शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

रईसों के आँख-कान नहीं होते....

क्या रईसों के आँख-कान नहीं होते? क्योंकि उनके पास दिल तो वैसे भी नहीं होता.कम से कम महान अभिनेता ‘पद्मश्री’ अवतार कृष्ण हंगल की बदहाली देखकर तो यही लगता है. शोले फिल्म के अमर संवादों में एक था-“यहाँ इतना सन्नाटा क्यों है भाई” और इसी के साथ याद आ जाता है मशहूर अभिनेता अवतार कृष्ण हंगल उर्फ ए के हंगल का चेहरा.भारतीय फिल्मों में आम आदमी का प्रतिनिधि चेहरा,नई पीढ़ी को पुराने दौर की याद दिलाता चेहरा और आम इन्सान के डर/झिझक/मज़बूरी को अभिव्यक्त करता चेहरा.सवा सौ से ज्यादा फिल्मों में काम कर चुके हंगल साहब के पास इलाज के पैसे नहीं है यह सुनकर शायद शाहरुख,सलमान और अमिताभ को जानने वाली पीढ़ी भरोसा न करे क्योंकि उसे तो यह पाता है कि इन्हें एक-एक फिल्म करने के लिए १० से २० करोड़ रूपए मिलना आम बात है और शायद यही कारण है कि नई पीढ़ी फिल्मों में जाने के लिए अपना चरित्र तक न्यौछावर करने को तैयार है .पर यदि उन्हें हंगल साहब और उन्ही की तरह के अन्य महान पर, दाने-दाने को मोहताज अभिनेताओं के बारे में बताया जाए तो वे शायद फिल्में देखना भी छोड़ देंगे.हंगल साहब को हाल ही में ‘लगान’ में एक चरित्र भूमिका में देखा गया था और अब खबर आई है कि वे बीमार/लाचार/असहाय/मजबूर हालत में है.वह तो भला हो मीडिया का जिसने समय रहते उनकी स्थिति से दुनिया को अवगत करा दिया वरना कुछ समय बाद यह महान अभिनेता इलाज के अभाव में असमय ही हमें छोड़ जाता.
यह सोचने की बात है कि दुनिया भर में अपनी दानशीलता का डंका पीट रहे नेता/अभिनेता/उद्योगपति और सरकार तक को इस महान कलाकार की बदहाल स्थिति का पता नहीं था और न ही हंगल साहब की आवाज़ की नक़ल कर लाखों कमा रहे राजू श्रीवास्तव और सुनील पाल जैसे मिमिक्री बाज़ों ने उनके बारे में सोचा.क्या ईमानदारी से जीवन जीने वालों का यही हश्र होता है?या हमारा देश काली कमाई करने वालों के लिए ही रह गया है?हंगल साहब जैसे महान और मशहूर शख्स का जब यह हाल हो सकता है तो पता नहीं उन कलाकारों का क्या होता होगा जो इतना नाम भी नहीं कमा पाते.अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब एक और उम्दा कलाकार रघुबीर यादव को इसी दौर से गुजरना पड़ा था.हंगल साहब इस मामले में जरुर किस्मत के धनी माने जा सकते हैं कि समय पर मीडिया ने उनकी सुध ले ली और उस अभिजात्य वर्ग के बटुए उनके लिए खुलने लगे जिसका वे प्रतिनिधित्व नहीं करते थे.हालांकि ‘हाथी के दांत खाने के कुछ और दिखाने के कुछ’ की तर्ज़ पर वे बटुए को कितना खोलते हैं इसका अंदाजा तो बाद में हो पायेगा पर फिलहाल तो हंगल साहब इलाज के मोहताज नहीं रहेंगे.
एम टीवी और वी टीवी देखकर बड़ी हो रही पीढ़ी की जानकारी के लिए यह बताना जरुरी है कि हंगल साहब का जन्म १९१७ में पकिस्तान के सियालकोट में हुआ था और बंटबारे के बाद उन्होंने मुंबई को अपना घर बनना उचित समझा.उनके फ़िल्मी जीवन की शुरुआत ५० साल की उम्र में हो पाई थी और ९५ साल के हंगल साहब ने बलराज साहनी,कैफ़ी आज़मी,संजीव कुमार, दिलीप साहब, राजेश खन्ना,अमिताभ बच्चन और आज के दौर के आमिर खान के साथ भी काम किया है.हंगल साहब की चर्चित फिल्मों में बाबर्ची,शोले,शौकीन,गुड्डी,गरम हवा,तीसरी कसम,शराबी,राम तेरी गंगा मैली और लगान हैं. इन दिनों वे बेहद बीमार चल रहे हैं। वे मुंबई में एक किराए के मकान में 75 वर्षीय बेटे विजय के साथ रहते हैं.बीमार हंगल साहब की दवाओं तथा उपचार पर हर महीने का खर्च पंद्रह हजार रुपए है। इतना खर्च उठाने में वे असमर्थ हैं।

रविवार, 2 जनवरी 2011

अब नहीं रहेगा कोई ‘चवन्नी छाप’...

सरकार ने जून से चवन्नी(पच्चीस पैसे) का सिक्का बंद करने की आधिकारिक घोषणा कर दी है.इसका तात्पर्य है कि जून के बाद दाम पचास पैसे(अठन्नी) से शुरू होंगे.वैसे असलियत तो यह है कि चवन्नी तो क्या अठन्नी को भी बाज़ार से बाहर हुए अरसा बीत गया है.अब तो भिखारी भी अठन्नी देखकर नाक-मुंह सिकोड़ने लगते हैं.बच्चों की टॉफी तक एक रुपये से शुरू होने लगी हैं.मेरी चिंता छोटे सिक्कों के बंद होने से ज्यादा इन पर बने मुहावरों के असरहीन होने और नई पीढ़ी को इन मुहावरों को सही परिपेक्ष्य में समझाने को लेकर है.
सोचिये अब किसी को ‘चवन्नी छाप’ की बजाए अठन्नी या रुपया छाप कहा जाए तो कैसा लगेगा? इसीतरह अब आपने बच्चों को ‘सोलह आने सच’ का अर्थ समझाने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ती है.पहले उन्हें सौ पैसे का रुपया बनने का इतिहास बताना पड़ता है और फिर यह सुनने के लिए भी तैयार रहना पड़ता है कि क्या रुपया सौ पैसे की बजाए मात्र सोलह आने का होता था.पुरानी पीढ़ी के तथा मुद्रा के जानकर जानते होंगे कि पहले पाई भी चलन में थी और इसी से बना था ‘हिसाब भाई-भाई का,रुपये-आने पाई का’.अब आप बताइए रुपये तक तो ठीक है आना-पी कैसे समझायेंगे.वैसे जिस चवन्नी का सरकार ने आज तिरस्कार कर दिया है उसका सीधा सम्बन्ध राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी तक से रहा है इसलिए आज़ादी के दौर का एक मशहूर नारा था ‘खरी चवन्नी चांदी की जय बोलो महात्मा गाँधी की’,हालाँकि आपातकाल के बाद के चुनाव में यही मुहावरा बदलकर ‘चार चवन्नी थाली में इंदिरा गाँधी नाली में’ हो गया था.सिक्कों से जुडा एक और मशहूर मुहावरा है ‘सिक्का चलना’.आपने आमतौर पर लोगों को कहते सुना होगा कि ‘अरे उनका तो सिक्का चलता है’.मुद्राओं पर केंद्रित कुछ अन्य प्रसिद्ध कहावतें हैं- ‘नौ नकद न तेरह उधार’, ‘दाम बनाये काम’, ‘पैसे पेड़ पर नहीं उगते’, ‘चमड़ी चली जाये पर दमड़ी न जाये’....आप भी ऐसी ही कई कहावतें और मुहावरे जानते होंगे जो सीधे पैसे से जुडी हैं.
बात फिर चवन्नी की.इस अदनी सी चवन्नी के पहले हम अधन्ना,आना,पाई,इकन्नी,दुअन्नी, पंजी(पांच पैसा),दस्सी(दस पैसा),बीस पैसा जैसे सिक्कों को भुला चुके हैं.नई पीढ़ी के लिए तो ये शब्द गणित के किसी कठिन सवाल जैसे लगेंगे पर बुजुर्ग बताते हैं कि उनके ज़माने में भरा-पूरा अखबार तक दो-तीन पैसे का मिल जाता था. ‘टेक सेर भाजी-टेक सेर खाजा’ की बात तो अब किस्से-कहानियों में सिमटकर रह गई है.हाँ साल भर पहले तक संसद की केन्टीन में ज़रूर खाने-पीने की वस्तुएं चवन्नी-अठन्नी की कीमत पर उपलब्ध थी पर अब वाहन भी चाय दो रुपये की हो गयी है तो बाकी चीज़ें भी इससे ज्यादा की ही होंगी.महंगाई ने धीरे-धीरे छोटे सिक्कों को लीलना शुरू कर दिया है और आने वाले वक्त में यदि एक रुपये का सिक्का भी इकन्नी के भाव का हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए? मेरी तो सलाह है कि इन छोटे सिक्कों को संभलकर रखना शुरू कर दीजिए भाविये में ये आपके लिए इतिहासकार बनने का स्वर्णिम अवसर उपलब्ध करने का माध्यम बनेंगे...

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

क्या हम कुछ दिन प्याज खाना बंद नहीं कर सकते..?

क्या प्याज इतना ज़रुरी है कि वह हमारे दैनिक जीवन पर असर डाल सकता है? प्याज के बिना हम हफ्ते भर भी काम नहीं चला सकते? यदि हाँ तो फिर प्याज के लिए इतनी हाय-तौबा क्यों?और यदि नहीं तो फिर व्रत/उपवास/रोज़ा/फास्ट या आत्मसंयम का दिखावा क्यों? कहीं हमारी यह प्याज-लोलुपता ही तो इसके दामों को आसमान पर नहीं ले जा रही?
मेरी समझ में प्याज न तो ऑक्सीजन है,न हवा है, न पानी है और न ही भगवान/खुदा/गाड है कि इसके बिना हमारा काम न चले. क्या कोई भी सब्ज़ी इतनी अपरिहार्य हो सकती है कि वह हमें ही खाने लगे और हम रोते-पीटते उसके शिकार बनते रहे? यदि ऐसा नहीं है तो फिर कुछ दिन के लिए हम प्याज का बहिष्कार क्यों नहीं कर देते? अपने आप जमाखोरों/कालाबाजारियों के होश ठिकाने आ जायेंगे और इसके साथ ही प्याज की कीमतें भी. बस हमें ज़रा सा साहस दिखाना होगा और वैसे भी प्याज जैसी छोटी-मोटी वस्तुओं के दाम पर नियंत्रण के लिए सरकार का मुंह ताकना कहाँ की समझदारी है. अगर आप ध्यान से देखें तो देश में प्याज के दाम बढ़ने के साथ ही तमाम राष्ट्रीय मुद्दे पीछे छूटने लगे हैं. भ्रष्टाचार के दाग फीके पड़ने लगे हैं और टू-जी स्पेक्ट्रम के घाव भी भरने लगे हैं.हर छोटी सी समस्या को विकराल बनाने में कुशल हमारे न्यूज़ चैनल और समाचार पत्र अब राष्ट्रमंडल खेलों के गडबडझाले को भूल गए हैं और न ही उनको रुचिका की याद आ रही है.दिल्ली के बढते अपराधों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण उनके लिए प्याज हो गयी है.अब वे सुबह से शाम तक”राग प्याज” गा रहे हैं.मीडिया के दबाव में प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक सफाई देते नहीं थक रहे हैं.देश में इतनी अफरा-तफरी तो किसानों की आत्महत्या,जमीन घोटालों और अमेरिका-चीन के दबाव में भी नहीं मची जितनी प्याज की कीमतों को लेकर मच रही है गोया प्याज न हुई संजीवनी हो गई.
शायद यह हमारी जल्दबाजी का ही नतीजा है कि जिस देश में करोड़ों लोग डायबिटीज(मधुमेह) की बीमारी का शिकार हों और पर्याप्त इलाज के अभाव में तिल-तिलकर दम तोड़ रहे हो उसी देश में चीनी की कीमतें आसमान छू रही हैं. कुछ इसीतरह ब्लडप्रेशर(रक्तचाप) के मामले में दुनिया भर में सबसे आगे रहने वाले भारतीय नमक की जरा सी कमी आ जाने पर नासमझों जैसी हरकत करने लगते हैं और अपने घरों में कई गुना दामों पर भी खरीदकर नमक का ढेर लगा लेते हैं.जबकि हकीकत यह है कि ज्यादा नमक खाने से लोगों को मरते तो सुना है पर कम नमक खाकर कोई नहीं मरा और वैसे भी तीन तरफ़ से समुद्र से घिरे देश में कभी नमक की कमी हो सकती है. कुछ इसीतरह की स्थिति एक बार पहले भी नज़र आई थी जब हमने बूँद-बूँद दूध के लिए तरसते अपने देश के बच्चों को भुलाकर गणेशजी को दूध पिलाने के नाम पर देश भर में लाखों लीटर दूध व्यर्थ बहा दिया था.
सोचिये हम एकजुट होकर अंग्रेजों को देश से बाहर निकाल सकते हैं,आपातकाल के खिलाफ हथियार उठा सकते हैं पर मामूली प्याज को छोड़ने की हिम्मत नहीं दिखा सकते और वह भी चंद दिनों के लिए?साथियों, देश में गरीबी,अशिक्षा,बीमारी,भ्रष्टाचार,क़ानून-व्यवस्था,कन्या भ्रूण हत्या,दहेज,बाल विवाह जैसी ढेरों समस्याएँ हैं इसलिए प्याज के लिए आंसू बहाना छोड़िये और यह साबित कर दीजिए कि हम तो प्याज के बिना भी काम चला सकते हैं.....तो शुरुआत आज नहीं बल्कि अभी से ही...

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...