बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

तो फिर हम में और उस कुत्ते में क्या फर्क है..?


छोटे परदे पर दिन भर चलने वाले एक विज्ञापन पर आपकी भी नज़र गयी होगी.इस विज्ञापन में भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी अपनी मोटरसाइकिल पर एक कुत्ते को पेशाब करते देखकर नाराज़ हो जाते हैं और फिर एक छोटे बच्चे को ले जाकर उस कुत्ते के घर(डॉग हाउस) पर पेशाब कराते हैं और साथ में कुत्ते को चेतावनी भी देते हैं कि वह दुबारा ऐसी जुर्रत न करे. इसीतरह सड़क पर अपनी कार या मोटरसाइकिल से गुजरते हुए आप भी पीछे आने वाले वाहन द्वारा आपसे आगे निकलने के लिए बजाए जा रहे कर्कस और अनवरत हार्न का शिकार जरुर बने होंगे.खासतौर पर दिल्ली जैसे महानगरों में तो यह आम बात है भलेहि फिर मामला स्कूल के पास का हो या अस्पताल के करीब का.यदि आपने हार्न बजा रहे पीछे वाले वाहन को देखा हो तो निश्चित तौर पर वह आपके वाहन से बड़ा या महंगा होगा.
                      इन दोनों उदाहरणों को यहाँ पेश करने का मतलब यह है कि धीरे धीरे हम अपनी सहिष्णुता,समन्वय और परस्पर सामंजस्य का भाव खोकर कभी खत्म होने वाली प्रतिस्पर्धा में रमते जा रहे हैं.यदि पहले वाले उदाहरण की बात करे तो साफ़ लगता है धोनी डॉग-हाउस पर बच्चे से पेशाब कराकर जैसे को तैसा सबक सिखाने की कोशिश कर रहे हैं.हो सकता है इस विज्ञापन में भविष्य में बच्चे के स्थान पर धोनी या कोई और वयस्क माडल कुत्ते के घर पर पेशाब करता नज़र आये?मुझे लगता है कि विज्ञापन बनाने वाली टीम का मूल आइडिया शायद यही रहा होगा लेकिन लोगों की सहनशीलता को परखने के लिए फिलहाल बच्चे का इस्तेमाल किया गया है.यदि आम लोग विज्ञापन में रचनात्मकता के नाम पर मूक पशु के साथ इस छिछोरेपन को बर्दाश्त कर लेते हैं तो फिर अगले चरण पर अमल किया जाएगा. खैर मुद्दा यह नहीं है कि विज्ञापन में कौन है बल्कि चिंताजनक बात यह है कि हम समाज को क्या सन्देश दे रहे हैं.कहीं ‘जैसे को तैसा’ की यह नीति तालिबानी रूप न ले ले क्योंकि यदि आज हम अपनी नई पीढ़ी को ‘पेशाब के बदले पेशाब’ करने के लिए उकसा रहे हैं तो कल शायद हाथ के बदले हाथ,छेड़छाड़ के बदले छेड़छाड़ और इसी तरह की अन्य बातों को भी सही साबित करने में भी नहीं हिचकेंगे.दूसरा उदाहरण भी हमारे इसी दंभ को उजागर करता है.अपने आगे किसी छोटे वाहन को चलते देख हम उसके तिरस्कार में जुट जाते हैं.सीधे सपाट शब्दों में कहें तो हम यह जताना चाहते हैं कि एक अदने से वाहन वाले की हिम्मत हमसे आगे चलने की कैसे हो गयी और फिर अपना यही दंभ/गुस्सा/भड़ास/तिरस्कार हम निरंतर हार्न बजाकर जाहिर करते हैं.बाद में विवाद बढ़ने पर यही छोटी-छोटी बातें मारपीट(रोड रेज) और हत्या तक में बदल जाती हैं.
             आखिर क्या वजह है कि हम ज़रा सी बात पर अपना आपा खो देते हैं.बसों में हाथ/बैग लग जाने भर से या मेट्रो ट्रेन में मामूली से धक्के में लोग मार-पीट पर उतारू हो जाते हैं. घर के पास गाडी खड़ी करने को लेकर होने वाले झगडे तो अब रोजमर्रा की बात हो गयी है.क्या बाज़ार का दबाव इतना ज्यादा है कि हम इंसानियत भूलकर हैवानियत की तरफ बढ़ने में भी कोई शर्म महसूस नहीं कर रहे. यह सही है बढती महंगाई,प्रतिस्पर्धा और गुजर-बसर की जद्दोजहद ने आम लोगों को परेशान कर रखा है लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं है कि हम अपनी परेशानियों का ठीकरा किसी और के सिर पर फोडकर अपने साथ-साथ उसकी परेशानी भी बढ़ा दें.क्या मौके पर ही सबक सिखाने या जैसे को तैसा जवाब देते समय हम महज चंद मिनट शांत रहकर यह नहीं सोच सकते कि यह होड़ हमें किस ओर ले जा रही है? इसका नतीजा कितना भयावह हो सकता है?..और हम अपनी नई पीढ़ी को क्या यही संस्कार देना चाहते हैं?     

बुधवार, 25 जनवरी 2012

नवजात बच्चे भी दे सकेंगे वोट..!


दुनिया भर में चल रही मुहिम ने असर दिखाया तो आने वाले समय में नवजात शिशुओं को भी मतदान का अधिकार मिल सकता है.यदि ऐसा हुआ तो माँ-बाप की गोद में चढ़ने वाले बच्चे भी अपने अभिभावकों की तरह सज-धजकर वोट डालते नज़र आयेंगे.वैसे भारत में भी नवजात तो नहीं परन्तु 16 साल के किशोरों को मतदान का अधिकार मिल सकता है.
दरअसल खुद निर्वाचन आयोग भी 16 साल तक के किशोरों को मतदान का अधिकार दिलाने के पक्ष में हैं, उधर नवजात शिशुओं को वोटिंग अधिकार दिए जाने के समर्थकों का कहना है कि यदि बच्चों को भी वोट डालने दिया जाए तो उनकी ओर से उनके अभिभावक फैसला ले सकते हैं कि वे किसे वोट दें.वैसे भी बच्चों के मामले में उनके अभिभावक पढाई-लिखाई,कैरियर से लेकर शादी तक के फैसले लेते ही हैं इसलिए यदि वे मतदान के फैसले में भी मददगार बनते हैं तो क्या बुराई है.इस मुहिम को दुनिया भर में अच्छा समर्थन मिल रहा है.इस बात की जानकारी भी कम ही लोगों को होगी कि ‘राइट टू वोट’ यानि मतदान का अधिकार मानवाधिकारों के अन्तरराष्ट्रीय घोषणा पत्र 1948 के प्रावधानों के तहत ‘मानवाधिकारों’ में शामिल है.
            यदि वोटिंग के लिए आयु सीमा के मुद्दे पर बात की जाए तो विश्व के कई देशों में मतदाताओं के लिए निर्धारित आयु सीमा अलग-अलग है.स्वयंसेवी संगठन ‘मास फार अवेयरनेस’ द्वारा देश में मतदाताओं को जागरूक करने के लिए चलाये जा रहे अपने देशव्यापी अभियान ‘वोट फार इंडिया’ के तहत जुटाई गई जानकारी के मुताबिक आस्ट्रिया,ब्राजील,निकारागुआ,क्यूबा,बोस्निया,सर्बिया इंडोनेशिया,उत्तरी कोरिया, पूर्वी तीमोर, सूडान,सेशेल्स सहित दर्जनभर से ज्यादा देशों में मतदाताओं के लिए न्यूनतम आयु सीमा 16 साल है.एक रोचक तथ्य यह भी है कि अधिकतर देशों में 1970 के पहले तक यह न्यूनतम आयुसीमा 21 साल थी लेकिन बदलते वक्त और जागरूकता के फलस्वरूप तमाम देशों ने आयु की इस लक्ष्मणरेखा को घटाना शुरू कर दिया और अब यह 16 साल तक आ गई है.
                 भारत भी इस मामले में पीछे नहीं रहा और यहाँ भी 28 मार्च 1989 को 21 के स्थान पर 18 साल के युवाओं को मतदान का अधिकार दे दिया गया.मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाय कुरैशी तो इसे और भी कम कर 16 साल तक लाना चाहते हैं.उनका मानना है कि आज समाचार चैनलों और इंटरनेट के चलते किशोरों में भी वयस्कों की तरह जागरूकता आ गई है और वे देश के साथ-साथ अपना भला-बुरा समझते हुए सही मतदान करने में सक्षम हैं, इसलिए किशोरों को मतदान का अधिकार देने में कोई बुराई नहीं है.



बुधवार, 7 दिसंबर 2011

फेसबुक ने किया भारतीय सुरक्षा से खिलवाड़

सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक भारतीय नेताओं की छवि के साथ खिलवाड़ तो कर ही रही है अब उसने देश की सुरक्षा व्यवस्था को भी गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाने की कवायद शुरू की है। फेसबुक के एक एप्लीकेशन की मदद से कोई भी व्यक्ति भारत सरकार के आधिकारिक कार्ड की तरह दिखने वाला पहचान पत्र बना सकता है।
खास बात यह है कि फेसबुक द्वारा दिए जा रहे इस कार्ड में भारत सरकार का राष्ट्रीय चिन्ह अशोक चक्र भी है। इसके ऊपर रिपब्लिक ऑफ इंडिया लिखा है, साथ में तिरंगा भी बनाया गया है। कार्ड को और वास्तविक रूप प्रदान करने के लिए फेसबुक ने इस पर बारकोड तथा सुरक्षा चिप की प्रतिकृति (नकल) भी लगाई है।
 फेसबुक पर 'एपीपीएस डॉट फेसबुक डॉट कॉम' पर जाकर कोई भी व्यक्ति यह इंडिया कार्ड बना सकता है। इसके अलावा इस एप्लीकेशन के जरिए वोटर आइडी कार्ड भी बनाया जा सकता है। वोटर आइडी पर साफ-साफ इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया लिखा गया है। इस पर भी बारकोड सहित तमाम सरकारी औपचारिकताएं पूरी की गई हैं। फेसबुक द्वारा भारतीय सुरक्षा व्यवस्था को पहुंचाई जा रही तीसरी चोट फैमिली कार्ड के रूप में है। यह देश के राशन कार्ड की तरह है। इस तरह से कोई भी व्यक्ति चाहे फिर वह किसी आतंकवादी संगठन से जुडा व्यक्ति ही क्यों न हो, फेसबुक का सदस्य बनकर इंडिया कार्ड हासिल कर सकता है। हैरानी की बात यह है कि इंडिया कार्ड को इतनी सफाई से डिजाइन किया गया है कि वह किसी सरकारी संस्थान या भारत सरकार द्वारा जारी पहचान पत्र की तरह लगता है। इसका फायदा उठाकर कोई भी व्यक्ति न केवल देश की सुरक्षा का जिम्मा संभालने वाले पुलिसकर्मियों को बरगला सकता है बल्कि देश की सुरक्षा के लिए वाकई खतरा भी बन सकता है। जानकारों ने इस इंडिया कार्ड में अशोक चक्र के इस्तेमाल को फेसबुक के लिए गंभीर चूक करार दिया है। उनका कहना है कि फेसबुक के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जा सकती है।

गौरतलब है कि सरकार पहले ही फेसबुक जैसी वेबसाइटों को भारतीय नेताओं खासतौर पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की छवि से खिलवाड के लिए चेतावनी दे चुकी है। फेसबुक पर इन नेताओं के सैकडों ऐसे चित्र मौजूद हैं जिनमें हास्यास्पद और अश्लील तरीके से इनका मजाक बनाया गया है। दरअसल पश्चिमी देशों से संचालित इन वेबसाइटों के लिए भारत और भारतीय संस्कृति से खिलवाड की कोई नई बात नहीं है। पहले भी कुछ वेबसाइटें भारतीय देवी-देवताओं का मजाक बना चुकी हैं।कभी वे जूते पर तो कभी खाने की प्लेटों पर भगवान गणेश,शंकर और देवी दुर्गा की तस्वीरें लगाती रहती हैं. ब्लेकबेरी नामक मोबाइल सर्विस प्रदान करने वाली कंपनी को तो सरकार को प्रतिबंध लगाने की चेतावनी देनी पडी थी क्योंकि इस साइट से भेजे जाने वाले एसएमएस सरकारी सुरक्षा एजेंसियां नहीं पढ सकती थी।



शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

डॉक्टर क्यों बन रहें हैं रक्षक से भक्षक......!


डॉक्टर द्वारा मरीज के साथ छेड़छाड़, युवती ने डॉक्टर पर लगाया बलात्कार का आरोप,डॉक्टर की लापरवाही से बच्चे की मौत,अस्पताल के बाहर महिला ने बच्चा जन्मा,पैसे नहीं देने पर अस्पताल ने मरीज को बंधक बनाया,मरीज के परिजनों द्वारा डॉक्टर की पिटाई,डॉक्टरों और मरीजों के रिश्तेदारों में मारपीट,डॉक्टर हड़ताल पर जैसी ख़बरें आये दिन समाचार पत्रों और न्यूज़ चैनलों की सुर्खियाँ बन रही हैं.एकाएक ऐसा क्या हो गया कि जीवन देने वाले डॉक्टरों पर जीवन लेने के आरोप लगने लगे?
                   समाज में डॉक्टर और मरीज का रिश्ता सबसे पवित्र माना जाता रहा है.मरीज अपने डॉक्टर की सलाह पर आँख मूंदकर भरोसा करता है और डॉक्टर भी पेशागत ईमानदारी के साथ-साथ मरीज के विश्वास की कसौटी पर खरा उतरने में कोई कसर नहीं छोड़ता. वैसे भी डॉक्टर और मरीज के बीच का रिश्ता ही कुछ ऐसा होता है कि दोनों एक दूसरे से कुछ नहीं छिपा सकते.एक-दूसरे को सब कुछ खुलकर बताने के ये सम्बन्ध ही परस्पर विश्वास की डोर को दिन-प्रतिदिन मज़बूत बनाते हैं.मरीज को अपने डॉक्टर के सामने बीमारी के साथ-साथ उस बीमारी के आगे-पीछे की कहानी भी खुलकर बतानी होती है तभी डॉक्टर इलाज या यों कहें कि उपचार का सही रास्ता निकाल पाता है.कहने का आशय यह है कि डॉक्टर और मरीज के ताल्लुकात पति और पत्नी के रिश्ते की तरह खुले होते हैं जहाँ व्यक्तिगत स्तर पर गोपनीयता की कोई गुंजाइश नहीं होती.यदि किसी भी पक्ष ने कोई भी बात छिपाने का प्रयास किया तो संबंधों की नैया डगमगाने लगती है.पति-पत्नी के मामले में जहाँ सम्बन्ध टूटने का ख़तरा होता है तो डॉक्टर मरीज के मामले में गलत इलाज होने का.
                          एक और महत्वपूर्ण बात यह भी है कि डॉक्टर और मरीज के रिश्तों में भावनात्मक से ज्यादा शारीरिक निकटता जुड़ी होती है मसलन डॉक्टर को यदि बुखार भी नापना है तो उसे या तो मरीज का हाथ पकड़ना होगा,पीठ-पेट को छूकर देखना होगा या फिर आला(स्टेथोस्कोप) को मरीज के सीने से लगाकर देखना होगा.यह तो हुई महज बुखार की बात लेकिन अन्य गंभीर बीमारियों अथवा किसी अंग विशेष से जुड़ी बीमारी के दौरान तो यह निकटता और भी बढ़ जाती है.यहाँ तक की दांत निकलने के लिए भी डॉक्टर को मरीज के बिलकुल करीब जाना पड़ता है.आज के आधुनिक दौर में ब्रेस्ट इम्प्लांट,हायमेनोप्लास्टी,लिपोसक्शन जैसे उपचार आम बात हैं.शरीर के गोपनीय अंगों से जुड़े इन उपचारों को कराते समय यह नहीं देखा जाता कि डॉक्टर पुरुष है या महिला.इसीतरह डॉक्टर की दिलचस्पी मरीज की बीमारी ठीक करने में होती है न कि यह देखने में कि मरीज महिला है या पुरुष.दरअसल परस्पर विश्वास और पेशेगत शिष्टता की सबसे ज्यादा ज़रूरत इसी दौरान होती है.वैसे भी डॉक्टर एवं मरीज के बीच पूरे खुलेपन के बाद भी शिष्टता की एक अनिवार्य लक्ष्मण रेखा होती है.मरीज को भी स्पर्श से पता चल जाता है कि यह डॉक्टर का स्पर्श है या किसी कामुक व्यक्ति का.ठीक इसके उलट डॉक्टर भी मरीज को छूते समय इस बात के प्रति सावधान रहता है कि गलती से भी उस लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन न हो जाये जिसका पालन करने की शपथ उसने ली है.
                        लेकिन मुनाफ़ाखोरी की बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने समाज के तमाम मूल्यों,संस्कारों,निष्ठाओं और सरोकारों की जड़ को खोखला बनाना शुरू कर दिया है.जब पैसा ही समाज में पेशा और मुनाफ़ा संस्कार बन जाए तो किसी भी व्यवसाय का पतन सुनिश्चित है. समाज में आ रहे इन सामाजिक-आर्थिक बदलावों,टीवी-फिल्मों और घर-घर में मौजूद इंटरनेट से मिले खुलेपन,समाज में बढ़ते आपसी अविश्वास,धार्मिक-जातिगत खाइयों के चौड़े होने तथा मानसिक-सांस्कृतिक पतन के कारण संबंधों की पतली परन्तु मज़बूत डोर भी तार-तार हो रही है.जब भाई-बहन,माँ-बेटे और पिता-पुत्री जैसे सबसे विश्वसनीय,प्रगाड़ और सम्मानजनक रिश्तों पर अंगुलियां उठने लगी हैं तो डॉक्टर एवं मरीज का रिश्ता कैसे इस अविश्वास से बच सकता है. मेरे कहने का आशय यह कतई नहीं है मरीज जान-बूझकर डाक्टरों को निशाना बना रहे हैं या फिर डॉक्टर अपनी सीमा लाँघ रहे हैं.हो सकता है चंद कुत्सित इरादों वाले लोग ऐसा सोच-समझकर करते भी हो परन्तु एक-दो लोगों की गलती के आधार पर पूरे पेशे को कटघरे में खड़ा करना उचित नहीं ठहराया जा सकता.हाँ अब बदलते परिवेश और सोच के इस वातावरण में डॉक्टरों को भी अतिरिक्त सावधानी बरतने की जरुरत है वरना वह दिन दूर नहीं जब कोई महिला मरीज या तो किसी पुरुष डॉक्टर के पास इलाज के नहीं जायेगी और जाना भी पड़ा तो वह डॉक्टर के केबिन में अपने साथ किसी रिश्तेदार को लेकर जायेगी. हो सकता है भविष्य में ऐसी उपचार विधि या मशीन बनानी पड़े जिससे डॉक्टर अपने मरीज को छुए बिना ही इलाज कर सकें.

रविवार, 21 अगस्त 2011

तो क्या अब इंसान बनाएगा ‘रेडीमेड’ और ‘डिजाइनर’ बच्चे...!

भविष्य में इंसान यदि अपने आपको भगवान घोषित कर दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि उसने अपनी नई और अनूठी खोजों से भगवान की सत्ता को ही सीधी चुनौती दे दी है.किराए की कोख और परखनली शिशु(टेस्ट ट्यूब बेबी) के बाद अब तो वैज्ञानिकों ने बच्चे के आकार-प्रकार में भी परिवर्तन करना शुरू कर दिया है.इसका मतलब है कि अब हर बैठे डिजाइनर और रेडीमेड बच्चे पैदा किया सकेंगे.इसीतरह अपने परिवार के किसी खास सदस्य को भी फिर से बच्चे के रूप में पैदा किया जा सकेगा.यही नहीं इस दौरान उस व्यक्ति की कमियों को दूर कर उसे पहले से बेहतर बनाकर जन्म दिया जा सकेगा.यदि इसमें कापीराइट या पेटेन्ट जैसी कोई बाधा नहीं आई तो घर-घर में आइंस्टीन,महात्मा गाँधी,हिटलर,विवेकानंद,नेल्सन मंडेला,अमिताभ बच्चन,मर्लिन मुनरो,दाउद इब्राहिम या इसीतरह के अन्य नामी-बदनाम व्यक्तियों को बच्चे के रूप में पाया जा सकेगा.
                    अब तक तो हमने देश-विदेश में राजाओं के नामों में दुहराव के बारे में खूब सुना है जैसे हमारे देश में बाजीराव प्रथम,बाजीराव द्वितीय या इंग्लैंड में विलियम वन,विलियम टू,हेनरी प्रथम,द्वितीय एवं तृतीय.लेकिन सोचिये यदि इनके नाम ही नहीं बल्कि रंग-रूप,चरित्र और चेहरा-मोहरा भी एक समान हो जाए तो क्या होगा? देश में सैकड़ों साल तक एक ही बाजीराव या विलियम या हेनरी का शासन बना रहेगा.कांग्रेस में इंदिरा युग,भाजपा में वाजपेयी-आडवानी या लालूप्रसाद,मुलायन,पासवान जैसे नेता अनंत काल तक बने रहेंगे.सरकारों को भी किसी जेपी,अन्ना हजारे या स्वामी रामदेव के आमरण अनशन से डरने की जरुरत नहीं होगी क्योंकि एक अन्ना के बाद दूसरा अन्ना और एक रामदेव के बाद दूसरा रामदेव तैयार किया जा सकेगा.
                                  दरअसल यह संभव हो रहा है वैज्ञानिकों द्वारा डीएनए में किये गए बदलाव से और यह बदलाव भी ऐसा कि कुदरत के करिश्मे को ही पीछे छोड़ दिया गया है.हार्वर्ड विश्वविद्यालय के एक जीवशास्त्री ने चूजे के डीएनए में परिवर्तन कर उसकी चोंच को घड़ियालों में पाए जाने वाले थूथन का सा बना दिया है.सामान्य भाषा में इसे घड़ियाल के मुंह वाला चूजा कहा जा सकता है.इसके लिए मुर्गी के अण्डों में एक छेद कर भ्रूण विकसित होने से पहले जिलेटिन जैसे प्रोटीन का एक छोटा सा दाना डाल दिया गया और चूजा घड़ियाल के मुंह वाला हो गया. अब वैज्ञानिकों का दावा है कि डीएनए परिवर्तन में मिली इस सफलता के जरिये मानव शिशुओं में भी जन्म से पहले बदलाव लाये जा सकते हैं.इस उपलब्धि का एक अच्छा पहलू तो यह है कि इससे शिशुओं की जन्मजात विकृतियों को गर्भ में ही ठीक किया जा सकेगा और कोई भी शिशु मानसिक या शारीरिक विकृति के साथ जन्म नहीं लेगा.
                               इस उपलब्धि के सदुपयोग से ज्यादा दुरूपयोग की आशंका है.इसी मामले में देखे तो घड़ियाल के मुंह वाला चूजा अब दाना चुगने तक को तरस जायेगा. यदि मानव के साथ ऐसा हुआ तो सोचिये मानव संरचना के साथ क्या-क्या और किस हद तक खिलवाड नहीं हो सकता है.कुदरत द्वारा वर्षों के परिश्रम के बाद तैयार संतुलित मानव शरीर को पैसे,शक्ति और शोध के दम पर कोई भी व्यक्ति मनचाहा रूप दे सकेगा.यह बात भले ही अभी दूर की कौड़ी लगे लेकिन हो सकता है भविष्य में फिर कोई हिटलर,सद्दाम या इन्हीं की तरह का तानाशाह रोबोट की तरह काम करने वाले मानवों की फौज तैयार कर ले या दुनिया पर हुकूमत का सपना देख रहा कोई सिरफिरा कुदरत पर इस जीत को मानव सभ्यता के लिए अभिशाप में बदल दे.

रविवार, 14 अगस्त 2011

आज़ादी का जश्न या डरपोक-भयभीत लोगों का एक दिन....!


जगह-जगह ए के-४७ जैसी घातक बंदूकों के साथ रास्ता रोककर तलाशी लेते दिल्ली पुलिस के सिपाही, सड़कों पर दिन-रात गश्त लगाते कमांडो, रात भर कानफोडू आवाज़ के साथ सड़कों पर दौड़ती पुलिस की गाडियां, फौजी वर्दी में पहरा देते अर्ध-सैनिक बलों के पहरेदार, होटलों और गेस्ट-हाउसों में घुसकर चलता तलाशी अभियान और पखवाड़े भर पहले से अख़बारों-न्यूज़ चैनलों और दीवारों पर चिपके पोस्टरों के माध्यम से आतंकवादी हमले की चेतावनी देती सरकार.....ऐसा नहीं लग रहा जैसे देश पर किसी दुश्मन राष्ट्र की नापाक निगाहें पड गई हों लेकिन घबराइए मत क्योंकि न तो दुश्मन ने हमला किया है और न ही देश किसी मुसीबत में है बल्कि यह तो हमारे राष्ट्रीय पर्व स्वतन्त्रता दिवस पर की जा रही तैयारियां हैं.
   किसी भी मुल्क के लिए शायद इससे बड़ा दिन और कोई हो ही नहीं सकता क्योंकि गुलामी की जंजीरों को तोड़कर,लाखों-करोड़ों कुर्बानियों और कई पीढ़ियों के सतत संघर्ष के बाद हासिल स्वतन्त्रता की सालगिरह के जश्न से बढ़कर और क्या हो सकता है?लेकिन क्या छह दशक के बाद हम अपने आपको आज़ाद कह सकते हैं?क्या आसमान में उड़ते परिंदे,कलकल बहती नदियों और तन-मन को छूकर गुजरती सरसराती हवा के मानिंद आज़ाद हैं हम?बचपन में अलसुबह खुशी-खुशी नारे लगाती प्रभात फेरी वालों की टोली अब कहीं नज़र आती है और क्या हम अपने परिजनों को निडरता से लाल किले पर होने वाले समारोह में जाने दे सकते हैं?या किसी भी महानगर खासतौर पर दिल्ली में स्वतन्त्रता दिवस से डरावना दिन और कोई होता है क्योंकि इस दिन के पखवाड़े भर पहले से कई दिन बाद तक आतंकी हमलों का भय बना रहता है.   
     लोकतंत्र यानी जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा....इसीतरह स्वतंत्रता दिवस अर्थात जनता का राष्ट्रीय पर्व पर क्या आम जनता अपने इस राष्ट्रीय त्यौहार को उतने ही उत्साह के साथ मना पाती है जितने उत्साह से देश में होली,दिवाली,क्रिसमस और ईद जैसे धार्मिक-सामाजिक पर्व मनाये जाते हैं? राष्ट्रीय पर्व को उत्साह से मनाना तो दूर उलटे जनता से अपेक्षा की जाती है कि वह इस दिन आपने घर से ही न निकले और यदि देश भर से कुछ हज़ार लोग इस राष्ट्रीय पर्व का आनंद उठाने के लिए सड़कों पर निकलते हैं तो उन्हें बंद रास्तों, छावनी बनी दिल्ली और दिल तोड़ देने वाली पुलिसिया तलाशी से इतना परेशान होना पड़ता है कि भविष्य में वे भी तौबा करना ही उचित समझते हैं. असलियत में देखा जाये तो धार्मिक-सामाजिक उत्सवों की हमारे देश में कोई कमी नहीं है जबकि राष्ट्रीय पर्व महज गिनती के हैं.वैसे भी स्वतन्त्रता दिवस का अपना अलग ही महत्त्व है. करोड़ो रुपये में होने वाले आज़ादी के इस जलसे का उत्साह मीडिया में तो खूब नज़र आता है क्योंकि विज्ञापनों से पन्ने भरे रहते हैं, स्वतन्त्रता दिवस की तैयारियों की खबरों से पन्ने रंग जाते हैं परन्तु आम जनता जिसके लिए यह सारा ताम-झाम होता है वह इससे महरूम ही रह जाती है. बस उसे अखबार पढ़कर और न्यूज़ चैनलों के चीखते-चिल्लाते और डराने का प्रयास करते एंकरों के जरिये इस आयोजन में भागीदारी निभानी पड़ती है. अब तो टीवी पर बढ़ती चैनलों की भीड़ ने लोगों को घर पर भी आज़ादी के जश्न का मज़ा लेने की बजाये इस दिन आने वाले मनोरंजक कार्यक्रमों और छोटे परदे पर बड़ी फिल्मों को देखने का लालच देना शुरू कर दिया है इसलिए घर बैठकर राष्ट्रीय पर्व मनाने की परंपरा दम तोड़ने लगी है.ऐसा न हो कि इस लापरवाही के चलते हमारा यह सबसे पावन पर्व अपनी गरिमा खोकर सरकारी औपचारिकता बनकर रह जाए और भविष्य की पीढ़ी को इस आयोजन के लिए वीडियो देखकर ही काम चलाना पड़े...? तो आइये आपने इस महान पर्व को बचाएं और इस बार खुलकर स्वतन्त्रता दिवस मनाये और घर घर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा लहराएँ ताकि इस आयोजन को बर्बाद करने के मंसूबे पाल रहे लोगों के मुंह पर भी हमेशा के लिए ताला लगाया जा सके...

सोमवार, 8 अगस्त 2011

यहाँ पुरुष ,महिला है और बूढ़ा, सजीला जवान

इंटरनेट के आभाषी(वर्चुअल) गुण के कारण तमाम सोशल नेटवर्किंग साइट हमें एक आभाषी दुनिया का हिस्सा तो बना रही है परन्तु वास्तविक दुनिया से दूर भी कर रही हैं. यहाँ सब-कुछ नकली है,लोगों के नाम,उम्र,पता,फोटो और खासतौर पर लिंग सब झूठे होते हैं.यहाँ पुरुष सामान्तया महिला बनकर और महिलाएं पुरुष बनकर मिलती हैं.पचास साल का व्यक्ति या तो स्वयं को नौजवान दिखायेगा या फिर आयु छिपाने के लिए अपने जन्म का साल ही नहीं लिखेगा.इस सबसे बढ़कर बात यह है कि यहाँ मौजूद लोग अपनी जवानी के दिनों की फोटो लगाए नज़र आते हैं और यदि बदकिस्मती से जवानी में भी खुदा ने नूर नहीं बख्शा था तो फिर किसी फिल्मी सितारे का मुखौटा लगाना तो सबसे आसान है.यदि आपके पास एक अदद सुन्दर-जवान चेहरा और महिला का अच्छा सा नाम है तो फिर आपके पास सोशल नेटवर्किंग साइट पर दोस्तों की लाइन लग जायेगी.महिला द्वारा लिखे गए “उफ़ आज सोमवार है”जैसे फालतू ‘स्टेटस’ पर भी टिपण्णी करने वालों की लाइन लग जायेगी और “लाइक’ करने वाले तो सैकड़ों में होंगे लेकिन यदि आप जवानी तथा खूबसूरत महिला होने जैसी खूबियों से लबरेज नहीं हैं तो विद्वान होने के बाद भी शायद आपकी तथ्यपरक बातों को प्रशंसा हासिल करने के यहाँ तरशना पड सकता है क्योंकि यहाँ नकली,बनावटीपन और झूठ भरपूर बिकता है.आखिर बिके भी क्यों नहीं जब यह दुनिया ही नकली है.
                  इस दुनिया के नकलीपन की असलियत यह है कि यहाँ “मेरे पिताजी का निधन हो गया है” जैसी असली खबर को लोग ‘लाइक’ कर लेते हैं और दिखावा इतना कि लंच में दफ़्तर में बैठा एक व्यक्ति इंटरनेट पर अपने ही दफ़्तर के दूसरे या फिर एक साथ कई सहकर्मियों के साथ बिना बोलेइं वेबसाइटों के जरिये बतियाना ज्यादा पसंद करता है,पति अपनी ही पत्नी(वैसे दूसरों की पत्नियों से ज्यादा) से और माँ अपने बच्चों से नेट पर गपिया रही है,दोस्तों का तो पूछिए ही मत वे तो आमने सामने बैठकर भी लैपटाप या मोबाइल पर नेट के जरिये चेटिंग करते दिखाई देंगे और प्रेमी जोड़ों के लिए तो यह भगवान का वरदान है.दरअसल में यह इंटरनेट की दुनिया है तो असली रिश्तों को बनावटीपन का नया आयाम दे रही है.
                               इस बनावटी दुनिया के नशे का यह आलम है कि सुबह से शाम तक कम्प्यूटर पर आँखे गडाये, बिजली गुल हो जाने पर मोबाइल फोन के नेट पर टूट पड़ने वाले, अपने आप में हँसते-परेशान होते और फिर सभी को अपने प्रशंसकों की संख्या एवं टिप्पणियों से अवगत करते लोगों को आप अपने घर,पड़ोस या फिर आस-पास कभी भी कही भी देख सकते हैं.ऐसे लोग बिलकुल अलग नज़र आते हैं जो आमतौर पर खुद में खोये लगेंगे और घर,दफ्तर,बस,मेट्रो जैसी तमाम निजी और सार्वजनिक जगहों पर भरपूर मात्रा में मिलेंगे.
                               दरअसल,इन्टरनेट इन दिनों सामाजिक और पारिवारिक सम्बन्ध निभाने,अपना सुख-दुःख बाँटने और एक –दूसरे की विद्वता के कसीदे काढ़ने का सबसे बड़ा अड्डा बन गया है. सबसे उम्दा सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट कहलाने वाली फेसबुक और ट्विटर,हाई फाइव,आरकुट,लिंक्डइन,माय स्पेस,माय इयरबुक,मीटअप,निंग,टेग्ड,माय लाइफ ,फ्रेंडस्टर जैसे विविध नाम वाली उसकी संगी-साथी वेबसाइटों ने एक ऐसी दुनिया बना दी है जिसमें समाहित होने को लोग बेताब हैं.लेकिन ये दुनिया कितनी झूठी,खोखली और बनावटी है इसका आभाष इस दुनिया का हिस्सा बनकर ही पता चलता है. वास्तविकता यह है कि सामाजिक रिश्ते-नाते बढ़ाने का दावा करने वाली ये तमाम वेबसाइट लोगों को समाज से ही दूर कर रही हैं और हम सब नकली आवरण ओढे तथा आकर्षक मुखौटे लगाकर इस दुनिया में अपनी असलियत खोने को बेताब हैं.

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...