सोमवार, 21 जून 2010

बच्चे ही रहें बाप के 'बाप' तो न बने..

शुरुआत हमेशा की तरह किसी पुरानी कहानी से:एक किसान का संपन्न और खुशहाल परिवार था.चार बेटे थे ,पिता के रहते उन्हें धन-दौलत और घर परिवार की कोई फ़िक्र नहीं थी. जब किसान बूढ़ा और बीमार हुआ तो उसने बेटों को बुलाकर कहा कि अब सारी ज़िम्मेदारी तुम लोग संभालो और मुझे आराम करने दो. मरते वक्त किसान ने बेटों को दो सलाह दी कि -खेतों में छाँव -छाँव जाना और छाँव-छाँव ही लौटना.इसीतरह अपने खेत सोना उगलते हैं इसलिए उनका ध्यान रखना. बेटों ने पिता की राय गांठ बांध ली. उन्होंने खेत तक छाँव में जाने के लिए घर से लेकर खेत तक पूरे रास्ते में शामियाना लगवा दिया. वहीँ खेतों में चारों और दीवार खड़ी करवा कर सुरक्षा कर्मी तैनात करवा दिए ताकि खेतों को कोई नुकसान न पहुंचा सके.यही नहीं खेतों में फसल उगाना भी बंद कर दिया जिससे खेतों का सोना कोई निकाल ले. इतने खर्च के बाद वे चैन से जमा-पूंजी खाने लगे. कुछ दिन में सारा पैसा ख़त्म हो गया तो उन्होंने खेतों से सोना निकलने की योजना बनाई परन्तु पूरे खेत खोदने पर भी सोना नहीं निकला.बेटों को लगा कि पिता ने उनसे झूठ बोला था. परेशान होकर वे पिता की शिकायत करने किसान(पिता) के एक बुजुर्ग मित्र के पास पहुंचे. सारी बात सुनकर बुजुर्ग ने कहा तुम सब मूर्ख हो? पिता की बातों का शाब्दिक अर्थ भर निकाल पाए पर उनमें छिपा निहितार्थ नहीं समझ पाए. छाँव-छाँव जाने से तुम्हारे पिता का आशय सूर्योदय के पहले जाने और सूर्यास्त के बाद लौटने से था.इसीतरह खेत सोना उगलते हैं इसका मतलब भरपूर फसल देते हैं और उनका ख्याल रखने का मतलब नियमित खाद-पानी देने एवं समय पर फसल लेने से था.तब जाकर बेटों को अपनी गलती का अहसास हुआ. इस कहानी का आशय यह है कि पिता बातों-बातों में जीवन का रहस्य समझा देते हैं बस हममें उसे समझ पाने की समझ होनी चाहिए.
लेकिन आज का दौर तो बेटों के "बाप" बनने का दौर है. उनके लिए पिता की सीख का मतलब गुजरे ज़माने की बातें और बे-फिजूल का भाषण भर हैं. वे यह नहीं समझ पाते कि पिता की नसीहत उनके जीवन भर के अनुभवों का निचोड़ हैं.पिता ने ज़माना देखा है,उम्र के कई दशकों के सफ़र में अच्छाइयों और बुराइयों को परखा है तब जाकर अनुभव की यह थाती मिली है. सभी पिताओं का यह प्रयास रहता है कि जो कठिनाइयाँ उन्होंने झेली हैं या जिन परिस्थितियों का सामना उन्हें करना पड़ा है उनके बच्चों को उन सब से बचा लें. माँ तो खुलकर अपनी भावनाओं का इज़हार कर देती है-हंसकर और कई बार रोकर बच्चे को अपने प्यार से रूबरू करा देती है लेकिन पिताजी ऐसा नहीं कर पाते. उन्हें तो हमेशा अनुशासन और मर्यादा के दायरे में रहना पड़ता है तभी तो बच्चे प्यार व डांट के मिले-जुले भावों के बीच बड़े होते हैं लेकिन बच्चे समझते हैं पिताजी हमेशा डांटते भर हैं और अपनी मनमानी करते हैं इसलिए ज़रा से बड़े होते ही बच्चे अपनी मनमानी पर उतर आते हैं. उन्हें पिता की अवहेलना करना सुकून देता है पर पिता को तकलीफ! बच्चे अपने पिता के व्यवहार की हकीक़त तब समझ पाते हैं जब वे स्वयं पिता बनकर अपने पिता की उम्र तक पहुँचते हैं लेकिन तब तक पिता ही जिंदा नहीं होते इसलिए उन्हें अपनी गलती मानने का मौका ही नहीं मिल पाता. बस इसीतरह पिता-पुत्र(बच्चों) का यह चक्र चलता रहता है और वे एक-दूसरे को अपनी भावनाएं समझाए बिना इस दुनिया से रुखसत होते रहते हैं!
वह तो भला हो फादर्स डे जैसे सालाना आयोजनों और इस दिन का व्यापारीकरण करने वालों का क्योंकि उनकी बदौलत कम से कम एक दिन ही सही हमें अपनी भावनाओं को इज़हार करने का मौका मिलने लगा है. ग्रीटिंग कार्ड बनाने वाली कम्पनियां बढ़िया और अर्थपूर्ण संदेशों के द्वारा मन की बात बताने की आज़ादी देने लगी हैं वरना पिता-पुत्र के संबंधों का सूखापन यूँही जारी रहता. बच्चे अपने पिता को नहीं समझ पाने के कारण उनके बाप बनते रहते और बाप अपनी बात नहीं समझा पाने के कारण उम्र के आखिरी पड़ाव में भी अपमान का घूँट पीते रहते. अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है? यदि आपके सर पर पिता का साया है तो समझिये आप दुनिया के सबसे बेफिक्र आदमी हैं...बस पिता को पिता समझकर सम्मान देते रहिये और मौज करिए क्योंकि जब तक पिताजी साथ हैं दुनिया की कोई ताक़त आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती .दरअसल जो भी परेशानी आएगी उसे आपके पिताजी हँसते-हँसते झेल जायेंगे और आपको पता भी नहीं चलेगा. तो आइये पिताजी/पापा/डैडी/बाबूजी/बाबा/अब्बा/फादर ...(या जिस भी संबोधन से आप उन्हें पुकारते हों) को दिल से भरपूर सम्मान दें ताकि हमें बाद में पछतावा न हो!

पिता के बारे में किसी ने ठीक ही लिखा है-
"एक मिटटी की इमारत,एक मिटटी का मकाँ
खून का गारा बना और ईंट जिसमे हड्डियाँ
दिक्कतों की पुरजोर आंधी जब इससे टकराएगी
देख लेना यह इमारत तब भी बुलंद नज़र आएगी"
(कविता में छेड़छाड़ के लिए मूल कवि से क्षमा याचना सहित)

गुरुवार, 17 जून 2010

हमारी बेटिओं को ‘सेनेटरी नेपकिन’ नहीं, स्कूल-अस्पताल चाहिए

एक मशहूर चुटकुला है:एक बार एक व्यक्ति कपड़े की दुकान पर पहुंचा और बढ़िया सी टाई दिखाने को कहा.दुकानदार ने कई टाईयां दिखाई.ग्राहक को एक टाई पसंद आ गई.कीमत पूछने पर दुकानदार ने कहा-५४० रूपए,तो वह व्यक्ति बोला क्या बात करते हो इतने में तो बढ़िया जूते आ जाते हैं?तो दुकानदार बोला-पर आप जूते तो गले में नहीं लटका सकते न! इस चुटकुले का सार यही है कि जिस चीज़ की ज़रूरत हो उसको खरीदना चाहिए न हर-कुछ. अब हमारी सरकार को ही देख लीजिए उसे आज़ादी के ६० साल बाद भी नहीं पता कि आम जनता को किस चीज़ की दरकार है इसलिए वह ऊल-ज़लूल योजनाए बनाकर करदाताओं के गाढ़े पसीने की कमी को फ़िजूल में उड़ाती रहती है.सरकार की नासमझी का नया उदाहारण देश के गाँवों की बेटियों को सेनेटरी नेपकिन बाँटना है. सरकार ने किशोर लड़कियों में मासिक धर्म संबंधी स्वास्थ्य को बढावा देने के लिए 150 करोड़ रुपए की योजना को मंजूरी दी है ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में किशोर लड़कियों के लिए उच्च स्तर के सेनेटरी नेपकिनों की उपलब्धता आसान की जा सके. योजना के अनुसार छ: सेनेटरी नेपकिनों का एक पैकेट गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) की लड़कियों को एक रुपया प्रति पैकेट मिलेगा. गरीबी रेखा से ऊपर (एपीएल) वर्ग की लड़कियों को सेनेटरी नेपकिन पांच रुपया प्रति पैकेट के हिसाब से मिलेंगे। यह योजना विभिन्न चरणों में चलाई जाएगी। पहले चरण में देश के 150 जिलों या 1500 विकास खंडों को लिया जाएगा और ग्रामीण क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। प्रस्ताव में 10-19 वर्ष की आयु समूह की 1.5 करोड़ लड़कियों तक पहुंचने का लक्ष्य रखा गया है। इन 1.5 करोड़ लड़कियों में से गरीबी रेखा से ऊपर की लड़कियां लगभग 70 प्रतिशत और बीपीएल समूह की लड़कियां 30 प्रतिशत होंगी.इस योजना का उद्देश्य किशोरियों में मासिक धर्म संबंधी स्वास्थ्य के बारे में जानकारी बढ़ाना है। योजना का एक पहलू यह भी है कि ये नेपकिन गांव में रविवार को बकायदा बैठक बुलाकर बांटे जायेंगे.
योजना के बारे में जानकर तो यही लगता है कि दिल्ली में बैठे सरकारी अफ़सर टीवी चैनलों पर इन दिनों धुँआधार तरीके से आ रहे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सेनेटरी नेपकिन के विज्ञापनों के प्रभाव में हैं या किसी कंपनी ने अपना उत्पाद खपाने के लिए यह आइडिया दिया होगा वरना जिस देश में आम जनता महंगाई से जूझ रही है,लोगों को खाने के लाले पड़ रहे हैं, अस्पतालों से ज्यादा बीमार हैं और बच्चों की संख्या से बहुत कम स्कूल....लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट है,नक्सलवाद और आतंकवाद सिरदर्द बने है,बेरोज़गारी बढती जा रही है.गांव में बच्चे कुपोषित है,बेटियां कोख में ही दम तोड़ देती हैं वहाँ की सरकार की प्राथमिकता कभी भी सेनेटरी नेपकिन नहीं हो सकती! भोपाल के गैस पीड़ित २५ साल बाद भी पैसे के अभाव में तिल-तिलकर मर रहे हैं,बुन्देलखंड पानी की बूंद-बूंद को तरस रहा है,विदर्भ में किसानों की आत्महत्या की आग देश भर में फ़ैल रही है और सरकार को बेटियों की माहवारी की चिंता है. दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों को छोड़ दें तो देश के अधिकतर राज्यों में मासिक धर्म को एक अपराध की तरह समझा जाता है और वहाँ ये तीन से पांच दिन महिलाओं के लिए किसी सज़ा से कम नहीं होते.इस दौरान महिलाओं को अपवित्र तक समझा जाता है,क्या ऐसे वातावरण में गांव की बेटियां सार्वजनिक बैठक में सेनेटरी पैड ले सकती हैं? क्या उनके घरवाले ऐसी बैठक में जाने देंगे? क्या मासिक धर्म सार्वजनिक जानकारी का विषय बनाना महिलाओं का अपमान नहीं है?
अच्छा तो यह होता कि सरकार पैड की बजाय बेटियों को शिक्षित बनाने के लिए बजट और बढ़ा देती क्योंकि बच्चियां पढ़-लिख जाएँगी तो अपने स्वास्थ्य का ध्यान वे खुद ही बेहतर ढंग से रख पाएंगी और अशिक्षित रहेंगी तो पैड मिलने के बाद भी उसका उपयोग नहीं कर पाएंगी. क्या आप मेरी बात से सहमत हैं तो कलम(अब कम्पूटर पर उँगलियाँ)चलाइए....?

बुधवार, 16 जून 2010

आपका बच्चा रोज स्कूल जाता है या जेल?


एक पुरानी कहानी है:एक बार एक पंडितजी(ब्राम्हण नहीं) को दूसरे गाँव जाना था.शाम घिर आई थी इसलिए उन्होंने नाव से जाना ठीक समझा. नाव की सवारी करते हुए पंडितजी ने मल्लाह से पूछा कि तुम कहाँ तक पढ़े हो तो मल्लाह ने कहा कि मैं तो अंगूठा छाप हूँ. यह सुनकर पंडितजी बोले तब तो तुम्हारा आधा जीवन बेकार हो गया! फिर पूछा कि वेद-पुराण के बारे मे क्या जानते हो? तो मल्लाह बोला कुछ भी नहीं. पंडितजी ने कहा कि तुम्हारा ७५ फ़ीसद जीवन बेकार हो गया. इसीबीच बारिश होने लगी और नाव हिचकोले खाने लगी तो मल्लाह ने पूछा कि पंडितजी आपको तैरना आता है? पंडितजी ने उत्तर दिया-नहीं,तो मल्लाह बोला तब तो आपका पूरा जीवन ही बेकार हो जायेगा. इस कहानी का आशय यह है कि केवल किताबी पढाई ही काफी नहीं है बल्कि व्यावहारिक शिक्षा और दुनियादारी का ज्ञान होना भी ज़रूरी है.यह सब जानते हुए भी हमारे स्कूल इन दिनों बच्चों को केवल किताबी कीड़ा बना रहे हैं और आगे चलकर 'बाबू' बनने का कौशल सिखा रहे हैं.जब ये बच्चे स्कूल में टॉप कर बाहर निकलते हैं तो तांगे के उस घोड़े कि तरह होते हैं जिसे सामने की सड़क के अलावा कुछ नहीं दिखाई देता .हमारे बच्चे भी रचनात्मकता और सृजनशीलता के अभाव में सिर्फ बढ़िया सी नौकरी,फिर एशो-आराम और अपनी बेहतरी की कल्पना ही करते हैं. उनके लिए देश, समाज, परिवार के सरोकार कुछ नहीं होते या अपने बाद नज़र आते हैं. यदि वे समय पर नौकरी नहीं तलाश पाते हैं तो तनाव में आ जाते हैं और इसके बाद बीमारियों की गिरफ्त में!          इसमें बच्चों से ज्यादा कुसूर हमारा, स्कूलों का और शिक्षा प्रणाली का है? दरअसल स्कूल खुद ही बच्चों को नोट छपने की मशीन समझते हैं और उन्हें मशीन के रूप में ही तैयार करते हैं. आज के निजी और पब्लिक स्कूल बच्चों को अनुशासन की चेन में बांधकर कैदियों सा बना देते हैं. कभी कहा जाता था कि 'एक स्कूल बनेगा तो सौ जेलें बंद होंगी ' पर अब तो उल्टी गंगा बह रही है क्योंकि हमारे स्कूल ही जेल में तब्दील हो गए हैं. बच्चे उनीदें से अपने वजन से ज्यादा भार का स्कूली बैग लेकर बस में सवार होकर स्कूल चले जाते हैं..वहां मशीन की तरह व्यवहार करते हैं और दोपहर में होम वर्क से लादे-फदे घर वापस आ जाते हैं. घर में भी गृहकार्य करते हुए पूरा वक्त निकल जाता है और शाम को हंसी के नाम पर मारपीट एवं हिंसा सिखाते कार्टून देखकर सो जाते है और दूसरे दिन सुबह से फिर वही कहानी... आखिर ऐसी व्यवस्था का क्या फायदा है जो इंसान को मशीन बनाये और बच्चों को भविष्य में पैसे छापने की टकसाल? जब वे ऐसा नहीं कर पाते तो स्कूल में शिक्षकों के हाथ से मार खाते हैं और घर में माँ-बाप की दमित इच्छाओं को पूरा करने के नाम पर कुंठित होते रहते हैं. ऐसे में ही वे कोलकाता के उस बच्चे की तरह मौत को गले लगा लेते हैं जिसने शिक्षक की मार के बाद मरना ज्यादा आसान समझा? वैसे अब तो हर साल ही दसवीं-बारहवीं के परिणाम आते ही देश भर में आत्महत्याओं का दौर सा शुरू हो जाता है और फिर बच्चे पर "कलेक्टर-एसपी" बनने के लिए दबाव बनाने वाले अभिभावक हाथ मलते-पछताते रह जाते हैं? क्या फिल्म "थ्री इडियट्स "में बताई गई हकीक़तों को हम फ़िल्मी ही समझ बैठे हैं या असल जीवन में इस फिल्म से कुछ प्रेरणा भी ले सकते हैं? कब हम बच्चे की पीठ का दर्द ,घुटन और कुंठा को देख पाएंगे? या उसे ऐसे ही अपने सपनों के लिए कुर्बान करते रहेंगे? सोचिये जरा सोचिये... आप भी किसी बच्चे के बाप हैं....?

सोमवार, 14 जून 2010

गायें खा रही हैं "गौमांस" और इंसान.....


फिल्म गोपी का एक गीत "रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलयुग आएगा,हंस चुनेगा दाना और कौवा मोती खायेगा..." आज भी लोकप्रिय है और मौजूदा परिस्थितियों पर बिलकुल सटीक लगता है क्योंकि जब गाय ही घास की जगह मांस और कई जगह तो गोमांस(beef) खाने लगे तो इस गाने में की गई भविष्यवाणी सही लगने लगती है. चौंक गए न आप भी यह सुनकर? मेरा हाल भी यही हुआ था. दरअसल जुगाली करना हमेशा ही फायदेमंद होता है. अब यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि जुगाली का मतलब बौद्धिक वार्तालाप होता है. आज हम कुछ मित्र ऐसे ही भोजनावकास में जुगाली कर रहे थे तो हाल ही में खाड़ी देशों की यात्रा से लौटे एक मित्र ने चर्चा के दौरान बताया कि अधिकतर खाड़ी देशों में गायें मांस युक्त चारा(fodder) खा रही हैं. उनका कहना था कि वहां हरी घास तो है नहीं और न ही हमारी तरह भरपूर मात्र में भूसा उपलब्ध है इसलिए गायों को मांस आधारित चारे से गुजारा करना पड़ता है. कई देशों में तो गायों को गाय के मांस वाला चारा ही खिलाया जाता है. यह जानकारी मेरे लिए तो चौकाने वाली थी शायद आप में से भी कई ही लोग यह बात जानते होंगे? इसी बातचीत के दौरान दिल्ली में काफी समय से रह रहे एक मित्र ने बताया कि दिल्ली के सफदरजंग इन्क्लेव में कमल सिनेमा के पास एक मांस की दुकान है जहाँ अक्सर गाय घूमती रहती हैं और वे खुलेआम पड़े मांस के टुकड़ों को खाती रहती हैं.मित्र ने मजाक में कहा कि यदि आप एक 'लेग- पीस' वहां फेंको तो कई गाय भागती हुई आ जाएँगी. बातचीत के दौरान मुझे भी अपने बचपन में आँखों देखा एक किस्सा याद आ गया. हम लोग मध्यप्रदेश के करेली कस्बेमें रहते थे.वहां एक कंजड मोहल्ला काफी बदनाम था, दरअसल यहाँ महुए को सड़ाकर देशी शराब बनायीं जाती थी और बाद में सड़े-गले महुए को यूँ ही सड़क पर फेंक दिया जाता था.इसके चलते उस इलाके कि ज़्यादातर गायें सडा महुआ खाने की आदी हो गयी थी. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि जिस दिन उन्हें पर्याप्त मात्रा में महुआ नहीं मिलता वे दूध नहीं देती या सामान्य दिनों की तुलना में काफी कम मात्रा में दूध देती थी.एक तरह से उस इलाके की गायें महुआ के नशे की आदी हो गयी थी. सोचिये क्या समय आ गया है जब गायों को देशी शराब और मांस खाना पड़ रहा है? क्या हम इस लायक भी नहीं रहे कि धार्मिक रूप से माता मानी जाने वाली गाय को भरपेट चारा तक उपलब्ध नहीं करा सकते? कहाँ हैं हमारे तथाकथित 'धर्मरक्षक',जो किसी गैर हिन्दू के फिजूल के बयाँ पर इतनी हाय-तौबा मचाते हैं कि देश में दंगे की स्थिति बन जाती है या वे हिन्दू वीर ,जो ज़रा-ज़रा सी बात पर कत्ले-आम पर उतारू हो जाते हैं? यहाँ इस जानकारी का उल्लेख करने का उद्देश्य किसी की भावनाओं या रीति-रिवाजों का मजाक उड़ना नहीं है बल्कि इंसानों के तानाशाही पूर्ण रवैये और मनमानी हरकतों से प्रकृति के साथ हो रहे खिलवाड़ को उजागर करना भर है. यदि अभी भी हमने पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ बंद नहीं की तो आज हमारे पालतू पशुओं का यह हाल है कल हमारा हाल इससे भी बदतर हो जायेगा?

जुगाली की उपलब्धियों को पंख लगे...


जुगाली के ज़रिये मैंने सामाजिक और शैक्षणिक मुद्दों पर जागरूकता  जगाने का एक छोटा सा प्रयास किया था .आपके सहयोग से यह प्रयास रंग ला गया और आज जुगाली का कारवां भारत के बाहर अमेरिका,ब्रिटेन सहित दर्जन भर देशों तक फ़ैल गया है. आपकी प्रतिक्रियाएं तथा सुझाव जुगाली को रास्ता दिखने में मददगार बन रहे हैं. उम्मीद है कि भविष्य में भी जुगाली पर मेल-मिलाप इसीतरह चलता रहेगा और आप अपनी बेशकीमती प्रतिक्रियाएं हर पोस्ट पर देते रहेंगे. हम सभी के लिए ख़ुशी की बात यह है कि अब जुगाली को देश के प्रमुख समाचार पत्रों में भी स्थान मिलने लगा है.हिंदी के प्रतिष्ठित अखबारों "जनसत्ता" और "दैनिक जागरण " में बहुमूल्य स्थान मिलना निश्चित ही सम्मान की बात है और इस पोस्ट का उद्देश्य हमेशा की तरह अपनी ख़ुशी को आप सभी के साथ बांटना है.आशा है आप सब के सहयोग से इसी तरह उपलब्धियों को पंख लगते रहेंगे.....




शनिवार, 12 जून 2010

चंद बूंदे ज़िन्दगी की.....

एक चीनी कहावत है-यदि आपको एक दिन की खुशी चाहिए तो एक घंटा ज्यादा सोएं. यदि एक हफ्ते की खुशी चाहिए तो एक दिन पिकनिक पर अवश्य जाएँ.यदि एक माह की खुशी चाहिए तो अपने लोगों से मिलें.यदि एक साल के लिए खुशियाँ चाहिए तो शादी कर लें और जिंदगी भर की खुशियां चाहिए तो किसी अनजान व्यक्ति की सहायता करें.....मेरे मुताबिक किसी अनजान व्यक्ति की सहायता करने का सबसे अच्छा तरीका है –रक्तदान.
वैसे भी “रक्तदान को महादान” माना जाता है और आपके खून की चंद बूंदे किसी व्यक्ति को नया जीवन दे सकती हैं, उसके परिवार को आसरा तथा आपको जीवन भर के लिए दुआएं मिल सकती हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक हमारे देश में हर साल एक करोड़ यूनिट खून की जरुरत है पर तमाम प्रयासों के बाद भी मात्र ७५ लाख यूनिट रक्त ही जमा हो पा रहा है. खून की इसी कमी के कारण भारत में हर साल १५,००,००० लोग जिंदगी से हाथ धो बैठते हैं. हमारे देश में हर तीन सेकेण्ड में किसी न किसी को रक्त चाहिए पर हमारे मन में बसे डर के कारण हम रक्तदान से पीछे हट जाते हैं और कई लोग हमारे इस बे-फ़िजूल के डर के कारण जान गवां देते हैं. रक्तदान नहीं करने के पीछे डर भी कैसे कैसे हैं-कोई कहता है शरीर में कमजोरी आ जाती है जो फिर कभी नहीं मिट पाती, तो किसी को डॉक्टर की मंशा पर शक रहता है कि पता नहीं कितना खून निकाल ले? कोई सोचता है कि रक्तदान में घंटों समय जाया करना पड़ेगा तो किसी को लगता है कि दान किया गया रक्त उसके काम तो पड़ेगा नहीं इसलिए दान करने से क्या फायदा. इन धारणाओं के विपरीत डॉक्टरों का कहना है कि रक्तदान करना दान तो है ही खुद के शरीर के लिए भी अत्यधिक ज़रुरी है. मसलन रक्तदान करने से कम-से-कम छः माह तक ह्रदयाघात का खतरा टल जाता है.इसीतरह नियमित रक्तदान से शरीर की प्राकृतिक रूप से सफाई होती रहती है जिससे कई तरह के संक्रामक रोगों से बचा जा सकता है. रही शारीरिक कमजोरी की बात तो वह भी बमुश्किल घंटे भर की ही होती है और फिर शरीर नया खून बना लेता है इसलिए कोई कमी भी नहीं रह पाती. एक स्वस्थ व्यक्ति में उसके शरीर के कुल वजन के १/७ हिस्से के बराबर खून रहता है...अब ज़रा सोचिये इतने खून में से यदि ४५० मिलीलीटर रक्त निकल गया(कभी भी एक बार में इससे ज्यादा खून नहीं निकाला जाता) तो उसका क्या बिगड़ेगा. यदि मामूली खून निकलने से कुछ हो रहा होता तो ज़रा महिलाओं के बारे में सोचिये जिन्हें हर माह मासिकधर्म के ज़रिये इस दौर से गुज़ारना पड़ता है पर न तो वे कमज़ोर होती हैं और न बीमार, तो फिर पुरुष होकर हम रक्तदान के नाम पर फालतू के बहाने क्यों बनाने लगते हैं?
इसलिए आइये, बहाने और बे-मतलब के डर छोड़कर किसी अनजान व्यक्ति को नया जीवन देने का सार्थक काम करें. बाबा-बैरागियों को दान देकर पुण्य कमाने के लिए हम अपना हाथ खोल देते हैं और जिससे वास्तव में पुण्य मिल सकता है उस रक्तदान से बचने के लिए बहाने बनाते हैं. रक्तदान के प्रचार-प्रसार और जागरूकता के कारण अब असमय मौत का शिकार बनने वाले २५ फीसद लोगों का जीवन बचाया जा सकता है. यदि हम बढ़-चढ़कर एवं उत्साह के साथ रक्तदान करने लगें तो न केवल कई अनजान लोगों का जीवन बचा सकेंगे बल्कि वक्त पर अपने लिए भी खून की कमी से नहीं जूझना पड़ेगा और पुण्य कमायंगे सो अलग. तो चलिए दान करते हैं चंद बूंदे ज़िन्दगी की....

शुक्रवार, 11 जून 2010

हम भारतीयों कि टांगें इतनी कमज़ोर क्यों हैं?

स्वामी विवेकानंद ने सलाह दी थी कि हमारी युवा पीढ़ी को गीता पढ़ने की बजाय फुटबाल खेलना चाहिए.उनका कहना था कि देश के युवा वर्ग को सबल बनना होगा,धर्म की बारी तो इसके बाद आती है. उन्होंने कहा था कि यह मेरी सलाह है कि “ फुटबाल खेलकर आप ईश्वर के अधिक निकट हो सकते हो”. उन्होंने आगे कहा था कि “यह बात आपको भले ही अजीब लग रही हो पर मुझे कहनी पड रही है क्योंकि मैं आप लोगों से प्यार करता हूँ.मुझे इस बात का अनुभव है कि यदि आपके हाथ की हड्डियां और मांसपेशियां अधिक मजबूत होंगी तो आप गीता को बेहतर तरीके से समझ सकोगे”. लेकिन हम भारतीयों की तो आदत है कि हम अपने बाप की नहीं मानते तो विवेकानंद की सीख कैसे मान सकते हैं. हमें उनका कहना नहीं मानना था और हमने नहीं माना! यही कारण है कि विश्व के फुटबाल मानचित्र पर भारत की स्थिति १३३ वीं है और दिल्ली-मुंबई तो दूर मेरठ-भोपाल जैसे छोटे शहरों से भी छोटे देश फुटबाल खेलने वालों देशों की सूची में शान से इठला रहे हैं.
दक्षिण अफ्रीका में शुरू हुए फुटबाल महाकुम्भ( world cup football) में दुनिया भर के चुनिन्दा ३२ देशों की टीमों के १६०० खिलाडी आठ समूहों में बंटकर ६४ मैचों के दौरान अपनी दमदार टांगों का ज़लवा दिखाएंगे और हम भारतीय अपनी पतली-कमज़ोर टांगों और मोटी तोंद के साथ कई लीटर कोला डकारकर किसी विदेशी टीम के नाम पर अपनी नींद खराब करते रहेंगे. वैसे विश्व कप फुटबाल को भारत के आईपीएल( IPL) का बाप कहा जाये तो अतिस्योंक्ति नहीं होगी क्योंकि इन मैचों को ३७६ टीवी चैनलों के ज़रिये २१४ देशों के लगभग ७२ करोड़ लोग देख रहे हैं.सिर्फ टीवी प्रसारण के अधिकार ही ३४ अरब डॉलर में बिके हैं.खेलों की विशालता और महत्त्व का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहाँ सुरक्षा पर ही ९० करोड़ रूपए खर्च हो रहे हैं. अब तक मैचों के ३४ लाख टिकिट लोगों ने ख़रीदे हैं और मैचों के जुनून के साथ-साथ यह संख्या भी बढती जायगी.
सोचिए, यदि हमने विवेकानंद की सलाह मानकर सही ढंग से फुटबाल खेलना शुरू कर दिया होता तो आज हमारी टीम भी तिरंगे के साथ अपनी जर्सी का ज़लवा दिखा रही होती. वैसे भारत में फुटबाल की दशा शुरू से इतनी खराब नहीं रही. १९५० से लेकर १९६४ तक भारतीय फुटबाल ने भी स्वर्णिम दिन देखे हैं. इस दौरान हमने ऑलिम्पिक से लेकर एशियाई खेलों तक में अपनी टांगों का ज़बरदस्त हुनर दिखाया है. एशियाई खेलों में तो हमने स्वर्ण पदक तक जीता है लेकिन कमज़ोर टांगों और बेतहाशा पैसे वाले क्रिकेट ने फुटबाल के साथ-साथ सभी ऊर्जा-स्फूर्ति-जोश और उत्साह से भरपूर खेलों का बंटाधार कर दिया. तभी तो सबसे ज्यादा पैसे पीटने वाले २०-२२ साल के युवा क्रिकेटर अपने ४२ साल के कोच के साथ पूरीतरह से दौड़ भी नहीं पाते क्योंकि दौड़ने के लिए भी तो टांगो में दम चाहिए? हाँ विज्ञापनों से कमी के मामलें में वे कोच तो क्या कारपोरेट घरानों के प्रमुखों से भी आगे हैं. तो चलिए भारतीय फुटबाल कि दशा पर मातम मनाने की बजाय हमारी नई पीढ़ी को स्वामी विवेकानंद की शिक्षा देने का प्रयास करें ताकि भविष्य की पौध मजबूत टांगों वाली हो और फिर हमें फुटबाल तो क्या किसी भी खेल को खेलने वाले देशों की सूची में भारत का नाम नीचे से नहीं ढूँढना पड़े......आमीन!

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...