सोमवार, 1 जनवरी 2024

आपने, आखिरी बार कब अपने दोस्त से बात की थी…!!

सीधा सवाल…आपने अपने मित्र से अंतिम बार कब 'बात' की थी…ध्यान रखिए बात,चैट नहीं, न ही इमोजी के जरिए होने वाली बात और न ही सिर्फ काम वाली बात। ईमानदारी से, दिल पर हाथ रखकर सोचिए कि कब मारी थी दोस्त के संग खुलकर गप। दूसरा सवाल…क्या आपने इस बार अपने दोस्त/दोस्तों को जन्मदिन पर शुभकामनाएं कैसे दी थीं मिलकर/फोन से/मैसेज के जरिए/सोशल मीडिया के बने बनाए शुभकामना संदेश से या फिर इमोजी के जरिए? ये सवाल इसलिए पूछने पड़ रहे हैं क्योंकि मोबाइल फोन और उस पर सवार सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के झांसे में आकर हम बात से ज्यादा चैट करने लगे हैं और बातूनी से गूंगे होने लगे हैं। हम दिनभर अंगुलियां और अंगूठा तो मोबाइल के स्क्रीन पर चलाते रहते हैं लेकिन मुंह का इस्तेमाल कम करते जा रहे हैं। यहां तक कि साथ बैठे दोस्त भी परस्पर बातचीत से ज्यादा ग्रुप चैटिंग में मशगूल रहना ज्यादा पसंद करते हैं और हमारी बातचीत काम/मतलब की बात तक सिमट गई है।

जैसे, घर-घर में बनने वाली मिठाइयों की जगह कुछ मीठा हो जाए मार्का चॉकलेट या बाज़ार में बिकने वाली मिठाइयों ने ले ली है,उसी तरह हमारे शुभकामना संदेश भी बाज़ार के हवाले होते जा रहे हैं। पहले हम जन्मदिन/त्यौहारों/खुशी के मौकों पर परस्पर मिलकर और फोन करके बधाई देते थे लेकिन अब सोशल मीडिया में उपलब्ध स्थाई संदेश से काम चला लेते हैं। केक, फूल और मिठाई की तस्वीरें हमारी व्यक्तिगत शुभकामनाओं का स्थान तेजी से घेरती जा रही हैं। हम ठहाका लगाने वाले दौर से इशारों में बात करने वाले इमोजी में बदलते जा रहे हैं। आमने सामने बैठकर गप का स्थान झुकी गर्दन और मचलती अंगुलियों ने ले लिया है। हम घंटों चैट कर सकते हैं लेकिन अपने दोस्तों/परिवार के साथ फोन पर काम की बात करने से ज्यादा समय हमारे पास नहीं होता।
अगर हम इसी तरह कम बोलते रहे और इमोजी के सहारे चैट करते रहे तो जैसे पहले भाषाएं/बोलियां गुम हुई हैं, वैसे ही शब्द गुम होने लगेंगे और हम परस्पर संपर्क में इंसान से ज्यादा रोबोट जैसे होते जाएंगे। कहा जाता है न कि बात से बात निकलती है लेकिन जब हम बात ही नहीं करेंगे तो बात निकलेगी कहां से? घर,ऑफिस, बाजार, ट्रेन या किसी भी अन्य सार्वजनिक जगह पर अब यह सामान्य हो गया है कि कई लोग एक साथ बैठकर भी वर्चुअल दुनिया में रहेंगे। दादी-नानी के पास बैठकर कहानियां सुनना तो गुजरे जमाने की बात हो गई,अब तो नानी से लेकर नाती तक सब रील का हिस्सा हैं। कितना कुछ खोते जा रहे हैं हम इस करिश्माई मशीन के कारण…हालांकि, इसमें मोबाइल की कोई गलती नहीं है बल्कि वह तो सतत संपर्क के अवसर बढ़ा रहा है,पर हम उसे ही मौलिक या वास्तविक संपर्क की बाधा बनाते जा रहे हैं…दोस्तों, फोन उठाइए..खूब बतियाइये,बिना काम,बिना मतलब…मिलने के मौके निकालिए, मिलकर बधाई संदेश दीजिए…आख़िर इंसानी फितरत भी कुछ होती है न…वरना हम में और मशीनों में क्या फर्क रह जाएगा!! (19 Oct 2023)

भोपाल की रावण मंडी: जहां नहीं बिक पाना अभिशाप है…!!

यह भोपाल की रावण गली है। हालांकि भोपाल के लोग इसे बांसखेड़ी के नाम से जानते हैं लेकिन क़रीब महीने भर से यह रावण की गढ़ी है, लंका है…अच्छी खासी चौड़ी सड़क को रावण और उसके भाइयों ने घेर कर गली बना दिया है और आप यहां से बिना रावण निहारे गुजर भी नहीं सकते। यहां एक नहीं, अनेक रावण हैं,सैकड़ों रावण हैं और उतने ही उनके बंधु बांधव। यहां हर किस्म और आकार प्रकार के रावण हैं मतलब दो फुटिया रावण से लेकर बीस और पचास फुटिया तक…सौ फुटिया भी मिल सकते हैं लेकिन उसके लिए पहले से आर्डर देना होगा। छोटे रावण इस सड़क पर मुस्तैदी से सीना तान कर खड़े रहते हैं जबकि बड़े रावण लेटे रहते हैं…शायद,उनका बड़ापन (बड़प्पन नहीं) ही उन्हें लेटे रहने पर मजबूर कर देता है।
भोपाल यदा-कदा आने वाले लोगों की जानकारी के लिए, बांसखेडी से किसी गांव की कल्पना मत कर लीजिए। यह भोपाल के सबसे पॉश इलाकों को जोड़ने वाली अहम सड़क हैं। यहां से अरेरा कालोनी जैसे महंगे घरों वाले लोग भी गुजरते हैं तो प्रशासनिक अकादमी में प्रशासन का ककहरा सीखने और सिखाने वाले छोटे-बड़े अफसर भी। बांसखेड़ी के सामने स्थित भारतीय खान पान प्रबंधन संस्थान दिन-रात अपने लज़ीज़ और प्रयोगधर्मी व्यंजनों की भीनी भीनी खुशबू से यहां से आने जाने वालों को ललचाते रहता है तो सामने की सड़क ग्यारह सौ क्वार्टर और आजकल यहां तेजी से बढ़ रहे इडली डोसे और सांभर के ढेलों तक खींच ले जाती है। यही सड़क कैंपियन स्कूल और कभी उसके सामने लगने वाली लोकप्रिय खाऊ गली यानि चौपाटी तक ले जाती है तो मनीषा मार्केट और शाहपुरा झील तक भी छोड़ती है। यहीं से बंसल अस्पताल जाते हैं और थोड़ा सा आगे जाकर कोलार के कोलाहल घुलमिल जाते हैं ।
जब हम रावण के इस मोहल्ले से गुजरते हैं तो कोई हमें घूरता दिखता है तो कोई मुस्कराकर हमारी हंसी उड़ाता…जो भी हो,रंग बिरंगे कपड़ों में सजे रावण और उसके परिजन हमारा ध्यान खींचते ज़रूर हैं। जलने के कुछ घंटे पहले उनका आकर्षण और भी बढ़ जाता है क्योंकि वे जानते हैं कि उनका पुनर्जन्म तय है और अगले साल फिर उन्हें इसी जगह पर और भी आकर्षक रंग रूप में फिर अवतरित होना है। जितनी आकर्षक सज्जा उतनी अच्छी पूछ परख यानि कीमत। हमें रावण भी सुंदर चाहिए,उसका आकार भी बड़ा चाहिए और उसके अंदर आतिशबाजी भी आकर्षक और विदेशी चाहिए…शायद,रावण के जरिए हम अपनी कमियों को ढकने का प्रदर्शन करते हैं और फिर उसे जलाकर इन कमियों की भरपाई नहीं कर पाने का रोष व्यक्त करते हैं। हमारे अंदर भी राम-रावण द्वंद चलता रहता है। कभी हम बाहर से राम और मन से रावण होते हैं तो कभी इसके उलट…इसलिए, बांसखेड़ी से गुजरते समय रावण और उसका कुनबा हमें देखकर हंसता है। उसे अपनी नियति पता है और हमारी भ्रमित मनोदशा भी..शायद वह इसी का पूरा आनंद लेता है।
अब रावण और उसके कुनबे का परिवहन शुरू हो गया है। वे लेटकर,बैठकर और खड़े रहकर अपनी नियति की ओर प्रस्थान कर रहे हैं। प्रदेश की इस सबसे बड़ी रावण मंडी में जिनकी बुकिंग पहले हो गई थी,वे रावण भरपूर कीमत में अट्टाहस करते हुए वाहनों में चढ़ रहे हैं। वहीं, अभी मोलभाव में उलझे पुतले हर पल अपनी कीमत घटा रहे हैं। समय पर अपना मूल्य निर्धारित नहीं कर पाने का खामियाजा तो सभी को भुगतना पड़ता है। जैसे जैसे जलने का समय क़रीब आ रहा है,पुतलों की छटपटाहट बढ़ रही है और क़ीमत घट रही है। यदि इस बार जलने से चूक गए तो किसी टोकनी, सूपा का हिस्सा बनकर जीवित रह जाएंगे और फिर अगले साल रावण कुनबे से दूर हो जाएंगे…कोई भी अपनी नियति से दूर नहीं होना चाहता और नियति को पाने के लिए विचारधारा से लेकर रीति/नीति और संस्कृति को त्यागने में भी पीछे नहीं रहता…शायद, इसी लिए चुनाव के दौरान असंतोष और दल बदल आम बात हो गई है। (24 Oct 2023)
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नए दौर के 'रक्तबीज' से कैसे निपटेगा चुनाव आयोग…!!

जैसे जैसे मतदान की तारीख़ क़रीब आ रही है चुनाव प्रबंधन से जुड़ी एजेंसियों के माथे की सिकन बढ़ रही है। प्रदेश में चुनाव आयोग के मुखिया और मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी अनुपम राजन भी खुलकर अपनी चिंता जाहिर कर रहें हैं। इस चिंता का कारण है-मीडिया की दो प्रमुख धाराओं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया का तेज़ी से होता विस्तार। भोपाल स्थित प्रशासन अकादमी में पिछले दिनों हुई मीडिया कार्यशाला में जब 'मीडिया की ओर से मीडिया की भूमिका' को लेकर सवालों की बौछार हुई और मास्टर ट्रेनर सहित अन्य अधिकारी उसका पूरी तरह से सामना नहीं कर पाए तो उस मुश्किल वक्त में अनुपम राजन ने मोर्चा संभाला और बड़ी साफगोई से स्वीकार किया कि चुनाव आयोग भी मीडिया की भूमिका को लेकर मीडिया द्वारा उठाए गए सवालों के जवाब तलाश रहा है और अब तक कोई समीचीन समाधान नहीं मिल पाया है।

अब बात उन चिंताओं की, जिनको लेकर खुद मीडिया भी चिंतित है। सबसे बड़ी चिंता न्यूज़ चैनलों का देशव्यापी विस्तार है। दरअसल,आदर्श आचार संहिता के दौरान 48 घंटे पहले चुनाव प्रचार बंद करना पड़ता है और किसी भी मीडिया के जरिए सार्वजनिक रूप से चुनाव प्रचार नहीं किया जा सकता लेकिन राज्यों के चुनाव के दौरान यह आम बात हो गई है कि राष्ट्रीय स्तर के नेता किसी अन्य राज्य या राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में बैठकर टीवी चैनलों पर कुछ ऐसी बातें कह देते हैं जिसका प्रसारण चुनावी राज्यों सहित देशभर में होता है और उसका सीधा असर चुनावी राज्य में भी पड़ सकता है। एक तरह से चुनाव प्रचार भी हो जाता है और वे आचार संहिता के उल्लघंन के आरोप से भी बच जाते हैं। चुनाव आयोग चाहकर भी इस मामले में कुछ नहीं कर पाता।
दूसरा प्रश्न, चुनावी राज्यों में नेताओं के 'वन टू वन इंटरव्यू' से जुड़ा है। सवाल यह है कि ऐसे साक्षात्कार को क्या पेड न्यूज माना जा सकता है ? क्योंकि सूचनात्मक इंटरव्यू और प्रचारात्मक इंटरव्यू के बीच इतनी महीन सी रेखा है कि कब कोई न्यूज चैनल उसे लांघ जाए,पता ही नहीं चलेगा जबकि अख़बार में यह खुलकर स्पष्ट रहता है। न्यूज़ चैनलों को तो किसी तरह मॉनिटर भी किया जा सकता है लेकिन सोशल मीडिया का क्या!!…वह तो आंधी-तूफान की तरह काम करता है। जब तक चुनाव आयोग के कारिंदे सोशल मीडिया पर जारी किसी प्रचार वीडियो/पेड/फेक न्यूज की जड़मूल तक पहुंचकर उसे हटाएंगे तब तक वह पेड/फेक कंटेंट 'रक्तबीज' की तरह हजारों-लाखों में बदलकर 'इनफिनिटी' हो जाएगा जिसका अंतिम छोर तलाशना असंभव है। अब चुनाव आयोग कोई मां दुर्गा तो है नहीं कि रक्त की बूंद बूंद सुखाकर उसे खत्म कर दें इसलिए सोशल मीडिया को लेकर चौतरफा घेराबंदी तक इस पर लगाम कसना आसान नहीं है।
अब सोचिए, एआई यानि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे मायासुर का साथ पाकर सोशल मीडिया चुनाव की निष्पक्षता और खासकर 'लेबल प्लेइंग फील्ड' यानि प्रचार के समान अवसर देने की नीति की कैसे धज्जियां उड़ा सकता है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि एआई की माया ऐसी है कि यह किसी की भी आवाज़/रूप बदलकर दो मिनट में सालों के परिश्रम को गुड़ गोबर कर सकता है। सोशल मीडिया और एआई की संयुक्त ताक़त से निपटना किसी भी सरकारी तंत्र के लिए अभी तो लगभग नामुमकिन है।
मोटे तौर पर देखें तो चुनाव के लिए बने 'मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट' शुरुआत में प्रिंट मीडिया और आकाशवाणी-दूरदर्शन जैसे सरकारी माध्यमों को ध्यान में रखकर बने थे। ये माध्यम अपने स्तर पर खुद ही इतनी सावधानी बरतते हैं कि चुनाव आयोग को आचार संहिता लागू करने में कोई खास मशक्कत नहीं करनी पड़ती लेकिन टीवी और नए दौर के इंटरनेट मीडिया का प्रवाह इतना तीव्र है कि इन दोनों पर बांध बांधना अभी तो दूर की कौड़ी लग रहा है। हालांकि प्रौद्योगिकीय प्रगति ने निगरानी तंत्र को मजबूत बनाने में मदद की है और निर्वाचन आयोग भी तकनीकी के इस्तेमाल में पीछे नहीं है, फिर भी तू डाल डाल मैं पात पात की तर्ज़ पर आदर्श आचार संहिता तोड़ने/बनाने का खेल जारी है। शायद इसलिए मध्य प्रदेश के मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी अनुपम राजन को कहना पड़ा कि चुनौती बहुत बड़ी और दुरूह है। जिस पर किसी कागज़ी इंस्ट्रक्शंस से काबू नहीं पाया जा सकता। इसके लिए व्यवहारिक धरातल पर काम करने की जरूरत है और हम लोग पुरजोर प्रयास भी कर रहे हैं। उन्होंने इस मामले में मीडिया की भागीदारी सुनिश्चित करते हुए यह भी कहा कि मीडिया की 'क्रेडिबिलिटी' बनाए रखना मीडिया की भी ज़िम्मेदारी है।
अब देखना यह है कि मीडिया अपने ही सवालों, विश्वसनीयता खोने के खतरे और लोकतंत्र के यज्ञ में अपनी अनिवार्य निष्पक्ष भूमिका को बनाए रखने के लिए अपनी ही नई पीढ़ी से कैसे निपटता है…पांच राज्यों के चुनावों में उठे ये सवाल भविष्य में होने वाले बड़े चुनावों की निष्पक्षता और सभी दलों को समान अवसर की मजबूत बुनियाद बन सकते हैं।

सुनो वोटर…कि अब गए दिन चुनाव (बहार) के..!!

जब टीन के बने सांचे पर कभी 'हलधर किसान' तो कभी 'गाय बछड़ा' या फिर 'पंजा' और 'कमल' के फूल की छाप दीवार पर लगाने के लिए जब रंग के साथ लोग आते थे तो हम बच्चों में यह काम करने की होड़ लग जाती थी। पार्टी पॉलिटिक्स से परे छीना झपटी के बाद बच्चे दीवारें रंगने में तल्लीन हो जाते थे और यह काम करने आए लोग मस्त बीड़ी पीने में।

जब पार्टी के कार्यकर्ता झंडे/बिल्ले/ बैनर और पोस्टर लेकर आते थे तो टीन और गत्ते के बने बिल्लों को लेने और कमीज़ पर लगाने के लिए मारामारी हो जाती थी। जिसको रिबन के साथ या रिबन के फूल वाला बिल्ला मिल जाता था वो स्वयंभू बॉस बन जाता था। झंडे और बैनर तो बच्चों को मिलना दूर की कौड़ी थी।
चुनाव के बाद पार्टियों के बैनर और झंडे कई घरों में पोंछे के कपड़े, खिड़कियों के परदे और इसी तरह के दर्जनों दीगर कामों में खुलकर इस्तेमाल होते थे। गरीब परिवारों में तो वे बुजुर्गों की चड्डी और तकिए के कवर तक बन जाते थे।
शहर मानो रंग बिरंगे पोस्टरों,बैनर और झंडों से पट जाता था और आज की चुनावी तिथियों के संदर्भ में कहें तो दीपावली पर भी होली का सा रंगीन नजारा दिखाई पड़ने लगता था।
शहर से लेकर गांवों तक में लगे भोंपू/चोंगे,रिक्शों पर चलता अनवरत प्रचार और लगभग रोज होने वाली छोटी-बड़ी चुनावी सभाएं यह अहसास करा देती थीं कि चुनाव के दिन आ गए हैं। किसी को कोई शिकवा शिकायत नहीं और न ही दौड़-दौड़ कर चुनाव आयोग में चुगली करने जाने की जरूरत। सब अपनी अपनी हैसियत से भाईचारे के साथ चुनाव लड़ते थे। तब चुनाव राजनीतिक जंग नहीं बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया थे।
अब हालात बदल गए हैं और कुछ बदलाव वाकई सराहनीय भी है मसलन दीवारें लिखाई से और शहर पोस्टर बैनर से बदरंग नहीं होते। चुनावी खर्च की सीमा और चुनाव आयोग की सख़्त निगरानी ने सभी उम्मीदवारों को 'लेबल प्लेइंग फील्ड' दे दी है। भोंपूओ का कर्कस शोर नहीं है और न दिन रात की चिल्लपों…अब चुनाव होते नहीं, लड़े जाते हैं और चुनाव की 'तैयारियां' नहीं 'प्रबंधन' होता है। पोस्टर,बैनर और झंडों का स्थान सोशल मीडिया ने लिया है और आमसभाओं की जगह टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों या चुनाव केंद्रित कार्यक्रमों ने।
अब चुनाव की रणनीतियां बनती हैं,पार्टियां मुद्दे चुनती हैं,विवाद पैदा करती हैं,एजेंडा सेट करती हैं और फिर सोशल मीडिया और यूट्यूबर की हुल्लड़ ब्रिगेड उसे आगे बढ़ाकर व्यापक बनाती है। छोटे-छोटे चुनाव कार्यालयों का स्थान भव्य और कॉरपोरेट शैली में बने पार्टी ऑफिस ने लिया है। अब स्थानीय नेताओं द्वारा स्थानीय मुद्दों पर चर्चा की जगह बड़े और मंझे राष्ट्रीय प्रवक्ता बैठने लगे हैं और अब राष्ट्रीय मुद्दे स्थानीय स्तर पर प्रभाव डालने लगे हैं । विधानसभा क्षेत्र में सड़क, बिजली, पानी, पार्क और स्कूल जैसे बुनियादी विषयों की जगह हमास-इजराइल संघर्ष जैसे अंतर राष्ट्रीय विषयों ने ले ली है। इसी तरह, जाति/प्रभाव/धर्म के मुताबिक बड़े नेताओं की बड़ी सभाएं होती हैं और वहां जनता की सुनी नहीं बल्कि अपनी बात कही जाती है।
अब चुनाव व्यवस्थित,शांत,खर्चीले, तकनीकी संपन्न और कौशल पूर्ण जरूर हो गए हैं लेकिन उनकी आत्मा यानि उल्लास और उत्साह के साथ जनभागीदारी कम हो गई है लेकिन उसे गुपचुप तौर पर कुछ मिलने की उम्मीद बढ़ गई हैं। कहते हैं न कि समय एक सा नहीं रहता और बदलाव ही विकास का सूचक है। जैसे, हम कागज़ के मतपत्र और मतपेटियों के दौर से वोटिंग मशीन तक आ गए,हो सकता है भविष्य में मतदान केंद्र जाने की जरूरत ही नहीं पड़े और अभी हमें उंगलियों पर नचाने वाला मोबाइल फोन ही हमारा मतपत्र और लोकतंत्र का सबसे बड़ा साधन बन जाए तब तक तो यही कहना ठीक है कि…अब गए दिन चुनावी बहार के !! (4 Nov 2023)

भेज रहे हैं स्नेह निमंत्रण

 


भेज रहे हैं स्नेह निमंत्रण

मतदाता तुम्हें बुलाने को

17 नवंबर भूल न जाना

वोट डालने आने को।'
आमतौर पर विवाह समारोह के निमंत्रण कार्ड पर छपने वाली ये पंक्तियां इस बार मध्य प्रदेश में मतदाताओं को बुलाने और मतदान के लिए जागरूक करने में इस्तेमाल की जा रही हैं। भोपाल में जिला प्रशासन ने मतदाताओें को मतदान केंद्र तक बुलाने के लिए वैवाहिक कार्ड की तर्ज पर आकर्षक निमंत्रण पत्र तैयार किए हैं। ये कार्ड मतदाता पर्चियों के साथ घर घर पहुंचाए गए हैं। जिस प्रकार वैवाहिक कार्ड में दिनांक,समय और कार्यक्रम स्थल का उल्लेख होता है,उसी प्रकार इस कार्ड में भी मतदान की तिथि 17 नवंबर, समय सुबह 7 बजे से लेकर शाम 6 बजे तक और आयोजन स्थल की जगह आपका मतदान केंद्र लिखा गया है।
कार्ड में स्वागत कर्ता की जगह बूथ लेबल अधिकारी,निवेदक जिला निर्वाचन अधिकारी और दर्शनाभिलाषी में पीठासीन अधिकारी सहित मतदान दल के सभी सदस्य शामिल हैं। वोटवीर की ओर से जारी इन कार्ड का समापन सभी निमंत्रण पत्रों की लोकप्रिय बाल मनुहार पंक्तियों 'हमारे कार्यक्रम में जरूर जरूर आना'... की तर्ज पर किया गया है। इसमें लिखा गया है कि -'हमारे विधानसभा चुनाव में मतदान करने जरूर जरूर पधारना।'
आम लोग भी इस नवाचार की सराहना कर रहे हैं। अब देखना यह है कि वोट डालने कितने लोग घर से निकलते हैं।
"वोट जरूर डालिए,यह अधिकार ही नहीं हमारा कर्त्तव्य भी है।" (16 Nov 2023)

"हम भारत के लोग…!!"



हमारे संविधान की प्रस्तावना की शुरुआत ही इन शब्दों से होती है, ‘हम भारत के लोग’..। हम भारत के लोग वाकई अद्भुत हैं और अलग भी। हमें समझना आसान नहीं है पर हमसे जुड़ना बहुत सरल है क्योंकि हम सहज हैं। शायद तभी ‘फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’ फिल्म में गीतकार ने लिखा है:

“हम लोगों को समझ सको
तो समझो दिलबर जानी
जितना भी तुम समझोगे
उतनी होगी हैरानी”
हम भारत के लोग… वाकई दुनिया से अलग हैं और शायद इसी वजह से पूरी दुनिया में कभी भी-कहीं भी घुल मिल जाते हैं और मौका मिलते ही उस देश के रंग में पूरी तरह मिलकर वहीं बस तक जाते हैं लेकिन फिर भी अपनी पहचान का सबसे गाढ़ा रंग सहेजकर रखते हैं यह रंग है भारतीयता का और उदघोष है हम भारत के लोग का। हम, अमेरिका में भी भारतीय बने रहते हैं और कई बार भारत में भी ‘मेड इन यूएसए’ (उल्लासनगर सिंधी एसोसिएशन) जैसा कारनामा कर दिखाते हैं। हम इतने बेफिक्र हैं कि कारगिल पर पाकिस्तानी घुसपैठियों को नजर अंदाज़ करते रहते हैं लेकिन जब उन्हें मारकर बाहर निकालने की ठान लेते हैं तो फिर ‘ये दिल मांगे मोर’ को जयघोष बनाकर उन्हें कारगिल की उन्हीं बर्फीली चोटियों पर दफन करके ही छोड़ते हैं। हम हफ्तों तक सुरंग में दिन गुजारने का हौंसला रखते हैं और इसके उलट मामूली सी परेशानी में भी घबराकर पूरे परिवार के साथ आत्महत्या करने जैसा दुस्साहस भी कर डालते हैं।
हम भारत के लोग..दुनिया भर के लोगों से वाकई अलग हैं। यही वजह है कि कोरोना संक्रमण के भीषण दौर में भी हम बिंदास होकर बीमारी से नहीं बल्कि पुलिस से बचने के लिए मास्क लगाते थे जैसे आज भी बाइक पर हेलमेट और कार में सीट बेल्ट बस पुलिस को दिखाने के लिए लगाते हैं। हम हेलमेट भी सुरक्षा की दृष्टि से कम फैशन के लिहाज से ज्यादा खरीदते हैं। लेकिन हमारा यही खिलंदड़पन हमें कोरोना के भीषणतम संक्रमण से भी बचा ले जाता है। यह हमारी सहजता ही है कि हम वायरस को ताली,थाली और दिए से भी भगाते हैं और फिर वैक्सीन लगवाने में भी दुनिया में रिकार्ड बना देते हैं। हम देशसेवा से लेकर समाजसेवा का ज्ञान देने में कभी पीछे नहीं रहते लेकिन जब उस पर अमल करने की बारी आती है तो हम उम्मीद करते हैं कि शुरुआत पड़ोसी के घर से हो।
हम भारत के लोग…वाकई,सबसे अलग हैं तभी तो स्वच्छता अभियान में जी जान से जुट जाते हैं और अपने शहर को नंबर वन बनाने में भी पीछे नहीं रहते लेकिन अगले ही पल उस दीवार को पान गुटखे की पीक से जरूर रंगते हैं जहां लिखा होता है कि ‘यहां थूकना मना है’। दीवारों को गीला करने में तो हमारा कोई सानी नहीं है। हम अन्न की बरबादी पर ज्ञान पेलने में सबसे आगे रहते हैं लेकिन किसी शादी-ब्याह में प्लेट भरकर खाना लेकर छोड़ देना हमारी फितरत का हिस्सा है। हम अपनी बेटी की शादी में दहेज के विरोधी हैं लेकिन बेटे की शादी में भरपूर दहेज की उम्मीद करते हैं। आपदा के समय हम घर के जेवर तक दे देते हैं, जरूरतमंदों के लिए खाने-पीने से लेकर जूते चप्पल तक जुटा लेते हैं और फिर स्थिति सामान्य होते ही मनमाना मुनाफा कमाने से भी नहीं चूकते। तभी तो फिल्म ‘फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’ के गीत की पंक्तियां आगे कहती है:
“अपनी छतरी तुमको दे दे
कभी जो बरसे पानी
कभी नए पैकट मे बेचे
तुमको चीज पुरानी।”
हम भारत के लोग…सबसे जुदा हैं तभी तो एक सौ चालीस करोड़ की आबादी में महज तीन फ़ीसदी लोग ही टैक्स देना जरूरी समझते हैं और यहां चार्टर्ड एकाउंटेंट का काम वित्तीय लेनदेन में ईमानदारी से ज्यादा टैक्स बचाने के नुस्खे बांटना है लेकिन सार्वजनिक सुविधाओं में कमी के लिए सरकार को कोसने में सबसे आगे रहते हैं। हम क्रिकेट पर जान छिड़कते हैं और विश्व कप में हार पर ‘राष्ट्रीय मातम’ मनाते हैं लेकिन अगले ही दिन मिली जीत पर पटाखे चलाने से भी नहीं चूकते। हम प्रदूषण के खिलाफ़ खुलकर बोलते हैं पर अंधेरे में सड़क पर कचरा फेंकने या फिर सड़कों पर कानफोडू हॉर्न बजाने को अपना अधिकार समझते हैं। हम बच्चों को आदर्श नागरिक बनाना चाहते हैं लेकिन अगले ही पल ‘कह दो पापा घर पर नहीं हैं’ जैसे झूठ बोलने से या बच्चों के सामने सिग्लन जंप करने से परहेज नहीं करते।
हम भारत के लोग… सब कुछ हो सकते हैं झूठे,मक्कार,लालची,बिकाऊ,स्वार्थी सब कुछ,लेकिन जब बात लोकतंत्र की मजबूती की हो तो हम पंचायत से लेकर विधानसभा और लोकसभा चुनाव में अपनी समझ से अच्छे अच्छे राजनीतिक पंडितों के होश उड़ा देते हैं।..और जब बात देश की आन-बान-शान की हो तो ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,झंडा ऊंचा रहे हमारा’ का नारा देश का मंत्र बन जाता है। फिल्म ‘फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’ के गीत की ये पंक्तियां हम भारत के लोगों पर सटीक बैठती हैं:
“थोड़ी मजबूरी है लेकिन
थोड़ी है मनमानी
थोड़ी तू तू मै मै है
और थोड़ी खींचा तानी
हम में काफी बाते हैं
जो लगती है दीवानी।”
हम भारत के लोग…वाकई,दीवाने हैं, विरले हैं, सबसे अलग हैं पर जैसे भी हैं सबसे अच्छे हैं। (28 Nov 2023)

मैं, मुख्यमंत्री निवास हूं…प्रदेश के मुखिया का आधिकारिक निवास…!!


मैं, मुख्यमंत्री निवास हूं…प्रदेश के मुखिया का आधिकारिक निवास। फिलहाल मेरी पहचान भोपाल के ‘6-श्यामला हिल्स’ के तौर पर है जहां मौजूदा मुख्यमंत्री रह रहे हैं। यह बंगला शायद मेरा अब तक का सबसे आदर्श पता है। श्यामला हिल्स की ऊंची और हरियाली की चादर ओढ़े खूबसूरत पहाड़ी पर बना मेरा यह घर मुख्यमंत्री पद की आन-बान-शान के बिल्कुल अनुरूप है। मेरे सामने मौजूद बड़ा तालाब अपनी उछलकूद करती लहरों के बाद भी शांत रहकर मुझमें भी धैर्य का संचार करता है और दिन भर की राजनीतिक सरगर्मियों के बाद भी मेरे अंदर ठहराव का कारण यही है। बड़ा तालाब अपने विस्तार और प्रवाह से मेरे अंदर के बड़प्पन का स्मरण कराता रहता है। आखिर,मुख्यमंत्री की मेजबानी,उनकी चिंताओं, खुशियों, दुःख, राजनीतिक उठा पटक, साज़िश और पद के सुकून सहित इतना कुछ सहने के बाद भी बड़े तालाब सा शांत रहने के लिए बड़प्पन तो चाहिए ही।
अब एक बार फिर सभी की निगाह मुझ पर टिकी हैं…राजनीति के उद्भट खिलाड़ियों से लेकर गुणा भाग में माहिर नेताओं तक,मीडिया के सीधे तने सिद्धांत प्रिय पत्रकारों से लेकर रीढ़ विहीन कलमकार और बाइट वीर तक मेरी ओर टकटकी लगाकर देख रहे हैं। आम जनता के साथ साथ मुझे भी हर चुनाव के साथ अपने नए ‘किरायेदार’ का बेसब्री से इंतज़ार रहता है। किरायेदार इसलिए,क्योंकि मैं और मेरी पहचान तो कमोवेश अब स्थाई हो गई है लेकिन मेरा आतिथ्य स्वीकार करने वाले जरूर अस्थाई होते हैं। कोई पांच साल,कोई ढाई साल तो कोई पंद्रह महीने..और किसी की तो बस कल्पना का हिस्सा ही बन पाता हूं मैं। शिवराज जी जैसे कुछ ही भाग्यशाली हैं जिन्होंने सालों साल मुझे भोगा है,मुझे संवारा है और खुद को भी निखारा है।
ऐसा नहीं है कि मुझे अपने जन्म के साथ ही श्यामला हिल्स का यह भव्य और गरिमामय ठिकाना मिल गया था बल्कि यहां तक पहुंचने के लिए मैंने भी प्रदेश की राजनीति की तरह लंबा फासला तय किया है। अब कहा तो यह भी जा सकता है कि प्रदेश का मुखिया जहां रहेगा वह अपने आप में सबसे बड़ी पहचान है लेकिन मेरी भी तो अपनी कोई हैसियत है न… और इसलिए ठिकाना भी स्थाई होना चाहिए। जब हमारे राज्य मप्र का जन्म हुआ और प्रदेश को पंडित रविशंकर शुक्ल के रूप में पहला मुखिया मिला तो पुराने शहर का आइना बंगला मेरी पहचान बन गया जिसे आज आप स्टेट गेस्ट हाउस के तौर पर जानते हैं। पंडित शुक्ल के बाद डॉ कैलाश नाथ काटजू और भगवंत राव मंडलोई को भी मुझमें कोई खोट नज़र नहीं आया लेकिन पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र पता नहीं क्यों मुझसे कुछ खफा हो गए और मेरा ठिकाना बदलकर श्यामला हिल्स स्थित निशात मंज़िल हो गया । पुराना पता बदलने का दुःख तो हुआ लेकिन नया परिवेश शानदार लगा तो फिर यहीं मन लग गया। प्रकाश चंद सेठी मुझे प्रोफेसर कालोनी ले गए लेकिन मुझे इस बात की खुशी थी कि मैं श्यामला हिल्स के इर्द गिर्द ही हूं ।
फिर आए पंडित रविशंकर शुक्ल के पुत्र और उस कालखंड में प्रिंस चार्मिंग कहे जाने वाले श्यामाचरण शुक्ल। उनका दिल मेरे वर्तमान ठिकाने ‘6 श्यामला हिल्स’ पर आ गया और उनके साथ ही मेरे सजने संवरने के दिन भी शुरू हो गए। अब तक गेस्ट हाउस बनकर जमाने भर के प्रिय-अप्रिय लोगों की सेवा से मैं भी आजिज आ चुका था इसलिए श्यामा भैया की संगत में मैंने भी रुतबा हासिल करना शुरू किया। अरे, जब दुनिया भर में बड़े नेताओं के स्थाई पते हो सकते हैं तो देश के दिल मध्यप्रदेश के मुखिया का भला स्थाई पता क्यों नहीं होना चाहिए? श्यामा भैया,चाय के शौकीन थे और अपने करीबी लोगों को खुद विलायती रवायत से चाय बनाकर पिलाते थे। उनकी चाय की खुशबू से मेरा भी रोम रोम महकने लगता था। मैंने, अर्जुन सिंह का रूआब भी देखा है तो दिग्विजय सिंह की जिंदादिली भी, उमा भारती की अध्यात्मिकता से लेकर कैलाश जोशी का संतत्व,मोतीलाल वोरा की सादगी, शिवराज का संपर्क, सुंदरलाल पटवा और वीरेंद्र कुमार सखलेचा की गंभीरता भी। मैंने कमलनाथ के छोटे से दौर में खुद को बड़ा होते हुए भी देखा है। वैसे, कमलनाथ और मेरे बीच एक संबंध और भी है। वे इन दिनों जिस बंगले में रह रहे हैं वह गोविंद नारायण सिंह के दौर में कभी मुख्यमंत्री निवास रह चुका है।
अब,एक बार फिर विधानसभा चुनाव मेरे लिए भी पहेली बन गए हैं। जब एक्जिट पोल को भी अपने एक्जैक्ट होने पर शक है तो फिर मैं तो ईंट पत्थर का ढांचा बस हूं। मैं, न तो अपना नया किरायेदार तय कर सकता हूं और न ही कोई भविष्यवाणी। दशकों से मुख्यमंत्रियों का आवास होने का मतलब यह तो नहीं है न, कि मैं राजनीति की उलझी हुई गुत्थियों को सुलझा लूं । मैं,राजनीति के खेल का मूक दर्शक भर हूं जो महसूस तो सब कर लेता है पर कर कुछ भी नहीं सकता। हां,मैं बस इतना चाहता हूं कि प्रदेश का मुखिया कोई भी बने लेकिन मेरे रुतबे में कोई कमी नहीं आए बल्कि मेरी भव्यता दिन ब दिन और निखरती जाए ताकि मैं भी गर्व के साथ कह सकूं कि मैं 6 श्यामला हिल्स हूं, मप्र के मुख्यमंत्री का आधिकारिक निवास। (3 Dec 2023)

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...