गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

काश हम सब भी गब्बर ही होते...

हम सब शोले के खलनायक गब्बर सिंह को एक दुर्दान्त,क्रूर,वहशी दरिंदे के रूप में जानते हैं बिलकुल वैसे ही जैसे रामचरित्र मानस में रावण,जबकि असलियत में रावण कुछ ओर ही था.ऐसे ही हमारे एक विद्वान साथी ने गब्बर सिंह पर नए अंदाज़ में प्रकाश डाला है.आइये आप सब भी गब्बर पुराण में शराबोर हो जाइये...
1. सादा जीवन, उच्च विचार: उसके जीने का ढंग बड़ा सरल था. पुराने और मैले
कपड़े, बढ़ी हुई दाढ़ी, महीनों से जंग खाते दांत और पहाड़ों पर खानाबदोश
जीवन. जैसे मध्यकालीन भारत का फकीर हो. जीवन में अपने लक्ष्य की ओर इतना
समर्पित कि ऐशो-आराम और विलासिता के लिए एक पल की भी फुर्सत नहीं और
विचारों में उत्कृष्टता के क्या कहने! “जो डर गया, सो मर गया” जैसे
संवादों से उसने जीवन की क्षणभंगुरता पर प्रकाश डाला था.
२. दयालु प्रवृत्ति: ठाकुर ने उसे अपने हाथों से पकड़ा था. इसलिए उसने
ठाकुर के सिर्फ हाथों को सज़ा दी. अगर वो चाहता तो गर्दन भी काट सकता था.
पर उसके ममतापूर्ण और करुणामय ह्रदय ने उसे ऐसा करने से रोक दिया.
3. नृत्य-संगीत का शौकीन: 'महबूबा-महबूबा' गीत के समय उसके कलाकार
ह्रदय का परिचय मिलता है. अन्य डाकुओं की तरह उसका ह्रदय शुष्क नहीं था.
वह जीवन में नृत्य-संगीत एवं कला के महत्त्व को समझता था. बसन्ती को
पकड़ने के बाद उसके मन का नृत्यप्रेमी फिर से जाग उठा था. उसने बसन्ती के
अन्दर छुपी नर्तकी को एक पल में पहचान लिया था. गौरतलब यह कि कला के
प्रति अपने प्रेम को अभिव्यक्त करने का वह कोई अवसर नहीं छोड़ता था.
4. अनुशासनप्रिय नायक: जब कालिया और उसके दोस्त अपने प्रोजेक्ट से नाकाम
होकर लौटे तो उसने कतई ढिलाई नहीं बरती. अनुशासन के प्रति अपने अगाध
समर्पण को दर्शाते हुए उसने उन्हें तुरंत सज़ा दी.
5. हास्य-रस का प्रेमी: उसमें गज़ब का सेन्स ऑफ ह्यूमर था. कालिया और
उसके दो दोस्तों को मारने से पहले उसने उन तीनों को खूब हंसाया था. ताकि
वो हंसते-हंसते दुनिया को अलविदा कह सकें. वह आधुनिक युग का 'लाफिंग
बुद्धा' था.
6. नारी के प्रति सम्मान: बसन्ती जैसी सुन्दर नारी का अपहरण करने के बाद
उसने उससे एक नृत्य का निवेदन किया. आज-कल का खलनायक होता तो शायद कुछ और करता
7. भिक्षुक जीवन: उसने हिन्दू धर्म और महात्मा बुद्ध द्वारा दिखाए गए
भिक्षुक जीवन के रास्ते को अपनाया था. रामपुर और अन्य गाँवों से उसे जो
भी सूखा-कच्चा अनाज मिलता था, वो उसी से अपनी गुजर-बसर करता था. सोना,
चांदी, बिरयानी,चिकन या मलाई टिक्का की उसने कभी इच्छा ज़ाहिर नहीं की.
(यह सामग्री मुझे मेरे करीबी मित्र गीत दीक्षित ने भेजी थी.इसके असली रचनाकार कौन हैं मुझे नहीं पता पर इसमें गब्बर का चरित्र चित्रण इतने अनूठे अंदाज़ में किया गया है की मैं इसे आप सबके साथ साझा करने से आपने आपको नहीं रोक पाया.गब्बर को नए अंदाज़ रूप में सामने लाने के लिए लेखक को साधुवाद)

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

आप ब्लागर हैं..तो बन सकते हैं मंत्री-प्रधानमंत्री


सलीम अमामाऊ
 यदि आप शौकिया तौर पर ब्लागिंग करते हैं तो अब गंभीर हो जाइये और चलताऊ विषयों की बजाय ज्वलंत मुद्दों पर लिखना शुरू कर दीजिए क्योंकि ब्लागिंग से अब आप न केवल भरपूर पैसा और नाम कमा सकते हैं बल्कि मंत्री तथा प्रधानमंत्री जैसे पदों पर भी पहुँच सकते हैं. मुझे पता है आपको यह ‘मंत्री’ बनने की बात हजम नहीं हो रही होगी और मेरी कपोल-कल्पना लग रही होगी ,पर यह वास्तविकता है और चौबीस कैरेट सोने सी खरी है. हमारे एक ब्लागर भाई तो मंत्री पद तक पहुँच भी गए हैं.
हालाँकि हो सकता है आप में से कई लोग ऐसे उदाहरण देने लगे जो उन लोगों के हों जो मंत्री पद के साथ-साथ ब्लागिंग भी कर रहे हैं. मैं खुद भी लालकृष्ण आडवाणी,लालू प्रसाद जैसे तमाम नाम बता सकता हूँ जिन्होंने सरकारी उत्तरदायित्व सँभालते हुए भी ब्लागिंग की लेकिन ये लोग नेता/मंत्री/प्रभावशाली पहले थे और बाद में ब्लागर बने.मैं जिस व्यक्ति का उल्लेख कर रहा हूँ वह पहले आम ब्लागर था फिर मंत्री बना और भविष्य में शायद प्रधानमंत्री भी बन सकता है और अभी भी नियमित रूप से ब्लागिंग कर रहा है. इस शख्स का नाम है-सलीम अमामाऊ...सलीम ट्यूनीशिया के नागरिक हैं और हाल ही में इन्हें इस देश का युवा और खेल मंत्री बनाया गया है.ऐसा नहीं है कि सलीम को यह पद सरकार की चापलूसी से मिल गया है बल्कि उन्होंने खुलेआम सरकार से लोहा लिया.सलीम के आग उगलते लेखों के कारण ट्यूनीशिया में सरकार के खिलाफ विद्रोह का माहौल बन गया. इसके लिए सलीम को जेल जाना पड़ा,पुलिसिया यातनाएं सहनी पड़ी और वे तमाम कष्ट उठाने पड़े जो किसी भी देश में सरकार की गलत नीतियों का विरोध करने वालों को उठाने पड़ते हैं. पर धीरे-धीरे सलीम के साथ अन्य ब्लागर भी जुड़ते गए.फिर ट्विटर और फेसबुक जैसी लोकप्रिय सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों ने भी उनका भरपूर साथ दिया.स्थिति यह बन गई कि यहाँ की सरकार के मुखिया को देश छोड़कर भागना पड़ा और ट्यूनीशिया में अंतरिम सरकार का गठन हुआ जिसमें सलीम अमामाऊ को भी शामिल कर मंत्री बनाया गया.अब यह अंतरिम सरकार चुनाव कराकर नई सरकार का गठन करेगी.सलीम की ट्यूनीशिया में लोकप्रियता को देखकर लगता है कि वे भविष्य में यदि यहाँ के प्रधानमंत्री बन जाये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी. खास बात यह है कि सलीम अमामाऊ ने अभी भी ब्लागिंग बंद नहीं की है.उनका कहना है कि वे सरकार में रहकर भी ब्लागिंग के जरिये सरकार की कमज़ोरियों को आम लोगों के बीच ले जाते रहेंगे.
सलीम अमामाऊ को ब्लागरों के लिए आदर्श माना जा सकता है क्योंकि उनसे प्रेरणा लेकर ट्यूनीशिया के पड़ोसी मुल्क मिश्र सहित कई अन्य देशों के ब्लागर भी तानाशाह सरकारों के खिलाफ आवाज़ उठाने लगे हैं और वहाँ भी सत्ता परिवर्तन की आहट सुनाई दे रही है....तो फिर देर किस बात की है....आप भी उठाइए कलम/चलाइए कीबोर्ड पर अंगुलियां और बता दीजिए देश को अपनी बात, इससे आप भले ही मंत्री-प्रधानमंत्री न बन पाए कम से कम ब्लागर जगत को तो एक और संजीदा ब्लागर मिल जायेगा.

सोमवार, 24 जनवरी 2011

एक हत्यारी माँ का बेटी के नाम पत्र

प्रिय बेटी,
आज जब से मैंने यह समाचार पढ़ा है कि ‘देश में हर साल सात लाख लड़कियां गर्भ में ही माता-पिता द्वारा मार दी जाती हैं’,मेरा मन अत्यधिक व्याकुल है. मैं चाह कर भी अपने आप को रोक नहीं पा रही हूँ इसलिए यह खत लिख रही हूँ ताकि अपने मन की पीड़ा को कुछ हद तक शांत कर सकूँ.....बस मेरी तुमसे एक गुज़ारिश है कि मेरा पत्र पढकर नाराज़ नहीं होना. लगता है कि जैसे मैं बौरा गई हूँ तभी तो यह कह बैठी कि पत्र पढकर मुझसे नाराज़ नहीं होना?हकीकत तो यह है कि मैंने तुमसे इस पत्र को पढ़ने तक का अधिकार छीन लिया है. मैं चाहती तो पत्र की शुरुआत में तुम्हें मुनिया,चंदा,गरिमा या फिर मेरे दिल के टुकड़े के नाम से भी संबोधित कर सकती थी परन्तु मैंने तो नाम रखने का अधिकार तक गवां दिया.बेटा मैं भी उन अभागन माँओं में से एक हूँ जिन्होंने अपनी लाडली को अपने पति और परिवार के ‘पुत्र मोह’ में असमय ही ‘सजा-ए-मौत’ दे दी.तुम्हारे कोख में आते ही मेरा दिल उछाले मारने लगा था और मुझे भी माँ होने पर गर्व का अहसास हुआ था.पहली बार तुमने ही मुझे यह मधुर अहसास और गर्व की अनुभूति कराई थी परन्तु मुझे क्या पता था कि यही गर्व मेरे लिए अभिशाप बन जायेगा और मैं भविष्य में तुम्हें, तुम्हारे नाम से भी पुकारने का अधिकार खो दूंगी.जैसे ही डॉक्टर मैडम ने तुम्हारे होने की सूचना दी और मैंने तुम्हारे भविष्य के सपने बुनने शुरू कर दिए.मैं तुम्हें कल्पना चावला,मदर टेरेसा,इंदिरा गाँधी जैसा कुछ बनाना चाहती थी पर यदि तुम ऐश्वर्य राय,प्रियंका चोपड़ा या सानिया/सायना जैसी भी बनाना चाहती तो भी मुझे कोई आपत्ति नहीं होती क्योंकि इनके जरिये भी कम से कम तुम मेरे दबे कुचले अरमानों को पूरा करती.तब तक मुझे नहीं पता था कि तुम्हारे लिए बुने जा रहे मेरे ये ख़्वाब बस सपने ही बनकर रह जायेंगे और तुम्हारे दादा-दादी और पापा के मान की खातिर मुझे तुम्हारा चेहरा देखना तक नसीब नहीं होगा.हाँ, मैं इतना दावा तो कर ही सकती हूँ कि तुम बिलकुल मेरी परछाईं होती-मेरी तरह ही बेहद खूबसूरत.वैसे तुम पिता का अक्स होती तब भी काफी सुंदर लगती. दरअसल लंबे-चौड़े कारोबार के कारण पिता और दादा वारिस चाहते थे और हमारे समाज में आज तक बेटी को वारिस नहीं माना जाता.परंपरा की मारी दादी भी उनके साथ खड़ी नज़र आई तो मेरा रहा-सहा मनोबल भी टूट गया.आखिर कम पढ़ी-लिखी और गरीब परिवार से अमीरों में ब्याहकर आई तुम्हारी माँ न तो घर छोड़ने का साहस दिखा सकती थी और न अपने गरीब माँ-बाप पर बुढ़ापे में बोझ बन सकती थी.अन्तः वही हुआ जो घर के सभी सदस्य (तब बहू को सदस्य नहीं माना जाता था) चाहते थे और तुम अजन्मी ही रह गई.आज जब सात लाख बेटिओं को मार डालने का समाचार पढ़ा तो मेरा दिल जार-जार रोने लगा क्योंकि मैं भी तो इन हत्यारी माँओं में से एक हूँ. आज इतनी हिम्मत जुटाकर यह पत्र इसलिए लिख रही हूँ कि मैं तो शायद चाहकर भी तुम्हें न बचा पाई पर इस पत्र के माध्यम से अपनी जैसी माँओं के दिल का हाल सबके सामने ला सकूँ और उनके परिवारों को शर्मिन्दिगी का अहसास कराकर तुम जैसी कुछ बेटिओं को जीने का अधिकार दिला सकूँ ताकि भविष्य में और कोई कल्पना/प्रियंका/इंदिरा उम्मीदों पर खरी उतरने और आसमान में अपने हिस्से की उड़ान पूरी करने के पहले ही विदा न हो सके...

                                                                                                                      तुम्हारी हत्यारी/अभागन माँ

करोडों का "गनतंत्र" या जनता का गणतंत्र ...


जगह-जगह ए के-४७ जैसी घातक बंदूकों के साथ रास्ता रोककर तलाशी लेते दिल्ली पुलिस के सिपाही, सड़कों पर दिन-रात गश्त लगाते कमांडो, रात भर कानफोडू आवाज़ के साथ सड़कों पर दौड़ती पुलिस की गाडियां, फौजी वर्दी में पहरा देते अर्ध-सैनिक बलों के पहरेदार, होटलों और गेस्ट-हाउसों में घुसकर चलता तलाशी अभियान और पखवाड़े भर पहले से अख़बारों-न्यूज़ चैनलों और दीवारों पर चिपके पोस्टरों के माध्यम से आतंकवादी हमले की चेतावनी देती सरकार.....ऐसा नहीं लग रहा जैसे देश पर किसी दुश्मन राष्ट्र की नापाक निगाहें पड गई हों लेकिन घबराइए मत क्योंकि न तो दुश्मन ने हमला किया है और न ही देश किसी मुसीबत में है बल्कि यह तो हमारे राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस पर की जा रही तैयारियां हैं. गणतंत्र यानी जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा....इसीतरह गणतंत्र दिवस अर्थात जनता का राष्ट्रीय पर्व पर क्या आम जनता अपने इस राष्ट्रीय त्यौहार को उतने ही उत्साह के साथ मना पाती है जितने उत्साह से देश में होली,दिवाली और ईद जैसे धार्मिक-सामाजिक पर्व मनाये जाते हैं? राष्ट्रीय पर्व को उत्साह से मनाना तो दूर उलटे जनता से अपेक्षा की जाती है कि वह इस दिन आपने घर से ही न निकले और यदि देश भर से कुछ हज़ार लोग इस राष्ट्रीय पर्व का आनंद उठाने के लिए सड़कों पर निकलते हैं तो उन्हें बंद रास्तों, छावनी बनी दिल्ली और दिल तोड़ देने वाली पुलिसिया तलाशी से इतना परेशान होना पड़ता है कि भविष्य में वे भी तौबा करना ही उचित समझते हैं. असलियत में देखा जाये तो धार्मिक-सामाजिक उत्सवों की हमारे देश में कोई कमी नहीं है जबकि राष्ट्रीय पर्व महज गिनती के हैं.वैसे भी गणतंत्र दिवस का अपना अलग ही महत्त्व है. इस साल भी देश एक बार फिर अपनी आज़ादी और उसके बाद हुए व्यवस्था परिवर्तन की खुशियाँ मनाने की तैयारियों में जुटा है.गणतंत्र दिवस के अवसर पर होने वाले इस सालाना जलसे में चकाचक राजपथ पर देश भर से आये कलाकार, सैनिक और स्कूली बच्चे अपनी कला के रंग बिखेरेंगे और सरहदों की हिफाज़त करने वाली सेनाओं के जवान अपनी ताक़त,अस्त्र-शस्त्रों और जोश के जरिये एक बार फिर हमें इस बात का विश्वास दिलाएंगे की हम और हमारी सरहद उनके हाथो में पूरी तरह सुरक्षित है.करोड़ो रुपये में होने वाले इस जलसे का उत्साह मीडिया में तो खूब नज़र आता है क्योंकि विज्ञापनों से पन्ने भरे रहते हैं, गणतंत्र दिवस की तैयारियों की खबरों से पन्ने रंग जाते हैं परन्तु आम जनता जिसके लिए यह सारा ताम-झाम होता है वह इससे महरूम ही रह जाती है. बस उसे अखबार पढ़कर और न्यूज़ चैनलों के चीखते-चिल्लाते और डराने का प्रयास करते एंकरों के जरिये इस आयोजन में भागीदारी निभानी पड़ती है. अब तो टीवी पर बढ़ती चैनलों की भीड़ ने लोगों को घर पर भी परेड का मज़ा लेने की बजाये इस दिन आने वाले मनोरंजक कार्यक्रमों और छोटे परदे पर बड़ी फिल्मों को देखने का लालच देना शुरू कर दिया है इसलिए घर बैठकर राष्ट्रीय पर्व मनाने की परंपरा दम तोड़ने लगी है.ऐसा न हो कि इस लापरवाही के चलते हमारा यह सबसे बड़ा आयोजन अपनी गरिमा खोकर सरकारी औपचारिकता बनकर रह जाए और भविष्य की पीढ़ी को इस आयोजन के लिए वीडियो देखकर ही काम चलाना पड़े...? तो आइये आपने इस महान पर्व को बचाएं और इस बार खुलकर गणतंत्र दिवस मनाये ताकि इस आयोजन को बर्बाद करने के मंसूबे पाल रहे लोगों के मुंह पर भी हमेशा के लिए ताला लगाया जा सके...



शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

रईसों के आँख-कान नहीं होते....

क्या रईसों के आँख-कान नहीं होते? क्योंकि उनके पास दिल तो वैसे भी नहीं होता.कम से कम महान अभिनेता ‘पद्मश्री’ अवतार कृष्ण हंगल की बदहाली देखकर तो यही लगता है. शोले फिल्म के अमर संवादों में एक था-“यहाँ इतना सन्नाटा क्यों है भाई” और इसी के साथ याद आ जाता है मशहूर अभिनेता अवतार कृष्ण हंगल उर्फ ए के हंगल का चेहरा.भारतीय फिल्मों में आम आदमी का प्रतिनिधि चेहरा,नई पीढ़ी को पुराने दौर की याद दिलाता चेहरा और आम इन्सान के डर/झिझक/मज़बूरी को अभिव्यक्त करता चेहरा.सवा सौ से ज्यादा फिल्मों में काम कर चुके हंगल साहब के पास इलाज के पैसे नहीं है यह सुनकर शायद शाहरुख,सलमान और अमिताभ को जानने वाली पीढ़ी भरोसा न करे क्योंकि उसे तो यह पाता है कि इन्हें एक-एक फिल्म करने के लिए १० से २० करोड़ रूपए मिलना आम बात है और शायद यही कारण है कि नई पीढ़ी फिल्मों में जाने के लिए अपना चरित्र तक न्यौछावर करने को तैयार है .पर यदि उन्हें हंगल साहब और उन्ही की तरह के अन्य महान पर, दाने-दाने को मोहताज अभिनेताओं के बारे में बताया जाए तो वे शायद फिल्में देखना भी छोड़ देंगे.हंगल साहब को हाल ही में ‘लगान’ में एक चरित्र भूमिका में देखा गया था और अब खबर आई है कि वे बीमार/लाचार/असहाय/मजबूर हालत में है.वह तो भला हो मीडिया का जिसने समय रहते उनकी स्थिति से दुनिया को अवगत करा दिया वरना कुछ समय बाद यह महान अभिनेता इलाज के अभाव में असमय ही हमें छोड़ जाता.
यह सोचने की बात है कि दुनिया भर में अपनी दानशीलता का डंका पीट रहे नेता/अभिनेता/उद्योगपति और सरकार तक को इस महान कलाकार की बदहाल स्थिति का पता नहीं था और न ही हंगल साहब की आवाज़ की नक़ल कर लाखों कमा रहे राजू श्रीवास्तव और सुनील पाल जैसे मिमिक्री बाज़ों ने उनके बारे में सोचा.क्या ईमानदारी से जीवन जीने वालों का यही हश्र होता है?या हमारा देश काली कमाई करने वालों के लिए ही रह गया है?हंगल साहब जैसे महान और मशहूर शख्स का जब यह हाल हो सकता है तो पता नहीं उन कलाकारों का क्या होता होगा जो इतना नाम भी नहीं कमा पाते.अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब एक और उम्दा कलाकार रघुबीर यादव को इसी दौर से गुजरना पड़ा था.हंगल साहब इस मामले में जरुर किस्मत के धनी माने जा सकते हैं कि समय पर मीडिया ने उनकी सुध ले ली और उस अभिजात्य वर्ग के बटुए उनके लिए खुलने लगे जिसका वे प्रतिनिधित्व नहीं करते थे.हालांकि ‘हाथी के दांत खाने के कुछ और दिखाने के कुछ’ की तर्ज़ पर वे बटुए को कितना खोलते हैं इसका अंदाजा तो बाद में हो पायेगा पर फिलहाल तो हंगल साहब इलाज के मोहताज नहीं रहेंगे.
एम टीवी और वी टीवी देखकर बड़ी हो रही पीढ़ी की जानकारी के लिए यह बताना जरुरी है कि हंगल साहब का जन्म १९१७ में पकिस्तान के सियालकोट में हुआ था और बंटबारे के बाद उन्होंने मुंबई को अपना घर बनना उचित समझा.उनके फ़िल्मी जीवन की शुरुआत ५० साल की उम्र में हो पाई थी और ९५ साल के हंगल साहब ने बलराज साहनी,कैफ़ी आज़मी,संजीव कुमार, दिलीप साहब, राजेश खन्ना,अमिताभ बच्चन और आज के दौर के आमिर खान के साथ भी काम किया है.हंगल साहब की चर्चित फिल्मों में बाबर्ची,शोले,शौकीन,गुड्डी,गरम हवा,तीसरी कसम,शराबी,राम तेरी गंगा मैली और लगान हैं. इन दिनों वे बेहद बीमार चल रहे हैं। वे मुंबई में एक किराए के मकान में 75 वर्षीय बेटे विजय के साथ रहते हैं.बीमार हंगल साहब की दवाओं तथा उपचार पर हर महीने का खर्च पंद्रह हजार रुपए है। इतना खर्च उठाने में वे असमर्थ हैं।

रविवार, 2 जनवरी 2011

अब नहीं रहेगा कोई ‘चवन्नी छाप’...

सरकार ने जून से चवन्नी(पच्चीस पैसे) का सिक्का बंद करने की आधिकारिक घोषणा कर दी है.इसका तात्पर्य है कि जून के बाद दाम पचास पैसे(अठन्नी) से शुरू होंगे.वैसे असलियत तो यह है कि चवन्नी तो क्या अठन्नी को भी बाज़ार से बाहर हुए अरसा बीत गया है.अब तो भिखारी भी अठन्नी देखकर नाक-मुंह सिकोड़ने लगते हैं.बच्चों की टॉफी तक एक रुपये से शुरू होने लगी हैं.मेरी चिंता छोटे सिक्कों के बंद होने से ज्यादा इन पर बने मुहावरों के असरहीन होने और नई पीढ़ी को इन मुहावरों को सही परिपेक्ष्य में समझाने को लेकर है.
सोचिये अब किसी को ‘चवन्नी छाप’ की बजाए अठन्नी या रुपया छाप कहा जाए तो कैसा लगेगा? इसीतरह अब आपने बच्चों को ‘सोलह आने सच’ का अर्थ समझाने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ती है.पहले उन्हें सौ पैसे का रुपया बनने का इतिहास बताना पड़ता है और फिर यह सुनने के लिए भी तैयार रहना पड़ता है कि क्या रुपया सौ पैसे की बजाए मात्र सोलह आने का होता था.पुरानी पीढ़ी के तथा मुद्रा के जानकर जानते होंगे कि पहले पाई भी चलन में थी और इसी से बना था ‘हिसाब भाई-भाई का,रुपये-आने पाई का’.अब आप बताइए रुपये तक तो ठीक है आना-पी कैसे समझायेंगे.वैसे जिस चवन्नी का सरकार ने आज तिरस्कार कर दिया है उसका सीधा सम्बन्ध राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी तक से रहा है इसलिए आज़ादी के दौर का एक मशहूर नारा था ‘खरी चवन्नी चांदी की जय बोलो महात्मा गाँधी की’,हालाँकि आपातकाल के बाद के चुनाव में यही मुहावरा बदलकर ‘चार चवन्नी थाली में इंदिरा गाँधी नाली में’ हो गया था.सिक्कों से जुडा एक और मशहूर मुहावरा है ‘सिक्का चलना’.आपने आमतौर पर लोगों को कहते सुना होगा कि ‘अरे उनका तो सिक्का चलता है’.मुद्राओं पर केंद्रित कुछ अन्य प्रसिद्ध कहावतें हैं- ‘नौ नकद न तेरह उधार’, ‘दाम बनाये काम’, ‘पैसे पेड़ पर नहीं उगते’, ‘चमड़ी चली जाये पर दमड़ी न जाये’....आप भी ऐसी ही कई कहावतें और मुहावरे जानते होंगे जो सीधे पैसे से जुडी हैं.
बात फिर चवन्नी की.इस अदनी सी चवन्नी के पहले हम अधन्ना,आना,पाई,इकन्नी,दुअन्नी, पंजी(पांच पैसा),दस्सी(दस पैसा),बीस पैसा जैसे सिक्कों को भुला चुके हैं.नई पीढ़ी के लिए तो ये शब्द गणित के किसी कठिन सवाल जैसे लगेंगे पर बुजुर्ग बताते हैं कि उनके ज़माने में भरा-पूरा अखबार तक दो-तीन पैसे का मिल जाता था. ‘टेक सेर भाजी-टेक सेर खाजा’ की बात तो अब किस्से-कहानियों में सिमटकर रह गई है.हाँ साल भर पहले तक संसद की केन्टीन में ज़रूर खाने-पीने की वस्तुएं चवन्नी-अठन्नी की कीमत पर उपलब्ध थी पर अब वाहन भी चाय दो रुपये की हो गयी है तो बाकी चीज़ें भी इससे ज्यादा की ही होंगी.महंगाई ने धीरे-धीरे छोटे सिक्कों को लीलना शुरू कर दिया है और आने वाले वक्त में यदि एक रुपये का सिक्का भी इकन्नी के भाव का हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए? मेरी तो सलाह है कि इन छोटे सिक्कों को संभलकर रखना शुरू कर दीजिए भाविये में ये आपके लिए इतिहासकार बनने का स्वर्णिम अवसर उपलब्ध करने का माध्यम बनेंगे...

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

क्या हम कुछ दिन प्याज खाना बंद नहीं कर सकते..?

क्या प्याज इतना ज़रुरी है कि वह हमारे दैनिक जीवन पर असर डाल सकता है? प्याज के बिना हम हफ्ते भर भी काम नहीं चला सकते? यदि हाँ तो फिर प्याज के लिए इतनी हाय-तौबा क्यों?और यदि नहीं तो फिर व्रत/उपवास/रोज़ा/फास्ट या आत्मसंयम का दिखावा क्यों? कहीं हमारी यह प्याज-लोलुपता ही तो इसके दामों को आसमान पर नहीं ले जा रही?
मेरी समझ में प्याज न तो ऑक्सीजन है,न हवा है, न पानी है और न ही भगवान/खुदा/गाड है कि इसके बिना हमारा काम न चले. क्या कोई भी सब्ज़ी इतनी अपरिहार्य हो सकती है कि वह हमें ही खाने लगे और हम रोते-पीटते उसके शिकार बनते रहे? यदि ऐसा नहीं है तो फिर कुछ दिन के लिए हम प्याज का बहिष्कार क्यों नहीं कर देते? अपने आप जमाखोरों/कालाबाजारियों के होश ठिकाने आ जायेंगे और इसके साथ ही प्याज की कीमतें भी. बस हमें ज़रा सा साहस दिखाना होगा और वैसे भी प्याज जैसी छोटी-मोटी वस्तुओं के दाम पर नियंत्रण के लिए सरकार का मुंह ताकना कहाँ की समझदारी है. अगर आप ध्यान से देखें तो देश में प्याज के दाम बढ़ने के साथ ही तमाम राष्ट्रीय मुद्दे पीछे छूटने लगे हैं. भ्रष्टाचार के दाग फीके पड़ने लगे हैं और टू-जी स्पेक्ट्रम के घाव भी भरने लगे हैं.हर छोटी सी समस्या को विकराल बनाने में कुशल हमारे न्यूज़ चैनल और समाचार पत्र अब राष्ट्रमंडल खेलों के गडबडझाले को भूल गए हैं और न ही उनको रुचिका की याद आ रही है.दिल्ली के बढते अपराधों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण उनके लिए प्याज हो गयी है.अब वे सुबह से शाम तक”राग प्याज” गा रहे हैं.मीडिया के दबाव में प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक सफाई देते नहीं थक रहे हैं.देश में इतनी अफरा-तफरी तो किसानों की आत्महत्या,जमीन घोटालों और अमेरिका-चीन के दबाव में भी नहीं मची जितनी प्याज की कीमतों को लेकर मच रही है गोया प्याज न हुई संजीवनी हो गई.
शायद यह हमारी जल्दबाजी का ही नतीजा है कि जिस देश में करोड़ों लोग डायबिटीज(मधुमेह) की बीमारी का शिकार हों और पर्याप्त इलाज के अभाव में तिल-तिलकर दम तोड़ रहे हो उसी देश में चीनी की कीमतें आसमान छू रही हैं. कुछ इसीतरह ब्लडप्रेशर(रक्तचाप) के मामले में दुनिया भर में सबसे आगे रहने वाले भारतीय नमक की जरा सी कमी आ जाने पर नासमझों जैसी हरकत करने लगते हैं और अपने घरों में कई गुना दामों पर भी खरीदकर नमक का ढेर लगा लेते हैं.जबकि हकीकत यह है कि ज्यादा नमक खाने से लोगों को मरते तो सुना है पर कम नमक खाकर कोई नहीं मरा और वैसे भी तीन तरफ़ से समुद्र से घिरे देश में कभी नमक की कमी हो सकती है. कुछ इसीतरह की स्थिति एक बार पहले भी नज़र आई थी जब हमने बूँद-बूँद दूध के लिए तरसते अपने देश के बच्चों को भुलाकर गणेशजी को दूध पिलाने के नाम पर देश भर में लाखों लीटर दूध व्यर्थ बहा दिया था.
सोचिये हम एकजुट होकर अंग्रेजों को देश से बाहर निकाल सकते हैं,आपातकाल के खिलाफ हथियार उठा सकते हैं पर मामूली प्याज को छोड़ने की हिम्मत नहीं दिखा सकते और वह भी चंद दिनों के लिए?साथियों, देश में गरीबी,अशिक्षा,बीमारी,भ्रष्टाचार,क़ानून-व्यवस्था,कन्या भ्रूण हत्या,दहेज,बाल विवाह जैसी ढेरों समस्याएँ हैं इसलिए प्याज के लिए आंसू बहाना छोड़िये और यह साबित कर दीजिए कि हम तो प्याज के बिना भी काम चला सकते हैं.....तो शुरुआत आज नहीं बल्कि अभी से ही...

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...