सोमवार, 6 सितंबर 2010

आप तय करें दिल्ली के लिए क्या बेहतर है!

इन दिनों देश भर का मीडिया कामनवेल्थ खेलों पर ऑस्कर विजेता संगीतकार ए आर रहमान द्वारा तैयार थीम सॉंग पर चर्चा में उलझा हुआ है.हर किसी की अपनी ढपली अपना राग है.इसी बीच दिल्ली के पापुलर बैंड "यूफोरिया" ने दिल्ली का सॉंग पेश कर रहमान समर्थकों की मुश्किल बढ़ा दी है. मैं यहाँ दोनों गीतों को बिना किसी काट-छांट के पेश कर रहा हूँ.अब यह आप तय कीजिये कि दिल्ली के लिए या इन खेलों के लिए क्या बेहतर होता? वैसे रहमान साहब को सब-कुछ खुद कर दिखने की भावना के चलते इतनी आलोचनाए सहनी पड़ रही हैं.यदि वे इस गीत के लिए भी गुलज़ार साहब/जावेद अख्तर/प्रसून जोशी जैसे किसी गीतकार और दलेर पाजी जैसे गायक के साथ तालमेल बिठाते तो सोचिये क्या बात होती क्योंकि ये दिग्गज एकसाथ मिलकर फिर "जय हो..." या "चक दे..." जैसा धमाका कर दिखाते.वैसे इन गीतों को भी तो थीम सॉंग बनाया जा सकता था ? या फिर पुरानी फिल्मों से "भारत का रहने वाला हूँ भारत की बात...." जैसे किसी कालजयी गीत को ये सम्मान दिया जा सकता था.खैर ये फैसला तो हमारे हाथ में नहीं था कि कौन सा गीत चुना जाये पर हम गीतों के सुझाव तो दे ही सकते हैं.तो चलिए आप बताइए कामनवेल्थ खेलों का थीम सॉंग क्या होना चाहिए?आपका सुझाव कोई फिल्मी गीत भी हो सकता है....

ये है रहमान साहब का थीम सॉंग....



ये इंडिया बुला लिया, दीवानों ये इंडिया बुला लिया।


ये तो खेल है बड़ा मेल है मिला दिया

हो रुकना-रुकना-रुकना-रुकना

नहीं, हारना-हारना-हारना-हारना नहीं

जुनून से कानून से मैदान मारो... लेट्स गो

हे ओ जियो हे ओ लेट्स गो

हो यारों ये इंडिया बुला लिया

दीवानों ये इंडिया बुला लिया।

पर्वत-सा ऊंचा हूं गुल तो ये

दुनिया सलामी दे

सर्द इरादे न हो जाएं कहीं

दिल को वो सूरज दे।

जियो, उठो, बढ़ो, जीतो

तेरा-मेरा जहां लेट्स गो।

कैसी सजी है

सही है देखो माटी अपनी

बनी रसिके जहां यारा हो

कई रंग है बोली है, कहीं देश है मगन

कैसे जग है समाया सारा हो। ओ-ओ

लागी रे लागी रे अब लागी रे लगन

ओ-ओ / जागी रे मन जीत की अगन

ओ-ओ / उठो रे अब इरादों में तपन

ओ - ओ / चली रे चली जोड़ी बन - ठन।

हे ओ जियो हे ओ लेट्स

कदमों में इक भंवर का है दिन

जश्न का आज दिन है

सीनों में तूफान का है दिन

बाजू आजमा ये दिन है दिन है तेरा दिन है

तू जोर लगा चल आंख मिला कल न

आए दिन ये

जियो , उठो , बढ़ो , जीतो

हे ओ जियो हे ओ लेट्स गो।

तेरा - मेरा जहां लेट्स गो।

और ये है पलाश सेन द्वारा रचित दिल्ली का थीम सॉंग....



ये शहर मेरी जान , इसका

नाम है मेरी पहचान ,

मेरी सांसों में बसा , इस हवा का नशा ,

मेरा दिल , मेरा पता , मेरी शान

दिल्ली है मेरी जान , दिल्ली है मेरी जान ...

कहती कोई कहानी , ये गलियां ये बस्तियां ,

राहों को सजाए पेड़ों की डालियां ,

सबसे है प्यारा शहर हमारा ,

मेरा दिल , मेरा पता , मेरा शान ...

दिल्ली है मेरी जान

भागता फिर रहा हर इंसान यहां ,

दिल में है बसाए जीने का अरमान ,

सबका शहर , शहर हमारा ,

मेरा दिल , मेरा पता , मेरी शान ,

दिल्ली है मेरी जान





शनिवार, 21 अगस्त 2010

यार हद होती है चापलूसी की भी....

क्या होता जा रहा है हमारे मीडिया को? खबरें खोजने की बजाये हमारे पत्रकार महिमामंडन या कटु परन्तु सीधी-सपाट भाषा में कहें तो चापलूसी पर उतर आये हैं.क्या राहुल गाँधी का एक पोलीथीन का टुकड़ा उठाकर कचरापेटी में डालना इतनी बड़ी खबर है जिसे घंटों तक आम आदमी को झिलाया जाये? आप पूछ सकते हैं कि मुझे क्या पड़ी थी लगातार उस खबर को देखने की? तो साहब सभी न्यूज़ चैनलों का यही हाल है.जब पूरी दाल ही काली हो तो फिर बेस्वाद दाल खाना मज़बूरी हो जाती है.यह माना जा सकता है कि चैनल राहुल कि सादगी को आम लोगों को प्रेरित करने के लिए दिखा रहे थे तो इतनी प्रेरणा किस काम की, कि देखने वाले को ही खीज होने लगे. शायद इसीलिए लोग चिडकर यह कहते सुने गए कि राहुल गाँधी ने कौन सा अलग काम किया है-अरे वे अपने पिता की समाधि को ही तो साफ़-सुथरा कर रहे थे और यह परंपरा तो सदियों से हमारे समाज का हिस्सा है कि हम अपना घर/पूर्वजों का स्थान/आस-पास का क्षेत्र साफ़ रखते हैं.
वैसे भी राहुल गाँधी देश के सांसद (जनप्रतिनिधि) हैं इसलिए यह उनका दायित्व है कि वे देश को साफ़-सुथरा रखने में अपना योगदान दे. मै एक बात यहाँ साफ़ कर देना चाहता हूँ कि मेरा यह सब लिखने का उद्देश्य राहुल की सदाशयता पर सवाल उठाना नहीं है और न ही मुझे इस बात को लेकर कोई शक है कि राहुल महज प्रचार के लिए कचरा उठा रहे होंगे.दरअसल वे विदेश में पढ़े हैं और वहाँ साफ़-सफाई का पालन करना अनिवार्य है.मीडिया के इतने प्रचार के बाद भी जो लोग इस समाचार(?) को देखने से वंचित(भला हुआ) रह गए हो उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि राहुल ने अपने पिता राजीव गाँधी के समाधि स्थल’वीरभूमि’ के पास पड़े एक पोलीथीन के टुकड़े को उठाकर कचरापेटी में डाल दिया था. मेरी आपत्ति हमारे न्यूज़ चैनलों के व्यवहार तथा उनकी नक़ल करते समाचार पत्रों के रवैये को लेकर है. उन्हें कभी राखी सावंत का भोंडापन भाता है तो कभी सम्भावना के लटके-झटके,कभी मुन्नी बदनाम हुई जैसे फूहड़ गाने पर कसरत करते (नाचते नहीं) सलमान खान या फिर राहुल जैसे किसी सेलिब्रिटी का कचरा उठाने जैसा काम? हमारे देश में लाखों लोग रोज राहुल की तरह सामान्य रूप से अपना कर्तव्य पूरा कर रहे हैं या इससे भी बढ़कर काम कर रहे हैं पर मीडिया को वे क्यों नहीं नज़र आते? मीडिया को प्रियंका गाँधी की बदली हेयर-स्टाइल दिखती है पर डायन बताकर गंजी की गयी दर्जनों महिलाये नहीं दिखती?मीडिया राहुल के एक पोलीथीन उठाने पर वाह-वाही में जुट जाता है पर देश के लगभग हर सेलिब्रिटी के पालतू कुत्ते प्रतिदिन दिल्ली-मुंबई जैसे तमाम महानगरों की सड़कों को गन्दा करते हैं यह उसे नज़र नहीं आता.शायद इसी वजह से पूर्व राष्ट्रपति डाक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम को कहना पडा था कि विदेशों का गुणगान करने वाले लोग वहाँ जाकर सड़कों पर थूकना,खुले में पेशाब करना,बिना बेल्ट लगाये कार चलाना और कुत्तों को सड़क पर खुलेआम हगाना-मुताना भूल जाते हैं पर भारत आते ही यह सब करना वे अपना मौलिक अधिकार समझने लगते हैं.यही देश में आज हो रहा है.हम सब अपने देश को कौसते हुए उसे और गन्दा/बदसूरत/अव्यवस्थित/बदनाम और अविकसित बनाने में जुटे हैं....मीडिया इस मामले में सबसे आगे है क्योंकि वह हमारे दिमाग/मन को गन्दा कर रहा है?

शनिवार, 14 अगस्त 2010

मिला वो चीथड़े पहने हुए मैंने पूछा नाम तो बोला हिन्दुस्तान

प्रख्यात कवि दुष्यंत कुमार किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं.समय पर कटाक्ष करती उनकी कविताएँ आज भी उतनी ही मौजूं हैं.देश के  स्वतन्त्रता दिवस की ६३ वीं वर्षगांठ पर दुष्यंत जी के गुलिश्तां से पेश हैं चंद सशक्त और समयानुकूल कविताएँ:

एक गुडिया की कई कठपुतलियों में जान है,
आज शायर ये तमाशा देख कर हैरान है.
ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए,
यह हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है

एक बूढा आदमी है मुल्क में या यों कहो,
इस अँधेरी कोठारी में एक रौशनदान है.
मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के कदम,
तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है.

इस कदर पाबंदी-ए-मज़हब की सदके आपके
जब से आज़ादी मिली है, मुल्क में रमजान है

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला की हिदुस्तान है.

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है.


आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
पर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख।

एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख।

अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह,
यह हक़ीक़त देख लेकिन खौफ़ के मारे न देख।

वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख।

ये धुंधलका है नज़र का तू महज़ मायूस है,
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख।

राख कितनी राख है, चारों तरफ बिखरी हुई,
राख में चिनगारियां ही देख अंगारे न देख।


हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए



कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए

न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए

तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए

जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए

स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनाएँ

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...