‘महालेखन’ पर महाबातचीत की महाशैली का महाज्ञान
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और महाबंद जैसे शब्द इन दिनों हमारे न्यूज़ टीवी चैनलों पर खूब गूंज रहे हैं.लगता है हमारे मीडिया को “महा” शब्द से कुछ ज्यादा ही प्रेम हो
गया है. यही कारण है कि आजकल तमाम न्यूज़ चैनल इस शब्द का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर
हैं लेकिन कई बार यह प्रयोग इतने अटपटे होते हैं कि एक तो उनका कोई अर्थ नहीं होता
उल्टा कोई पूछ बैठे तो उसे समझाना मुश्किल हो जाता है कि यहाँ ‘महा’ लगाने की
जरुरत क्या आन पड़ी थी. मसलन न्यूज़ चैनलों पर रोजमर्रा होने वाली बहस को महाबहस
कहने का क्या तुक है? क्या बहस में दर्जनों विशेषज्ञों का पैनल है? या फिर चैनल
पहली बार ऐसा कुछ करने जा रहा है जो ‘महा’ की श्रेणी में आता है. रोज के वही
चिर-परिचित चार चेहरों को लेकर किसी अर्थहीन और चीख पुकार भारी बहस आखिर महाबहस
कैसे हो सकती है? इसीतरह किसी राजनीतिक दल की रैली को महारैली या चंद शहरों तक
केंद्रित बंद को महाबंद कहने का क्या मतलब है. यदि मामूली सा बंद महाबंद हो जायेगा
तो वाकई भारत बंद जैसी स्थिति का बखान करने के लिए क्या नया शब्द गढ़ेंगे? महाकुम्भ
तक तो ठीक है लेकिन महास्नान का क्या मतलब है? इस महा शब्द के प्रति मीडिया का
लगाव इतना बढ़ गया है कि हाल ही धोनी के लगाए शतक को भी कुछ न्यूज़ चैनलों ने
‘महाशतक’ बता दिया. यदि दो सौ रन बनाना महाशतक की श्रेणी में आता है तो फिर अब तक
सहवाग का तिहरा शतक ,ब्रायन लारा का चौहरा शतक या फिर उनके द्वारा एक पारी में
बनाये गए पांच सौ रन क्या कहलायेंगे? इसीतरह सचिन,लक्ष्मण,द्रविण और गावस्कर की वे
महान परियां क्या कहलाएंगी जो देश की जीत या हार से बचाने का आधार बनी.धोनी का
दोहरा शतक महान हो सकता है और रिकार्ड के पन्नों पर अमिट स्थान बना सकता है लेकिन
‘महा’ तो नहीं कहा जा सकता. देश में हर साल बजट पेश होता है तो फिर किसी बजट को
महाबजट और उसका रुटीन कवरेज ‘महाकवरेज’ कैसे कहलायेगा.
यदि हम किसी शब्दकोष या डिक्शनरी में
तांक-झाँक करें तो ‘महा’ के लिए अत्यधिक, हद से अधिक, हद से ज़्यादा प्रबल, शक्तिमान, अति महान, प्रचुर जैसे तमाम पर्याय मिलते हैं. अब यदि कोई भी काम पहली
ही बार में हद से ज्यादा हो जायेगा तो फिर उससे बड़े कामों को हम क्या कहेंगे? न्यूज़
चैनलों पर चल रहे इस प्रयोग से मुझे दशक भर से ज्यादा पुरानी एक विज्ञापन श्रृंखला
याद आ रही है जो दिल्ली के करोलबाग के पास रैगरपुरा से शुरू हुई थी. ’रिश्ते ही
रिश्ते’ नामक इस विज्ञापन को देश के अधिकतर रेलवे स्टेशनों के करीबी इलाकों में
देखा जा सकता था और उस दौर में जब न तो टीवी था और न ही प्रचार-प्रसार का मौजूदा चमकीला-भड़कीला
अंदाज़, तब भी ‘रिश्ते ही रिश्ते’ ने धूम मचा दी थी. इसका परिणाम यह हुआ कि अब देश
के तमाम बाजारों में इसी तर्ज पर ‘ही’ लगाकर खूब शब्द गढे और बुने जा रहे हैं मसलन
बिस्तर ही बिस्तर, मकान ही मकान या फिर पुस्तकें ही पुस्तकें,लेकिन रचनात्मकता में
नक़ल अभी भी असल का मुकाबला नहीं कर सकती इसलिए बाकी ‘ही’ उतने लोकप्रिय नहीं हो
पाए. खासतौर पर दिल्ली में ऐसा ही एक प्रयोग ‘प्राचीन’ शब्द के साथ देखने को मिलता
है. इस शब्द का उपयोग मंदिरों के नाम के साथ जमकर हो रहा है जैसे प्राचीन शिव
मंदिर,प्राचीन दुर्गा मंदिर. हो सकता है वह मंदिर चंद साल पहले ही बना हो लेकिन
प्राचीन शब्द जोड़कर उसे भक्तों के लिए प्राचीन बना देना सामान्य बात हो गयी है. दिल्ली
वाले ‘पुरानी दिल्ली की मशहूर कचौड़ी’ जैसी पंचलाइन से भी अनजान नहीं है. आलम यह है
कि किसी गली-कूचे में आजकल में खुली दुकान भी पुरानी दिल्ली की मशहूर दुकान हो
जाती है फिर चाहे उस पर चार दिनों में ताला ही क्यों न लग जाए. कहने का आशय यह है
कि किसी शब्द की लोकप्रियता को भुनाने के लिए हमारे यहाँ भेड़चाल शुरू हो जाती है
फिर चाहे वह नक़ल निरर्थक,भोंडी और बेमतलब की ही क्यों न हो.
लेकिन रचनात्मकता में नक़ल अभी भी असल का मुकाबला नहीं कर सकती इसलिए बाकी ‘ही’ उतने लोकप्रिय नहीं हो पाए.......बहुत व्यावहारिक बात। बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया विकेश जी आपकी सराहना और समर्थन के लिए
हटाएंआपका आलेख 20 मार्च 2013 जनसत्ता संपादकीय के समांतर कॉलम में।
जवाब देंहटाएंमहाकटाक्ष
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