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क्या हम कुछ दिन प्याज खाना बंद नहीं कर सकते..?

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क्या प्याज इतना ज़रुरी है कि वह हमारे दैनिक जीवन पर असर डाल सकता है? प्याज के बिना हम हफ्ते भर भी काम नहीं चला सकते? यदि हाँ तो फिर प्याज के लिए इतनी हाय-तौबा क्यों?और यदि नहीं तो फिर व्रत/उपवास/रोज़ा/फास्ट या आत्मसंयम का दिखावा क्यों? कहीं हमारी यह प्याज-लोलुपता ही तो इसके दामों को आसमान पर नहीं ले जा रही? मेरी समझ में प्याज न तो ऑक्सीजन है,न हवा है, न पानी है और न ही भगवान/खुदा/गाड है कि इसके बिना हमारा काम न चले. क्या कोई भी सब्ज़ी इतनी अपरिहार्य हो सकती है कि वह हमें ही खाने लगे और हम रोते-पीटते उसके शिकार बनते रहे? यदि ऐसा नहीं है तो फिर कुछ दिन के लिए हम प्याज का बहिष्कार क्यों नहीं कर देते? अपने आप जमाखोरों/कालाबाजारियों के होश ठिकाने आ जायेंगे और इसके साथ ही प्याज की कीमतें भी. बस हमें ज़रा सा साहस दिखाना होगा और वैसे भी प्याज जैसी छोटी-मोटी वस्तुओं के दाम पर नियंत्रण के लिए सरकार का मुंह ताकना कहाँ की समझदारी है. अगर आप ध्यान से देखें तो देश में प्याज के दाम बढ़ने के साथ ही तमाम राष्ट्रीय मुद्दे पीछे छूटने लगे हैं. भ्रष्टाचार के दाग फीके पड़ने लगे हैं और टू-जी स्पेक्ट्रम क...

आओ सब मिलकर कहें कार्ला ब्रूनी हाय-हाय

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फ़्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी की माडल पत्नी कार्ला ब्रूनी अपने कार्यों से ज्यादा अपनी अदाओं और कारगुजारियों के लिए सुर्ख़ियों में रहती हैं.कभी अपने कपड़ों को लेकर तो कभी नग्न पेंटिंग के लिए ख़बरों में रही कार्ला ने अपने एक बयान से भारत सरकार और कई स्वयंसेवी संगठनों की सालों की मेहनत पर पानी फेर दिया है.कार्ला ने आगरा के पास स्थित फतेहपुर सीकरी में एक मशहूर दरगाह पर अपने लिए बेटे की मन्नत मांगी.अपने लिए दुआ करना या कोई ख्वाहिश रखने में कोई बुरे नहीं है पर उस इच्छा को सार्वजनिक करना भी उचित नहीं ठहराया जा सकता.हमारा देश सदियों से “पुत्र-मोह” का शिकार है और इसका खामियाजा जन्मी-अजन्मी बेटियां सालों से भुगत रही हैं.कभी दूध में डुबोकर तो कभी अफीम चटाकर उनकी जान ली जाती है.अब तो आधुनिक चिकित्सा खोजों ने बेटियों को मारना और भी आसान बना दिया है.अब तो कोख में ही बेटियों की समाधि बना देना आम बात हो गयी है. सरकार के और सरकार से ज्यादा स्वयंसेवी संगठनों के अनथक प्रयासों के फलस्वरूप बेटियों को समाज में सम्मान जनक स्थान मिलने की सम्भावना नज़र आने लगी थी.पुत्र-मोह की बेड़ियाँ टूटने लगी थीं और बेटियां...

सोलह साल में आत्महत्या या फिर ऑनर किलिंग

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    जन्म:1994                                                                                                           मौत:2010 मृत्यु का कारण: परिवार वालों के मुताबिक ऑनर किलिंग अर्थात दबंगों ने असमय गला घोंट कर मार डाला. वहीँ दूसरे पक्ष का कहना है कि बढ़ती आवारागर्दी और लापरवाही ने जान ले ली.               सोलह साल की उम्र बड़ी कमसिन होती है.इस उम्र में जवानी और रवानगी आती है,सुनहरे सपने ...

आस्था पर प्रेम के प्रदर्शन से नहीं बच पाया मीडिया

जब बात आस्था से जुडी हो तो निष्पक्षता की उम्मीद बेमानी है. मीडिया और उससे जुड़े पत्रकार भी इससे अलग नहीं हैं. यह बात अयोध्या मामलें पर आये अदालती फैसले के बाद एक बार फिर साबित हो गयी है.इस विषय के विवेचन की बजाय मैं हिंदी और अंग्रेजी के अख़बारों द्वारा इस मामले में फैसे पर दिए गए शीकों (हेडिंग्स) को सिलसिलेवार पेश कर रहा हूँ .अब आप खुद ही अंदाजा लगा लीजिए की कौन किस पक्ष के साथ नज़र आ रहा है? या किस की आस्था किसके साथ है?या हमारा प्रिंट मीडिया कितना निष्पक्ष है? वैसे लगभग दो दशक पहले अयोध्या में हुए ववाल और उस पर प्रिंट मीडिया (उस समय टीवी पर समाचार चैनलों का जन्म नहीं हुआ था) की प्रतिक्रिया आज भी सरकार को डराने के लिए काफी है. खैर विषय से न भटकते हुए आइये एक नज़र आज(एक अक्टूबर) के अखबारों के शीर्षक पर डालें.... पंजाब केसरी,दिल्ली “जहाँ रामलला विराजमान वही जन्मस्थान ” नईदुनिया,दिल्ली “वहीँ रहेंगे रामलला” दैनिक ट्रिब्यून “रामलला वहीँ विराजेंगे” अमर उजाला,दिल्ली “रामलला विराजमान रहेंगे” दैनिक जागरण,दिल्ली “विराजमान रहेंगे रामलला” हरि भूमि.दिल्ली “जन्मभूमि श्री राम की”...

मातृत्व को तो बख्श दो मेरे भाई..

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. आजकल टीवी पर एक विज्ञापन बार-बार दिखाया जा रहा है जिसमें माँ अपने बच्चे को बिना किसी आवाज़ के जन्म दे रही है और बच्चा भी बिना रोये पैदा हो जाता है...विज्ञापन के अंत में आवाज़ आती है अपनी आवाज़ बचाकर रखना इंडिया क्योंकि आस्ट्रेलिया आ रहा है. दरअसल यह विज्ञापन जल्दी ही शुरू होने वाली भारत-आस्ट्रेलिया क्रिकेट को लेकर है.विज्ञापन कहता है कि मैचों के दौरान भारतीय टीम के समर्थन के सभी भारत वासियों को अभी बोलना नहीं चाहिए मतलब अपनी आवाज़ बचाकर रखनी चाहिए ताकि मैचों के समय जमकर शोर मचा सके. इस बात पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती कि हमें अपनी टीम का समर्थन करना चाहिए लेकिन इस अपील के लिए मातृत्व या कोख का अपमान तो ठीक नहीं है. मातृत्व मानव जीवन की सबसे अनूठी और यादगार उपलब्धि है. पूरे नौ महीने की तपस्या के बाद माँ अपनी कोख से नव-सृजन करती है और जन्म लेते बच्चे का रोना सुनने के लिए माँ ही नहीं पूरा परिवार और यहाँ तक कि डाक्टर-नर्स भी इंतज़ार करते हैं क्योंकि बच्चे के इस रुदन में ही उसके सेहतमंद होने का राज छिपा होता है. इसलिए प्रकृति के इस चमत्कार का अपमान किसी भी सूरत में नहीं किया जाना चाहिए....

कब तक सुधरेंगे हम भारतीय ?

डॉक्टर कलाम देश के पूर्व राष्ट्रपति के साथ साथ जाने माने वैज्ञानिक,चिन्तक,मार्गदर्शक और फिलासफर भी हैं.उन्होंने यह भाषण काफी समय पहले दिया था परन्तु इसकी उपयोगिता/सार्थकता और महत्त्व आज भी है और शायद तब तक रहेगा जब तक हम भारतीय अपने देश को कोसना और हमारी शासन प्रणाली को गरियाना बंद नहीं करेंगे.मुझे यह भाषण मेरे एक मित्र ने प्रेषित किया है.इसमें कलाम द्वारा कही गयी बाते इतनी ह्रद्रय-स्पर्शी हैं की मैं इसे आप सबके साथ साझा करने से स्वयं को रोक नहीं पाया.शायद यह हम सभी को रास्ता सुझाने का एक माध्यम बन जाये..... मेरी विनती है इसे एक बार पूरा पढ़िए ज़रूर... Dr. Abdul Kalam's Letter to Every Indian Why is the media here so negative? Why are we in India so embarrassed to recognize our own strengths, our achievements? We are such a great nation. We have so many amazing success stories but we refuse to acknowledge them. Why? We are the first in milk production. We are number one in Remote sensing satellites. We are the second largest producer of wheat. We are the second larges...

आप तय करें दिल्ली के लिए क्या बेहतर है!

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इन दिनों देश भर का मीडिया कामनवेल्थ खेलों पर ऑस्कर विजेता संगीतकार ए आर रहमान द्वारा तैयार थीम सॉंग पर चर्चा में उलझा हुआ है.हर किसी की अपनी ढपली अपना राग है.इसी बीच दिल्ली के पापुलर बैंड "यूफोरिया" ने दिल्ली का सॉंग पेश कर रहमान समर्थकों की मुश्किल बढ़ा दी है. मैं यहाँ दोनों गीतों को बिना किसी काट-छांट के पेश कर रहा हूँ.अब यह आप तय कीजिये कि दिल्ली के लिए या इन खेलों के लिए क्या बेहतर होता? वैसे रहमान साहब को सब-कुछ खुद कर दिखने की भावना के चलते इतनी आलोचनाए सहनी पड़ रही हैं.यदि वे इस गीत के लिए भी गुलज़ार साहब/जावेद अख्तर/प्रसून जोशी जैसे किसी गीतकार और दलेर पाजी जैसे गायक के साथ तालमेल बिठाते तो सोचिये क्या बात होती क्योंकि ये दिग्गज एकसाथ मिलकर फिर "जय हो..." या "चक दे..." जैसा धमाका कर दिखाते.वैसे इन गीतों को भी तो थीम सॉंग बनाया जा सकता था ? या फिर पुरानी फिल्मों से "भारत का रहने वाला हूँ भारत की बात...." जैसे किसी कालजयी गीत को ये सम्मान दिया जा सकता था.खैर ये फैसला तो हमारे हाथ में नहीं था कि कौन सा गीत चुना जाये पर हम गीतों के सुझाव तो दे ...