सोमवार, 28 जून 2010

क्या अमीर दाल-रोटी नहीं खाते..?

एक पुरानी नैतिक कथा है-एक राजा धन का बहुत लालची था(हालाकि अब यह कोई असामान्य बात नहीं है).उसका खजाना सम्पदा से भरा था,फिर भी वह और धन इकट्ठा करना चाहता था.उसने जमकर तपस्या भी की.तपस्या से खुश होकर भगवान प्रकट हुए और उन्होंने पूछा -बोलो क्या वरदान चाहिए? राजा ने कहा -मैं जिस भी चीज़ को हाथ से स्पर्श करूँ वह सोने में बदल जाये. भगवान ने कहा-तथास्तु . बस फिर क्या था राजा की मौज हो गयी. उसने हाथ लगाने मात्र से अपना महल-पलंग,पेड़ -पौधे सभी सोने के बना लिए. मुश्किल तब शुरू हुई जब राजा भोजन करने बैठा. भोजन की थाली में हाथ लगाते ही थाली के साथ-साथ व्यंजन भी सोने के बन गए! पानी का गिलास उठाया तो वह भी सोने का हो गया. राजा घबराकर रानी के पास पहुंचा और उसे छुआ तो रानी भी सोने की हो गयी. इसीतरह राजकुमार को भूलवश गोद में उठा लिया तो वह भी सोने में बदल गया. अब राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने पश्चाताप में स्वयं को ही हाथ लगाकर सोने की मूर्ति में बदल लिया. कहानी का सार यह है कि लालच हमेशा ही घातक होता है और संतोषी व्यक्ति सदैव सुखी रहता है.
लेकिन हाल ही में दो अलग-अलग अध्ययन सामने आये हैं जो "संतोषी सदा सुखी" की चिरकालीन भावना को गलत ठहराते से लगते हैं.एक अध्ययन में बताया गया है कि संपन्न व्यक्ति दाल-रोटी जैसा मूलभूत भोजन नहीं करते इसलिए यदि देश में महंगाई को कम करना है तो सम्पन्नता बढ़ानी होगी क्योंकि जैसे-जैसे अमीरी बढ़ेगी लोग दाल-रोटी-सब्जी खाना कम करते जायेंगे और जब इनकी मांग घट जाएगी तो इनकी कीमतें भी अपने आप कम हो जाएँगी! इस अध्ययन के मुताबिक देश की आर्थिक वृद्धि की रफ्तार जितनी तेज़ होगी अनाज की खपत उतनी ही कम होगी। सुनने में यह अटपटा लगता है लेकिन रिपोर्ट कहती है कि लोगों की मासिक आमदनी जितनी ज्यादा होगी अर्थात उनकी जेब में जितना ज्यादा पैसा होगा वे उतना ही पारंपरिक दाल -रोटी के बजाए फल, मांस जैसे अधिक प्रोटीन वाले दूसरे व्यंजन खाएंगे और उससे खाद्यान्न मांग घटेगी। नेशनल काउंसिल आफ एप्लायड इकोनामिक रिसर्च (एनसीएईआर) के इस शोध मे कहा गया है, आर्थिक वृद्धि दर यदि नौ फीसद सालाना रहती है तो खाद्यान की सकल मांग जो कि 2008-09 में 20.7 करोड़ टन पर थी 2012 तक 21.6 करोड़ टन और 2020 तक 24.1 करोड़ टन तक होगी। यदि आर्थिक वृद्धि 12 फीसद तक पहुंच जाती है तो अनाज की खपत 2020 तक कम होकर 23 करोड़ टन से भी कम रह जाएगी। अगर आर्थिक वृद्धि घटकर 6 फीसद रह जाती है तो 2012 तक खाद्यान्न मांग बढ़कर 22 करोड़ टन और 2020 तक 25 करोड़ टन हो जाएगी। मूल बात यह है कि खाद्यान्न की मांग-आपूर्ति के बीच संतुलन अनुमान से संबंधित इस रिपोर्ट को कृषि मंत्रालय के उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग ने तैयार करवाया है।
दूसरी रिपोर्ट में बताया गया है कि देश में करोड़पतियों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है. इस अध्ययन के मुताबिक अब देश में सवा लाख से ज्यादा करोड़पति हो गए हैं. यह बात अलग है कि संपन्न लोगों की संख्या बढ़ने के बाद भी महंगाई तो जस की तस बनी हुई है-उल्टा दाम घटने की बजाय बढ़ने की ही ख़बरें ज्यादा आ रही हैं. रही दाल-रोटी खाने की बात तो अभी तक मैंने तो अमीरों मसलन अंबानी,टाटा,मित्तल या फिर फ़िल्मी दुनिया के बड़े सितारों (जिनकी फीस ही प्रति फिल्म करोड़ों में है)जैसे शाहरुख़ खान,आमिर खान,अमिताभ बच्चन,एश्वर्या राय,काजोल इत्यादि के जितने भी साक्षात्कार(interview)पढ़े हैं उनमें इन सभी ने अपनी दैनिक खुराक में दाल-रोटी का जिक्र अवश्य किया है.फ़िल्मी दुनिया में सबसे कमनीय काया की मालकिन शिल्पा शेट्टी भी भोजन में दाल-रोटी के महत्त्व को खुलकर स्वीकार करती हैं अपनी आय बढ़ाना तो अच्छी बात है लेकिन यह बात कहाँ से आ गयी कि अमीर लोग दाल-रोटी नहीं खाते या सम्पन्नता बढ़ने से दाल-रोटी की मांग घट जाएगी? यहाँ तक कि डॉक्टर भी अपने अमीर-गरीब मरीजों को दाल-रोटी,दलिया या खिचड़ी खाने की सलाह देते हैं.इस तरह के सर्वे की मंशा कहीं आम लोगों को उनके पारंपरिक भोजन से दूर करने की तो नहीं है? या यह महंगाई घटाने का कोई नया नुस्खा है? आप क्या सोचते हैं..?

सोमवार, 21 जून 2010

बच्चे ही रहें बाप के 'बाप' तो न बने..

शुरुआत हमेशा की तरह किसी पुरानी कहानी से:एक किसान का संपन्न और खुशहाल परिवार था.चार बेटे थे ,पिता के रहते उन्हें धन-दौलत और घर परिवार की कोई फ़िक्र नहीं थी. जब किसान बूढ़ा और बीमार हुआ तो उसने बेटों को बुलाकर कहा कि अब सारी ज़िम्मेदारी तुम लोग संभालो और मुझे आराम करने दो. मरते वक्त किसान ने बेटों को दो सलाह दी कि -खेतों में छाँव -छाँव जाना और छाँव-छाँव ही लौटना.इसीतरह अपने खेत सोना उगलते हैं इसलिए उनका ध्यान रखना. बेटों ने पिता की राय गांठ बांध ली. उन्होंने खेत तक छाँव में जाने के लिए घर से लेकर खेत तक पूरे रास्ते में शामियाना लगवा दिया. वहीँ खेतों में चारों और दीवार खड़ी करवा कर सुरक्षा कर्मी तैनात करवा दिए ताकि खेतों को कोई नुकसान न पहुंचा सके.यही नहीं खेतों में फसल उगाना भी बंद कर दिया जिससे खेतों का सोना कोई निकाल ले. इतने खर्च के बाद वे चैन से जमा-पूंजी खाने लगे. कुछ दिन में सारा पैसा ख़त्म हो गया तो उन्होंने खेतों से सोना निकलने की योजना बनाई परन्तु पूरे खेत खोदने पर भी सोना नहीं निकला.बेटों को लगा कि पिता ने उनसे झूठ बोला था. परेशान होकर वे पिता की शिकायत करने किसान(पिता) के एक बुजुर्ग मित्र के पास पहुंचे. सारी बात सुनकर बुजुर्ग ने कहा तुम सब मूर्ख हो? पिता की बातों का शाब्दिक अर्थ भर निकाल पाए पर उनमें छिपा निहितार्थ नहीं समझ पाए. छाँव-छाँव जाने से तुम्हारे पिता का आशय सूर्योदय के पहले जाने और सूर्यास्त के बाद लौटने से था.इसीतरह खेत सोना उगलते हैं इसका मतलब भरपूर फसल देते हैं और उनका ख्याल रखने का मतलब नियमित खाद-पानी देने एवं समय पर फसल लेने से था.तब जाकर बेटों को अपनी गलती का अहसास हुआ. इस कहानी का आशय यह है कि पिता बातों-बातों में जीवन का रहस्य समझा देते हैं बस हममें उसे समझ पाने की समझ होनी चाहिए.
लेकिन आज का दौर तो बेटों के "बाप" बनने का दौर है. उनके लिए पिता की सीख का मतलब गुजरे ज़माने की बातें और बे-फिजूल का भाषण भर हैं. वे यह नहीं समझ पाते कि पिता की नसीहत उनके जीवन भर के अनुभवों का निचोड़ हैं.पिता ने ज़माना देखा है,उम्र के कई दशकों के सफ़र में अच्छाइयों और बुराइयों को परखा है तब जाकर अनुभव की यह थाती मिली है. सभी पिताओं का यह प्रयास रहता है कि जो कठिनाइयाँ उन्होंने झेली हैं या जिन परिस्थितियों का सामना उन्हें करना पड़ा है उनके बच्चों को उन सब से बचा लें. माँ तो खुलकर अपनी भावनाओं का इज़हार कर देती है-हंसकर और कई बार रोकर बच्चे को अपने प्यार से रूबरू करा देती है लेकिन पिताजी ऐसा नहीं कर पाते. उन्हें तो हमेशा अनुशासन और मर्यादा के दायरे में रहना पड़ता है तभी तो बच्चे प्यार व डांट के मिले-जुले भावों के बीच बड़े होते हैं लेकिन बच्चे समझते हैं पिताजी हमेशा डांटते भर हैं और अपनी मनमानी करते हैं इसलिए ज़रा से बड़े होते ही बच्चे अपनी मनमानी पर उतर आते हैं. उन्हें पिता की अवहेलना करना सुकून देता है पर पिता को तकलीफ! बच्चे अपने पिता के व्यवहार की हकीक़त तब समझ पाते हैं जब वे स्वयं पिता बनकर अपने पिता की उम्र तक पहुँचते हैं लेकिन तब तक पिता ही जिंदा नहीं होते इसलिए उन्हें अपनी गलती मानने का मौका ही नहीं मिल पाता. बस इसीतरह पिता-पुत्र(बच्चों) का यह चक्र चलता रहता है और वे एक-दूसरे को अपनी भावनाएं समझाए बिना इस दुनिया से रुखसत होते रहते हैं!
वह तो भला हो फादर्स डे जैसे सालाना आयोजनों और इस दिन का व्यापारीकरण करने वालों का क्योंकि उनकी बदौलत कम से कम एक दिन ही सही हमें अपनी भावनाओं को इज़हार करने का मौका मिलने लगा है. ग्रीटिंग कार्ड बनाने वाली कम्पनियां बढ़िया और अर्थपूर्ण संदेशों के द्वारा मन की बात बताने की आज़ादी देने लगी हैं वरना पिता-पुत्र के संबंधों का सूखापन यूँही जारी रहता. बच्चे अपने पिता को नहीं समझ पाने के कारण उनके बाप बनते रहते और बाप अपनी बात नहीं समझा पाने के कारण उम्र के आखिरी पड़ाव में भी अपमान का घूँट पीते रहते. अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है? यदि आपके सर पर पिता का साया है तो समझिये आप दुनिया के सबसे बेफिक्र आदमी हैं...बस पिता को पिता समझकर सम्मान देते रहिये और मौज करिए क्योंकि जब तक पिताजी साथ हैं दुनिया की कोई ताक़त आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती .दरअसल जो भी परेशानी आएगी उसे आपके पिताजी हँसते-हँसते झेल जायेंगे और आपको पता भी नहीं चलेगा. तो आइये पिताजी/पापा/डैडी/बाबूजी/बाबा/अब्बा/फादर ...(या जिस भी संबोधन से आप उन्हें पुकारते हों) को दिल से भरपूर सम्मान दें ताकि हमें बाद में पछतावा न हो!

पिता के बारे में किसी ने ठीक ही लिखा है-
"एक मिटटी की इमारत,एक मिटटी का मकाँ
खून का गारा बना और ईंट जिसमे हड्डियाँ
दिक्कतों की पुरजोर आंधी जब इससे टकराएगी
देख लेना यह इमारत तब भी बुलंद नज़र आएगी"
(कविता में छेड़छाड़ के लिए मूल कवि से क्षमा याचना सहित)

गुरुवार, 17 जून 2010

हमारी बेटिओं को ‘सेनेटरी नेपकिन’ नहीं, स्कूल-अस्पताल चाहिए

एक मशहूर चुटकुला है:एक बार एक व्यक्ति कपड़े की दुकान पर पहुंचा और बढ़िया सी टाई दिखाने को कहा.दुकानदार ने कई टाईयां दिखाई.ग्राहक को एक टाई पसंद आ गई.कीमत पूछने पर दुकानदार ने कहा-५४० रूपए,तो वह व्यक्ति बोला क्या बात करते हो इतने में तो बढ़िया जूते आ जाते हैं?तो दुकानदार बोला-पर आप जूते तो गले में नहीं लटका सकते न! इस चुटकुले का सार यही है कि जिस चीज़ की ज़रूरत हो उसको खरीदना चाहिए न हर-कुछ. अब हमारी सरकार को ही देख लीजिए उसे आज़ादी के ६० साल बाद भी नहीं पता कि आम जनता को किस चीज़ की दरकार है इसलिए वह ऊल-ज़लूल योजनाए बनाकर करदाताओं के गाढ़े पसीने की कमी को फ़िजूल में उड़ाती रहती है.सरकार की नासमझी का नया उदाहारण देश के गाँवों की बेटियों को सेनेटरी नेपकिन बाँटना है. सरकार ने किशोर लड़कियों में मासिक धर्म संबंधी स्वास्थ्य को बढावा देने के लिए 150 करोड़ रुपए की योजना को मंजूरी दी है ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में किशोर लड़कियों के लिए उच्च स्तर के सेनेटरी नेपकिनों की उपलब्धता आसान की जा सके. योजना के अनुसार छ: सेनेटरी नेपकिनों का एक पैकेट गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) की लड़कियों को एक रुपया प्रति पैकेट मिलेगा. गरीबी रेखा से ऊपर (एपीएल) वर्ग की लड़कियों को सेनेटरी नेपकिन पांच रुपया प्रति पैकेट के हिसाब से मिलेंगे। यह योजना विभिन्न चरणों में चलाई जाएगी। पहले चरण में देश के 150 जिलों या 1500 विकास खंडों को लिया जाएगा और ग्रामीण क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। प्रस्ताव में 10-19 वर्ष की आयु समूह की 1.5 करोड़ लड़कियों तक पहुंचने का लक्ष्य रखा गया है। इन 1.5 करोड़ लड़कियों में से गरीबी रेखा से ऊपर की लड़कियां लगभग 70 प्रतिशत और बीपीएल समूह की लड़कियां 30 प्रतिशत होंगी.इस योजना का उद्देश्य किशोरियों में मासिक धर्म संबंधी स्वास्थ्य के बारे में जानकारी बढ़ाना है। योजना का एक पहलू यह भी है कि ये नेपकिन गांव में रविवार को बकायदा बैठक बुलाकर बांटे जायेंगे.
योजना के बारे में जानकर तो यही लगता है कि दिल्ली में बैठे सरकारी अफ़सर टीवी चैनलों पर इन दिनों धुँआधार तरीके से आ रहे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सेनेटरी नेपकिन के विज्ञापनों के प्रभाव में हैं या किसी कंपनी ने अपना उत्पाद खपाने के लिए यह आइडिया दिया होगा वरना जिस देश में आम जनता महंगाई से जूझ रही है,लोगों को खाने के लाले पड़ रहे हैं, अस्पतालों से ज्यादा बीमार हैं और बच्चों की संख्या से बहुत कम स्कूल....लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट है,नक्सलवाद और आतंकवाद सिरदर्द बने है,बेरोज़गारी बढती जा रही है.गांव में बच्चे कुपोषित है,बेटियां कोख में ही दम तोड़ देती हैं वहाँ की सरकार की प्राथमिकता कभी भी सेनेटरी नेपकिन नहीं हो सकती! भोपाल के गैस पीड़ित २५ साल बाद भी पैसे के अभाव में तिल-तिलकर मर रहे हैं,बुन्देलखंड पानी की बूंद-बूंद को तरस रहा है,विदर्भ में किसानों की आत्महत्या की आग देश भर में फ़ैल रही है और सरकार को बेटियों की माहवारी की चिंता है. दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों को छोड़ दें तो देश के अधिकतर राज्यों में मासिक धर्म को एक अपराध की तरह समझा जाता है और वहाँ ये तीन से पांच दिन महिलाओं के लिए किसी सज़ा से कम नहीं होते.इस दौरान महिलाओं को अपवित्र तक समझा जाता है,क्या ऐसे वातावरण में गांव की बेटियां सार्वजनिक बैठक में सेनेटरी पैड ले सकती हैं? क्या उनके घरवाले ऐसी बैठक में जाने देंगे? क्या मासिक धर्म सार्वजनिक जानकारी का विषय बनाना महिलाओं का अपमान नहीं है?
अच्छा तो यह होता कि सरकार पैड की बजाय बेटियों को शिक्षित बनाने के लिए बजट और बढ़ा देती क्योंकि बच्चियां पढ़-लिख जाएँगी तो अपने स्वास्थ्य का ध्यान वे खुद ही बेहतर ढंग से रख पाएंगी और अशिक्षित रहेंगी तो पैड मिलने के बाद भी उसका उपयोग नहीं कर पाएंगी. क्या आप मेरी बात से सहमत हैं तो कलम(अब कम्पूटर पर उँगलियाँ)चलाइए....?

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...