संदेश

कैसा हो यदि सुरीला हो जाए वाहनों का कर्कस हार्न...!!!

चित्र
कल्पना कीजिये यदि सड़क पर आपको पीछे आ रही कार से कर्कस और कानफोडू हार्न के स्थान पर गिटार की मधुर धुन सुनाई दे तो कैसा लगेगा? ट्रैफिक जाम को लेकर आपका गुस्सा शायद काफूर हो जाएगा और आप भी उस मधुर धुन का आनंद उठाने लगेंगे. इसीतरह आपकी कार या सड़कों को रौंद रहे तमाम वाहन भी यदि दिल में डर पैदा कर देने वाले विविध प्रकार के हार्न के स्थान पर संतूर, हारमोनियम या फिर बांसुरी की सुरीली तान छेड़ दें तो सड़कों का माहौल ही बदल जाएगा और फिर शायद सड़कों पर आए दिन लगने वाला जाम हमें परेशान करने की बजाए सुकून का अहसास कराएगा.   पता नहीं हमारे वाहन निर्माताओं ने अभी तक भारतीय सड़कों को सुरीला बनाने के बारे में क्यों नहीं सोचा? जब हम मोबाइल फोन में अपनी पसंद के मुताबिक संगीत का उपयोग कर स्वयं के साथ-साथ हमें फोन करने वालों को भी मनभावन धुन सुनाने का प्रयास करते हैं तो ऐसा कार या अन्य वाहनों में क्यों नहीं हो सकता. धुन न सही तो लता जी, मुकेश, किशोर दा, भूपेन हजारिका से लेकर पंडित भीमसेन जोशी या गुलाम अली जैसी महान हस्तियों का कोई मुखड़ा, कोई अलाप या कोई अंतरा ही उपयोग में लाया जा सकता है. इसस...

अब अख़बारों में संपादक का नाम....ढूंढते रह जाओगे..!!

चित्र
देश के तमाम समाचार पत्रों में संपादक नाम की सत्ता की ताक़त तो लगभग दशक भर पहले ही छिन गयी थी. अब तो संपादक के नाम का स्थान भी दिन-प्रतिदिन सिकुड़ता जा रहा है. इन दिनों अधिकतर समाचार पत्रों में संपादक का नाम तलाशना किसी प्रतियोगिता में हिस्सा लेने या वर्ग पहेली को हल करने जैसा दुष्कर हो गया है. नामी-गिरामी और सालों से प्रकाशित हो रहे समाचार पत्रों से लेकर ख़बरों की दुनिया में ताजा-तरीन उतरे अख़बारों तक का यही हाल है. अख़बारों में आर्थिक नजरिये से देखें तो संपादकों के वेतन-भत्ते और सुविधाएँ तो कई गुना तक बढ़ गयी हैं लेकिन बढते पैसे के साथ   ‘पद और कद’ दोनों का क्षरण होता जा रहा है. एक दौर था जब अखबार केवल और केवल संपादक के नाम से बिकते थे.संपादकों की प्रतिष्ठा ऐसी थी कि अखबार पर पैसे खर्च करने वाले सेठ की बजाए संपादकों की तूती बोलती थी. माखनलाल चतुर्वेदी,बाल गंगाधर तिलक,मदन मोहन मालवीय,फिरोजशाह मेहता और उनके जैसे तमाम संपादक जिस भी अखबार में रहे हैं उस अखबार को अपना नाम दे देते थे और फिर पाठक अखबार नहीं बल्कि संपादक की प्रतिष्ठा,समझ और विश्वसनीयता को खरीदता था. उसे पता होता था कि इन ...

गजानन, अब के बरस तुम मत आना.....!

चित्र
      हे गजानन,रिद्धि-सिद्धि और बुद्धि के दाता गणेश आप अगले साल मत आना, भले ही आपके भक्त ‘गणपति बप्पा मोरिया अगले बरस तू जल्दी आ’ जैसे कितने भी जयकारे लगाते रहे. चाहे वे आपको मोदक का कितना भी लालच दें लेकिन आप उनके बहकावे में मत आना. ऐसा नहीं है कि आपके आने से मुझे कोई ख़ुशी नहीं है या फिर मुझे आपकी कृपा की लालसा नहीं है. धन-संपत्ति और प्रसिद्धि भला किसे बुरी लगती हैं लेकिन मैं अपने स्वार्थ के लिए अपनी माँ को कष्ट में नहीं देख सकता. आपको खुश करने के चक्कर में आपके कथित भक्त तमाम विधि-विधान को भूलकर अंध श्रद्धा का ऐसा दिखावा करते हैं कि मेरी माँ तो माँ उनकी सभी छोटी-बड़ी बहनों का सीना छलनी हो जाता है और वे महीनों बाद भी दर्द से कराहती रहती हैं.      अब तो प्रभु आप भी समझ गए होंगे कि मुझे आप और आपकी आराधना से नहीं बल्कि आपकी वंदना के नाम पर होने वाले दिखावे पर आपत्ति है. मुझे आपकी कई फुट ऊँची रसायनिक रंगों से सजी-संवरी प्लास्टर ऑफ़ पेरिस की मूर्तियों और उनके नदियों में विसर्जन से शिकायत है. प्लास्टर ऑफ़ पेरिस में जिप्सम, फास्फोरस,सल्फर और मैग...

सिन्धुरक्षक का सच:बस या कार डूबने की तरह नहीं होता पनडुब्बी का डूबना

चित्र
क्या हमारे देश में इतनी भी क्षमता नहीं है कि हम समंदर में डूबते किसी जहाज़ या पनडुब्बी को खींचकर बाहर निकाल सकें? या उसे फटाफट काटकर उसमें फँसे लोगों को सुरक्षित बचा सकें? इसीतरह के अनेक सवाल मेरी तरह स्वाभाविक रूप से कई लोगों के दिमाग में आए होंगे जब उन्होंने टीवी न्यूज़ चैनलों और समाचार पत्रों में भारतीय नौसेना की पनडुब्बी आईएनएस सिन्धुरक्षक को धमाकों के बाद मुंबई के समुद्री तट पर डूबते देखा होगा. दरअसल हकीकत में यह हादसा इतना सहज नहीं था जितना देखने में लगता है. तकनीकी जानकारी के अभाव और पनडुब्बी की बनावट एवं कार्यप्रणाली की पूरी तरह से समझ नहीं होने के कारण हम इसे भी कार-बस के नदी में डूबने जैसी सामान्य दुर्घटना की तरह ही समझ रहे हैं जबकि वास्तविकता यह है कि समन्दर में डूब रहे जहाज़ या पनडुब्बी को बिना किसी क्षति के बचा पाने का हुनर और क्षमता तो अभी ढंग से इनके निर्माता देशों के पास भी नहीं है. इसके अलावा यह बचाव अभियान इतना खर्चीला होता है कि किसी भी देश के लिए इस खर्च को बर्दाश्त कर पाना आसान नहीं है.        यदि हम सिन्धुरक्षक मामले की बात करे त...

क्या प्याज इतनी जरुरी है हमारे जीवन के लिए.....?

चित्र
क्या प्याज इतनी ज़रुरी है कि वह हमारे दैनिक जीवन पर असर डाल सकती है ? प्याज के बिना हम हफ्ते भर भी गुजारा नहीं कर सकते ? तो फिर प्याज के लिए इतनी हाय-तौबा क्यों ? और यदि एसा है तो फिर व्रत/उपवास/रोज़ा/फास्ट या आत्मसंयम का दिखावा क्यों ? कहीं हमारी यह प्याज-लोलुपता ही तो इसके दामों को आसमान पर नहीं ले जा रही ? मेरी समझ में मुंह को बदबूदार बनाने वाली प्याज न तो जीवन के लिए अत्यावश्यक ऊर्जा है , न हवा है , न पानी है और न ही भगवान/खुदा/गाड है कि इसके बिना हमारा काम ही न चले. क्या कोई भी सब्ज़ी इतनी अपरिहार्य हो सकती है कि वह हमें ही खाने लगे और हम रोते-पीटते उसके शिकार बनते रहे ? यदि ऐसा नहीं है तो फिर कुछ दिन के लिए हम प्याज का बहिष्कार क्यों नहीं कर देते ? अपने आप जमाखोरों/कालाबाजारियों के होश ठिकाने आ जायेंगे और इसके साथ ही प्याज की कीमतें भी. बस हमें ज़रा सा साहस दिखाना होगा और वैसे भी प्याज जैसी छोटी-मोटी वस्तुओं के दाम पर नियंत्रण के लिए सरकार का मुंह ताकना कहाँ की समझदारी है. अगर आप ध्यान से देखें तो देश में प्याज के दाम बढ़ने के साथ ही तमाम राष्ट्रीय मुद्दे पीछे छूटने लगे ...

यह प्यार है या फिर क्षणिक वासना का आवेग...!

चित्र
ये कैसा प्यार है जो अपने सबसे आत्मीय व्यक्ति पर कुल्हाड़ी चलाने का दुस्साहस करने दे ? या दुनिया में सबसे प्रिय लगने वाले चेहरे को ही तेज़ाब से विकृत बना दे या फिर जरा सा मनमुटाव होने पर गोली मारकर अपने प्रेमी की जान ले लेने की हिम्मत दे दे ? यह प्यार हो ही नहीं सकता.यह तो प्यार के नाम पर छलावा है , दैहिक आकर्षण है या फिर मृग-मरीचिका है. प्यार तो सब-कुछ देने का नाम है , सर्वत्र न्यौछावर कर देने   और हँसते हँसते अपना सब कुछ लुटा देने का नाम है.प्यार बलिदान है , अपने प्रेमी पर खुशी-खुशी कुर्बान हो जाना है और खुद फ़ना होकर प्रेमी की झोली को खुशियों से भर देने का नाम है. यह कैसा प्यार है जो साल दो साल साथ रहकर भी एक-दूसरे पर विश्वास नहीं जमने देता. प्यार तो पहली मुलाक़ात में एक दूसरे को अपने रंग में रंग देता है और फिर कुछ पाने नहीं बल्कि खोने और अपने प्रेमी पर तन-मन-धन लुटा देने की चाहत बढ़ जाती है.प्यार के रंग में रंगे के बाद प्रेमी की खुशी से बढ़कर कुछ नहीं रह जाता. मजनूं ने तो लैला पर कभी चाकू-छुरी नहीं चलाई ? न ही कभी तेज़ाब फेंका ? उलटे जब मजनूं से जमाना रुसवा हुआ तो लैला ढाल...

हे भगवान,यह क्या सिखा रही है मेट्रो ट्रेन हमें...?

चित्र
दिल्ली की जीवन रेखा बन चुकी नए जमाने की मेट्रो ट्रेन में चढ़ते ही एक सन्देश सुनाई देता है इस सन्देश में यात्रियों को सलाह दी जाती है कि “ किसी भी अनजान व्यक्ति से दोस्ती न करे ” . जब जब भी मैं यह लाइन सुनता हूँ मेरे दिमाग में यही एक ख्याल आता है कि  क्या नए जमाने की मेट्रो ट्रेन हमें दोस्ती का दायरा सीमित रखने का ज्ञान दे रही है? सीधी और सामान्य समझ तो यही कहती है कि यदि हम अपने साथ यात्रा करने वाले सह यात्रियों या अनजान लोगों से जान-पहचान नहीं बढ़ाएंगे तो फिर परिचय का दायरा कैसे बढ़ेगा और जब परिचय का विस्तार नहीं होगा तो दोस्ती होने का तो सवाल ही नहीं है. तो क्या हमें कूप-मंडूक होकर रह जाना चाहिए? या जितने भी दो-चार दोस्त हैं अपनी दुनिया उन्हीं के इर्द-गिर्द समेट लेनी चाहिए. वैसे भी आभाषी (वर्चुअल) रिश्तों के मौजूदा दौर में मेट्रो क्या, किसी से भी यही अपेक्षा की जा सकती है कि वह आपको यही सलाह दे कि आप कम से कम लोगों से भावनात्मक सम्बन्ध बनाओ और आभाषी दुनिया में अधिक से अधिक समय बिताओ.इससे भले ही घर-परिवार टूट रहे हों परन्तु वेबसाइटों.इंटरनेट और इनके सहारे धंधा करने वालों की त...