“जुगाली” समाज में आमतौर पर व्याप्त छोटी परन्तु गहराई तक असर करने वाली बुराइयों, कुरीतियों और समस्याओं पर ‘बौद्धिक विलाप’ कर अपने मन का बोझ हल्का करने और अन्य जुगाली-बाज़ों के साथ मिलकर इन बुराइयों को दूर करने के लिए एक अभियान है. आप भी इस मुहिम का हिस्सा बनकर बदलाव के इस प्रयास में भागीदार बन सकते हैं..
बुधवार, 9 जून 2010
दिल तो बच्चा है जी....
महानायक अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘लावारिस’ का एक गाना “मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है” अस्सी के दशक में काफी लोकप्रिय हुआ था. इस गाने की लाइन कुछ इस तरह थी कि ‘जिसकी बीबी छोटी उसका भी बड़ा नाम है,गोद में उठा लो, बच्चे का क्या काम है..’इस गाने ने उस दौरान छोटे कद की महिलाओं के साथ-साथ उनके पतियों को भी हँसी का पात्र बना दिया था चूँकि इस गाने में सभी कद-रंग-लम्बाई-चौड़ाई के लोगों का मजाक उड़ाया गया था इसलिए कोई किसी को दोष नहीं दे पाया और यह गाना बुराई की बजाय हंसने-हँसाने का जरिया बन कर रह गया, लेकिन अब नाटे कद के लोगों पर हुए एक शोध में हुए खुलासे ने इसी गाने को कुछ इसतरह कर दिया है कि “जिसकी बीबी छोटी उसका तो बुरा हाल है” क्योंकि शोध से पता चला है कि छोटे कद के लोगों में दिल की बीमारी होने और इस बीमारी से मरने का खतरा ज्यादा रहता है.
वैसे दिल की बीमारी के कद से संबंध पर शोध की शुरुआत 1951 में हुए थी. तब से अब तक इस विषय पर 52 अध्ययन व लगभग दो हज़ार शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं. फिनलैड की यूनिवर्सिटी ऑफ तामपेरे के फॉरेंसिक मेडिसिन के शोधकर्ताओं ने इन्ही शोधों के निष्कर्ष के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार की है। शोधकर्ताओं ने 30,12,747 लोगों पर हुए शोध का परिणाम निकालने के लिए लोगों को दो श्रेणियों में बांटा. इसके तहत छोटे कद की श्रेणी में 165.4 सेंटीमीटर से छोटे पुरुषों और 153 सेमी से छोटी महिलाओं को रखा गया.इसीतरह 177.5 सेमी से लंबे पुरुष और 166.4 सेमी से ऊँची महिलाओं को दूसरी श्रेणी में रखा गया। दोनों के तुलनात्मक अध्ययन में छोटे कद वाले समूह में दिल संबंधी बीमारियां 1.5 गुना ज्यादा पाई गई। छोटे कद वाले पुरुषों में दिल की बीमारियों से मरने का खतरा लंबे कद के पुरुषों के मुकाबले 37 फीसद ज्यादा पाया गया.जबकि छोटे कद की महिलाओं में यह खतरा ऊँची महिलाओं के मुकाबले 55 फीसदी अधिक पाया गया।
वैसे अध्ययनों में यह भी पाया गया है कि छोटे कद या सामान्य बोलचाल की भाषा में कहें तो नाटे लोग मानसिक रूप से हीन भावना का शिकार होते हैं. मनोवैज्ञानिक भी तमाम शोधों के जरिये इस बात को समझाते रहे हैं कि व्यक्तित्व की कमियां इंसान को कमजोर बना देती हैं लेकिन यह बात भी उतनी ही सत्य है कि यदि व्यक्ति ठान ले तो शरीर की कोई भी कमजोरी उसके विकास में बाधा नहीं बन सकती.किसी शायर ने ठीक ही फ़रमाया है कि-
“ मैं तो छोटा हूँ झुका लूँगा सर को अपने
पहले सब बड़े तय कर लें, बड़ा कौन है”
.
मंगलवार, 8 जून 2010
आप भी दे सकते हैं कसाब को फांसी
पढकर आश्चर्य में न पड़े ...यह बिलकुल सच बात है कि आप भी मुंबई (Mumbai )को घंटों तक बंधक बनाने वाले और अनेक निर्दोष लोगों के हत्यारे आतंकवादी कसाब(kasab) को फांसी दे सकते हैं और वह भी मनचाही बार, मतलब एक-दो नहीं बल्कि दसियों बार आप कसाब को फांसी पर लटकते हुए देख सकते हैं. कसाब को सार्वजनिक रूप से फांसी की सजा पाते देखना हर भारतीय की ख्वाहिश है. कसाब ही क्या, संसद पर हमले के मामले में जेल में बंद अफज़ल गुरु सहित उन तमाम देशद्रोहियों और नापाक इरादे रखने वाले आतंकवादियों को उनके गुनाहों की सजा हर हाल में और जल्द से जल्द मिलनी ही चाहिए इस बात पर दो राय हो ही नहीं सकती.
पर समस्या यह है कि सरकार भी क्या इन दोषियों को हमारी ही तरह फटाफट सजा देने की इच्छुक है? अभी तक की कवायद और प्रतिक्रिया से तो यह नहीं लगता कि हम भारतीयों की यह तमन्ना आसानी से पूरी हो पायेगी. सरकार भी बेचारी क्या करे? न तो उसके पास पूर्ण बहुमत है और न ऐसा कर पाने की इच्छाशक्ति. उसे अंतरराष्ट्रीय संबंधों के साथ-साथ देश के घरेलू हालातों (सरल शब्दों में वोट बैंक) का ध्यान भी रखना पड़ेगा.आखिर फिर से चुनाव जो लड़ना है. तो क्या हम इसी तरह हाथ पर हाथ रखकर बस इंतज़ार करते रहेंगे....नहीं अब ऐसा करने की कोई ज़रूरत नहीं है और न ही अपने मंसूबों को दबाने की क्योंकि हम-आप सब कसाब को फांसी दे सकते हैं और वह भी अपने समय,जगह और इच्छा के मुताबिक. तो चलो अब इस सस्पेंस को ख़त्म किया जाये दरअसल ऑनलाइन बाज़ार में इन दिनों "हेंग कसाब" नामक एक खेल धूम मचा रहा है इसमें खेलने वालों को निर्धारित अवधि में कसाब को मनमानी बार फांसी की सजा देने का अवसर मिलता है.इस खेल की नींव भी गुस्से के इज़हार को लेकर ही पड़ी है, जब एक कम्पनी ने सुना कि कसाब को फांसी देने के लिए ज़ल्लाद नहीं मिल रहा है और भारत के लोग उसे जल्द से जल्द सजा पाते देखना चाहते हैं तो उसने इस खेल का इज़ाद कर दिया ताकि आम लोग कसाब को मारकर अपने गुस्से को निकाल सकें और अपनी ऊर्जा को देश के रचनात्मक कामों में लगा सके. तो चलिए सरकार भलेहि डिप्लोमेसी में उलझी रहे हम तो कसाब को बार-बार फांसी पर लटकाकर अपने कलेजे को ठंडा कर ही लें....
सोमवार, 7 जून 2010
चीअर्स...दिल्ली के बिअर बाजो...चीअर्स
मशहूर और कालजयी फिल्म 'शोले' में याद है अभिनेता धर्मेन्द्र पानी की टंकी पर चढ़कर सुसाइड-सुसाइड चिल्लाते हैं और अरे रामगढ वालों जैसा चर्चित डायलोग बोलते हैं.वैसे इस पोस्ट का शोले से कोई सम्बन्ध नहीं है बस शीर्षक को शोले के डायलोग जैसा बनाने की कोशिश की है.हाँ एक समानता ज़रूर है कि धर्मेन्द्र ने शराब पीकर वह सीन किया था और हमारे दिल्ली वाले बिअर पीकर रिकॉर्ड बना रहे हैं.हालाँकि दिल्ली वाले अपने कारनामो के चलते दुनिया और खासतौर पर देश में खूब नाम कमाते रहते हैं. कभी संसद पर हमले के कारण तो कभी बीएमडव्लू जैसी कारों को आम आदमी पर चढ़ाकर और कभी मतदान के दौरान वोट न डालकर.इसके बाद भी बढ़-चढ़कर बोलने में किसी से पीछे नहीं रहते.
अब दिल्ली वालों ने बिअर पीने का नया रिकॉर्ड बनाया है. वे मात्र एक माह में १५ लाख क्रेट से ज्यादा बिअर डकार गए.सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मई के महीने में दिल्ली के लोगों ने १५,२२,८२९ क्रेट बिअर पी.अब माय के शौकीनों को यह बताने कि ज़रूरत नहीं है कि एक क्रेट में १२ बोतलें आती हैं.तो ज़रा ऊपर कि संख्या को १२ से गुणा करके देखिये की बिअर पीने में हम राजधानी वालों ने पानी पीने वालों को भी पीछे छोड़ दिया है. वैसे यह कोई पहला मौका नहीं है जब दिल्ली के बिअरबाजो ने एसा रिकॉर्ड बनाया है.इसके पहले अप्रैल के महीने में भी वे १४.८ लाख क्रेट बिअर पी गए थे. यह बात अलग है कि मई में उन्होंने अप्रैल से ३० गुणा ज्यादा बिअर पी हैऔर यह अब तक का सबसे बड़ा रिकॉर्ड है.वैसे बिअर पीने के लिए दिल्ली वालों को दोषी ठहराना उचित नहीं है क्यूंकि जब पारा हमेशा ४६ डिग्री के पार रहेगा और बिजली ज़्यादातर गुल रहेगी तो आदमी बिअर न पिए तो क्या करे!वैसे कई बिअर बाजों का कहना है कि वे नशे के लिए नहीं बल्कि बिअर को दवाई के तौर पर पीते हैं. उनका कहना है कि बिअर पीने से किडनी का स्टोन(पथरी) ठीक हो जाती है.बिअरबाजों का दावा है कि बिअर से पथरी घुल जाती है. यह बात अलग है कि डॉक्टर इस बात को गलत बताते हैं.डॉक्टरों का तो यहाँ तक कहना है कि बिअर ज्यादा पीने से स्टोन की सम्भावना और भी ज्यादा बढ़ जाती है.अब हुम क्या कहे क्यूंकि पीने वालों को तो पीने का बहाना चाहिए.....
शनिवार, 5 जून 2010
जय हो भारतीयों की जय हो ...
फिल्म ‘स्लमडोग मिलिनिअर’ में ऑस्कर विजेता संगीतकार ए आर रहमान का मशहूर गीत ‘जय हो’ भारत और भारतीयों पर बिलकुल उपयुक्त बैठता है.दरअसल हमने कारनामा ही ऐसा कर दिखाया है कि सारी दुनिया सम्मान की नज़रों से हमारी ओर देख रही है और हम भी गर्व के साथ सर ऊंचा करके खड़े हैं.आखिर किसी मामले में तो दुनिया ने हमारा लोहा माना. अब आप सोच रहे होंगे कि हम भारतीयों ने ऐसा क्या चमत्कार कर दिया जिसकी इतनी वाहवाही हो रही है तो जान लीजिए इस तारीफ का कारण यह है कि पर्यावरण संरक्षण और धरती को हरा-भरा बनाने में हम हिन्दुस्तानी सबसे आगे हैं.
नेशनल जिओग्राफिक –ग्लोबस्कैन नामक संगठन द्वारा किये गए एक सर्वे के मुताबिक दुनिया भर में पर्यावरण को बचाने और सुरक्षित जीवन शैली अपनाने के मामले में भारतीय लोग अव्बल नम्बर पर हैं. सर्वे में लगभग दर्जन भर देशों के तक़रीबन बीस हज़ार लोगों को शामिल किया गया था.खास बात यह है कि हमने पिछले साल की तुलना में अपने हरित सूचकांक में उल्लेखनीय रूप से २.१ अंकों की बढ़ोतरी भी की है.इस सर्वे के अनुसार अभी भी ८१ फीसदी भारतीय आवागमन के लिए सार्वजनिक परिवहन प्रणाली का इस्तेमाल कर रहे हैं.यही कारण है कि हमारे देश में दूसरे देशों की तुलना में कम प्रदूषण है.इस सर्वेक्षण में सम्बंधित देश के लोगों की उपभोग आदतों,वस्तुओं,खाद्य पदार्थों और यातायात की आदतों को शामिल किया गया था.भारत के बाद ब्राजील,चीन,मैक्सिको ,अर्जेंटीना,रूस,हंगरी तथा दक्षिण कोरिया का नम्बर है. अमेरिका और ब्रिटेन जैसे दुनिया के तथाकथित ‘दादा’ इस सूची में दूर-दूर तक स्थान नहीं बना पाए.यह बात अलग है कि वे अभी भी पर्यावरण के सबसे बड़े शुभचिंतक बनकर बाकी देशों की खाट खड़ी करते रहेंगे और दुनिया को दिन-प्रतिदिन पहले से ज्यादा गन्दा बनाने में कई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे. तो है न बात अपनी जय-जय करने वाली.अब एक बुरी खबर....यह भी पर्यावरण से ही सम्बंधित है. बोतलबंद पानी का इस्तेमाल करने में हम भारतीय लोग कथित विकसित देशों को टक्कर दे रहे हैं.अब यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि पानी बेचने में इस्तेमाल हो रहीं बोतलें धरती के लिए सबसे घातक साबित हो रही हैं.इन बोतलों को बनाने में दुनिया भर में १५,००,००० टन प्लास्टिक का उपयोग हो रहा है और इस प्लास्टिक से पर्यावरण एवं मानव दोनों को ही नुकसान पहुँच रहा है. यही नहीं बोतल भरने के लिए धरती का सीना चीरकर पानी निकाला जा रहा है. जानकारी के मुताबिक बोतलबंद पानी का ७५ फीसदी हिस्सा भू-जल से ही प्राप्त किया जा रहा है.एशिया में १९९७ से २००४ के बीच बोतलबंद पानी का इस्तेमाल दोगुने से ज्यादा बढ़ गया है जबकि आस्ट्रेलिया जैसे देश इस पानी पर रोक लगा रहे हैं. यदि हम अपनी इस आदत को भी छोड़ दें तो सोचिये धरती माँ कितना आशीष देगी और भविष्य में ‘जल-युद्ध’ की संभावनाएं भी कम हो जाएँगी. तो चलिए आज से ही शुरुआत करते हैं और पानी की बोतल पर १५-२५ रूपए कर्च करने की बजाय घर से ही ठंडा और मीठा पानी लेकर चलने कि आदत डालते हैं.वैसे ये कोई मुश्किल काम भी नहीं है तो हो जाये एक बार फिर भारत कि ‘जय-जय...’
शुक्रवार, 4 जून 2010
चींटी ने खोली ज़माने की पोल
कई बार पुरानी दन्त कथाएं और मुहावरे बहुत कुछ कह जाते हैं.कुछ तो इतने सटीक होते हैं कि मौजूदा समय के बिलकुल अनुरूप लगते हैं और गागर में सागर की तरह साफगोई के साथ हकीकत को बयान कर देते हैं.कुछ ऐसी ही एक कथा मेरे एक मित्र ने मेल पर भेजी है. मुझे लगता है कि यह कथा आप सब को भी उतना ही आंदोलित करेगी जितना मुझे किया है.तो जानिये एक चींटी(Ants) के जरिये आज की हकीकत......
*********
एक छोटी सी चींटी हर दिन दफ्तर में समय से
पहले पहुंच जाती और तुरंत काम शुरू कर देती
थी। अपने काम से वह खुद काफी खुश थी। उसका
आउटपुट काफी ज्यादा था। उसका सर्वोच्च बॉस
, जो एक शेर था, इस बात से चकित रहता था कि
चींटी बिना किसी पर्यवेक्षक के इतना काम
कैसे कर लेती है।
एक दिन उसने सोचा कि चींटी अगर बगैर किसी
पर्यवेक्षक के इतना काम कर रही है तो उसके
ऊपर एक सुपरवाइजर रख दिया जाए तो वह और
ज्यादा काम करेगी। सुपरवाइजर बता सकेगा कि
चींटी का श्रम कहां व्यर्थ जाता है, वह
अपना परफर्मेस और कैसे सुधार सकती है। किस
तरह उसके पोटेंशियल का और बेहतर इस्तेमाल
हो सकता है। इसलिए शेर ने एक तिलचट्टे को
उसका सुपरवाइजर बना दिया।
तिलचट्टे को सुपरवाइजर के काम का काफी
अनुभव था। वह अच्छी रिपोर्ट लिखने और अपने
मातहतों को प्रोत्साहित करने के लिए मशहूर
था। जब उसने जॉइन किया तो पहला निर्णय यह
लिया कि दफ्तर में घड़ी लगाई जाए। समयबद्ध
तरीके से काम करने से आउटपुट बढ़ता है।
अनुशासन किसी भी व्यवस्था की रीढ़ होता
है।
लेकिन यह सब करने और रिपोर्ट तैयार करने के
लिए उसे एक सेक्रेट्री की जरूरत महसूस
हुई। उसने इस काम के लिए एक मकड़े को
नियुक्त कर लिया। वह उसकी क्लिपिंग और
पुरानी फाइलों आदि का हिसाब रखता था और फोन
कॉल (उस समय मोबाइल नहीं थे) आदि देखता था।
तिलचट्टे की रिपोर्ट से शेर बहुत खुश हुआ
और उत्पादन दर बताने के लिए ग्राफ बनाने और
विकास की प्रवृत्तियों के झुकावों आदि का
विश्लेषण करने के लिए कहा ताकि वह खुद भी
बोर्ड मीटिंग में उन आंकड़ों का उपयोग कर
सके। इसके लिए तिलचट्टे को कंप्यूटर और
प्रिंटर की जरूरत हुई। इन सबकी देखभाल
करने के लिए उसने एक मक्खी की नियुक्ति कर
ली।
दूसरी ओर, एक समय खूब काम करने वाली चींटी
इन तमाम नई व्यवस्थाओं से और अक्सर होने
वाली मीटिंगों से परेशान रहने लगी। उसका
ज्यादातर समय इन्हीं सब बातों में गुजर
जाता था। उसे प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार
करने और अपनी उपलब्धियों का ब्यौरा देने
की आदत नहीं थी। उसका आउटपुट घटने लगा।
इन सारी स्थितियों को देखकर शेर इस
निष्कर्ष पर पहुंचा कि चींटी के काम करने
वाले विभाग के लिए एक इंचार्ज बनाए जाने का
समय आ गया है। यह पद एक खरगोश को दे दिया
गया। अब उसे भी कंप्यूटर और सहायक की जरूरत
थी। इन्हें वह अपनी पिछली कंपनी से ले आया।
खरगोश ने काम संभालते ही पहला काम यह किया
कि दफ्तर के लिए एक बढ़िया कालीन और एक
आरामदेह कुर्सी खरीदी। इन पर बैठकर वह काम
और बजट नियंत्रण की अनुकूल रणनीतिक
योजनाएं बनाने लगा।
इन सारी बातों - कवायदों का नतीजा यह हुआ कि
चींटी के विभाग में अब चींटी समेत सभी काम
करने वाले लोग दुखी रहने लगे। लोगों के
चेहरे से हंसी गायब हो गई। हर कोई परेशान
रहने लगा , इस पर खरगोश ने शेर को यह
विश्वास दिलाया कि दफ्तर के माहौल का
अध्ययन कराना बेहद जरूरी है। चींटी के
विभाग को चलाने में होने वाले खर्च पर
विचार करने - कराने के बाद शेर ने पाया कि
काम तो पहले के मुकाबले काफी कम हो गया है।
सारे मामले की तह में जाने और समाधान
सुझाने के लिए शेर ने एक प्रतिष्ठित और
जाने - माने सलाहकार काक को नियुक्त किया।
वह अपनी बात बहुत ही प्रभावी ढंग से रखता
था। काक ने रिपोर्ट तैयार करने में तीन
महीने लगाए और एक भारी भरकम रिपोर्ट तैयार
करके दी। यह रिपोर्ट कई खंडों में थी। इसका
निष्कर्ष था कि विभाग में कर्मचारियों की
संख्या बहुत ज्यादा है।
शेर बेचारा किसे हटाता , बेशक चींटी को ही ,
क्योंकि उसमें काम के प्रति लगन का अभाव
दिख रहा था। और उसकी सोच भी नकारात्मक हो
गई थी।
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एक छोटी सी चींटी हर दिन दफ्तर में समय से
पहले पहुंच जाती और तुरंत काम शुरू कर देती
थी। अपने काम से वह खुद काफी खुश थी। उसका
आउटपुट काफी ज्यादा था। उसका सर्वोच्च बॉस
, जो एक शेर था, इस बात से चकित रहता था कि
चींटी बिना किसी पर्यवेक्षक के इतना काम
कैसे कर लेती है।
एक दिन उसने सोचा कि चींटी अगर बगैर किसी
पर्यवेक्षक के इतना काम कर रही है तो उसके
ऊपर एक सुपरवाइजर रख दिया जाए तो वह और
ज्यादा काम करेगी। सुपरवाइजर बता सकेगा कि
चींटी का श्रम कहां व्यर्थ जाता है, वह
अपना परफर्मेस और कैसे सुधार सकती है। किस
तरह उसके पोटेंशियल का और बेहतर इस्तेमाल
हो सकता है। इसलिए शेर ने एक तिलचट्टे को
उसका सुपरवाइजर बना दिया।
तिलचट्टे को सुपरवाइजर के काम का काफी
अनुभव था। वह अच्छी रिपोर्ट लिखने और अपने
मातहतों को प्रोत्साहित करने के लिए मशहूर
था। जब उसने जॉइन किया तो पहला निर्णय यह
लिया कि दफ्तर में घड़ी लगाई जाए। समयबद्ध
तरीके से काम करने से आउटपुट बढ़ता है।
अनुशासन किसी भी व्यवस्था की रीढ़ होता
है।
लेकिन यह सब करने और रिपोर्ट तैयार करने के
लिए उसे एक सेक्रेट्री की जरूरत महसूस
हुई। उसने इस काम के लिए एक मकड़े को
नियुक्त कर लिया। वह उसकी क्लिपिंग और
पुरानी फाइलों आदि का हिसाब रखता था और फोन
कॉल (उस समय मोबाइल नहीं थे) आदि देखता था।
तिलचट्टे की रिपोर्ट से शेर बहुत खुश हुआ
और उत्पादन दर बताने के लिए ग्राफ बनाने और
विकास की प्रवृत्तियों के झुकावों आदि का
विश्लेषण करने के लिए कहा ताकि वह खुद भी
बोर्ड मीटिंग में उन आंकड़ों का उपयोग कर
सके। इसके लिए तिलचट्टे को कंप्यूटर और
प्रिंटर की जरूरत हुई। इन सबकी देखभाल
करने के लिए उसने एक मक्खी की नियुक्ति कर
ली।
दूसरी ओर, एक समय खूब काम करने वाली चींटी
इन तमाम नई व्यवस्थाओं से और अक्सर होने
वाली मीटिंगों से परेशान रहने लगी। उसका
ज्यादातर समय इन्हीं सब बातों में गुजर
जाता था। उसे प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार
करने और अपनी उपलब्धियों का ब्यौरा देने
की आदत नहीं थी। उसका आउटपुट घटने लगा।
इन सारी स्थितियों को देखकर शेर इस
निष्कर्ष पर पहुंचा कि चींटी के काम करने
वाले विभाग के लिए एक इंचार्ज बनाए जाने का
समय आ गया है। यह पद एक खरगोश को दे दिया
गया। अब उसे भी कंप्यूटर और सहायक की जरूरत
थी। इन्हें वह अपनी पिछली कंपनी से ले आया।
खरगोश ने काम संभालते ही पहला काम यह किया
कि दफ्तर के लिए एक बढ़िया कालीन और एक
आरामदेह कुर्सी खरीदी। इन पर बैठकर वह काम
और बजट नियंत्रण की अनुकूल रणनीतिक
योजनाएं बनाने लगा।
इन सारी बातों - कवायदों का नतीजा यह हुआ कि
चींटी के विभाग में अब चींटी समेत सभी काम
करने वाले लोग दुखी रहने लगे। लोगों के
चेहरे से हंसी गायब हो गई। हर कोई परेशान
रहने लगा , इस पर खरगोश ने शेर को यह
विश्वास दिलाया कि दफ्तर के माहौल का
अध्ययन कराना बेहद जरूरी है। चींटी के
विभाग को चलाने में होने वाले खर्च पर
विचार करने - कराने के बाद शेर ने पाया कि
काम तो पहले के मुकाबले काफी कम हो गया है।
सारे मामले की तह में जाने और समाधान
सुझाने के लिए शेर ने एक प्रतिष्ठित और
जाने - माने सलाहकार काक को नियुक्त किया।
वह अपनी बात बहुत ही प्रभावी ढंग से रखता
था। काक ने रिपोर्ट तैयार करने में तीन
महीने लगाए और एक भारी भरकम रिपोर्ट तैयार
करके दी। यह रिपोर्ट कई खंडों में थी। इसका
निष्कर्ष था कि विभाग में कर्मचारियों की
संख्या बहुत ज्यादा है।
शेर बेचारा किसे हटाता , बेशक चींटी को ही ,
क्योंकि उसमें काम के प्रति लगन का अभाव
दिख रहा था। और उसकी सोच भी नकारात्मक हो
गई थी।
बुधवार, 2 जून 2010
क्या हम " सामूहिक आत्महत्या " की ओर बढ रहे हैं?
एक पुरानी कहानी है कि एक राजा ने अपने राज्य में संगमरमर का तालाब बनवाया और उस तालाब को दूध से भरने का फैसला किया. चूँकि इतना दूध इकठ्ठा करना आसान नहीं था इसलिए राजा ने घोषणा कर दी कि रात में सभी प्रजाजन एक-एक लोटा दूध तालाब में डालेंगे इससे तालाब भी दूध से भर जायेगा और किसी एक व्यक्ति पर बोझ भी नहीं पड़ेगा. राजा की घोषणा के बाद एक व्यक्ति ने सोचा की प्रजा की संख्या १० लाख से ज्यादा है. यदि में दूध के स्थान पर एक लोटा पानी डाल दू तो किसी को पता भी नहीं चलेगा. ऐसा ही विचार अन्य लोगों के मन में आया और भीड़ के मनोविज्ञान के मुताबिक सभी लोगों ने ऐसा ही सोचा और सुबह पूरा तालाब दूध के स्थान पर पानी से भरा नज़र आया. इस कहानी का सार यह है कि हम सब अपने स्वार्थ और फायदे के बारे में तो सोचते हैं पर देश-दुनिया पर उसके परिणाम की चिंता नहीं करते. पर्यावरण(environmnt) और ग्लोबल वार्मिंग (global varming)पर भी हमारा व्यवहार कुछ ऐसा ही है.
हम अपनी सुविधा के लिए कार पर कार खरीदते जा रहे हैं पर उसके नुकसान की चिंता नहीं कर रहे. सिर्फ दिल्ली में ही पचास लाख से ज्यादा निजी वाहन हैं और वे रोज सड़को पर आग बरसा रहे हैं. बढती कारों से तपन बढ रही है फिर भी हम अपने परिवार के हर सदस्य के लिए नई कार खरीदने में पीछे नहीं हैं. यही हाल एसी ,फ्रिज और विलासिता के अन्य सामानों का है.एसी पर्यावरण के लिए कितना हानिकारक है यह किसी से छिपा नहीं है फिर भी एसी बेरोकटोक बिक रहे हैं. यह सामूहिक आत्महत्या नहीं तो क्या है कि हम अपनी ही बर्बादी का इंतजाम ख़ुशी-ख़ुशी कर रहे हैं. हमारी इन आदतों के कारण सूर्य की घातक किरणों से हमारी सुरक्षा करने वाली ओजोन परत में बना छेद २००७ में बढकर २५.०२ मिलियन वर्ग किलोमीटर तक पहुँच गया है जो १९८० में मात्र ३.२७ मिलियन वर्ग मीटर था. जानकारों का मानना है कि यदि ओजोन परत इसीतरह नष्ट होती रही तो २०५४ तक पृथ्वी के आस-पास से ओजोन का कवच ही ख़त्म हो जायेगा और हमे सीधे सूर्य की परावैगनी किरणों का सामना करना पड़ेगा.जिससे जीवन दूभर हो जायेगा. वहीँ केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का कहना है कि भारत के शहरों से प्रतिदिन ३.८० अरब लीटर मैला पानी निकल रहा है इसमें से अधिकतर गन्दिगी गंगा,यमुना और नर्मदा जैसी पवित्र नदियों में मिल रही है.दस -बीस साल बाद कि स्थिति सोचकर ही डर लगता है.
शहरीकरण के चलते देश के गाँव ख़त्म हो रहे हैं और शहर तथा शहरों की गन्दिगी उतनी ही तेज़ी से बढ रही है.१९०१ से २००१ के दौरान शहरों कि संख्या १८२७ से बढकर ५१६१ हो गयी है जबकि गाँव घटकर ६८५६६५ की तुलना में २००१ में ५९३७३१ रह गए हैं. खुद ही सोचिये कहाँ जा रहे हम? अंधाधुंध विकास के कारण आज भी ढाई करोड़ लोगों के पास घर नहीं हैं और हर साल १०० अरब क्यूबिक लीटर पानी की कमी हो रही है. चालीस फीसदी लोगों के पास शौचालय तक नहीं हैं,न सड़क है और न बिजली. यह स्थिति तो आज की है पर भविष्य कितना भयावह होगा इसकी कल्पना से ही डर लगने लगता है. अभी भी वक्त है बिगड़ी हालत को सुधारने का वरना इन सुविधाओं को पाने के लिए हम एक दूसरे को ही मरने-मारने पर उतारू हो जायेंगे और फिर देश का क्या होगा सोचिये.......ज़रा सोचिये.
रविवार, 30 मई 2010
कैसे कैसे रिश्तेदार
देश भर में इन दिनों शादी और छुट्टी का मौसम है इसलिए सभी ओर रिश्तेदारों(relatives) की बहार आई हुई है. शर्माजी भागकर वर्माजी के घर जा रहे हैं तो वर्माजी पहले ही गुप्ताजी के घर जाने के लिए निकल चुके हैं. दरअसल कोई भी अपने घर नहीं रहना चाहता क्योंकि यदि वो खुद कहीं नहीं गया तो उसके घर कोई आ धमकेगा. इस भीषण गरमी के मौसम में कोई भी रिश्तेदार को अपने घर में टिकाने का जोखिम नहीं लेना चाहता. खासकर दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में तो हालत और भी ख़राब हैं. यहाँ लोगों के अपने ही रहने का ठिकाना नहीं है तो फिर मेहमानवाजी कैसे कर सकते हैं पर छुटिओं में छोटे शहरों के रिश्तेदारों को महानगर जाना ही ज्यादा पसंद आता है इसलिए वे इन शहरों में रहने वाले दूर-दराज के रिश्तेदारों को भी खोज निकलते हैं और पूरे दलबल के साथ उनके घर जा धमकते हैं. वह तो उनसे उनके दिल का हाल पूछिए जो भरी गरमी में बूँद-बूँद पानी की कमी और एक एसी के सहारे किस तरह इस रिश्तेदारी की सजा को भुगतते हैं.
सबसे बुरा हाल तो उनका होता है जिन्हें इस मौसम में शादी करनी पड़ती है. शादी करने,कराने और शामिल होने वाले सभी परेशान होते हैं. उत्तर भारत के अधिकतर छोटे शहरों में इन दिनों १५ से १८ घंटे तक बिजली नहीं रहती. ऐसे में शादी करना-कराना खुद सोच लीजिये किसी युद्ध जीतने से कम काम नहीं होता.मुझे भी कुछ इसी तरह की शादियों में जाने का अनुभव हुआ और इसे अनुभव से ज्यादा सजा कहना अधिक उचित होगा. सबसे पहले तो ट्रेनों में ठसाठस भरे लोग ,महीने-दो महीने पहले से ही आरक्षण बंद और जुगाड़ तथा टीसी को मनमाने पैसे देने के बाद भी बमुश्किल बैठ पाने का इंतजाम. स्टेशनों पर शीतल जल के नलों से निकलता उबलता पानी, खाने के नाम पर बासी सब्जी-पूरी और बदबू मारते समोसे ,सीट पर पसीने से तरबतर सहयात्री और हर छोटे-बड़े स्टेशन से चढ़ता लोगों का रेला. इस संघर्ष यात्रा से गुजरकर शादी वाले घर पहुंचे तो वहां ४५ डिग्री तापमान में बिना बिजली के तलती तेल की पुरियां और आलू की रसीली सब्जी से होता स्वागत. भोजन-नास्ते के नाम पर वही वनस्पति घी से तर पकवान और चिर-परिचित पसीना. रिशेप्सन के नाम पर एक-एक पूरी के लिए एक दूसरे पर गिरते लोग, कृत्रिम मेकअप को रसगुल्ले के लिए पसीने में बहाती महिलाएं. बाद में लड़की के पिता की माली हालत का अंदाज़ा लगाकर शादी की रस्मों को छोटा-बड़ा करता पंडित. विदाई के वक्त घडियाली आंसू बहते रिश्तेदार और फिर विदाई में मिले उपहार की मीन-मेख निकलते बाराती. सबकुछ असली पर शादी-दर-शादी किसी फिल्म/धारावाहिक की तरह रिपीट होते द्रश्य .....और फिर आगमन की तरह विदाई की ट्रेन यात्रा, पर घर पहुंचकर सुकून मिलने की इच्छा और पर पानी फेरते रिश्तेदार. यह आपकी भी अर्थात घर-घर की कहानी है ....
सबसे बुरा हाल तो उनका होता है जिन्हें इस मौसम में शादी करनी पड़ती है. शादी करने,कराने और शामिल होने वाले सभी परेशान होते हैं. उत्तर भारत के अधिकतर छोटे शहरों में इन दिनों १५ से १८ घंटे तक बिजली नहीं रहती. ऐसे में शादी करना-कराना खुद सोच लीजिये किसी युद्ध जीतने से कम काम नहीं होता.मुझे भी कुछ इसी तरह की शादियों में जाने का अनुभव हुआ और इसे अनुभव से ज्यादा सजा कहना अधिक उचित होगा. सबसे पहले तो ट्रेनों में ठसाठस भरे लोग ,महीने-दो महीने पहले से ही आरक्षण बंद और जुगाड़ तथा टीसी को मनमाने पैसे देने के बाद भी बमुश्किल बैठ पाने का इंतजाम. स्टेशनों पर शीतल जल के नलों से निकलता उबलता पानी, खाने के नाम पर बासी सब्जी-पूरी और बदबू मारते समोसे ,सीट पर पसीने से तरबतर सहयात्री और हर छोटे-बड़े स्टेशन से चढ़ता लोगों का रेला. इस संघर्ष यात्रा से गुजरकर शादी वाले घर पहुंचे तो वहां ४५ डिग्री तापमान में बिना बिजली के तलती तेल की पुरियां और आलू की रसीली सब्जी से होता स्वागत. भोजन-नास्ते के नाम पर वही वनस्पति घी से तर पकवान और चिर-परिचित पसीना. रिशेप्सन के नाम पर एक-एक पूरी के लिए एक दूसरे पर गिरते लोग, कृत्रिम मेकअप को रसगुल्ले के लिए पसीने में बहाती महिलाएं. बाद में लड़की के पिता की माली हालत का अंदाज़ा लगाकर शादी की रस्मों को छोटा-बड़ा करता पंडित. विदाई के वक्त घडियाली आंसू बहते रिश्तेदार और फिर विदाई में मिले उपहार की मीन-मेख निकलते बाराती. सबकुछ असली पर शादी-दर-शादी किसी फिल्म/धारावाहिक की तरह रिपीट होते द्रश्य .....और फिर आगमन की तरह विदाई की ट्रेन यात्रा, पर घर पहुंचकर सुकून मिलने की इच्छा और पर पानी फेरते रिश्तेदार. यह आपकी भी अर्थात घर-घर की कहानी है ....
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