हे भगवान,यह क्या सिखा रही है मेट्रो ट्रेन हमें...?
दिल्ली की जीवन रेखा बन चुकी नए जमाने
की मेट्रो ट्रेन में चढ़ते ही एक सन्देश सुनाई देता है इस सन्देश में यात्रियों को
सलाह दी जाती है कि “ किसी भी अनजान व्यक्ति से दोस्ती न करे”. जब जब भी मैं यह लाइन सुनता हूँ
मेरे दिमाग में यही एक ख्याल आता है कि
क्या नए जमाने की मेट्रो ट्रेन हमें दोस्ती का दायरा सीमित रखने का ज्ञान
दे रही है? सीधी और सामान्य समझ तो यही कहती है कि यदि हम अपने साथ यात्रा करने
वाले सह यात्रियों या अनजान लोगों से जान-पहचान नहीं बढ़ाएंगे तो फिर परिचय का
दायरा कैसे बढ़ेगा और जब परिचय का विस्तार नहीं होगा तो दोस्ती होने का तो सवाल ही
नहीं है. तो क्या हमें कूप-मंडूक होकर रह जाना चाहिए? या जितने भी दो-चार दोस्त
हैं अपनी दुनिया उन्हीं के इर्द-गिर्द समेट लेनी चाहिए. वैसे भी आभाषी (वर्चुअल)
रिश्तों के मौजूदा दौर में मेट्रो क्या, किसी से भी यही अपेक्षा की जा सकती है कि
वह आपको यही सलाह दे कि आप कम से कम लोगों से भावनात्मक सम्बन्ध बनाओ और आभाषी
दुनिया में अधिक से अधिक समय बिताओ.इससे भले ही घर-परिवार टूट रहे हों परन्तु
वेबसाइटों.इंटरनेट और इनके सहारे धंधा करने वालों की तो मौज है.
अभी तक रेलवे द्वारा संचालित ट्रेनों में और स्टेशनों पर यह जरुर
सुनने/पढने को मिलता था कि किसी अनजान व्यक्ति के हाथ से कुछ न खाए.यहाँ तक तो बात
फिर भी समझ में आती है कि जिसे आप जानते नहीं है उसके हाथ से कुछ भी खाना-पीना व्यक्तिगत
सुरक्षा के लिहाज से उचित नहीं है. ट्रेनों में ज़हरखुरानी या नशीले पदार्थ खिलाकर
आम यात्रियों को लूटने की बढ़ती घटनाएं रेलवे की इस नसीहत को उचित भी ठहराती हैं
लेकिन किसी से मिले नहीं,मेल-जोल न बढ़ाएं और दोस्ती ही न करें. भला यह कैसी बात
हुई? यह तो भारतीय
संस्कृति की भावनाओं के खिलाफ उल्टी गंगा बहाने वाली बात हुई. कहाँ तो हमारी
संस्कृति मिल-जुलकर रहने,भाईचारे और पंचशील के सिद्धांत की बात करती है,वहीं नए
ज़माने की मेट्रो ट्रेन हमें अपने ही लोगों से दूर जाने का पाठ पढ़ा रही है.वैसे दिल्ली
मेट्रो कई उलटबांसियों का शिकार है.मसलन मेट्रो में चढ़ते ही सन्देश गूंजने लगता है
कि “कृपया बुजुर्गों,विकलांगों और महिलाओं को सीट दें”,लेकिन उस समय सीट पर बैठकर मोबाइल
के दीन दुनिया से परे खिलवाड़ में डूबे लोग आँख बन्द कर सोने का बहाना करके या फिर
कानों में ईयर प्लग ठूंसकर इसे आमतौर पर अनसुना करते रहते हैं. इसीतरह एक अन्य
सन्देश में आगाह किया जाता है कि “ मेट्रो ट्रेन में खाना-पीना वर्जित है”,परन्तु लोग इस निर्देश को ताक पर रखकर पूरी ठसक के
साथ चिप्स,बर्गर और पता नहीं क्या क्या अपने पेट में उतारते रहते हैं. इस मामले में
सबसे आगे हमारी नई पीढ़ी और विज्ञापनों की भाषा में ‘जनरेशन एक्स’ है. इस पीढ़ी ने
तो मानो सारे निर्देशों,सलाह और सुझावों
को रद्दी की टोकरी में डालने का फैसला कर रखा है तभी तो मेट्रो की बार-बार समझाइश
के बाद भी वे ट्रेन के फर्श पर बैठकर मनमानी करते हैं,मेट्रो में प्रतिबन्ध के बाद
भी जमकर एक दूसरे के फोटो खींचते हैं,वीडियो बनाते हैं ,जोर से गाना सुनते-सुनाते
हैं भले ही आस-पास के लोग परेशान हो जाएँ और अब तो उनके कुछ कारनामे न्यूज़ चैनलों
और अश्लील वेबसाइटों तक पर सुर्ख़ियों में हैं.ऐसे में दोस्ती,रिश्ते-नातों और
भावनाओं की क्या अहमियत रह जाती है? शायद मेट्रो भी यही कहना चाहती है कि बस अपना
उल्लू सीधा करो और सामुदायिक को दरकिनार कर आगे बढते रहो.
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