बुधवार, 9 जून 2010

दिल तो बच्चा है जी....


महानायक अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘लावारिस’ का एक गाना “मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है” अस्सी के दशक में काफी लोकप्रिय हुआ था. इस गाने की लाइन कुछ इस तरह थी कि ‘जिसकी बीबी छोटी उसका भी बड़ा नाम है,गोद में उठा लो, बच्चे का क्या काम है..’इस गाने ने उस दौरान छोटे कद की महिलाओं के साथ-साथ उनके पतियों को भी हँसी का पात्र बना दिया था चूँकि इस गाने में सभी कद-रंग-लम्बाई-चौड़ाई के लोगों का मजाक उड़ाया गया था इसलिए कोई किसी को दोष नहीं दे पाया और यह गाना बुराई की बजाय हंसने-हँसाने का जरिया बन कर रह गया, लेकिन अब नाटे कद के लोगों पर हुए एक शोध में हुए खुलासे ने इसी गाने को कुछ इसतरह कर दिया है कि “जिसकी बीबी छोटी उसका तो बुरा हाल है” क्योंकि शोध से पता चला है कि छोटे कद के लोगों में दिल की बीमारी होने और इस बीमारी से मरने का खतरा ज्यादा रहता है.
वैसे दिल की बीमारी के कद से संबंध पर शोध की शुरुआत 1951 में हुए थी. तब से अब तक इस विषय पर 52 अध्ययन व लगभग दो हज़ार शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं. फिनलैड की यूनिवर्सिटी ऑफ तामपेरे के फॉरेंसिक मेडिसिन के शोधकर्ताओं ने इन्ही शोधों के निष्कर्ष के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार की है। शोधकर्ताओं ने 30,12,747 लोगों पर हुए शोध का परिणाम निकालने के लिए लोगों को दो श्रेणियों में बांटा. इसके तहत छोटे कद की श्रेणी में 165.4 सेंटीमीटर से छोटे पुरुषों और 153 सेमी से छोटी महिलाओं को रखा गया.इसीतरह 177.5 सेमी से लंबे पुरुष और 166.4 सेमी से ऊँची महिलाओं को दूसरी श्रेणी में रखा गया। दोनों के तुलनात्मक अध्ययन में छोटे कद वाले समूह में दिल संबंधी बीमारियां 1.5 गुना ज्यादा पाई गई। छोटे कद वाले पुरुषों में दिल की बीमारियों से मरने का खतरा लंबे कद के पुरुषों के मुकाबले 37 फीसद ज्यादा पाया गया.जबकि छोटे कद की महिलाओं में यह खतरा ऊँची महिलाओं के मुकाबले 55 फीसदी अधिक पाया गया।
वैसे अध्ययनों में यह भी पाया गया है कि छोटे कद या सामान्य बोलचाल की भाषा में कहें तो नाटे लोग मानसिक रूप से हीन भावना का शिकार होते हैं. मनोवैज्ञानिक भी तमाम शोधों के जरिये इस बात को समझाते रहे हैं कि व्यक्तित्व की कमियां इंसान को कमजोर बना देती हैं लेकिन यह बात भी उतनी ही सत्य है कि यदि व्यक्ति ठान ले तो शरीर की कोई भी कमजोरी उसके विकास में बाधा नहीं बन सकती.किसी शायर ने ठीक ही फ़रमाया है कि-

“ मैं तो छोटा हूँ झुका लूँगा सर को अपने

पहले सब बड़े तय कर लें, बड़ा कौन है”

.

मंगलवार, 8 जून 2010

आप भी दे सकते हैं कसाब को फांसी

पढकर आश्चर्य में न पड़े ...यह बिलकुल सच बात है कि आप भी मुंबई (Mumbai )को घंटों तक बंधक बनाने वाले और अनेक निर्दोष लोगों के हत्यारे आतंकवादी कसाब(kasab) को फांसी दे सकते हैं और वह भी मनचाही बार, मतलब एक-दो नहीं बल्कि दसियों बार आप कसाब को फांसी पर लटकते हुए देख सकते हैं. कसाब को सार्वजनिक रूप से फांसी की सजा पाते देखना हर भारतीय की ख्वाहिश है. कसाब ही क्या, संसद पर हमले के मामले में जेल में बंद अफज़ल गुरु सहित उन तमाम देशद्रोहियों और नापाक इरादे रखने वाले आतंकवादियों को उनके गुनाहों की सजा हर हाल में और जल्द से जल्द मिलनी ही चाहिए इस बात पर दो राय हो ही नहीं सकती.
पर समस्या यह है कि सरकार भी क्या इन दोषियों को हमारी ही तरह फटाफट सजा देने की इच्छुक है? अभी तक की कवायद और प्रतिक्रिया से तो यह नहीं लगता कि हम भारतीयों की यह तमन्ना आसानी से पूरी हो पायेगी. सरकार भी बेचारी क्या करे? न तो उसके पास पूर्ण बहुमत है और न ऐसा कर पाने की इच्छाशक्ति. उसे अंतरराष्ट्रीय संबंधों के साथ-साथ देश के घरेलू हालातों (सरल शब्दों में वोट बैंक) का ध्यान भी रखना पड़ेगा.आखिर फिर से चुनाव जो लड़ना है. तो क्या हम इसी तरह हाथ पर हाथ रखकर बस इंतज़ार करते रहेंगे....नहीं अब ऐसा करने की कोई ज़रूरत नहीं है और न ही अपने मंसूबों को दबाने की क्योंकि हम-आप सब कसाब को फांसी दे सकते हैं और वह भी अपने समय,जगह और इच्छा के मुताबिक. तो चलो अब इस सस्पेंस को ख़त्म किया जाये दरअसल ऑनलाइन बाज़ार में इन दिनों "हेंग कसाब" नामक एक खेल धूम मचा रहा है इसमें खेलने वालों को निर्धारित अवधि में कसाब को मनमानी बार फांसी की सजा देने का अवसर मिलता है.
इस खेल की नींव भी गुस्से के इज़हार को लेकर ही पड़ी है, जब एक कम्पनी ने सुना कि कसाब को फांसी देने के लिए ज़ल्लाद नहीं मिल रहा है और भारत के लोग उसे जल्द से जल्द सजा पाते देखना चाहते हैं तो उसने इस खेल का इज़ाद कर दिया ताकि आम लोग कसाब को मारकर अपने गुस्से को निकाल सकें और अपनी ऊर्जा को देश के रचनात्मक कामों में लगा सके. तो चलिए सरकार भलेहि डिप्लोमेसी में उलझी रहे हम तो कसाब को बार-बार फांसी पर लटकाकर अपने कलेजे को ठंडा कर ही लें....

सोमवार, 7 जून 2010

चीअर्स...दिल्ली के बिअर बाजो...चीअर्स

मशहूर और कालजयी फिल्म 'शोले' में याद है अभिनेता धर्मेन्द्र पानी की टंकी पर चढ़कर सुसाइड-सुसाइड चिल्लाते हैं और अरे रामगढ वालों जैसा चर्चित डायलोग बोलते हैं.वैसे इस पोस्ट का शोले से कोई सम्बन्ध नहीं है बस शीर्षक को शोले के डायलोग जैसा बनाने की कोशिश की है.हाँ एक समानता ज़रूर है कि धर्मेन्द्र ने शराब पीकर वह सीन किया था और हमारे दिल्ली वाले बिअर पीकर रिकॉर्ड बना रहे हैं.हालाँकि दिल्ली वाले अपने कारनामो के चलते दुनिया और खासतौर पर देश में खूब नाम कमाते रहते हैं. कभी संसद पर हमले के कारण तो कभी बीएमडव्लू जैसी कारों को आम आदमी पर चढ़ाकर और कभी मतदान के दौरान वोट न डालकर.इसके बाद भी बढ़-चढ़कर बोलने में किसी से पीछे नहीं रहते.
अब दिल्ली वालों ने बिअर पीने का नया रिकॉर्ड बनाया है. वे मात्र एक माह में १५ लाख क्रेट से ज्यादा बिअर डकार गए.सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मई के महीने में दिल्ली के लोगों ने १५,२२,८२९ क्रेट बिअर पी.अब माय के शौकीनों को यह बताने कि ज़रूरत नहीं है कि एक क्रेट में १२ बोतलें आती हैं.तो ज़रा ऊपर कि संख्या को १२ से गुणा करके देखिये की बिअर पीने में हम राजधानी वालों ने पानी पीने वालों को भी पीछे छोड़ दिया है. वैसे यह कोई पहला मौका नहीं है जब दिल्ली के बिअरबाजो ने एसा रिकॉर्ड बनाया है.इसके पहले अप्रैल के महीने में भी वे १४.८ लाख क्रेट बिअर पी गए थे. यह बात अलग है कि मई में उन्होंने अप्रैल से ३० गुणा ज्यादा बिअर पी हैऔर यह अब तक का सबसे बड़ा रिकॉर्ड है.वैसे बिअर पीने के लिए दिल्ली वालों को दोषी ठहराना उचित नहीं है क्यूंकि जब पारा हमेशा ४६ डिग्री के पार रहेगा और बिजली ज़्यादातर गुल रहेगी तो आदमी बिअर न पिए तो क्या करे!
वैसे कई बिअर बाजों का कहना है कि वे नशे के लिए नहीं बल्कि बिअर को दवाई के तौर पर पीते हैं. उनका कहना है कि बिअर पीने से किडनी का स्टोन(पथरी) ठीक हो जाती है.बिअरबाजों का दावा है कि बिअर से पथरी घुल जाती है. यह बात अलग है कि डॉक्टर इस बात को गलत बताते हैं.डॉक्टरों का तो यहाँ तक कहना है कि बिअर ज्यादा पीने से स्टोन की सम्भावना और भी ज्यादा बढ़ जाती है.अब हुम क्या कहे क्यूंकि पीने वालों को तो पीने का बहाना चाहिए.....

शनिवार, 5 जून 2010

जय हो भारतीयों की जय हो ...

फिल्म ‘स्लमडोग मिलिनिअर’ में ऑस्कर विजेता संगीतकार ए आर रहमान का मशहूर गीत ‘जय हो’ भारत और भारतीयों पर बिलकुल उपयुक्त बैठता है.दरअसल हमने कारनामा ही ऐसा कर दिखाया है कि सारी दुनिया सम्मान की नज़रों से हमारी ओर देख रही है और हम भी गर्व के साथ सर ऊंचा करके खड़े हैं.आखिर किसी मामले में तो दुनिया ने हमारा लोहा माना. अब आप सोच रहे होंगे कि हम भारतीयों ने ऐसा क्या चमत्कार कर दिया जिसकी इतनी वाहवाही हो रही है तो जान लीजिए इस तारीफ का कारण यह है कि पर्यावरण संरक्षण और धरती को हरा-भरा बनाने में हम हिन्दुस्तानी सबसे आगे हैं.
नेशनल जिओग्राफिक –ग्लोबस्कैन नामक संगठन द्वारा किये गए एक सर्वे के मुताबिक दुनिया भर में पर्यावरण को बचाने और सुरक्षित जीवन शैली अपनाने के मामले में भारतीय लोग अव्बल नम्बर पर हैं. सर्वे में लगभग दर्जन भर देशों के तक़रीबन बीस हज़ार लोगों को शामिल किया गया था.खास बात यह है कि हमने पिछले साल की तुलना में अपने हरित सूचकांक में उल्लेखनीय रूप से २.१ अंकों की बढ़ोतरी भी की है.इस सर्वे के अनुसार अभी भी ८१ फीसदी भारतीय आवागमन के लिए सार्वजनिक परिवहन प्रणाली का इस्तेमाल कर रहे हैं.यही कारण है कि हमारे देश में दूसरे देशों की तुलना में कम प्रदूषण है.इस सर्वेक्षण में सम्बंधित देश के लोगों की उपभोग आदतों,वस्तुओं,खाद्य पदार्थों और यातायात की आदतों को शामिल किया गया था.भारत के बाद ब्राजील,चीन,मैक्सिको ,अर्जेंटीना,रूस,हंगरी तथा दक्षिण कोरिया का नम्बर है. अमेरिका और ब्रिटेन जैसे दुनिया के तथाकथित ‘दादा’ इस सूची में दूर-दूर तक स्थान नहीं बना पाए.यह बात अलग है कि वे अभी भी पर्यावरण के सबसे बड़े शुभचिंतक बनकर बाकी देशों की खाट खड़ी करते रहेंगे और दुनिया को दिन-प्रतिदिन पहले से ज्यादा गन्दा बनाने में कई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे. तो है न बात अपनी जय-जय करने वाली.
अब एक बुरी खबर....यह भी पर्यावरण से ही सम्बंधित है. बोतलबंद पानी का इस्तेमाल करने में हम भारतीय लोग कथित विकसित देशों को टक्कर दे रहे हैं.अब यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि पानी बेचने में इस्तेमाल हो रहीं बोतलें धरती के लिए सबसे घातक साबित हो रही हैं.इन बोतलों को बनाने में दुनिया भर में १५,००,००० टन प्लास्टिक का उपयोग हो रहा है और इस प्लास्टिक से पर्यावरण एवं मानव दोनों को ही नुकसान पहुँच रहा है. यही नहीं बोतल भरने के लिए धरती का सीना चीरकर पानी निकाला जा रहा है. जानकारी के मुताबिक बोतलबंद पानी का ७५ फीसदी हिस्सा भू-जल से ही प्राप्त किया जा रहा है.एशिया में १९९७ से २००४ के बीच बोतलबंद पानी का इस्तेमाल दोगुने से ज्यादा बढ़ गया है जबकि आस्ट्रेलिया जैसे देश इस पानी पर रोक लगा रहे हैं. यदि हम अपनी इस आदत को भी छोड़ दें तो सोचिये धरती माँ कितना आशीष देगी और भविष्य में ‘जल-युद्ध’ की संभावनाएं भी कम हो जाएँगी. तो चलिए आज से ही शुरुआत करते हैं और पानी की बोतल पर १५-२५ रूपए कर्च करने की बजाय घर से ही ठंडा और मीठा पानी लेकर चलने कि आदत डालते हैं.वैसे ये कोई मुश्किल काम भी नहीं है तो हो जाये एक बार फिर भारत कि ‘जय-जय...’

शुक्रवार, 4 जून 2010

चींटी ने खोली ज़माने की पोल

 कई बार पुरानी दन्त कथाएं और मुहावरे बहुत कुछ कह जाते हैं.कुछ तो इतने सटीक होते हैं कि मौजूदा समय के बिलकुल अनुरूप लगते हैं और गागर में सागर की तरह साफगोई के साथ हकीकत को बयान कर देते हैं.कुछ ऐसी ही एक कथा मेरे एक मित्र ने मेल पर भेजी है. मुझे लगता है कि यह कथा आप सब को भी उतना ही आंदोलित करेगी जितना मुझे किया है.तो जानिये एक चींटी(Ants) के जरिये आज की हकीकत......

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एक छोटी सी चींटी हर दिन दफ्तर में समय से

पहले पहुंच जाती और तुरंत काम शुरू कर देती

थी। अपने काम से वह खुद काफी खुश थी। उसका

आउटपुट काफी ज्यादा था। उसका सर्वोच्च बॉस

, जो एक शेर था, इस बात से चकित रहता था कि

चींटी बिना किसी पर्यवेक्षक के इतना काम

कैसे कर लेती है।

एक दिन उसने सोचा कि चींटी अगर बगैर किसी

पर्यवेक्षक के इतना काम कर रही है तो उसके

ऊपर एक सुपरवाइजर रख दिया जाए तो वह और

ज्यादा काम करेगी। सुपरवाइजर बता सकेगा कि

चींटी का श्रम कहां व्यर्थ जाता है, वह

अपना परफर्मेस और कैसे सुधार सकती है। किस

तरह उसके पोटेंशियल का और बेहतर इस्तेमाल

हो सकता है। इसलिए शेर ने एक तिलचट्टे को

उसका सुपरवाइजर बना दिया।

तिलचट्टे को सुपरवाइजर के काम का काफी

अनुभव था। वह अच्छी रिपोर्ट लिखने और अपने

मातहतों को प्रोत्साहित करने के लिए मशहूर

था। जब उसने जॉइन किया तो पहला निर्णय यह

लिया कि दफ्तर में घड़ी लगाई जाए। समयबद्ध

तरीके से काम करने से आउटपुट बढ़ता है।

अनुशासन किसी भी व्यवस्था की रीढ़ होता

है।

लेकिन यह सब करने और रिपोर्ट तैयार करने के

लिए उसे एक सेक्रेट्री की जरूरत महसूस

हुई। उसने इस काम के लिए एक मकड़े को

नियुक्त कर लिया। वह उसकी क्लिपिंग और

पुरानी फाइलों आदि का हिसाब रखता था और फोन

कॉल (उस समय मोबाइल नहीं थे) आदि देखता था।

तिलचट्टे की रिपोर्ट से शेर बहुत खुश हुआ

और उत्पादन दर बताने के लिए ग्राफ बनाने और

विकास की प्रवृत्तियों के झुकावों आदि का

विश्लेषण करने के लिए कहा ताकि वह खुद भी

बोर्ड मीटिंग में उन आंकड़ों का उपयोग कर

सके। इसके लिए तिलचट्टे को कंप्यूटर और

प्रिंटर की जरूरत हुई। इन सबकी देखभाल

करने के लिए उसने एक मक्खी की नियुक्ति कर

ली।

दूसरी ओर, एक समय खूब काम करने वाली चींटी

इन तमाम नई व्यवस्थाओं से और अक्सर होने

वाली मीटिंगों से परेशान रहने लगी। उसका

ज्यादातर समय इन्हीं सब बातों में गुजर

जाता था। उसे प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार

करने और अपनी उपलब्धियों का ब्यौरा देने

की आदत नहीं थी। उसका आउटपुट घटने लगा।

इन सारी स्थितियों को देखकर शेर इस

निष्कर्ष पर पहुंचा कि चींटी के काम करने

वाले विभाग के लिए एक इंचार्ज बनाए जाने का

समय आ गया है। यह पद एक खरगोश को दे दिया

गया। अब उसे भी कंप्यूटर और सहायक की जरूरत

थी। इन्हें वह अपनी पिछली कंपनी से ले आया।

खरगोश ने काम संभालते ही पहला काम यह किया

कि दफ्तर के लिए एक बढ़िया कालीन और एक

आरामदेह कुर्सी खरीदी। इन पर बैठकर वह काम

और बजट नियंत्रण की अनुकूल रणनीतिक

योजनाएं बनाने लगा।

इन सारी बातों - कवायदों का नतीजा यह हुआ कि

चींटी के विभाग में अब चींटी समेत सभी काम

करने वाले लोग दुखी रहने लगे। लोगों के

चेहरे से हंसी गायब हो गई। हर कोई परेशान

रहने लगा , इस पर खरगोश ने शेर को यह

विश्वास दिलाया कि दफ्तर के माहौल का

अध्ययन कराना बेहद जरूरी है। चींटी के

विभाग को चलाने में होने वाले खर्च पर

विचार करने - कराने के बाद शेर ने पाया कि

काम तो पहले के मुकाबले काफी कम हो गया है।

सारे मामले की तह में जाने और समाधान

सुझाने के लिए शेर ने एक प्रतिष्ठित और

जाने - माने सलाहकार काक को नियुक्त किया।

वह अपनी बात बहुत ही प्रभावी ढंग से रखता

था। काक ने रिपोर्ट तैयार करने में तीन

महीने लगाए और एक भारी भरकम रिपोर्ट तैयार

करके दी। यह रिपोर्ट कई खंडों में थी। इसका

निष्कर्ष था कि विभाग में कर्मचारियों की

संख्या बहुत ज्यादा है।

शेर बेचारा किसे हटाता , बेशक चींटी को ही ,

क्योंकि उसमें काम के प्रति लगन का अभाव

दिख रहा था। और उसकी सोच भी नकारात्मक हो

गई थी।

बुधवार, 2 जून 2010

क्या हम " सामूहिक आत्महत्या " की ओर बढ रहे हैं?

एक पुरानी कहानी है कि एक राजा ने अपने राज्य में संगमरमर का तालाब बनवाया और उस तालाब को दूध से भरने का फैसला किया. चूँकि इतना दूध इकठ्ठा करना आसान नहीं था इसलिए राजा ने घोषणा कर दी कि रात में सभी प्रजाजन एक-एक लोटा दूध तालाब में डालेंगे इससे तालाब भी दूध से भर जायेगा और किसी एक व्यक्ति पर बोझ भी नहीं पड़ेगा. राजा की घोषणा के बाद एक व्यक्ति ने सोचा की प्रजा की संख्या १० लाख से ज्यादा है. यदि में दूध के स्थान पर एक लोटा पानी डाल दू तो किसी को पता भी नहीं चलेगा. ऐसा ही विचार अन्य लोगों के मन में आया और भीड़ के मनोविज्ञान के मुताबिक सभी लोगों ने ऐसा ही सोचा और सुबह पूरा तालाब दूध के स्थान पर पानी से भरा नज़र आया. इस कहानी का सार यह है कि हम सब अपने स्वार्थ और फायदे के बारे में तो सोचते हैं पर देश-दुनिया पर उसके परिणाम की चिंता नहीं करते. पर्यावरण(environmnt) और ग्लोबल वार्मिंग (global varming)पर भी हमारा व्यवहार कुछ ऐसा ही है.
हम अपनी सुविधा के लिए कार पर कार खरीदते जा रहे हैं पर उसके नुकसान की चिंता नहीं कर रहे. सिर्फ दिल्ली में ही पचास लाख से ज्यादा निजी वाहन हैं और वे रोज सड़को पर आग बरसा रहे हैं. बढती कारों से तपन बढ रही है फिर भी हम अपने परिवार के हर सदस्य के लिए नई कार खरीदने में पीछे नहीं हैं. यही हाल एसी ,फ्रिज और विलासिता के अन्य सामानों का है.एसी पर्यावरण के लिए कितना हानिकारक है यह किसी से छिपा नहीं है फिर भी एसी बेरोकटोक बिक रहे हैं. यह सामूहिक आत्महत्या नहीं तो क्या है कि हम अपनी ही बर्बादी का इंतजाम ख़ुशी-ख़ुशी कर रहे हैं. हमारी इन आदतों के कारण सूर्य की घातक किरणों से हमारी सुरक्षा करने वाली ओजोन परत में बना छेद २००७ में बढकर २५.०२ मिलियन वर्ग किलोमीटर तक पहुँच गया है जो १९८० में मात्र ३.२७ मिलियन वर्ग मीटर था. जानकारों का मानना है कि यदि ओजोन परत इसीतरह नष्ट होती रही तो २०५४ तक पृथ्वी के आस-पास से ओजोन का कवच ही ख़त्म हो जायेगा और हमे सीधे सूर्य की परावैगनी किरणों का सामना करना पड़ेगा.जिससे जीवन दूभर हो जायेगा. वहीँ केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का कहना है कि भारत के शहरों से प्रतिदिन ३.८० अरब लीटर मैला पानी निकल रहा है इसमें से अधिकतर गन्दिगी गंगा,यमुना और नर्मदा जैसी पवित्र नदियों में मिल रही है.दस -बीस साल बाद कि स्थिति सोचकर ही डर लगता है.
शहरीकरण के चलते देश के गाँव ख़त्म हो रहे हैं और शहर तथा शहरों की गन्दिगी उतनी ही तेज़ी से बढ रही है.१९०१ से २००१ के दौरान शहरों कि संख्या १८२७ से बढकर ५१६१ हो गयी है जबकि गाँव घटकर ६८५६६५ की तुलना में २००१ में ५९३७३१ रह गए हैं. खुद ही सोचिये कहाँ जा रहे हम? अंधाधुंध विकास के कारण आज भी ढाई करोड़ लोगों के पास घर नहीं हैं और हर साल १०० अरब क्यूबिक लीटर पानी की कमी हो रही है. चालीस फीसदी लोगों के पास शौचालय तक नहीं हैं,न सड़क है और न बिजली. यह स्थिति तो आज की है पर भविष्य कितना भयावह होगा इसकी कल्पना से ही डर लगने लगता है. अभी भी वक्त है बिगड़ी हालत को सुधारने का वरना इन सुविधाओं को पाने के लिए हम एक दूसरे को ही मरने-मारने पर उतारू हो जायेंगे और फिर देश का क्या होगा सोचिये.......ज़रा सोचिये.

रविवार, 30 मई 2010

कैसे कैसे रिश्तेदार

देश भर में इन दिनों शादी और छुट्टी का मौसम है इसलिए सभी ओर रिश्तेदारों(relatives) की बहार आई हुई है. शर्माजी भागकर वर्माजी के घर जा रहे हैं तो वर्माजी पहले ही गुप्ताजी के घर जाने के लिए निकल चुके हैं. दरअसल कोई भी अपने घर नहीं रहना चाहता क्योंकि यदि वो खुद कहीं नहीं गया तो उसके घर कोई आ धमकेगा. इस भीषण गरमी के मौसम में कोई भी रिश्तेदार को अपने घर में टिकाने का जोखिम नहीं लेना चाहता. खासकर दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में तो हालत और भी ख़राब हैं. यहाँ लोगों के अपने ही रहने का ठिकाना नहीं है तो फिर मेहमानवाजी कैसे कर सकते हैं पर छुटिओं में छोटे शहरों के रिश्तेदारों को महानगर जाना ही ज्यादा पसंद आता है इसलिए वे इन शहरों में रहने वाले दूर-दराज के रिश्तेदारों को भी खोज निकलते हैं और पूरे दलबल के साथ उनके घर जा धमकते हैं. वह तो उनसे उनके दिल का हाल पूछिए जो भरी गरमी में बूँद-बूँद पानी की कमी और एक एसी के सहारे किस तरह इस रिश्तेदारी की सजा को भुगतते हैं.
सबसे बुरा हाल तो उनका होता है जिन्हें इस मौसम में शादी करनी पड़ती है. शादी करने,कराने और शामिल होने वाले सभी परेशान होते हैं. उत्तर भारत के अधिकतर छोटे शहरों में इन दिनों १५ से १८ घंटे तक बिजली नहीं रहती. ऐसे में शादी करना-कराना खुद सोच लीजिये किसी युद्ध जीतने से कम काम नहीं होता.मुझे भी कुछ इसी तरह की शादियों में जाने का अनुभव हुआ और इसे अनुभव से ज्यादा सजा कहना अधिक उचित होगा. सबसे पहले तो ट्रेनों में ठसाठस भरे लोग ,महीने-दो महीने पहले से ही आरक्षण बंद और जुगाड़ तथा टीसी को मनमाने पैसे देने के बाद भी बमुश्किल बैठ पाने का इंतजाम. स्टेशनों पर शीतल जल के नलों से निकलता उबलता पानी, खाने के नाम पर बासी सब्जी-पूरी और बदबू मारते समोसे ,सीट पर पसीने से तरबतर सहयात्री और हर छोटे-बड़े स्टेशन से चढ़ता लोगों का रेला. इस संघर्ष यात्रा से गुजरकर शादी वाले घर पहुंचे तो वहां ४५ डिग्री तापमान में बिना बिजली के तलती तेल की पुरियां और आलू की रसीली सब्जी से होता स्वागत. भोजन-नास्ते के नाम पर वही वनस्पति घी से तर पकवान और चिर-परिचित पसीना. रिशेप्सन के नाम पर एक-एक पूरी के लिए एक दूसरे पर गिरते लोग, कृत्रिम मेकअप को रसगुल्ले के लिए पसीने में बहाती महिलाएं. बाद में लड़की के पिता की माली हालत का अंदाज़ा लगाकर शादी की रस्मों को छोटा-बड़ा करता पंडित. विदाई के वक्त घडियाली आंसू बहते रिश्तेदार और फिर विदाई में मिले उपहार की मीन-मेख निकलते बाराती. सबकुछ असली पर शादी-दर-शादी किसी फिल्म/धारावाहिक की तरह रिपीट होते द्रश्य .....और फिर आगमन की तरह विदाई की ट्रेन यात्रा, पर घर पहुंचकर सुकून मिलने की इच्छा और पर पानी फेरते रिश्तेदार. यह आपकी भी अर्थात घर-घर की कहानी है ....

शुक्रवार, 28 मई 2010

....मेरी "गंगा माँ" को बचा लो प्लीज

मेरी ममतामयी माँ की जान संकट में है. वह तिल -तिलकर मर रही है और मैं ऐसा अभागा बेटा हूँ जो चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता. दरअसल मेरी माँ की इस हालत के लिए सिर्फ मैं ही नहीं बल्कि आप सभी ज़िम्मेदार हैं. आप में से कुछ लोगों ने उसे बीमार बनाने में अहम भूमिका निभाई है तो कुछ ने मेरी तरह चुप रहकर इस दुर्दशा तक लाने में मूक सहयोग दिया है.यही कारण है कि आज मुझे आप सभी से माँ को बचने की अपील करनी पड़ रही है.
मेरी माँ का नाम गंगा है...अरे वही जिसे आप सब गंगा नदी(river ganga) या गंगा मैया के नाम से पुकारते हैं. आप सब भी इस बात को मानेंगे कि मेरी माँ ने कभी किसी का ज़रा सा भी नुकसान नहीं किया. वह तो ममता, त्याग, करुणा, वात्सल्य और स्नेह की प्रतिमूर्ती है. आज क्या सदिओं से मेरी माँ हम सब के पाप धोते आ रही है और अनादिकाल से सम्मान पाने में सर्वोपरि रही है. तभी तो इस स्रष्टि के निर्माता ब्रम्हा उसे अपने कमंडल में लेकर चलते थे और सर्वशक्तिमान भगवान् शंकर ने उसे अपनी जटाओं में स्थान दिया. मेरी माँ के विशाल ह्रदय का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राजा सगर के पुत्रों को मुक्ति देने के लिए वह धरती पर उतर आई. गंगोत्री से लेकर समुद्र में समाने तक मेरी माँ इलाहाबाद, हरिद्वार, बनारस सहित तमाम जगहों पर हम सब के पाप धोकर सभी कष्टों से मुक्ति दिलाने का काम ही तो कर रही है. वह न केवल हमारी प्यास बुझा रही है बल्कि हमारा पेट भरने के लिए ज़रूरी अनाज पैदा करने में भी सहभागी बनी हुई है. ...और बदले में हम उसे क्या दे रहे हैं - कारखानों की ज़हरीली गंदगी, नालों का सड़ांध से बजबजाता पानी, अधजले शव, चमड़ा उद्योग का प्रदूषण, गटर का पानी, तमाम शहरों का मलमूत्र, पोलीथिन और पता नहीं क्या-क्या ? मेरी माँ इतना अपमान सहकर भी कभी क्रोधित नहीं होती बल्कि इस सब गंदगी को अपने में समेटकर हमें शीतल, मीठा और शुद्ध जल प्रदान करती आ रही है लेकिन बर्दाश्त कि भी हद होती है?अब यदि हम पुण्यसलिला और ममतामयी माँ का अस्तित्व ही ख़त्म करने पर उतारूँ हो गए हैं तो उसे बचने की गुहार तो लगानी ही पड़ेगी.
जिस माँ को धरती तक लाने के लिए भागीरथ को सदिओं तपस्या करनी पड़ी अब उसी माँ को धरती से विदा करने के लिए हम कोई कसर नहीं छोड़ रहे ? याद है मेरी माँ की एक बहन थी जिसे हम सभी 'सरस्वती 'के नाम से जानते हैं और माँ के साथ मिलकर वे इलाहाबाद (प्रयाग) में 'त्रिवेणी' बनाती थी लेकिन हमारी लापरवाही के कारण माँ को अपनी इस बहन को असमय ही खोना पड़ा और अब प्रयाग में त्रिवेणी के स्थान पर 'संगम' ही रह गया है? तो क्या अब मेरी माँ को भी अपनी बहन की तरह असमय ही अपना अस्तित्व खोना पड़ेगा? क्या हम सब ऐसे ही चुपचाप सहते रहेंगे? या मेरी माँ को बचाने के लिए मिल-जुलकर आवाज़ उठायंगे? वैसे हमारी सरकार कई सालों से माँ को बचाने के लिए ढेरों योजनायें बना रही है और अब तक अरबों रूपए खर्च कर चुकी है. आप सभी जानते हैं कि सरकार की योजनायें ज़मीन पर कम और कागजों पर ज्यादा बनती हैं इसलिए इतने साल बाद भी माँ गंगा की बीमारी ठीक नहीं हो सकी है. हाल के कुछ अध्ययनों से खुलासा हुआ है की गंगा जल से अब कैंसर होने तक का खतरा उत्पन्न हो गया है.
क्यों न हम सभी मिलकर एक बार प्रयास करें और गंगा माँ को स्वस्थ करके ही दम लें. तो अब इंतजार किस बात का है? गंगा माँ की बेहतरी की पहल आज से ही क्यों नहीं...?
(क्षमा याचना सहित:हो सकता है कुछ साथी इस पोस्ट को पहले भी पढ़ चुके हों.दरअसल इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर आप सब की बेपरवाह प्रतिक्रियाओं के कारन मैं अपने मित्रों की सलाह पर इस पोस्ट को आंशिक सुधर के साथ फिर से दल रहा हूँ ताकि कुछ तो हलचल हो,कहीं तो लहरें उठे और गंगा माँ हमें फिर से अपने स्नेह के आँचल में ढक लें...)

शनिवार, 22 मई 2010

मंगलौर हादसे ने खोली नेशनल न्यूज़ चैनलों की पोल

राखी सावंत और मल्लिका शेरावत के चुम्बन और अधनंगेपन के सहारे टीआरपी की जंग में अपने आपको नम्बर वन बताने में उलझे कथित नेशनल न्यूज़ चैनलों की पोल शनिवार को मंगलौर विमान दुर्घटना(Mangalore air crash) ने खोलकर रख दी.सुबह ६ बजे हुई इस दुर्घटना तक हमारे नेशनल चैनलों के बाईट-वीर लगभग १० बजे तक पहुँच पाए और इस दौरान वे स्थानीय न्यूज़ चैनलों की ख़बरों और फुटेज को चुराकर “एक्सक्लूसिव” बताकर चलाते रहे. वो तो भला हो टीवी-९, इंडियाविजन और स्वर्ण न्यूज़ का जिनकी बदौलत देशभर को इस घटना की पल-पल की जानकारी मिल पायी.इसके लिए ये चैनल वाकई बधाई के पात्र हैं. कुछ दिन पहले सीआरपीएफ के दल पर हुए नक्सली हमले के दौरान भी कथित नेशनल न्यूज़ चैनलों की असलियत सामने आ गयी थी जब उन्हें इस घटना की जानकारी के लिए स्थानीय साधना न्यूज़ चैनल पर निर्भर रहना पड़ा था.सोचने वाली बात यह है की जब मंगलौर जैसे बड़े और वेल-कनेक्टेड शहर तक पहुँचने में इन चैनलों को चार घंटे लग गए तो किसी दूर-दराज़ की जगह पर कोई बड़ा हादसा हो गया तो ये क्या करेंगे? या इसी तरह नेताओं के बयानों पर दिन भर खेलकर अपनी पीठ थपथपाते रहेंगे?
विमान हादसे में हमारे चैनल ‘चोरी और सीना जोरी’ को चरितार्थ कर रहे थे. उनका पूरा प्रयास था कि स्थानीय चैनलों के नाम न दिखाने पड़े इसलिए उन्होंने स्क्रोल की साइज़ तक बढ़ा दी लेकिन स्थानीय चैनल ज्यादा तेज निकले और वे अपना नाम स्क्रीन के बीचो-बीच चलाने लगे. हद तो तब हो गई जब टाइम्स नॉऊ जैसा अंग्रेज़ी चैनल भी हिंदी के चैनलों की तरह छिछोरेपन पर उतर आया.इससे तो बीबीसी इंडिया बेहतर रहा जिसने फुटेज न होने पर इंडिया गेट दिखाकर काम चला लिया.वैसे इसे भारत ही नही दुनिया भर में सबसे तेज माना जाता है. अब सुनिए नामी न्यूज़ प्रस्तोताओं की दिमागी समझ का आँखों देखा हाल: आजतक पर नवजोत की रूचि इस भयावह दुर्घटना में सबसे ज्यादा इस बात को लेकर थी कि लैंडिंग के पहले सीट बेल्ट बाँधने के लिए अनाउंस हुआ था कि नहीं और उसने यह सवाल कई बार पूछा. एनडीटीवी अपने ग्राफ में विमान को उतरने के साथ ही दुर्घटना ग्रस्त होना बताता रहा तो इंडिया टीवी ने हवाई अड्डे की टेबल टॉप स्थिति को समझाने के लिए स्टूडियो में टेबल ही रख दिया तो स्टार न्यूज़ जैसे चैनल कई देशों में प्रतिबंधित गूगल-अर्थ का सहारा लेते रहे. घटना के चार घंटे बाद भी अधिकतर चैनल यह पता नहीं लगा पाए थे कि कुल कितने लोग मारे गए हैं. यह बात अलग है की ‘सांप मरने के बाद लकीर पीटने’ की तर्ज़ पर हमारे बड़े चैनल दिन भर अपने सबसे आगे रहने, घटना की तह तक जाने और विशेषज्ञता पूर्ण ज्ञान को बघारने में पीछे नहीं रहे लेकिन जब उनकी तेज़ी और कौशल की सबसे ज्यादा ज़रूरत थी तब वे छोटे-स्थानीय चैनलों की मेहनत की कमाई को मुफ्त में अपनी बताकर खाते रहे.
क्षेपक: हमारा राष्ट्रीय चैनल दूरदर्शन हमेशा की तरह इस खबर के पूरीतरह पुष्ट होने का इंतज़ार करता रहा और सबसे आखिर में इस समाचार को अपने दर्शकों तक पहुँचाया.

शुक्रवार, 21 मई 2010

.....बेटा हो तो ऐसा

बदलते समाज के साथ साथ बच्चे भी बदलने लगे हैं और खासतौर पर बेटों के बारे में तो ये कहा जाने लगा है कि वे अपने माँ-बाप की सेवा करना भूल गए हैं.आज लड़कों को आवारा,मक्कार,कामचोर और बिगडैल नवाब जैसे संबोधनो से बुलाया जाना आम बात हो गई है परन्तु अब कुछ बेटे ऐसे हैं जिनके लिए माँ-बाप की सेवा से बढ़कर कुछ भी नहीं है और वे माँ-बाप की इच्छा को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं.उनकी राह में न तो मौसम बाधा बन पाता है और न पैसों की तंगी.ऐसा ही एक बेटा है मध्य प्रदेश के जबलपुर का कैलाश.
उसने अपनी बूढ़ी दृष्टिहीन मां को देश के सभी प्रमुख तीर्थ स्थलों की यात्रा कराने की ठानी है। उसने बद्रीनाथ की कठिन पैदल यात्रा तय कर अपनी मां को बद्रीविशाल के दर्शन कराए। कैलाश कहते हैं कि बड़े बुजुर्गों की सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है और वह अपना धर्म निभाते हुए पिछले 14 सालों से अपनी मां को एक टोकरी में रखकर श्रवण कुमार की तरह कंधे पर उठाए हुए पैदल ही देश के प्रमुख तीर्थ स्थलों की यात्रा कराने निकले हैं। उन्होंने बताया कि वह अपनी मां को करीब सभी प्रमुख तीर्थ स्थलों की यात्रा करा चुके हैं। इस श्रवण कुमार को यात्रा के मुख्य पड़ावों कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग, चमोली, पीपलकोटी और जोशीमठ से गुजरते हुए जिसने भी देखा वह अचरज में पड़ गया। कैलाश और उनकी माता कीर्ति देवी ने कहा कि भगवान बद्रीविशाल के दरबार में पहुंचने से जीवन सफल हो गया। कैलाश इसके पहले अपनी माँ को इसीतरह देश के सभी प्रमुख तीर्थों की यात्रा करा चुके हैं और ये उनकी यात्रा का अंतिम पड़ाव नहीं है बल्कि ये सिलसिला माँ की इच्छा के साथ-साथ चलता रहेगा.

गुरुवार, 20 मई 2010

घी मिलेगा मुज़ियम में और सब्जी हो जायगी चटनी

बचपन ने दादी दो कंजूस भाइयों की कहानी सुनाती थी वह कहानी सार में इस प्रकार थी कि दो भाई बहुत कंजूसी से रहते थे.वे देसी घी को सदैव अलमारी में बंद कर के रखते थे जब रोटी खानी हो तो वे रोटी के ऊपर घी का डिब्बा घुमा लेते थे और मज़ा लेकर खा लेते थे.एक बार बड़ा भाई दो दिन के लिए बाहर गया और घी का डिब्बा अलमारी में बंद कर गया.जब वह लौटकर आया तो दुखी होकर छोटे भाई से कहने लगा कि मेरी वज़ह से तुझे दो दिन बिना घी के रोटी खानी पड़ी?इसपर छोटे भाई ने कहा नहीं भईया में अलमारी के ताले के आस-पास रोटी घुमा लेता था और मज़े से खा लेता था.इतना सुनते ही बड़े भाई ने उसे एक झापड़ लगाते हुए कहा कि तू दो दिन भी बिना घी के रोटी नहीं खा सकता?
यह पढने ने भले ही आश्चर्य जनक लगे पर हमें भविष्य मेंइस स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए क्योंकि घी ही क्या फल,सब्जी,सोना-चाँदी तथा अन्य रोजमर्रा कि चीजों के दम जिस तरह से आसमान छू रहे हैं उससे तो लगता है कि हमारी आने वाली पीढ़ी को देसी घी मुजियम में देखने को मिलेगा और सोने-चाँदी के जेवरात केवल तस्वीरों में नज़र आयेंगे.आज हम जिस तरह चटनी खा रहे हैं उस तरह भविष्य में सब्जी खायी जाएगी और कई सब्जिओं के बारे में बोटनी कि प्रयोगशालाओं में पढाया और दिखाया जायेगा क्यूकि बाज़ार में तो वे मिलेंगी ही नहीं.
ये कई मनगढ़ंत बात नहीं है बल्कि भारत सरकार के आंकड़े ही बताते हैं कि अभी भी मुद्रा स्फीति कि दर सर्कार के काबू से बाहर हो गयी है. सरकार के मुताबिक ढूध कि कीमतों में २१.९५ फीसदी का इजाफा हो चूका है.दल में ३०.४२ प्रतिशत का,सब्जिओं में ३१.९० का,ईंधन में १२.५५ का ,स्टील में ११.४० प्रतिशत का इजाफा हुआ है.यही हाल बाकी वस्तुओं का है.सोने-चाँदी के बारे में कुछ कहना सूरज को दिया दिखने के सामान है क्योंकि इनकी कीमतें तो इनकी कीमतें तो रोज ही नए रिकोर्ड बना रही हैं.खुद वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी मानते हैं कि मुद्रा स्फीति के और भी बढ़ने कि सम्भावना है.इसका मतलब है कि झोला भरकर पैसे (रूपये)ले कर बाज़ार जाओ और जेब में खाने-पीने का सामान रखकर लाओ.

बुधवार, 19 मई 2010

...बेटी हो तो ऐसी

बेटियां अपने साहस से ऐसी मिसाल कायम करती हैं कि आम लोग कह उठते हैं कि बेटी हो तो ऐसी। कुछ ऐसा ही उदाहरण हापुड की मीनू ने पेश किया है। उसने न केवल फेरों से पहले ज्यादा दहेज की मांग कर रहे दूल्हे को ठुकरा दिया बल्कि दहेज लोलुप लोगों के खिलाफ मामला दायर कराकर एक नजीर भी पेश की।

मोहल्ला इंद्रगढी निवासी चरण सिंह की पुत्री मीनू का विवाह दादरी (गौतमबुध्द नगर) के निवासी जूनियर इंजीनियर सुनील पुत्र रामपाल के साथ तय हुआ था। इंद्रगढी पहुंची और विवाह की रस्म शुरू हो गई। आरोप है कि सुनील और उसके पिता ने फेरों से पहले रात करीब दो बजे दुल्हन पक्ष से 42 हजार रूपये की मांग की और चेतावनी दी कि मांग पूरी न होने तक शादी की रस्म नहीं होगी। दहेज में एकाएक 42 हजार रूपये की मांग करने पर और कई घंटों की समझाईश के बाद भी इस शर्त से टस से मस नहीं होने पर मीनू के परिजनों ने दूल्हे, उसके पिता और भाई की जमकर धुनाई कर दी और उन्हें 4 घंटे तक बंधक बनाए रखा। वधु पक्ष के लोग इतने गुस्से में थे कि मौके पर पहुंची पुलिस को भी एक बार खदेड दिया गया। किसी तरह पुलिस बंधकों को मुक्त कराकर थाने ले गई।

जानवरों के इंजेक्शन से बच्चियां बन रहीं जवान

सब्जियों का आकार बढाने और जानवरों से ज्यादा दूध हासिल करने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला ऑक्सीटोसिन का इंजेक्शन अब छोटी बच्चियों को समय से पहले जवान बनाने के लिए लगाया जा रहा है। इससे देशभर के वेश्यावृत्ति के बाजार में नन्हीं लडकियों के शोषण का खतरा बत्रढ गया है।

गौरतलब है कि ऑक्सीटोसिन का इस्तेमाल सामान्य तौर पर जानवरों का दूध बढाने के लिए किया जाता है। इसी तरह सब्जियों का आकार और उनका रंग निखारने के लिए भी आजकल इस इंजेक्शन का इस्तेमाल चोरी-छिपे होने लगा है लेकिन अब वेश्यावृत्ति के धंधे में धकेलने से पूर्व मासूम बच्चियों को बडा करने के लिए ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन लगाया जाने लगा है। सूत्रों ने बताया कि छोटी बच्चियों को शुरू से ही अच्छी खुराक दी जाती है। साथ में ऑक्सीटोसिन और अन्य हार्मोन बढाने की दवाइयां भी नियमित खिलाई जाती हैं। दस वर्ष की बालिका इस प्रयोग से जवान नजर आती है। उसके शारीरिक बदलाव की रफ्तार अचानक तेजी से बढती है। इससे लडकियों की त्वचा भी अन्य लडकियों के मुकाबले आकर्षण और मुलायम हो जाती है और ग्राहकों को आकर्षित करने में सफल रहती हैं। उधर ऑक्सीटोसिन के इस तरह लडकियों पर किए जा रहे प्रयोग पर चिंता जताते हुए डॉक्टरों ने कहा कि ऑक्सीटोसिन के सेवन से मानव अंगों पर विपरीत असर पडता है। अधिक सेवन से किडनी, हार्ट, लीवर आदि खराब हो जाते हैं। मासूम लडकियों पर इस तरह इसका प्रयोग अमानवीय और अप्राकृतिक कृत्य है।

मंगलवार, 18 मई 2010

वाकई २०० साल जीने लगा आदमी तो क्या होगा?

बाबा रामदेव का कहना है की यदि लोग नियमित योग करें और खान-पण में मर्यादित व्यव्हार करें तो १५० से २०० तक जीने की कल्पना को साकार किया जा सकता है.रामदेव ने तो आजतक न्यूज़ चैनल के साथ बातचीत में ये दावा भी किया कि वे खुद कम से कम १५० साल तक जीकर दिखायेंगे . आम लोगो के लिए मौजूदा दौर में २०० साल तक जीने की कल्पना किसी स्वप्न जैसी है क्योंकि अभी तो इंसान को ये भरोसा भी नहीं है कि वो कल का सूरज भी देख पायेगा कि नहीं और यदि आप दिल्ली जैसे किसी महानगर में रहते हैं तो फिर आपकी आयु वहां के प्रदूषण,शोर और ब्लू लाइन बसों के चालकों की मर्ज़ी पर निर्भर करेगी.शयद बाबा रामदेव भी ये कारण जानते हैं तभी तो उन्होंने कार बनाने वाली कम्पनिओं की तर्ज़ पर "आदर्श स्थितिओं "वाली शर्त जोड़ दी है.अक्सर कम्पनिया भी तो अपने दावों पर यही तर्क देती हैं कि आदर्श स्थितिओं में ही दावा किया गया माइलेज मिलेगा.वैसे बाबा रामदेव ने अब तक जो भी दावे किये हैं वे बिलकुल सही निकले हैं और अब तो हमारे तथाकथित तर्कवादी और डॉक्टर भी उनके दावो को सही बताकर योग-कपालभाती-अनुलोम विलोम और भ्रामरी करने लगें हैं इसलिए यदि बाबा कह रहे हैं कि इंसान २०० साल तक जी सकता है तो इस बात में भी कुछ न कुछ दम ज़रूर होगा!
सोचिये यदि वास्तव में हम १५०-२०० साल तक जीने लगे तो क्या हाल हो जायेगा जैसे सर्कार को रिटायर्मेंट कि उम्र ६० से बढाकर १२० या १८० साल तक करनी पड़ेगी और फिर नौकरी और छोकरी(विवाह) पाने कि आयु भी बढकर दो गुना से ज्यादा हो जाएगी.फिर लोग कहते सुने जायेंगे कि बिटिया अब साठ कि हो गए है इसलिए जल्दी से कोई अच्छा सा ६५-७० साल का लड़का देखकर उसके हाथ पीले करने हैं. इसीतरह दादा-दादी तथा नाना-नानी नाती-पोते नहीं बल्कि पंती और उसके बाद की कई पीढी के विवाह और बच्चे देखने की बात करेंगे.सबसे ज्यादा मारामारी तो राजनीती में होगी क्योंकि कोई नेता रिटायर ही नहीं होगा.अरे जब आम आदमी ही १५० साल जीने लगेगा तो हमारे नेताओं की उम्र इससे ज्यादा ही होगी.फिर मनमोहन सिंह सालो-साल प्रधानमंत्री बने रहेंगे और सोनिया-गडकरी-लालू और मुलायम जैसे नेता सैकड़ों साल तक अध्यक्ष...कुर्सी की लड़ाई इसी तरह और कठिन होती जाएगी तो तैयार रहिये भविष्य की इस जद्दो-ज़हद के लिए .....

सोमवार, 17 मई 2010

हर साख पे उल्लू बैठा है अंजामे गुलिश्तां क्या होगा..

यात्रिओं को यूँ ही मरने के लिए छोड़ दिया जाता है?मेडिकल शिक्षा का स्तरसुधरने की ज़िम्मेदारी रखने वाले केतन देसाई खुद ही इस स्तर को बिगाड़ने के लिए रिश्वत लेते पकडे जाते हैं ,तकनीकी शिक्षा परिषद् में भी ऐसा ही हो चुका है, दिल्ली के मंत्री को सुरक्षा जांच से गुजरना पड़ा तो उन्होंने होटल पर छापे पड़वा दिए,आई पी एल के आयोजक ही टीमों के साथ मिलकर घोटाला कर रहें हैं और हमारे केन्द्रीय मंत्री कभी चीनी तो कभी दाल के दाम बढवा रहे हैं ,कोई संचार तंत्र को बेचने पर आमादा हैं और कुछ मंत्रिओं के लिए प्रधानमंत्री कोई मायने नहीं रखते इसलिए वे कहीं भी-कभी भी कुछ भी कह बैठते हैं और ये भी नहीं सोचते की इससे देश की प्रतिष्ठा पर क्या असर हो सकता है.इन सब के लिए "में" ज्यादा मायने रखता है बजाय "हम' या अपने देश के! इसलिए कभी-कभी लगता है-क्या होगा हमारे देश का? क्या चुचाप रहते हुए देश को ऐसे लोगों के भरोसे छोड़ देना ठीक है या फिर इन्हें सुधरने के लिए हम सब को मिल-जुलकर कुछ करना चाहिए?आम आदमी आखिर किस पर भरोसा करे?भ्रष्ट नेताओं पर?काली कमाई में जुटे आला अफसरों पर? गरीब जनता के नाम पर पैसा पीट रहे स्वयं सेवी संगठनों पर या फिर आम जनता को लूटने के लिए तैयार बैठे पुलिस विभाग पर?
अस्पताल से डॉक्टर का गायब होना आम बात है?पुलिस का रिश्वत लेना पेशे का हिस्सा हो गया है?नेताओं का आश्वासन देना दर्म बन गया है और दर्म के ठेकेदारों की बैटन में आकर आपस में लड़ना हमारी नियति?देश पर क़र्ज़ बाद रहा है और नेताओं के स्विस बैंकों में खाते...आम आदमी दाल-रोटी के लिए दिन-रत संघर्ष कर रहा है और चंद लोग अपने कुबेर के खजाने के बाद भी आपस में लड़ रहें हैं.महंगी और नई करें रोज सड़कों से बलात्कार कर रहे हैं और बेचारा आम इंसान साईकिल भी नहीं चला पा रहा .महानगरों में लोग बसों में ठुसे जा रहें हैं परचंद फीसदी कार सवारों को बीआरटी से दिक्कत है क्यूंकि यह उनका रास्ता कम कार रहा है उन्हें इस बात की परवाह नहीं है की इससे कुल जनसँख्या के ७० फीसदी बस में चलने वाले आम लोगों को राहत मिलेगी .सब को आपनी पड़ी है ...देश के बारे में सोचना समय की बर्बादी हो मन जाने लगा है?ऐसे में क्या होगा हमारे देश का....?सोचिये..?

गुरुवार, 13 मई 2010

आखिर कुत्तों की भी तो कोई इज्ज़त है?

कुत्ता समाज इन दिनों बहुत नाराज़ है खासतौर पर भाजपा के मुखिया नितिन गडकरी के खिलाफ तो वे मानहानि का मुकदमा दायर करने के मूड में हैं.कुत्ता समाज का कहना है की इन नेताओं ने हमें समझ क्या रखा है.कुत्ता समाज की युवा शाखा ने तो चेतावनी दे डाली है की यदि उनके विरुद्ध यह दुष्प्रचार बंद नहीं किया गया तो वे सीधे कारवाई करने के लिए मजबूर हो जायेंगे.युवा कुत्ते तो अब मरने-मारने(पढ़े काटने)के मूड में हैं पर समाज के बुजुर्गो ने उन्हें समझा बुझाकर रोक रखा है.समाज की आपत्ति उनकी इंसानों से तुलना को लेकर है.कुत्ता समाज का मानना है की इंसानों तक तो फिर भी ठीक था लेकिन नेताओं से तुलना करके तो अब हद हे पर कर दे गए है.नितिन गडकरी के बयान ने कुत्तों की नाराज़गी में आग में घी डालने का कम किया है.यह बताने की ज़रूरत नहीं है की गडकरी ने लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह को सोनिया गांघी के तलवे चाटने वाले नेता करार दिया है.कुत्तो की राय है की टुच्ची राजनीती में हमारा नाम नहीं घसीटा जाय ,यदि नेताओं को उपमा ही देने है तो किसी और जानवर का इस्तेमाल करें और वैसे भी उन्ही(नेताओं) के बीच में इतने उपमाए/तुलनाए मौजूद हैं की किसी दुसरे से तुलना करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी.कुत्ता प्रमुख ने इस बात को स्वीकार किया की हम तलवे चाटते हैं परन्तु यह हमारा पेशा और समाज को मिला प्रकर्ती प्रदत्त गुण है .हम जिसके भी तलवे एक बार चाट लेते हैं जीवन भर उसके साथ वफादारी निभाते हैं नेताओं की तरह बार बार पाला नहीं बदलते.नेता तो मौका पड़ते ही जिस के तलवे चाट रहे हैं उसी की पीठ में छुरा घोंप देते हैं लेकिन हमारे साथी हर हाल में वफ़ादारी निभाते हैं.कुत्ता समाज का कहना है की पहले फिल्मों में नायक खलनायक को कुत्ता कहकर अपमानित करता था .उन्हें फिल्म शोले का वो संवाद भी याद है "कुत्ते में तेरा खून पी जाऊंगा ".अब बताइए पहले तो कुत्ता करकर गाली देते हैं और फिर हमारा ही खून पीने की बात करते हैं...ये कहाँ का न्याय है.कुत्ता समाज नेताओं के अलावा अभिनेता धर्मेन्द्र और उनके बेटे सनी देओल से भी बहुत नाराज़ है क्योंकि इन दोनों ने भी उन्हें सबसे ज्यादा बदनाम किया है.कुत्ता समाज को अपनी इमानदारी,वफादारी और तलवे चाटने की कला पर गर्व है इसलिए वे इनपर कापीरायट लेने की तैयारी कर रहे हैं ताकि कई नेता इसका फायदा उठाकर अपनी नेतागिरी न चमका सके और इन शब्दों का इस्तेमाल किसी को अपमानित करने के लिए न कर सके.आखिर कुत्तों की भी तो कोई इज्ज़त है?

बुधवार, 12 मई 2010

माननीयों को चाहिए बस मकान....फिर क्यों करें काम

हमारे परमपूज्य और आदरणीय "माननीयों" को तो बस मकान चाहिए ,कैसे भी ?किसी भी नियम को तोड़कर या फिर कोई भी नया नियम बनाकर .माननीयों से मेरा आशय हमारे सांसदों और विधायकों से है.चूकिं बार बार संसद-विधायक लिकने में टाइम खर्च होगा और फिर इनका सम्मान भी काम हो सकता है इसलिए माननीय शब्द से काम चला रहा हूँ.मकान के लिए हमारे माननीय काम की भी परवाह नहीं करते फिर वह काम देश की प्रगति से ,सरकार चलने से या आम जनता की भलाई से ही क्यों न जुड़ा हो? यह बात अलग है की जब इनके अपने काम की बारी आती है तो सब मिल-जुलकर सारे गिले शिकवे भूलकर और समय की परवाह न करते हुए भी उसे पूरा करके ही दम लेते हैं मसलन अपना वेतन -भत्ते बढवाना .जहाँ तक हमारे-आपके हितों से जुड़े काम की बात है जैसे महंगाई ,भ्रष्टाचार महिला आरक्षण,नक्सली हमले,आतंकवाद जैसे विषयों पर चर्चा करनी और कानूनी उपाय करना हो तो ये आपस में फिजोल की बहस कर सारा समय ख़राब कर देते हैं.ये मेरी भड़ास नहीं बल्कि संसद के आंकड़े हैं जिनमे बताया गया है की इन माननीयों ने संसद के बजट सत्र का किस तरह बेड़ा गर्क किया.२२ फरवरी से लेकर ७ मई तक चले इस सत्र में कुल३८५ घंटे कारवाई होनी थी पर इनके हंगामे के कारण ११५ घंटे ख़राब हो गए.इसमें से ७० घंटे हमारे चुने हुए जन प्रतिनिधियों ने बर्बाद किये तो ४५ घंटे मनोनीत अर्थात राज्यसभा से सदस्यों ने .इसके फलस्वरूप २७ में से मात्र ६ विधेयक ही सरकार पास करा पाए और बाकी अगले सत्र तक लटक गए.संसद में बर्बाद हुए ११५ घंटों का यदी हिसाब लगाया जाये तो वह करोड़ नहीं अरबों रूपए होता है पर इनका का जाता है इन्हें तो मकान चाहिए और मकान भी ऐसे-वैसे नहीं बल्कि लाखों रूपए की कीमत वाले,शानदार लोकेशन में स्थित मकान चाहिए वे भी सस्ती कीमत पर जैसे कॉमनवेल्थ खेलगांव ,दिल्ली में बन रहे मकान या फिर म्हाडा (मुंबई)के आलिशान मकान.दरअसल सारे माननीय मकान के मामले में दलगत राजनीति से ऊपर उठकर एक साथ हैं इसलिए कोई उनका कुछ बिगाड़ भी नहीं सकता.हिंदी में प्रचलित है न के "चोर-चोर मौसेरे भाई"और "सारे कुयें में ही भंग घुली हो तो फिर किसका दोष" .ऐसा ही एक और मुहावरा है " समरथ को नहीं दोष गुसाईं "...तो फिर आओ सरकारी संपत्ति लुटते देखें !

सोमवार, 10 मई 2010

बेटी की हत्या और माँ की पूजा:ये कैसा मदर्स डे

हम भारतीय लोग दिखावे के मामले में शायद दुनिया में सबसे अव्वल हैं तभी तो बेटी को तो पैदा होते ही या जन्म लेने के पहले ही मार देते हैं और मदर्स डे इतनी धूमधाम से मानते हैं मानो हमसे बड़ा माँ का भक्त कोई और नहीं है.मेरे इस बात से शायद अधिकतर लोग इत्तेफाक रखते होंगे की दिल्ली सहित पंजाब,हरियाणा और उन तमाम राज्यों में जहाँ पुरुष-महिलाओं के बीच अंतर सबसे ज्यादा है और जहाँ सबसे ज्यादा भ्रूण हत्या का मामले सामने आ रहें हैं वाही के लोग बढ-चढ़कर मदर्स डे मना रहे हैं. हमारी साड्डी दिल्ली में तो कार्ड और गिफ्ट गैलरिओं में बीते कई दिनों से मेला सा लगा है ..हर मॉल में दुकाने सजी हैं ..होटलों में उस माँ के नाम पर नई-नई डिशे परोसी और भकोसी जा रहे हैं जिसे शायद सामान्य दिनों में पानी के लिए भी नहीं पूछते.पूरा बाज़ार ममतामय है माँ की ममता में .वही दूसरी और घर लौटते ही इनमे से कई लोग अपनी पत्नी (माँ का इक और रूप ) को कोसने,गरियाने और लतियाने में पीछे नहीं रहते . कुछ ऐसे भी हैं जो शायद मदर्स डे के दिन ही अपनी पत्नी को डॉक्टर को दिखाकर ये सुनिश्चित कर आयें हो की उसके पेट में बेटा ही है और यदि बाती है तो डॉक्टर से उसके सफाई का समय निर्धारित करवा आयें होंगे.ये सब करने के बाद भी वे मदर्स डे मनाने में कई कमी नहीं छोड़ रहे होंगे?आखिर माँ आती कहाँ से है-आसमान से ,पहाड़ से या फिर समुद्र से निकलती है ?अरे आज की बेटी ही तो कल किसी की माँ होगी ?तो फिर हम कौन होते हैं सृष्टि के इस चक्र को बदलने वाले?यदि हम्मरे पूर्वजों ने भी यही किया होता तो आज हमारा अस्तित्व ही नहीं होता?जब हमने माँ का पूरा लाड-प्यार पाया है तो नई पीढी को इससे वंचित रखने वाले हम कौन होते हैं?

मदर्स डे तो हमने धूमधाम से मना लिया लेकिन यह जानने की कोशिश भी की है की हम्मरे देश में हर १००००० प्रसव के दौरान २५४ माएं धाम तोड़ देती हैं क्यूकि उन्हें समय पर इलाज नहीं मिल पता .इसका मतलब है की हर आठवे मिनट में बच्चे को जन्म देते समय इक माँ की मौत!इस तरह देश में हर साल ६५००० महिलाओं की जान चली जाती है .विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है की भारत में इस स्थिति में सुधार की २०७६ तक कोई सम्भावना नहीं है क्यूकि हमारी सरकार के पास हथियार खरीदने के लिए तो पैसा है पर इन महिलाओं की बेहतरी के लिए नहीं है.हमारे पास भी मदर्स डे की तरह हर छोटा-बड़ा पर्व मनाने के लिए तो समय और भरपूर पैसा है पर माँ के इलाज के नाम पर जेब खाली है .तो फिर मदर्स डे के नाम पर ये ढकोसला क्यों?

रविवार, 9 मई 2010

निरुपमा के बहाने चैनल चर्चा

टी वी चैनल पर मेरे साथ बैठकर निरुपमा पाठक मामले दे सम्बंधित न्यूज़(?) देख रही मेरी आठ साल की बेटी की बेटी ने पूछा-‘पापा आप और मम्मा तो ऐसा नहीं करोगे?” सवाल सुनकर मेरे तो होश उड गए.फिर लगा जब मेरे बेटी ऐसा सोच सकती है तो और भी बच्चों के मन में यह सवाल ज़रूर आया होगा?कई तो और भी चिती उम्र के बच्चे होंगे?क्या मीडिया को बालमन से इसतरह खिलवाड़ करने देना चाहिए?इसलिए इस विषय पर कुछ लिखने और आप सबसे अपने मन की बात साझा करने से अपने आपको रोक नहीं पाया...

इन दिनों टी वी चैनेलों में निरुपमा को न्याय दिलाने कि होड़ मची है –हमारी नीरू,बेचारी नीरू,निरुपमा को न्याय जैसे लुभावने शीर्षकों के ज़रिए खबर बेचने का बाजार लगा है.इस होड़ में हर चैनल जज बन गया है.अभी नीरू कि मौत कि जांच ठीक से रफ़्तार भी नहीं पकड़ पाई है और हमारे “खबर जासूस” रोज नया फैसला सुना रहे हैं.कभी नीरू कि माँ तो कभी उसका प्रेमी(शायद पति?) के सर हत्या का फैसला सुनाया जा रहा है.हत्या जैसे जघन्य मामले को भी ऑनर किलिंग कहा जा रहा है.इकतरफा ख़बरों का यह आलम है कि इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाते चंद कम उम्र के बच्चों,इनमें भी ज़्यादातर प्रियाभान्शु के दोस्त थे की राय जानकार आधा घंटे का बेशकीमती वक्त जाया कर दिया गया जबकि पत्रकारिता के सिद्धांतों के मुताबिक दूसरे पक्ष की बात शामिल करना भी उतना ही ज़रुरी है.ऐसा भी नहीं है कि इन चैनलों के पास नीरू के घर जाने के साधान नहीं हैं जब वे माइकल जैक्सन को दिखाने के लिए अमेरिका और इंग्लैंड जा सकते हैं तो झारखंड कितना दूर है?

इससे भी बड़ा सवाल यह है कि इस तरह के कार्यक्रमों को टी वी पर देख रहे लाखों बच्चों और उनके माता-पिता की दशा क्या होगी ?क्या उनके मन में आपस में दुराव पैदा नहीं हो जायगा?इन लोगों से जुड़े परिवारों,उनके रिश्तेदारों पर क्या बीत रही होगी? जो नुकसान छोटे परदे की महारानी एकता कपूर ने अपने सास-बहू मार्का धारावाहिकों से हमारे समाज और परिवारों का पांच साल में किया था वही नुकसान टी वी पर प्रसारित इस तरह कि ख़बरें चंद मिनटों में कर दे रही हैं.टी वी चैनल नीरू कि मौत को भी खाफ पंचायतों के ऊल ज़लूल फैसलों से जोड़कर दिखा रहें हैं.कुछ यही हाल इन्होंने नॉएडा की आरुषि के मामले का किया था.

क्या बिना सच जाने माँ-बाप और बच्चों के बीच ऐसा अविश्वास पैदा करना उचित है?टीआरपी की होड़ में कुछ भी दिखा-सुना रहे इन चैनलों की समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनतीं?वैसे भी मामले कि जांच करना या फैसला देना तो न्यायपालिका का काम है,हाँ मीडिया उसके लिए दबाव ज़रूर बना सकता है पर सीधे-सीधे फैसला सुना देना तो मीडिया का काम नहीं है?अब भी टी आर पी की यह जंग नहीं रुकी तो भविष्य के स्थिति का अंदाज़ा लगाया जा सकता है ?

नोट: मेरी बात का कुछ और मतलब निकला जाय या फिर बात का बतंगड बनाया जाय इसलिए मैं साफ़ कर देना चाहता हूँ कि पत्रकार बिरादरी का सदस्य होने के नाते मुझे भी पत्रकार निरुपमा पाठक कि मौत का उतना ही दुःख है जितना उसके साथिओं को होगा.इस टिप्पडी का उद्देश्य निरुपमा कि असामयिक मौत के बाद टी वी चैनलों पर मचे तमाशे और उसके दुष्परिणामों कि ओर इशारा करना है.

शनिवार, 8 मई 2010

मेरी माँ .....मम्मा





शुरुआत दो अलग अलग तेवरों वाले उदाहरणों से ...

प्रथम :एक बार स्वामी विवेकानंद से किसी ने पूछा कि हमेशा माँ को इतना महत्त्व क्यों दिया जाता है तो उन्होंने उस व्यक्ति दे कहा कि ये दो किलो का पत्थर लो और इसे अपने पेट पर बांधकर शाम तक घूमों.जब तुम वापस आओगे तब मैं इसका उत्तर दूँगा.शाम को जब वह व्यक्ति वापस आया तो उसकी हालत खराब थी उसने कहाँ स्वामीजी आपकी शर्त ने तो मेरे प्राण ही निकल दिए तब विवेकानंद ने कहाँ सोचो यदि इस भार  के साथ दिन भर में तुम्हारी हालत खराब हो गई तो तुम्हारी माँ ने तो इस भार  को पूरे नौ माह तक खुशी –खुशी बर्दाश्त किया है इसलिए माँ कि महानता को सबसे ऊंचा दर्ज़ा हासिल है.

द्वितीय:एक अँगरेज़ से भारतीय ने पूछा कि मेरे तीन भाई बहन हैं ,तुम्हारे कितने भाई-बहन हैं तो अँगरेज़ ने उत्तर दिया एक भी नहीं परन्तु मेरी एक माँ से चार पिता और मेरे पहले पिता से पांच माँ ज़रूर हैं .

ये दोनों उदाहरण दो भिन्न भिन्न संस्कृतिओं को अभिव्यक्त करते हैं.इसलिए भले ही मदर डे कि शुरुआत पश्चिमी देशों से हुई हो लेकिन इसका महत्त्व हम भारत वासी ही जानते हैं.भारत से याद आया कि भारत कुमार के नाम से चर्चित अभिनेता मनोज कुमार ने तो अपनी एक फिल्म में बकायदा गीत के ज़रिए माँ का महत्त्व बताया है.याद है वो मशहूर पंक्तियाँ जिनमें उन्होंने बताया था कि हमारे देश में नदियों को भी माता कहकर बुलातें हैं.वाकई हम गंगा को गंगा माँ ही तो कहतें हैं और कहें भी क्यों न जब वो हमारी पूरी गंदगी  को अपने में समाहित कर लेती है.दरअसल माँ भी तो यही करती है हमारी सारी गलतियों को माफ कर हमें अपने आँचल की छाँव  प्रदान करती है.तो हुई न माँ सबसे महान.मदर डे के बहाने ही सही क्यों न माँ के लाड़-प्यार,मनुहार,मीठी लोरिओं,प्यार से पगी बोलियों और स्वादिष्ट भोजन को याद कर लें.माँ के इस क़र्ज़ को चुकाना तो नामुमकिन है फिर भी उसकी खुशी कि खातिर कम से कम एक दिन के लिए ही हम अपना आडम्बर,दिखावा और बड़े हो जाने का एहसास त्याग दें और फिर उसके आँचल का सहारा ले लें .शायद इससे माँ को जो खुशी मिलेगी वह खुशी उसे हम मॉल कि मंहगी साड़ी,इत्र और नकलीपन से भरे वातावरण में खाना खिलाकर भी नहीं दे सकते.

माँ के बारे में मशहूर शायर मुनव्बर राणा ने लिखा है:

लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती

बस एक माँ है जो मुझसे खफा नहीं होती

मेरी ख्वाहिश है कि में फिर से फरिश्ता हो जाऊँ

माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि फिर से बच्चा बन जाऊँ

गुरुवार, 6 मई 2010

नेताओं की टी आर पी

सामान्य पाठकों के लिए टी आर पी का मतलब टी वी रेटिंग प्वान्ट होता है और इसको नापने का पैमाना यही है की किसी भी कार्यक्रम को कितने दर्शक देख रहें हैं.कार्यक्रम जितना ज्यादा लोकप्रिय होगा उसकी टीआरपी भी उतनी ही ज्यादा होगी .सोचिये यदि हमारे नेताओं अर्थात सांसदों और मंत्रिओं की भी संसद में उनकी भागेदारी को लेकर टीआरपी भी नापी जाने लगे और इसके लिए पैमाना टेली विजन वाला ही रखा जाये तो क्या स्थिति होगी ? जो नेता दूरदर्शन और निजी समाचार चैनलों पर जितना ज्यादा दिखेगा उसकी टी आर पी भी उतनी ही ज्यादा होगी....यदि ऐसा हो गया तो अभी तक लोकसभा के बेल (कुआं नहीं ,वहां तो वे जनता को गिराते हैं) में जाकर हंगामा करने वाले सांसदों की तो लाटरी ही लग जाएगी.कुछ यही हाल बात बात पर गला फाड़कर चिल्लाने वाले नेताओं का होगा .सबसे अच्छी टीआरपी पाने की होड़ में हमारे नेता संसद का और भी वक्त बर्बाद करने लगेंगे और आम जनता के गाढे पसीने की कमाई इसी तरह लुटती रहेगी .मज़ा तो तब आयेगा जब एस टी आर पी के आधार पर "एड देने लगें तब तो हंगामे के कमाई का नया रास्ता ही खुल जायेगा .संसद की हुल्लड़ ब्रिगेड के मुखिया लालू प्रसाद तो एड से रचे बसे नज़र आयेंगे .उनके सीने पर अडिदास का लोगो होगा तो बाजू पर नाएके और पीठ पर हल्दीराम या पेप्सी -कोक जैसी किसी कम्पनी का ठप्पा लगा नज़र आएगा .मुलायम सिंह की समाजवादी लाल टोपी पर भी गोदरेज या वीडियोकोन के रंग दिखाई देंगे .रामविलास पासवान ,रघुवंश प्रताप सिंह ,मणि शंकर अय्यर ,चाचाजी(अभिषेक बच्चन के) अमर सिंह,अनंत कुमार जैसे तमाम चिल्लपों वीर वेतन से ज्यादा एड से कमा रहें होंगे .इसी तरह सुषमा स्वराज ,ममता बनर्जी ,मेनका गाँधी की साड़ियाँ भी अलग अलग कम्पनी का प्रचार करती दिखाई देंगी .नेताओं में अपनी अपनी टी आर पी बढ़ाने की होड़ मच जाएगी और फिर संसद का हाल क्या होगा इसका तो भगवान ही मालिक होगा? जूते-चप्पल चलना आम बात हो जायेगा क्योंकि जो जितना विवादित होगा उसकी टी आर पी भी उतनी ही ज्यादा होती जायगी और एड से कमाई भी .तो फिर तैयार रहिये भारतीय राजनीति की इस नई नौटंकी को देखने के लिए ......

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...