शनिवार, 21 अगस्त 2010

यार हद होती है चापलूसी की भी....

क्या होता जा रहा है हमारे मीडिया को? खबरें खोजने की बजाये हमारे पत्रकार महिमामंडन या कटु परन्तु सीधी-सपाट भाषा में कहें तो चापलूसी पर उतर आये हैं.क्या राहुल गाँधी का एक पोलीथीन का टुकड़ा उठाकर कचरापेटी में डालना इतनी बड़ी खबर है जिसे घंटों तक आम आदमी को झिलाया जाये? आप पूछ सकते हैं कि मुझे क्या पड़ी थी लगातार उस खबर को देखने की? तो साहब सभी न्यूज़ चैनलों का यही हाल है.जब पूरी दाल ही काली हो तो फिर बेस्वाद दाल खाना मज़बूरी हो जाती है.यह माना जा सकता है कि चैनल राहुल कि सादगी को आम लोगों को प्रेरित करने के लिए दिखा रहे थे तो इतनी प्रेरणा किस काम की, कि देखने वाले को ही खीज होने लगे. शायद इसीलिए लोग चिडकर यह कहते सुने गए कि राहुल गाँधी ने कौन सा अलग काम किया है-अरे वे अपने पिता की समाधि को ही तो साफ़-सुथरा कर रहे थे और यह परंपरा तो सदियों से हमारे समाज का हिस्सा है कि हम अपना घर/पूर्वजों का स्थान/आस-पास का क्षेत्र साफ़ रखते हैं.
वैसे भी राहुल गाँधी देश के सांसद (जनप्रतिनिधि) हैं इसलिए यह उनका दायित्व है कि वे देश को साफ़-सुथरा रखने में अपना योगदान दे. मै एक बात यहाँ साफ़ कर देना चाहता हूँ कि मेरा यह सब लिखने का उद्देश्य राहुल की सदाशयता पर सवाल उठाना नहीं है और न ही मुझे इस बात को लेकर कोई शक है कि राहुल महज प्रचार के लिए कचरा उठा रहे होंगे.दरअसल वे विदेश में पढ़े हैं और वहाँ साफ़-सफाई का पालन करना अनिवार्य है.मीडिया के इतने प्रचार के बाद भी जो लोग इस समाचार(?) को देखने से वंचित(भला हुआ) रह गए हो उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि राहुल ने अपने पिता राजीव गाँधी के समाधि स्थल’वीरभूमि’ के पास पड़े एक पोलीथीन के टुकड़े को उठाकर कचरापेटी में डाल दिया था. मेरी आपत्ति हमारे न्यूज़ चैनलों के व्यवहार तथा उनकी नक़ल करते समाचार पत्रों के रवैये को लेकर है. उन्हें कभी राखी सावंत का भोंडापन भाता है तो कभी सम्भावना के लटके-झटके,कभी मुन्नी बदनाम हुई जैसे फूहड़ गाने पर कसरत करते (नाचते नहीं) सलमान खान या फिर राहुल जैसे किसी सेलिब्रिटी का कचरा उठाने जैसा काम? हमारे देश में लाखों लोग रोज राहुल की तरह सामान्य रूप से अपना कर्तव्य पूरा कर रहे हैं या इससे भी बढ़कर काम कर रहे हैं पर मीडिया को वे क्यों नहीं नज़र आते? मीडिया को प्रियंका गाँधी की बदली हेयर-स्टाइल दिखती है पर डायन बताकर गंजी की गयी दर्जनों महिलाये नहीं दिखती?मीडिया राहुल के एक पोलीथीन उठाने पर वाह-वाही में जुट जाता है पर देश के लगभग हर सेलिब्रिटी के पालतू कुत्ते प्रतिदिन दिल्ली-मुंबई जैसे तमाम महानगरों की सड़कों को गन्दा करते हैं यह उसे नज़र नहीं आता.शायद इसी वजह से पूर्व राष्ट्रपति डाक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम को कहना पडा था कि विदेशों का गुणगान करने वाले लोग वहाँ जाकर सड़कों पर थूकना,खुले में पेशाब करना,बिना बेल्ट लगाये कार चलाना और कुत्तों को सड़क पर खुलेआम हगाना-मुताना भूल जाते हैं पर भारत आते ही यह सब करना वे अपना मौलिक अधिकार समझने लगते हैं.यही देश में आज हो रहा है.हम सब अपने देश को कौसते हुए उसे और गन्दा/बदसूरत/अव्यवस्थित/बदनाम और अविकसित बनाने में जुटे हैं....मीडिया इस मामले में सबसे आगे है क्योंकि वह हमारे दिमाग/मन को गन्दा कर रहा है?

शनिवार, 14 अगस्त 2010

मिला वो चीथड़े पहने हुए मैंने पूछा नाम तो बोला हिन्दुस्तान

प्रख्यात कवि दुष्यंत कुमार किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं.समय पर कटाक्ष करती उनकी कविताएँ आज भी उतनी ही मौजूं हैं.देश के  स्वतन्त्रता दिवस की ६३ वीं वर्षगांठ पर दुष्यंत जी के गुलिश्तां से पेश हैं चंद सशक्त और समयानुकूल कविताएँ:

एक गुडिया की कई कठपुतलियों में जान है,
आज शायर ये तमाशा देख कर हैरान है.
ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए,
यह हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है

एक बूढा आदमी है मुल्क में या यों कहो,
इस अँधेरी कोठारी में एक रौशनदान है.
मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के कदम,
तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है.

इस कदर पाबंदी-ए-मज़हब की सदके आपके
जब से आज़ादी मिली है, मुल्क में रमजान है

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला की हिदुस्तान है.

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है.


आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
पर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख।

एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख।

अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह,
यह हक़ीक़त देख लेकिन खौफ़ के मारे न देख।

वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख।

ये धुंधलका है नज़र का तू महज़ मायूस है,
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख।

राख कितनी राख है, चारों तरफ बिखरी हुई,
राख में चिनगारियां ही देख अंगारे न देख।


हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए



कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए

न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए

तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए

जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए

स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनाएँ

बुधवार, 4 अगस्त 2010

कब सुधरेंगे हमारे माननीय...?

देश के जनप्रतिनिधि अपनी कारगुजारियों के लिये कम बदनाम नहीं हैं.कभी पैसा लेकर सवाल पूछने को लेकर तो कभी संसद में लात-घूंसे चलने को लेकर वे चर्चा में बने रहते हैं.संसद से गायब रहना तो अधिकतर जन्प्रतिनिधियों की फितरत बन गए है.लेकिन अभी तक ये बातें सिर्फ सुनी-सुनाई थी पर हाल ही में आये एक रिपोर्ट ने ऐसे ही कई रहस्यों को सार्वजनिक कर दिया है. स्वयंसेवी संगठन मास फॉर अवेयरनेस के “वोट फार इंडिया” अभियान द्वारा १५ वीं लोकसभा के २००९-१० के पहले एक साल के काम-काज पर आधारित रिपोर्ट “रिप्रेजेंटेटिव एट वर्क” में लोकसभा के प्रत्येक सांसद के साल भर के कार्यों का लेखा जोखा दिया गया है. रिपोर्ट में लोकसभा के काम-काज को दस भागों में बांटा गया है.पहले भाग ‘उपस्थिति’ में कुल सात सांसद ने सौ फीसद उपस्थित रहकर लोकसभा के प्रति गंभीरता का प्रदर्शन किया है. इनमें छः सांसद कांग्रेस के हैं. खास बात यह है कि लोकसभा की कुल ८६ बैठकों में ९० फीसद से ज्यादा उपस्थिति वाले सांसदों की संख्या भी लगभग १०० है.राज्यों के हिसाब से मणिपुर के सांसदों कि सदन में उपस्थिति सबसे ज्यादा रही है. रिपोर्ट का दूसरा भाग लोकसभा के प्रश्नकाल पर केंद्रित है. सांसदों पर भले ही प्रश्नकाल में लापरवाही बरतने का आरोप लगता रहा हो लेकिन रिपोर्ट के आंकड़े कहते हैं कि २७ सांसदों ने २०० से ज्यादा सवाल पूछे हैं, वहीँ १०० से अधिक प्रश्न पूछने वाले सांसदों की संख्या भी १०० से ज्यादा है. प्रश्न पूछने में महाराष्ट्र के सांसद अव्वल रहे.हालाँकि पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा सहित लगभग १०० सांसद ऐसे भी हैं जिन्होंने कोई भी सवाल पूछना ही ज़रुरी नहीं समझा.
संसद में बहस के मामलों में सांसदों का रिकार्ड ज़रूर अच्छा नहीं कहा जा सकता. लोकसभा के ७७ फीसद सांसदों की बहस में औसत हिस्सेदारी रही है. महज १४ फीसद चुने हुए जनप्रतिनिधि ही उत्कृष्ट प्रदर्शन कर पाए हैं. समाजवादी पार्टी के शैलेन्द्र कुमार इस मामले में सबसे अव्वल हैं जबकि ५० के करीब सांसद फिसड्डी साबित हुए हैं. सांसदों को मिले प्राइवेट मेम्बर बिल जैसे शक्तिशाली हथियार का इस्तेमाल करने में ९३ फीसद सांसदों ने कोई रूचि तक नहीं दिखाई. कांग्रेस के नई दिल्ली से सांसद जयप्रकाश अग्रवाल जरूर 11 बिल लाकर सबसे आगे हैं. हमारे सांसद लोकसभा में व्यवधान तथा स्थगन के लिए सबसे ज्यादा जाने जाते हैं. रिपोर्ट के आंकड़े भी इसी बात की गवाही देते हैं. साल भर में लोकसभा की कार्यवाही 14207बार बाधित हुई, वहीँ 102 बार कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी. लोकसभा की कार्यवाही रोकने में महिला आरक्षण बिल, आईपीएल विवाद एवं महंगाई जैसे मुद्दों की प्रमुख भूमिका रही. उल्लेखनीय बात यह है कि समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव, सपा सांसद शैलेन्द्र कुमार और उनके साथी व्यवधान उत्पन्न करने में सबसे आगे रहे. इस रिपोर्ट का एक हिस्सा सांसदों के बार-बार गर्भगृह में जाने पर भी केंद्रित है. इसके लिए भी महिला आरक्षण बिल और आईपीएल विवाद मुख्य कारण रहा. जहाँ तक संसद से बहिर्गमन/वाक-ऑउट की बात है तो हमारे जनप्रतिनिधियों ने इसमें भी कोई कसर नहीं छोड़ी. वे कम महत्वपूर्ण विषयों पर भी बहिर्गमन करते रहे. इन मामलों में सपा सबसे आगे रही है.
सांसद विकास निधि के इस्तेमाल के विषय में सांसदों की लापरवाही किसी से छिपी नहीं है. आधे से ज्यादा सांसदों ने ढंग से इस पैसे का उपयोग ही नहीं किया और अब इस राशि को बढ़ाने की मांग कर रहे हैं. चंद सांसदों ने ही इस निधि का अपने क्षेत्र के विकास में पूरी तरह इस्तेमाल किया है.राज्यों के मान से मिजोरम के सांसद इस काम में सबसे आगे हैं. पैसा खर्च करने में भाजपा के डाक्टर राजन सुशांत सबसे आगे हैं. जबकि सवा सौ सांसद ऐसे हैं जिन्होंने फूटी कौड़ी भी खर्च नहीं की. जनप्रतिनिधयों को मिली विशेष उल्लेख के तहत मुद्दे उठाने की सुविधा का लाभ लगभग आधे सांसदों ने उठाया. इस मामले में विपक्षी सांसद ज्यादा सक्रिय नज़र आये. इसी तरह सरकारी बिल के मुद्दे पर भी सांसदों की मिली-जुली भूमिका ही रही.

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

यदि महिलाएं डायन हैं तो पुरुष कुछ क्यों नहीं?

पिछले दिनों तमाम अख़बारों में एक दिल दहलाने देने वाली खबर पढ़ने को मिली.इसमें लिखा गया था कि देश में अभी भी महिलाओं को डायन बताकर मारा जा रहा है.दादी-नानी से सुनी कहानियों के मुताबिक डायन वह महिला होती है जो दूसरों के ही नहीं बल्कि अपने बच्चे तक खा जाती है.इन कहानियों के आधार पर बचपन में मेरे मन में डायन कि कुछ ऐसी डरावनी छवि बन गयी थी जैसी कि अंग्रेजी फिल्मों में ड्राकुला की होती है.मसलन लंबे भयानक दांत.कुरूप चेहरा,गंदे व खून से लथपथ नाखून इत्यादि वाली महिला! परन्तु जब भी डायन बताकर मारी गयी महिला की तस्वीर देखता तो वो इस छवि से मेल नहीं खाती थी.कभी दादी-नानी से पूछा तो वे भी संतुष्टिपूर्ण जवाब नहीं दे पायीं.वक्त के साथ समझ आने पर डायन कथाओं और इनके पीछे की हकीकत समझ में आने लगी.
ऊपर मैंने जिस खबर का उल्लेख किया है उसमें एक गैर सरकारी संस्था रूरल लिटिगेशन एंड एनटाइटिलमेंट केंद्र द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार बताया गया था कि देश में हर साल 150-200 महिलाओं को डायन बताकर मार डाला जाता है। इस संस्था ने राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकडों के हवाले से बताया कि इस सूची में झारखंड का स्थान सबसे ऊपर है। वहां 50 से 60 महिलाओं की डायन कहकर हत्या कर दी जाती है। दूसरे नंबर पर पर आंध्रप्रदेश है, जहां करीब 30 महिलाओं की डायन के नाम पर बलि चढ़ा दी जाती है। इसके बाद हरियाणा और उड़ीसा का नंबर आता है। इन दोनों राज्य में भी प्रत्येक वर्ष क्रमश: 25-30 और 24-28 महिलाओं की हत्या कर दी जाती है। इस संगठन के मुताबिक पिछले 15 वर्षों में देश में डायन के नाम पर लगभग 2,500 महिलाओं की हत्या की जा चुकी है।
सवाल यह उठता है कि यदि आज के आधुनिक और तकनीकी संपन्न दौर में भी जब महिला डायन हो सकती है तो पुरुष कुछ क्यों नहीं होता.अब इसे पुरुष सत्तात्मक समाज की विडंबना कहें या पुरुषवादी सोच कि उन्होंने शब्दकोष में डायन के पर्यायवाची शब्द की गुन्जाइश ही नहीं रखी.दरअसल गांवों में फैली अज्ञानता और शिक्षा की कमी के कारण इस तरह की कुप्रथाएं आज भी शान से कायम है. वैसे जानकर डायन बनाने का कारण ज़मीन के झगड़े,महिलाओं के साथ जबरदस्ती करने में मिली नाकामयाबी,पारिवारिक शत्रुता,विधवा हो जाने को भी मानते हैं.खास बात यह है कि डायन सदैव दलित या शोषित समुदाय की ही होती है.ऊंचे तबके की महिलाओं के डायन होने की बात यदा-कदा ही सुनने में आती हैं.इससे भी आश्चर्य की बात यह है कि “ओनर किलिंग” के नाम पर देश को सर पर उठा लेने वाले मीडिया,नेता,समाजसेवी और बड़े गैर सरकारी संगठन डायन के मुद्दे को ज्यादा महत्त्व नहीं दे रहे जबकि यह वास्तव में मानव सभ्यता पर कलंक है और स्त्री जाति का अपमान है.जिस देश में महिलाओं को दुर्गा,काली ,लक्ष्मी,सरस्वती,गंगा,माँ जैसे पवित्र नामों से पूजा जाता है वहीँ उसे डायन बताकर मार भी डाला जाता है?हम कब तक इसीतरह मौन रहकर माँ को डायन बनता देखते रहेगें?कम से कम इसके खिलाफ आवाज़ तो उठा ही सकते हैं..?

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

बेटियों की बात या देह-दर्शन का बहाना ..?

महात्मा गाँधी से जुड़ा एक मशहूर किस्सा है.उनके पास एक महिला अपने बच्चे को लेकर आई .महिला ने बताया कि उसका बेटा बहुत ज्यादा गुड़ खाता है और वह उसकी इस आदत को छुड़ाना चाहती है.मैंने सुना है कि यदि गांधीजी किसी को समझा दे तो वह एक ही बार में अपनी बुरी आदत छोड़ देता है इसलिए मैं इसे आपके पास लेकर आयीं हूँ.गांधीजी ने उस महिला से कहा कि वह एक हफ्ते बाद आये.बापू की बात मानकर महिला चली गयी और सप्ताह भर बाद पुनः आई.गांधीजी ने उसके बेटे को गुड़ की अच्छाई और बुराइयां दोनों बताई और ज्यादा गुड़ नहीं खाने की सलाह दी.महिला के जाने के बाद उनके एक शिष्य ने पूछा-बापू यह बात तो आप हफ्ते भर पहले भी बता सकते थे तो फिर आपने महिला को सप्ताह भर बाद क्यों बुलाया था?गांधीजी ने उत्तर दिया-दरअसल हफ्तेभर पहले तक मैं खुद भी गुड़ खाता था.जो काम मैं खुद कर रहा हूँ तो दूसरे को कैसे मना कर सकता हूँ.सप्ताह भर में मैंने अपनी गुड़ खाने की आदत को त्याग दिया इसलिए उस बच्चे को भी ऐसा कर पाने की बात आत्मविश्वास के साथ समझा पाया लेकिन हमारा मीडिया बापू की तरह महान नहीं है.वह जो काम खुद करता है वही दूसरों को करने से रोकता है.
आपको याद होगा कि पिछले दिनों एक न्यूज़ चैनल ने एक स्टिंग आपरेशन कर यह साबित किया था कि दिल्ली अब महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं रह गयी है और दिल्ली के पुरुषों के पास महिलाओं-युवतियों को घूरने के अलावा और कोई काम नहीं हैं.चैनल ने अपनी एक रिपोर्टर युवती को माडलों के अंदाज़ में सजा-धजा कर राजधानी के कई इलाकों में खड़ा कर दिया और अपने कैमरे लगाकर आते-जाते लोगों की गतिविधियाँ रिकार्ड की,इसके बाद अपने चैनल पर बताया कि देखो दिल्ली वाले कैसे हैं,युवतियों को कैसे घूर-घूरकर देखते हैं?जहाँ तक मेरी जानकारी है तो दिल्ली को तो दिलवालों का शहर कहा जाता है .अब दिलवाले ही दिल्लगी नहीं करेंगे तो फिर कौन करेगा.खैर यह तो हुई मज़ाक की बात पर हक़ीक़त में सवाल यह है कि आम लोगों में महिलाओं और युवतियों के प्रति खुलेआम आकर्षण के प्रदर्शन की आदत किसने डाली? इसी मीडिया ने और किसने.आप किसी भी दिन का हिंदी-अंग्रेज़ी का समाचार पत्र उठा लीजिये या फिर दिन भर में कोई भी न्यूज़ चैनल देख लीजिये महिलाओं की बेहूदा एवं उल-ज़लूल तस्वीरों के अलावा होता क्या है?अंग्रेज़ी के अखब़ार तो विदेशी समाचार पत्रों की नक़ल अपना अधिकार मानते हैं इसलिए देशी-विदेशी महिलाओं की लगभग नग्न तस्वीरें और सेक्स से जुड़ी गोसिप छापना अपना कर्तव्य मानते हैं.वहीँ हमारे हिंदी के अखब़ार भी अंग्रेज़ी न्यूज़ पेपरों से कमतर नहीं दिखने के लिए उनके पिछलग्गू बने हुए हैं इसलिए मनोरंजन के नाम पर अश्लीलता परोस रहे हैं.अब समाचार पत्रों के साथ साप्ताहिक आने वाले मनोरंजक परिशिष्ट दैनिक हो गए हैं.जिनमे सिवाय फ़िल्मी चित्रों के कुछ नहीं होता.न्यूज़ चैनलों का तो और भी बुरा हाल है उनका तो अधिकतर वक्त राखी सावंत,मल्लिका सहरावत,सर्लिन चोपड़ा के चुम्बन-नग्नता और फूहड़ कारनामों के बखान में ही बीतता है.कभी डांस शो के नाम पर तो कभी द्विअर्थी कामेडी के नाम पर तो कभी ख़बर के नाम पर वे खुलेआम अश्लीलता परोसते रहते हैं.
मीडिया के महिला प्रेम के नवीनतम उदाहरण माडल विवेका बाबाजी की आत्महत्या और दिल्ली विश्वविध्यालय के एडमिशन हैं.जब विवेका ने आत्महत्या की तब भोपाल गैस कांड के पीड़ितों के साथ अन्याय की बात सुर्ख़ियों में थी लेकिन विवेका की ग्लैमरस स्टोरी हाथ आते ही न्यूज़ चैनल गैस पीड़ितों का दर्द भूल गए और दिन-रात विवेका की माडलिंग वाली अर्धनग्न तस्वीरें दिखाने लगे.वहीँ दिल्ली यूनिवर्सिटी के एडमिशन के दौरान तो ऐसा लगता है मानो यहाँ केवल लड़कियां ही पढने आती हैं.इन दिनों सारे अखब़ार और चैनल युवतियों के चेहरों,कपड़ों,फैशन,बैग,जूतों की समीक्षा में जुट जाते हैं.खासतौर पर उन युवतियों को अखबारी पन्नों और न्यूज़ चैनलों में खूब जगह मिलती है जिन्होंने छोटे कपडे पहने हों.इस दौरान बेचारे लड़के तो गायब ही हो जाते हैं?वे कितनी भी फैशन कर ले पर टीवी कैमरों को अपनी और नहीं खींच पाते और लड़कियां कुछ भी पहन ले अखब़ार में फोटो छपवा लेने में कामयाब हो जाती हैं.जब मीडिया खुद ही इसतरह का पक्षपात कर रहा हो तो फिर उसे यह कहने का क्या हक़ है कि पुरुष बस महिलायों को घूरते रहते हैं?पहले आप अपने गिरेबान में तो झाँकों और अपना खुद 'स्टिंग आपरेशन' करके देखो फिर पूरे पुरुष समाज को कटघरे में खड़ा करो?हो सकता है कुछ मात्रा ऐसे पुरुषों की हो जो वाकई में "छिछोरे" हो पर सभी पुरुषों पर अंगुली उठाना,वह भी जब आप खुद वही काम कर रहे हैं ,तो ठीक नहीं है?




सलीम ख़ान, July 23, 2010 5:28 PM


sahmat !!

media kii maan ki aankh !!



ज़ाकिर अली ‘रजनीश’, July 23, 2010 5:47 PM

सही कहा आपने, साचने की बात है।

………….

ये ब्लॉगर हैं वीर साहसी, इनको मेरा प्रणाम



anshumala, July 23, 2010 5:51 PM

आपकी बात से सहमत हु
अच्छी पोस्ट



वाणी गीत, July 24, 2010 5:46 AM

Nice Post ..!

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

कहीं हम साज़िश का शिकार तो नहीं बन रहे...?

पिछले कुछ दिनों के दौरान न्यूज़ चैनलों पर आई खबरों से शुरुआत करते हैं:
• क्या आप डबलरोटी की जगह पाँव रोटी खा रहे हैं?
• ज़हरीले ढूध से बनी चाय पी रहे हैं आप?
• आप की लौकी में ज़हर है?
• खोवा और पनीर भी मिलावटी?
• ज़हरीला करेला खा रहे हैं आप?
• ओक्सिटोसिन से पक रहे हैं फल?
ये तो महज बानगी है.ऐसी ही कोई न कोई खबर आप रोज न्यूज़ चैनलों या हिंदी-अंग्रेजी के अखबारों में देखते हैं.अगर आप ध्यान से सोचें तो पता लगेगा कि ऐसी ख़बरों की कुछ दिन से बाढ़ सी आ गयी है.क्या एकाएक मिलावट इतनी ज्यादा बढ़ गयी है? या हमारे पत्रकार ज्यादा ही मुस्तैद हो गए हैं? या फिर हम किसी बड़ी साज़िश के शिकार बन रहे हैं? इन ख़बरों का फायदा किसे हो रहा है?और इन ख़बरों से किसे नुकसान हो रहा है?
आइये अब इन बातों और कारणों का विश्लेषण करें. देश में बेकरी का खुदरा कारोबार घरेलू तौर पर किया जाता है.कई परिवार पुश्तैनी रूप से यह काम कर रहे हैं.इसीतरह सहकारी आधार पर और छोटी घरेलू कंपनियों द्वारा भी बेकरी का काम किया जाता है.इस क्षेत्र में अब नामी ब्रांड और विदेशी कंपनियों का दखल बढ़ रहा है.कुछ यही हाल स्टेशनों पर मिलने वाली चाय का है.इस काम में छोटे-छोटे वेन्डर लगे हैं.देश में खोवा-पनीर बनाने का काम भी कुटीर उद्योग की तर्ज़ पर चल रहा है.यदि आप स्टेशनों पर लगती बड़ी और नामी कंपनियों की चाय-काफी मशीनों की संख्या का विश्लेषण करे तो आसानी से समझ सकते हैं कि हमें छोटे उत्पादकों से क्यों डराया जा रहा है.सीधे सपाट शब्दों में कहे तो देश में छोटे उत्पादकों,सहकारी संस्थाओं,कंपनियों और छोटे व्यापारियों को खत्म करने की साज़िश चल रही है.नेस्ले, ,ब्रिटानिया,कोकाकोला,पेप्सी,मेक्डोनाल्ड,पिज्जा हट जैसी तमाम बड़ी कंपनियों को भारत में चाय,मिठाई,फल-सब्जी और सम्पूर्ण रूप से कहे तो प्रोसेस्ड(प्रसंस्कृत)फ़ूड का बाज़ार और इसमें छिपा अरबों रूपए का मुनाफा नज़र आ गया है इसलिए सबसे पहले छोटे और घरेलू खिलाडियों को मैदान से हटाया जा रहा है,फिर देशी कम्पनियां हटेंगी और फिर हम विदेशी उत्पादों के गुलाम हो जायेंगे.कभी सोचा है इतनी महंगाई के बाद भी मेक्डोनाल्ड का बर्गर बीस रूपए में ही क्यों मिल रहा है जबकि हमारा समोसा तक दोगुना महंगा हो गया?वही ईस्ट इंडिया कंपनी वाली नीति कि पहले आदी बनाओ और फिर मुनाफा कमाओ.इस लेख का यह उद्देश्य यह कतई नहीं है कि आप देशप्रेम के नाम पर सड़ा-गला और ज़हरीला खाते रहे बल्कि आपको यह याद दिलाना है कि कई दशकों से आप के घर दूध दे रहा रामखिलावन एकाएक बेईमान नहीं हो सकता और न ही रहीम बेकरी वाला आपके साथ पीढ़ीगत सम्बन्ध भूलकर मुनाफाखोर हो सकता है.इसीतरह बचपन से स्टेशन पर चाय पिला रहा दशरथ दूध में यूरिया मिलकर अपना ज़मीर नहीं बेच सकता और सबसे खास बात यह है कि न्यूज़ चैनल विज्ञापनों के सहारे चलते हैं और ये विज्ञापन रहीम,रामखिलावन,दशरथ या मुस्कान मिठाई-पनीर वाला नहीं दे सकते ? इसलिए आँख खोलकर चीजे अपनाइए न कि खबरों में देखकर....

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

आम आदमी का दर्द अभिव्यक्त करते गाने

कभी कभी कुछ गाने ऐसे बन जाते हैं जो उस दौर का प्रतिनिधित्व करने लग जाते हैं और आम जनता की आवाज़ बनकर सत्ता प्रतिष्ठान की मुखालफत का माध्यम बनकर लोगों के दिल-ओ-दिमाग में खलबली तक पैदा कर देते हैं.जल्द ही रिलीज होने वाली फिल्म ‘पीपली लाइव’ का यह गीत भी महंगाई के खिलाफ राष्ट्रीय गीत बन गया है.इस गाने के बोल-“सखी सैंया तो खूब ही कमात है,महंगाई डायन खाय जात है.”ने भी लोगों को झकझोर दिया है.आलम यह है कि इस गाने को कांग्रेस विरोध की धुरी बनाने के लिए भाजपा ने बकायदा गीत के कापीराईट हासिल करने के प्रयास शुरू कर दिए हैं. यदि आप भूले न हो तो चंद साल पहले भी एक गाना जनता ही नहीं सरकार की उपलब्धियों की आवाज़ बन गया था.यह गाना था फिल्म ‘स्लमडोग मिलिनियर’ में ऑस्कर विजेता संगीतकार ए आर रहमान का स्वर और संगीतबद्ध किया गया “जय हो”.तब कांग्रेस ने बकायदा इस गीत के अधिकार लेकर इसे अपने चुनाव प्रचार का मुख्य हथियार बना लिया था.इस गीत ने आम जनता पर भी जादू किया और कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो गई. फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ के गीत “आल इज वैल” ने स्कूल-कालेज के छात्रों को स्वर दे दिया था.
ऐसा नहीं है कि आज के दौर में गीतों की लोकप्रियता यह मुकाम हासिल कर रही है.इसके पहले भी फिल्म ‘उपकार' का मशहूर गीत “मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती” तत्कालीन दौर में किसानों के दिल की धड़कन बन गया था.यह वह समय था जब देश में जवाहरलाल नेहरु और लालबहादुर शास्त्री के नाम ईश्वर की तरह लिए जाते थे.यह हरित क्रांति का दौर था एवं हमारे देश की मिटटी वाकई में सोना उगलती थी. इसी फिल्म'पूरव और पश्चिम' का एक  गाना “भारत का रहने वाला हूँ,भारत की बात सुनाता हूँ” ने भी देश को पश्चिमी सभ्यता से हटकर पहचान दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी.इसीतरह जब देश नवनिर्माण के दौर से गुजर रहा था और आम लोग कंधे-से कंधा मिलाकर देश को बनाने में जुटे थे तब फिल्म ‘नया दौर’ का गीत “साथी हाथ बढ़ाना ,एक अकेला थक जाए तो मिलकर बोझ उठाना” देश की आवाज़ बन गया था.
            इसके अलावा फिल्म नाम के गीत “चिट्ठी आई है वतन से चिट्ठी आई है”, फिल्म परदेश के गीत “ये मेरा इंडिया...”,लताजी की आवाज़ में अमर गीत “जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी” आज भी हमारी आँखों में पानी ला देते है. यदि आपकी स्मृति में भी ऐसे ही कुछ प्रतिनिधित्व गीत हैं तो उन्हें इस लड़ी में पिरोने में सहयोग कीजिये क्योंकि एक-एक मोती से ही तो सुरों की यह माला पूरी होगी और हम मिलजुलकर इस प्रतिनिधि गीतों को एक बार फिर याद कर पाएंगे....

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...