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सर्दियों की धूप...।

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 सर्दियों की धूप...। सर्दियों की धूप होती है कुछ अलग सी बिल्कुल मां बाप के आशीष सी कम मांगों तो ज्यादा मिल जाती है। मुट्ठी भर धूप की  तमन्ना की तो अंजुरी भर गयी और भरनी चाही अँजुरी तो पूरे आँचल में समा गयी। सर्दियों की धूप होती है कुछ अलग सी बिल्कुल मां बाप के आशीष सी। गर रूठ गयी धूप  समा गई बादलों के आगोश में फिर तरसाती है तड़फाती है सर्दियों की धूप बिल्कुल मां बाप के आशीष सी। मां बाप रुठे तो रूठ जाती है किस्मत गर उठ गया आशीष का साया तो थम सा जाता है दुआओं का काफ़िला। न बचता है मुट्ठी भर न अँजुरी भर और न ही आँचल भर आशीष बिल्कुल सर्दियों की धूप की तरह ज़रूरी है सहेजना धूप भी, आशीष भी ताकि  जब न रहें दोनों फिर भी महसूस हो गरमाहट धूप की, आशीष की दिन भर-जीवन भर।। सर्दियों की धूप...।

देशी मिठाइयों में विदेशी मेहमान

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ये कुनाफा है..हमारे देशी मिठाई परिवार में विदेशी मेहमान। कुछ लोग इसे कुनाफ़े, कनाफ़े, कोनाफी, कुनाफ़्ता, कुनेफे और किनाफा जैसे तमाम नामों से जानते हैं। ये तुर्किए (पहले टर्की) से आकर हमारे मिठाई परिवार में घुसपैठ कर रहा है। खानपान की अरबी किताबों की कहानियों में बताया गया है कि उस दौर में और खासकर रमजान में बादशाह/अमीर/खलीफा नित नए मीठे की मांग करते थे और उनके खानसामा मिठाइयों में प्रयोग करते रहते थे और इसी प्रयोग में कुनाफा का जन्म हो गया। वैसे, तुर्की की मिठाई के नाम पर चौंकने वालों को शायद पता नहीं होगा कि हमारे शहर शहर मिलने वाली और घर घर में खाई जाने वाली रसीली और लज़ीज़ जलेबी भी यहीं से आई है।  खैर, कुनाफा एक पारंपरिक अरब मिठाई है और पूरे अरब जगत में लोकप्रिय है। इसे अक्सर विशेष अवसरों और छुट्टियों में खाया और खिलाया जाता है। पिछले कुछ समय से भारत में भी कुनाफा के मुरीद तेजी से बढ़े हैं और अब दिल्ली मुंबई ही नहीं भोपाल इंदौर जैसे शहरों में भी यह उपलब्ध है। वैसे, भारत में आकर इसने भी पिज़्ज़ा की तरह रूप और स्वाद बदलकर भारतीय चोला पहन लिया है जैसे पिज़्ज़ा ने पनीर और कबाब के साथ ...

ये नहीं प्यारे कोई मामूली अंडा..!!

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  ‘आओ सिखाऊँ तुम्हें, अंडे का फंडा इसमें छिपा है जीवन का फलसफ़ा अंडे में अंडा,फंडे में फंडा…।’ फिल्म ‘जोड़ी नंबर-एक’ का यह गाना भले ही मनोरंजन के लिए हो लेकिन अंडों में वाकई जीवन का फलसफा छिपा होता है और यदि वह अंडा ‘संडे हो या मंडे, रोज खाएं अंडे’ विज्ञापन वाला या हमारे राज्य की शान ‘कड़कनाथ’ का न होकर दुनिया के सबसे बड़े और शायद सबसे खतरनाक डायनासोर का हो तो सारा स्वाद धरा रह जाएगा।  डायनासोर तो अब इस दुनिया में नहीं रहे लेकिन उनके अंडे जरूर इतिहास से वर्तमान को जोड़ने की अहम कड़ी हैं। अब करोड़ों साल पहले पाए जाने वाले डायनासोर के अंडे कोई समोसा या ब्रेड पकौड़ा तो हैं नहीं कि कहीं भी मिल जाएंगे। सबसे पहले तो इन अंडों का मिलना और फिर इतने साल बाद देखने का अवसर मिलना वाकई प्रकृति और विज्ञान के समन्वय के चमत्कार से कम नहीं है। वैसे, व्यंग्यात्मक अंदाज में  कहें तो असल डायनासोर भले ही नहीं बचे लेकिन इंसानों के भेष में डायनासोर लगातार बढ़ रहे हैं। इनमें से कोई अरबों रुपए खा जाता है तो कोई सोना निगलने-उगलने लगता है। खैर, मूल विषय पर लौटते हैं…हाल ही भोपाल में अंतरराष्ट्रीय वन ...

चालीस साल का कलंक है, मिटने में समय तो लगेगा

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जैसे-जैसे कंटेनरों का काफिला धीरे-धीरे भोपाल की सरहद को पार करते हुए आगे बढ़ रहा था वैसे-वैसे भोपाल के लोगों की जान में जान आ रही थी। आखिर, दूध का जला छाछ को भी फूंक फूंककर पीता है और जब बात हजारों-लाखों परिवारों की तबाही के दर्द की हो तो अतिरिक्त सावधानी तो बनती ही है। इसलिए प्रशासन ने भी सुरक्षा,सतर्कता,सजगता, सावधानी और समझाइश में अधिकतम मानकों का पालन कर अपनी ओर से कोई कमी नहीं रहने दी।  हम बात कर रहे हैं, भोपाल में दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना की जन्मदाता यूनियन कार्बाइड फैक्टरी में जमा अवशिष्ट या सरल भाषा में कहें तो जहरीले कचरे को यहां से हटाने की । हो सकता है कि दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में कचरे के पहाड़ों के साए में रह रहे लोगों के लिए यह सामान्य कचरा प्रबंधन की कवायद हो या फिर देशव्यापी स्वच्छता मुहिम का एक हिस्सा, लेकिन भोपाल के लोगों के लिए यह 40 साल के डर के बाद चिर परिचित दुश्मन से मिली मुक्ति है, आसन्न मंडराते खौफ से छुटकारा है, नासूर बन गए घाव की मरहम पट्टी है और देश की स्वच्छतम राजधानी के माथे पर लगा कलंक कुछ कम करने जैसी उपलब्धि है।  यूनियन कार्बाइ...

एक चेहरे पर कई चेहरे लगा लेते हैं लोग..!!

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हम इंसान भी विचित्र होते हैं। एक चेहरे में कई चेहरे छुपाकर रखते हैं। नए साल में नए विचार और नए संकल्प लेना भी कुछ इसी तरह का मामला होता है । हाल ही में इंदौर के एक नव निर्मित मॉल के प्ले जोन में बने ऐसे कक्ष में जाने का मौका मिला जिसमें मिरर के जरिए एक ही तस्वीर की कई इमेज रची जा रही थीं,तभी यह ख्याल आया कि वास्तविक जीवन में भी हमें कितनी भूमिकाओं का निर्वाह करना पड़ता है और इसके लिए हमें एक चेहरे में कितने चेहरे लगाने पड़ते हैं। फिल्म दाग़ में साहिर लुधियानवी भी कुछ इसी तरह की बात कह चुके हैं। उन्होंने लिखा है: ‘एक चेहरे पर कई चेहरे लगा लेते हैं लोग, जब चाहें बना ले अपना किसी को, जब चाहें अपनों को भी,  बेगाना बना देते हैं लोग।’ जैसा कि हम जानते हैं कि एक चेहरे में कई चेहरे छुपे होते हैं…का मतलब है कि एक व्यक्ति का बाहरी रूप या व्यक्तित्व उसके अंदर छिपे कई पहलुओं को पूरी तरह से नहीं दर्शाता। हर इंसान के अंदर एक से अधिक रूप, विचार, भावनाएँ और अनुभव होते हैं, जो समय, स्थिति और परिवेश के साथ बदलते रहते हैं। इसका मतलब यह है कि एक व्यक्ति केवल अपनी बाहरी पहचान के आधार पर नहीं पहचाना जा ...

चलो राम के धाम अयोध्या, राम बुलाते है..!!

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अयोध्या में भगवान राम के भव्य और दिव्य मंदिर के लोकार्पण का 1 साल पूरा होने को है। बीते साल 22 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मंदिर का लोकार्पण किया था और सैकड़ो साल बाद रामलला अपने घर में ससम्मान प्रतिष्ठित हुए थे। हालांकि, मंदिर का निर्माण अभी पूरा नहीं हो पाया है और कई काम अभी बाकी है लेकिन प्राथमिक तौर पर जो मंदिर की जो भव्यता, वास्तुशिल्प और सुंदरता दिखाई पड़ रही है उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब यह मंदिर पूरी तरह से निर्मित हो जाएगा तो शायद इसकी गिनती दुनिया के गिने-चुने मंदिरों में होगी। यहां रामलला के साथ उनके परम भक्त पवन पुत्र हनुमान और सप्त ऋषियों सहित भारतीय पुरातन संस्कृति की पहचान रहे विभिन्न प्रतीकों को कलात्मक रूप में देखने का अवसर मिलेगा। टेंट में मौजूद रहे रामलला और अब मंदिर में विराजमान भगवान श्री राम के इस बदलाव के बीच अयोध्या पूरी तरह से बदल गई है और लगातार संवर रही है। अब अयोध्या अविकसित सा ग्रामीण अंचल न रहकर भगवान राम की भव्यतम राजधानी में बदल रही है। इस लेख के लेखक को पहले और बाद की दोनों ही अयोध्या को करीब से देखने का सौभाग्य मिला है। यही नहीं, म...

लू से भी बचिए और लू उतारने से भी..!!

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आमतौर पर परस्पर बोलचाल में लू या लपट से जुड़े एक मुहावरे का बहुत ज्यादा इस्तेमाल होता है। यह मुहावरा है ‘लू उतारना’। कहीं भी, विवाद बढ़ने पर यह कहा जाता है कि हम ‘दो मिनट में तुम्हारी लू उतार’ देंगे। इस मुहावरे में लू से आशय निश्चित तौर पर घमंड उतारने या बेइज्जती करने से है, लेकिन तकनीकी तौर पर देखें तो यह मुहावरा भी लू से जुड़ी गर्मी की वजह से ही रचा गया होगा । दिमाग पर गर्मी चढ़ना भी एक तरह से लू लगने जैसा ही  है । हम सब जानते हैं कि गर्मी के दिनों में लू किस हद तक खतरनाक होती है। अब आपके दिमाग में यह सवाल जरूर आ सकता है कि विदा लेते मानसून और ठंडक के आगमन के बीच लू का क्या काम? लू, बेमौसम बरसात की तरह अभी कैसे टपक पड़ी तो इसकी जरूरत इसलिए पड़ी है क्योंकि मध्य प्रदेश सरकार ने हाल ही में लू को लेकर एक बड़ा फैसला किया है।  इस फैसले में लू को प्राकृतिक आपदा में शामिल कर लिया गया है । यह कदम उठाने वाला मप्र देश का संभवतः तीसरा या चौथा राज्य है।  अब तक केरल या दक्षिण के गंभीर लू ग्रस्त राज्यों ने ही इस दिशा में पहल की है। इस फैसले का फायदा यह होगा कि अब लू से होने वाली मृत्य...

मीठा राजमार्ग…जहां बन रहे है मदहोश करने वाले फूल !!

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मीठा राजमार्ग, पढ़कर अचंभा सा लगता है न क्योंकि अब तक मीठी गली, ठंडी सड़क जैसे नाम तो अमूमन सुनने को मिलते रहे हैं लेकिन ‘मीठा राजमार्ग’ कुछ अलग है। तो, आइए चलते हैं प्रदेश के एक ऐसे मीठे राजमार्ग के सफ़र पर, जहां यदि आप कुछ देर ठहर गए तो यहां बन रहे फूल की खुशबू से शर्तिया मदहोश होकर ही आगे बढ़ पाएंगे।  तो यह है मप्र का राजमार्ग क्रमांक 45 । इन दिनों, जैसे ही आप भोपाल से बरेली होते हुए नरसिंहपुर जिले की ओर बढ़ते हैं तो आप को एक मीठी, मादक सी और जानी पहचानी सी खुशबू अपनी ओर खींचने लगती है। जैसे जैसे आप नरसिंहपुर के क़रीब पहुंचने लगते हैं राजमार्ग पर मिठास और बढ़ जाती है तथा आपको रुककर इसे महसूस करने के लिए खींचती है। यदि रुक गए तो तय है कि जुबान पर फूल की मिठास लिए बिना आगे नहीं बढ़ सकते और नहीं रुके तब भी दिल ओ दिमाग पर छा गई इस मीठी सी मदहोश कर देने वाली खुशबू से पीछा नहीं छुड़ा सकते।  राजमार्ग क्रमांक 45 पर हर साल इन दिनों में यह मिठास और मदहोशी छाई रहती है और अब तो यह मीठापन यहां के लोगों के स्वभाव और तासीर का हिस्सा बन गया है। तभी तो ओशो यानि आचार्य रजनीश की वाणी और आज के ...

कब तक हमसे बचोगे धुस्का..!!

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इतनी शिद्दत से यदि भगवान को भी याद किया होता तो शायद वे भी पसीज जाते लेकिन ‘धुस्का’ को मुझ पर कोई दया नहीं आई।  धुस्का की तलाश में हमने रांची के वे सभी इलाके छान मारे, जहां आमतौर पर धुस्का की मौजूदगी पाई जाती है लेकिन तलाश पूरी नहीं हो पाई। धुस्का और इसकी उपलब्धता के इलाकों के जानकार साथियों की सहायता भी ली लेकिन उनमें से अधिकतर ने हाथ खड़े कर दिए। यहां तक कि वापिसी में एयरपोर्ट के रास्ते में हमने सभी संभावित ठिकानों पर छापेमारी की लेकिन जैसे ईडी, सीबीआई या पुलिस के डर से अपराधी छिप जाते हैं,इसी तरह धुस्का भी जैसे गायब हो गया था।  आखिर,हमने ही हार मान ली और दिल पक्का कर अगली बार धुस्का के लिए ही झारखंड की यात्रा करने की प्रतिज्ञा के साथ वापसी की उड़ान पकड़ ली।  झारखंड-बिहार से बाहर के मित्रों के लिए धुस्का कुछ उसी तरह की अबूझ पहेली है जैसे महानगरों के लोगों और शायद नई पीढ़ी के लिए टपका।  धुस्का और टपका वैसे तो अलग अलग विषय हैं और इनमें कोई समानता भी नहीं है।  लेकिन,हमने फिर भी एक समानता तलाश ही नहीं…पानी। टपका आमतौर पर बारिश में पैदा होता है और घर के कोने कोने म...

यह ठेठ मालवी अंदाज़ बनाए रखिए मुख्यमंत्री जी!!

आमतौर पर राजनीतिक पत्रकार वार्ताएं नीरस होती हैं क्योंकि नेता या तो पत्रकार वार्ता के पहले ही सब बता चुके होते हैं या फिर कुछ बताना नहीं चाहते। ऐसे में यदि पत्रकार वार्ता निवेश और आर्थिक विषय पर हो तो उसके और भी बोझिल होने के खतरे रहते हैं क्योंकि हजारों लाखों करोड़ रुपए के आंकड़े और उनका घिसा पिटा सा प्रस्तुतीकरण खबर के केंद्र होता है जो रुचिकर तो नहीं हो सकता । इसलिए जब यूनाइटेड किंगडम (यूके) और जर्मनी की यात्रा से लौटने के बाद मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव की पत्रकार वार्ता की सूचना मिली तो यही उम्मीद थी कि रोज छप रहे निवेश प्रस्तावों और आंकड़ों के अलावा कुछ नहीं होगा। वैसे भी पत्रकार वार्ता का विषय भी इन देशों की यात्रा से जुटाए गए निवेश की जानकारी देना था इसलिए बिना कोई उम्मीदें पाले अपन भी मुख्यमंत्री निवास पहुंच गए।  मुख्यमंत्री निवास का सभागार ठसाठस भरा था। दर्जनों कैमरे मशीनगन की तर्ज पर सीधे उस स्थान पर निशाना साधे थे जहां मुख्यमंत्री को बैठना था। वहीं, रिवॉल्वर और बंदूकों जैसे छोटे मोटे हथियारों की तरह यूट्यूबर्स और पोर्टल वीरों के कैमरे सभागार में यत्र तत्र सर्वत्र बिखरे पड़...