अन्ना हजारे और हमारे चरित्र का दोगलापन!
शुरुआत एक किस्से से-एक सेठ प्रतिदिन दुकान बंदकर एक संत के प्रवचन सुनने जाते थे और सभी के सामने उस संत का गुणगान कुछ इसतरह करते थे कि मानो उनके समान कोई और संत है ही नहीं और सेठ जी के समान संत का कोई अनुयायी. सेठ जी प्रवचन स्थल पर संत की हर बात का आँख मूंदकर पालन करते थे. संत अपने प्रवचनों में आमतौर पर प्रत्येक जीव से प्रेम करने की बात कहते और मूक जीव-जंतुओं के साथ मारपीट नहीं करने की सीख देते थे. एक दिन सेठ जी प्रवचन में अपने बेटे को भी लेकर गये.बेटे ने श्रद्धापूर्वक संत की बातें सुनी और उन पर अमल की बात मन में गाँठ बाँध ली. कुछ दिन बाद सेठ जी दुकान बेटे के भरोसे छोड खुद प्रवचन सुनने जाने लगे. एक दिन दुकान में एक गाय घुस गयी और दुकान में रखा सामान खाने लगी। यह देखकर सेठ जी का बेटा गाय के पास बैठ गया और उसे सहलाने लगा। थोडी देर बाद जब सेठजी दुकान पहुंचे तो यह दृश्य देखकर आग बबूला हो गए और बेटे को भला-बुरा कहने लगे. इस पर बेटे ने संत के प्रवचनों का उल्लेख करते हुए कहा कि गाय को कैसे हटाता, वह तो अपना पेट भर रही थी और उसे मारने पर जीवों पर हिंसा होती. इस पर सेठ ने कहा ‘बेटा प्रवचन सिर्फ वहीँ सुनने के लिए होते हैं बाहर आकर जीवन में अपनाने के लिए नहीं.’ कुछ यही स्थिति हमारे समाज की है.इसका नवीनतम उदाहरण अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान उमडा जनसमूह और उसकी कथनी और करनी में अन्तर है.
अन्ना हजारे सार्वजनिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए ‘लोकपाल’ के गठन के लिए संघर्ष कर रहे हैं और आश्चर्य की बात यह है कि अपने कार्य व्यवहार में भ्रष्टाचार का प्रतीक बन चुका मध्यम और उच्च-मध्यम वर्ग ही उनका सबसे बड़ा समर्थक बनकर उभरा है.सरकारी दफ्तरों में खुलेआम रिश्वत लेने वाले बाबू जंतर-मंतर से लेकर आज तक अन्ना के सबसे बड़े पैरोकार हैं.कार्यालीन समय में काम की बजाये बाहर खड़े होकर चाय-पकोड़ी खाते हुए सरकारी कर्मचारी अन्ना के जरिये व्यवथा परिवर्तन का स्वप्न देख रहे हैं और दफ्तर के अंदर जाते ही फिर कामचोरी/रिश्वत/चुगली या फिर भ्रष्टाचार के नए-नए तरीके खोजने में जुट जाते हैं.दफ्तर में बैठकर वे तमाम तरह के कर बचाने और दूसरों को कर चोरी करने के गुर सिखाने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं. यही वर्ग बेटे की शादी में पैसे के फूहड़ प्रदर्शन करने,मनमाना दहेज लेने, दहेज की कमी पर बहू के साथ मारपीट, संतान के रूप में सिर्फ पुत्र की कामना करने और बेटे के लिए कई अजन्मी बेटियों को कोख में ही मार डालने,बाल विवाह का समर्थन करने और व्यवस्था बदलने का वक्त आने पर मतदान के दिन छुट्टी मनाने के लिए बखूबी जाना जाता है .
इसीतरह किसी भी प्रदर्शन-आंदोलन में सबसे आगे झंडा लेकर चलने वाला युवा वर्ग परीक्षा में नक़ल करने,पढ़ाई से बंक मारकर सिनेमा देखने,पैसे देकर प्रश्नपत्र खरीदने,लड़कियों के साथ छेड़खानी,लाइन तोड़कर फीस भरने,फर्जी प्रमाणपत्रों के जरिये स्कूल-कालेज में एडमिशन लेने,रिश्वत देकर नौकरी का जुगाड़ करने जैसे उन तमाम कामों में जुट जाते हैं जिनका वे अन्ना के साथ मिलकर विरोध करते रहे हैं.
अन्ना या उनकी तरह के आंदोलनों में आर्थिक रूप से सहभागी बनने वाला उच्च वर्ग और कारपोरेट जगत तो देश की साफ़-सुथरी व्यवस्था को पदभ्रष्ट करने और रिश्वत की संस्कृति के संरक्षक के रूप में जाना जाता है.कारपोरेट जगत पर काला धन जमा करने,कर चोरी,सहकारी और स्थानीय तौर पर ग्रामीण उत्पादों के प्रचार-प्रसार में जुटी संस्थाओं को खत्म कर बहुराष्ट्रीय उत्पादों को स्थापित करने,अपने कर्मचारियों का शोषण कर अधिकतम मुनाफा कमाने जैसे आरोप सामान्य रूप से लगते रहते हैं.
जरा सोचिये हमारी कथनी और करनी में कितना अंतर है?हम जिन बातों के खिलाफ झंडाबरदार बन रहे हैं निजी जीवन में उन्ही बातों पर अमल करने में सबसे पीछे हैं.क्या अन्ना हजारे,स्वामी रामदेव या किसी अन्य के नेतृत्व में नारे लगाने भर से देश में भ्रष्टाचार मिट जायेगा?जब हमारे आचार-व्यवहार में इतना फर्क है तो क्या एक लोकपाल भर बन जाने से सब कुछ ठीक हो जायेगा?अगर हम व्यक्तिगत स्तर पर अपनी इस कथनी और करनी को दुरुस्त कर लें तो फिर न तो किसी लोकपाल की जरुरत होगी और न ही सरकारी डंडे की. ज़रा सोचिये.....?
शुरूआती कथानक के परिप्रेक्ष्य में सटीक और संतुलित विचार हैं आपके संजीव जी.
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