरकारों के दौर में रख रखाव के मामले में वाकई 'निरपेक्ष' ही थी पर 8 दिसंबर 2021 में इसकी क़िस्मत पलटी और करीब साढ़े तीन करोड़ रुपए में इस समाधि का जीर्णोद्धार हुआ और तब जाकर इसे यह मौजूदा गौरवमयी स्वरूप मिला। चौतरफा घिरी हरियाली के बीच बेहद साफ-स्वच्छ रसखान समाधि स्थल आपको बरबस ही कुछ वक्त यहां बिताने के लिए मजबूर कर देता है। यहां निशुल्क विशाल पार्किंग के साथ बैठने की बढ़िया व्यवस्था है तो खानेपीने के लिए कैंटीन भी ।

समाधि स्थल पर लगे पटल के मुताबिक करीब 1551 ईस्वी में मुगल बादशाह हुमायूं के शासनकाल के अंतिम दौर में मची कलह से ऊबकर रसखान बृज भूमि में आ गए थे। ये दिल्ली के एक पठान सरदार थे लेकिन जब लौकिक प्रेम से कृष्ण प्रेम की ओर उन्मुख हुए तो जन्म जन्मांतर तक बृज के होकर रह गए। फिर गोस्वामी विट्ठलनाथ के सबसे बड़े कृपापात्र शिष्य बनकर रसखान ने अपने सहज, सरस, प्रवाहमय लेखन से कृष्ण की विभिन्न लीलाओं को घर घर तक पहुंचा दिया। बृजभाषा का ऐसा सहज प्रवाह अन्यत्र बहुत कम मिलता है। रसखान की रचनाओं में उल्लास, मादकता और उत्कटता तीनों का संयोग है और ब्रज भूमि के प्रति खास मोह भी। उप्र राज्य पुरातत्व विभाग के अनुसार रसखान के 53 दोहे वाले प्रेम वाटिका ग्रंथ के साथ साथ अब तक उनके 66 दोहे, 4 सोरठे, 225 सवैए, 20 कवित्त और 5 पद सहित कुल 310 छंद प्राप्त हुए हैं। उनकी सुजान रसखान भी एक अनमोल कृति है। 85 साल की आयु में 1618 ईस्वी में वे मानव शरीर त्यागकर ईश्वर की स्थाई शरण में चले गए।
आज के दौर में जब धर्म राजनीति का सबसे बड़ा असलहा बन रहा है तब रसखान, धार्मिक विवादों के बीच सफेद ध्वज लिए युद्ध विराम कराने वाले प्रेम और शान्ति के मसीहा नज़र आते हैं। बढ़ती धार्मिक वैमनस्यता की भड़कती आग के इस दौर में रसखान और उनकी रचनाएं शीतल जल की फुहार सी लगती हैं । उनके शब्दों में प्रेम बरसता है। प्रेम को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं:
प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ।
जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोइ॥
मुस्लिम रसखान न्यौछावर हैं कृष्ण पर, समर्पित हैं उनकी भक्ति के लिए और बृजभूमि के कण कण में बिखरे मानववाद के लिए । तभी तो उन्होंने लिखा है:
"मानुष हौं तो वही रसखानि
बसौ ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बसु
मेरा चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को
जो धर्यौ कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तौ बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल-कदंब की डारन॥"
अपने इस पद में रसखान कहते हैं कि यदि मुझे आगामी जन्म में मनुष्य-योनि मिले तो मैं वही मनुष्य बनूँ जिसे ब्रज और गोकुल गाँव के ग्वालों के साथ रहने का अवसर मिले। यदि मुझे पशु-योनि मिले तो मेरा जन्म ब्रज या गोकुल में ही हो, ताकि मुझे नित्य नंद की गायों के मध्य विचरण करने का सौभाग्य प्राप्त हो सके। यदि मुझे पत्थर-योनि मिले तो मैं उसी पर्वत का एक भाग बनूँ जिसे श्रीकृष्ण ने इंद्र का गर्व नष्ट करने के लिए अपने हाथ पर छाते की भाँति उठा लिया था। यदि मुझे पक्षी-योनि मिले, तो मैं ब्रज में ही जन्म पाऊँ ताकि मैं यमुना के तट पर खड़े हुए कदम्ब वृक्ष की डालियों में निवास कर सकूँ।
रसखान की रचनाओं को इसलिए गागर में सागर कहा जाता है क्योंकि इससे कम शब्दों में बृज भूमि की इससे बेहतर व्याख्या और कौन कर सकता है। कृष्ण की बात हो, बृज भूमि की चर्चा निकले और रसखान का ज़िक्र न आएं तो कुछ अधूरा सा लगता है बिल्कुल वैसे ही जैसे सम्पूर्ण भोजन के बाद मीठे से जो तृप्ति मिलती है । कृष्ण की लीलाओं के रसखान के शब्दों में ढलने से वैसा ही आनंद आता है जैसे खाने के बाद कोई पान प्रेमी अपना मनपसंद पान मुंह में दबाकर टहलते हुए उस का बूंद बूंद रसपान करता है । कृष्ण और बृज पर रसखान के दोहे,सोरठे, सवैया और पद पढ़कर कुछ कुछ वैसा ही सुख आता है।
आखिर कुछ तो अनूठा और दिव्य था कृष्ण में तभी तो वे वासुदेव, मोहन, द्वारिकाधीश, केशव, गोपाल, नंदलाल, बाँके बिहारी, कन्हैया, गिरधारी, मुरारी, मुकुंद, गोविन्द, यदुनन्दन, रणछोड़, कान्हा, गिरधर, माधव, मधुसूदन, बंशीधर, और मुरलीधर जैसे विविध नामों से हमारे आसपास मौजूद हैं..और तभी रसखान उनके अनूठे रूप का वर्णन कुछ इस तरह करते हैं:
धूरि भरे अति शोभित श्याम जू,
तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत खात फिरैं अँगना,
पग पैंजनिया कटि पीरी कछौटी।।
वा छवि को रसखान विलोकत,
वारत काम कलानिधि कोटी
काग के भाग कहा कहिए
हरि हाथ सों ले गयो माखन रोटी।।
शायद योगेश्वर श्रीकृष्ण का यही आकर्षण मीरा से राधा तक,सुदामा से उद्धव तक और सूरदास से रसखान तक को देश के कौने कौने से जाति धर्म संप्रदाय और ऊंच नीच की तमाम बेड़ियों को तोड़कर बृज भूमि और कृष्ण की ओर खींच लाता है।

ये दाल टिक्कड़ है

 

ये दाल टिक्कड़ है..देशी घी में लहालोट मतलब तरबतर गरमागरम टिक्कड़ और हरी मिर्च के साथ बघारी (फ्राई) गई दाल…इसकी खुशबू और स्वाद के आगे शाही पनीर और मलाई कोफ्ते की भी क्या बिसात।

हाल ही में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मप्र के श्योपुर जिले के कूनो नेशनल पार्क और कराहल आए तो उनकी यात्रा को आकाशवाणी भोपाल और #दिल्ली के जरिए देशभर के श्रोताओं तक पहुंचाने के लिए हम भी वहां पहुंचे। चूंकि, भोपाल से श्योपुर क़रीब साढ़े तीन सौ से चार सौ किमी दूर है इसलिए राष्ट्रीय राजमार्ग होने के बाद भी छह से आठ घंटे लग ही जाते हैं। ऐसे में खाने के लिए कुछ नया तलाशने की अपनी आदत के चलते हम गुना के आसपास जाट साहब के इस ढाबे पर पहुंच गए। यहां आए तो थे चाय की तलब लेकर लेकिन अनुशासित ढंग से सजे टिक्कड़ ने अपनी ओर ललचाया और हम भी इनसे मुलाकात करने से अपनी जीभ को नहीं रोक पाए ।
..अगर, अब तक न बूझ पाएं हों तो जान लीजिए कि ये गक्कड़ का करीबी रिश्तेदार और हमारी बाटी से अगली पीढ़ी का सदस्य है। दरअसल, पुराने जमाने मे जब यात्री पैदल ही सैकड़ों मील का सफर करते थे तब सीमित संसाधनों में रोटी/पूरी/पराठा या नान तो बन नहीं सकता था इसलिए शायद पेट भरने के लिए टिक्कड़/गक्कड़ का जन्म हुआ था । अब यह कुछ होटलों के महंगे मैन्यू में भी शान और मान सम्मान के साथ मौजूद है।
हमारी नई पीढ़ी की जानकारी के लिए टिक्कड़ गेहूं के मोटे पिसे आटे की छोटे आकार की मोटी रोटी है, जिसे सीधे बिना तवे का उपयोग किये कंडे/उपले की आंच पर सेंक कर बनाया जाता है। हालांकि जाट साहब के इस ढाबे पर इसे सेंकने के लिए मिट्टी के उल्टे तवे का इस्तेमाल हो रहा है। टिक्कड़ की जोड़ी बैगन के भरते या दाल के साथ ज्यादा जमती है । समझने के लिए लिट्टी चोखा और दाल बाटी भी टिक्कड़ के खानदान के ही हैं। दाल बाफले को भी इनका कुछ रईस टाइप का रिश्तेदार मान सकते हैं। नए दौर के बच्चे इसे बिना स्टफिंग वाला बटर पिज़्ज़ा या आटे का पिज़्ज़ा बेस भी मान सकते हैं। करीब सौ रुपए में चार टुकड़ों में विभाजित दो टिक्कड़ और कटोरी भर दाल आपका मन और पेट दोनों भरने के लिए पर्याप्त है।
तो,कभी घर में फुरसत में टिक्कड़ और दाल की जोड़ी बनाइए..खाइए और खिलाइए, लेकिन एक सलाह भी.. टिक्कड़ को अच्छे से सेंकिए वरना यह पेट में गुड़गुड़ का कारण भी बन सकता है।

है न, सब कुछ असाधारण, अविस्मरणीय और अविश्वसनीय..!!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उज्जैन में भगवान महाकालेश्वर मंदिर परिसर के महाकाल लोक का लोकार्पण करते हुए कहा था- ‘महाकाल लोक’ में लौकिक कुछ भी नहीं है। शंकर के सानिध्य में साधारण कुछ भी नहीं है। सब कुछ अलौकिक है, असाधारण है, अविस्मरणीय है, अविश्वसनीय है….और, महाकाल का आशीर्वाद जब मिलता हैं तो काल की रेखाएँ मिट जाती हैं, समय की सीमाएं सिमट जाती हैं, और अनंत के अवसर प्रस्फुटित हो जाते हैं।"....हो सकता है किसी को ये अतिसंयोक्ति लगे, परन्तु हम ने तो महाकाल लोक के शुभारंभ के अगले ही दिन यह महसूस कर लिया कि उज्जैन के राजाधिराज की इच्छा से बाहर कुछ भी नहीं है।

किस्सा कुछ इस तरह से है कि, इस कार्यक्रम के कवरेज के लिए हम भी एक दिन पहले उज्जैन में जम गए थे और 11 अक्टूबर को कवरेज के तत्काल बाद भोपाल लौटने की मनःस्थिति बना चुके थे। वैसे भी वीवीआईपी के कार्यक्रम मिनट टू मिनट तय होते हैं और मोदी जी के कार्यक्रमों में तो यह बात सौ फीसदी सच होती है इसलिए अपन ने भी अपनी वापसी यात्रा तय कर ली थी।
प्रधानमंत्री को लोकार्पण और कार्तिक मेला मैदान पर सभा के बाद 8 बजे उज्जैन से इंदौर और फिर वहां से दिल्ली रवाना होना था। हमने सोचा सभा के साथ साथ ही खबर बन जाएगी और नौ बजे भी निकले तो रात 12-12.30 तक भोपाल पहुंच ही जाएंगे लेकिन महाकाल को तो कुछ और ही मंजूर था। प्रधानमंत्री की सभा करीब एक घंटे देरी से खत्म हुई, फिर सभास्थल पर नेटवर्क के लाले पड़ गए और सभास्थल से सबसे पहले निकलने के बाद भी सड़कों पर जमा सैकड़ों लोगों और उनकी आवाजाही के कारण हमारी कार रफ्तार में बैलगाड़ी से भी मात खाने लगी..फिर क्या था, खिसियाते झुंझलाते क़रीब साढ़े दस बजे नेटवर्क जोन में पहुंचे, फटाफट स्टोरी बनाकर भेजी और निकलने का मन बना ही रहे थे कि पेट ने अपनी पूजा के बिना आगे बढ़ने से इंकार कर दिया । उज्जैन के मारवाड़ी भोजनालय में कुरकुरी रोटियों के साथ घर जैसी स्वादिष्ट सब्जियों के साथ छककर भोजन हुए। पर लज़ीज़ खाने के कारण हमारे सारथी पर नींद की खुमारी छा गई और ऐसे में जान जोखिम में कौन डालता। आप कह सकते हैं कि इसमें असामान्य क्या है,ये तो आमतौर पर होता है.. असामान्य बात यह थी कि हमारे ड्राइवर महाशय रात की यात्राओं के मुरीद हैं और वे दिन की बजाए रात में चलने के लिए हुलस पड़ते हैं,पर इस बार वे ही राजी नहीं हुए और रात्रि विश्राम उज्जैन के नाम हो गया।
बात,इससे आगे भी है..दूसरे दिन सुबह सुबह निकलने का तय हुआ था जो चाय नाश्ते के साथ करीब दस बजे शुरू हो पाया। भोपाल रवानगी के पहले, चलते चलते, मन में आया कि रात की चमक दमक के बाद और मोदी जी की अपील के बाद ऊपर सड़क से ही देखें कि महाकाल लोक की क्या स्थिति है। बस,फिर क्या था.. कार us सड़क पर मुड़ गई और हमने पुल पर से ही महाकाल लोक को मोबाइल कैमरे में समेट लिया। तभी हमारे उज्जैन के साथी हेमेंद्र तिवारी जी ने सलाह दी कि कार से एक बाहरी चक्कर भी लगा सकते हैं । उनकी सलाह मानकर जब रामघाट तक का यह चक्कर पूरा कर महाकाल लोक के नए बने मुख्य द्वार पर पहुंचे तो थोड़ा और लालच बढ़ा कि बस रूद्रसागर तक जाकर अंदर का जायज़ा भी ले लिया जाए। महाकाल की इच्छा को कौन टाल सकता है और हम तीखी हो चली धूप में भी मूर्ति दर मूर्ति निहारते आगे बढ़ते गए और नंदी द्वार, गणेश,शिव बारात,शिव श्रृंगार जैसी दर्जनों विशालकाय मूर्तियों को अपलक ताकते हुए जब वापस लौटने के लिए पलटे तो सामने महाकालेश्वर मंदिर का नवनिर्मित प्रवेश द्वार था…पर दिक्कत यह थी कि बिना स्नान किए महाकाल के दर्शन.. ज़मीर नहीं मान रहा था पर हेमेंद्र अपने शास्त्रों के ज्ञान से रास्ता निकाल लाए और हम मंत्रमुग्ध से ऐसे आगे बढ़ते गए जैसे कोई अदृश्य शक्ति हमारा हाथ थामकर ले जा रही हो..अंदर देखा तो देश विदेश के फूलों से सजे मंदिर की छटा ही निराली थी और सबसे अचंभित करने वाली बात यह कि बाहर नज़र आ रही भीड़ मंदिर के अंदर उतनी तादाद में नहीं दिखाई दी। कुछ मिनट के अंतराल में हम बिल्कुल महाकाल के सामने थे और आमतौर पर सेकेंडों में श्रद्धालुओं को महाकाल के सामने से जबरिया ढकेलने वाले सुरक्षा कर्मियों ने हमसे खुद कहा- 'आरती का समय हो रहा है और हमें पता है कि आप आरती के पहले यहां से जाएंगे नहीं, इसलिए आराम से जगह पर खड़े रहिए'…जबकि उस समय तक हमें सच में नहीं पता था कि यह आरती का समय है। अब महाकाल के आदेश को कौन टाल सकता है..हम रुके और आराम से पूरी आरती की,प्रसाद ग्रहण किया और साक्षी गोपाल के दर्शन कर उनकी गवाही भी दर्ज करा ली.. महाकाल ने जब दर्शन देने का ठान लिया था तो फिर सामान्य कतार में होने के बाद भी महज 10 मिनट में इतने सुकून,शांति,भक्ति और शक्ति से परिपूर्ण दर्शन हुए कि दिन बन गया जबकि पिछली दफा वीआईपी पास के बाद भी ऐसा अवसर नसीब नहीं हो पाया था.. देवाधिदेव भोलेनाथ की कृपा से भीगे तन मन के साथ फिर हमारी कार भोपाल के रास्ते पर फर्राटा दौड़ने लगी…है न सब कुछ अलौकिक, असाधारण, अविस्मरणीय और अविश्वसनीय।
Shariq Noor, Mithlesh Kumar Pandey and 119 others
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बापू की कहानी,पत्थरों की जुबानी..!!

आपके पास महज एक दिन का वक्त है, पता नहीं फिर ये मौका कब नसीब होगा…मेले,ठेले, शापिंग फेस्टिवल, मॉल और हाट बाजारों की रौनक तो हम अक्सर देखते हैं लेकिन यहां कुछ अलग तरह का हुनर है…यहां पत्थर बोल उठे हैं,अपने अलग अलग रंग, आकार प्रकार और पहचान के बाद भी ये एकरूप होकर दुनिया के सबसे बड़े महामानव के आम इंसान से अहिंसा के पुजारी बनने की गाथा गुनगुना रहे हैं। हम बात कर रहे हैं - भोपाल के स्वराज भवन में 14 से 16 अक्टूबर के बीच आयोजित Anita Dubey की प्रस्तर प्रदर्शनी यानि पत्थरों पर जादूगरी की।

अब तक, हम-आपने महात्मा गांधी को विविध कैनवासों और तस्वीरों में देखा है लेकिन इस प्रस्तर प्रदर्शनी में बापू अलग ही रूप में नजर आते हैं। युवा गांधी, बैरिस्टर गांधी,असहयोग करते,चरखा चलाते, बा के साथ, गोलमेज सम्मेलन में, दांडी यात्रा करते और न जाने कितने रूपों में छोटे बड़े पत्थरों के जरिए प्रतिबिंबित होते गांधी। 45 फ्रेम्स और 15 कोटेशन में अनीता दुबे ने साबरमती आश्रम से लेकर चंपारण तक और गांधी टोपी से लेकर उनके तीन बंदरों और बकरी निर्मला तक महात्मा गांधी से जुड़े हर अहम किस्से को अपने पत्थरों से साकार कर दिया है। खास बात यह है कि अनीता जी पत्थरों को बिना तरासे उनके प्राकृतिक रूप में ही इस्तेमाल करती हैं और इसके लिए वे 30 साल से साधना/तपस्या कर रही हैं । अनीता दुबे ने बताया कि गांधीजी पर केंद्रित इस प्रदर्शनी के लिए वे तीन साल से दिनरात एक किए थीं तब जाकर पत्थरों ने बोलना शुरू किया और अब तो वे पूरा गांधीवाद बयान कर रहे हैं।
गांधीजी को एक अलग नजरिए से, नए रूप में और अनूठे अंदाज में देखने का यह अवसर छोड़िए मत..जरूर देखिए क्योंकि ऐसे कलाकारों के हुनर को हमारा समर्थन बहुत जरूरी है ।

अब ये पैसे फिर चलन में आ रहे हैं

 

अब ये पैसे फिर चलन में आ रहे हैं.. चौंकिए मत.. वाकई,पंजी, दस्सी, चवन्नी और अठन्नी कहलाने वाली यह मुद्रा अब फिर से प्रचलन में है…..लेकिन आप इनसे कुछ खरीद नहीं सकते बल्कि अब इन्हें हासिल करने के लिए आपको मौजूदा दौर में चलने वाली मुद्रा खर्च करनी पड़ेगी। दरअसल,अब ये मुद्राएं 'एंटीक ज्वैलरी' में बदल रही हैं और महिलाओं के नाक, कान और गले के सौंदर्य की शोभा बढ़ाती नजर आने लगी है मतलब पहले पैसे से सौंदर्य सामग्री खरीदी जाती थी और अब पैसा खुद सौंदर्य सामग्री बन रहा है।

पंजी, दस्सी, चवन्नी और अठन्नी..हो सकता है नए दौर के बच्चों को यह रैप या रिमिक्स जैसा कोई प्रयोग लगे लेकिन हमारे दौर में इनकी अहमियत आज के पांच और दस रुपए के बराबर थी..इन्हें हम पंजी यानि पांच पैसे, दस्सी दस पैसे, चवन्नी पच्चीस पैसे और अठन्नी को पचास पैसे के तौर पर जानते थे। चवन्नी और अठन्नी तो हाल के कुछ वर्षों तक प्रचलन में थीं।
इस तस्वीर में ध्यान से देखे तो इसमें एक,दो और तीन पैसे भी नज़र आ सकते हैं। कभी एक पैसा आज के एक रुपए जैसी हैसियत रखता था। हमसे से पहले की पीढ़ी इकन्नी, दुअन्नी से भी परिचित रही है पर हमें ये कुछ अलग लगते थे। वही हाल आज की पीढ़ी का है क्योंकि उनके लिए हमारे दौर की ये अहम मुद्राएं आज महत्वहीन है और इसी क्रम में हो सकता है आज के पांच और दस रुपए भविष्य में अबूझ पहेली बन जाएं। हालांकि कागज़ के नोटों के डिजिटल मुद्रा में बदलने और तमाम पेमेंट चैनल के कारण हो सकता है कि भविष्य में हम खुद भी रुपए पैसे को उनके रंग रूप से नहीं,बल्कि बस संख्या से पहचाने।

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...