गुरुवार, 13 सितंबर 2012

पापा, भैया लोग मुझे ऐसी अजीब सी नज़रों से क्यों घूर रहे थे?


ग्यारह बसंत पूरे कर चुकी मेरी बिटिया के एक सवाल ने मुझे न केवल चौंका दिया बल्कि उससे ज्यादा डरा दिया.उसने बताया कि आज ट्यूशन जाते समय कुछ भैया लोग उसे अजीब ढंग से घूर रहे थे.यह बताते हुए हुए उसने पूछा कि-"पापा भैया लोग ऐसे क्यों घूर रहे थे? भैया लोग से उसका मतलब उससे बड़ी उम्र के और उसके भाई जैसे लड़कों से था.खैर मैंने उसकी समझ के मुताबिक उसके सवाल का जवाब तो दे दिया लेकिन एक सवाल मेरे सामने भी आकर खड़ा हो गया कि क्या अब ग्यारह साल की बच्ची भी कथित भैयाओं की नजर में घूरने लायक होने लगी है? साथ ही उसका यह कहना भी चिंतन का विषय था कि वे अजीब निगाह से घूर रहे थे.इसका मतलब यह है कि बिटिया शायद महिलाओं को मिले प्रकृति प्रदत्त 'सेन्स' के कारण यह तो समझ गयी कि वे लड़के उसे सामान्य रूप से नहीं देख रहे थे लेकिन कम उम्र के कारण यह नहीं बता पा रही थी कि 'अजीब' से उसका मतलब क्या है.हाँ इस पहले अनुभव(दुर्घटना) ने उसे चौंका जरुर दिया था. दरअसल सामान्य मध्यमवर्गीय भारतीय परिवारों की तरह उसने भी अभी तक यही सीखा था कि हमउम्र लड़के-लड़कियां उसके दोस्त हैं तो बड़े लड़के-लड़कियां भैया और दीदी. इसके अलावा कोई और रिश्ता न तो उसे अब तक पता है और न ही उसने अभी तक जानने की कोशिश की, लेकिन इतना जरुर है कि इस अजीब सी निगाहों से घूरने की प्रक्रिया ने हमें समय से पहले उसे समाज के अन्य रिश्तों के बारे में समझाने के लिए मजबूर जरुर कर दिया.
     बिटिया के सवाल के जवाब की जद्दोजहद के बीच अखबार में छपी उस खबर ने और भी सहमा दिया जिसमें बताया गया था कि एक नामी स्कूल के बस चालक और कंडक्टर ने छः साल की नन्ही सी बच्ची का दो माह तक यौन शोषण किया और डरी सहमी बच्ची अपनी टीचर की पिटाई की धमकी के डर से यह सहती रही. क्या हो गया है हम पुरुषों को? क्या अब बच्चियों को घर में बंद रखना पड़ेगा ताकि वह उस उम्र में किसी पुरुष की कामुक निगाहों का शिकार न बन जाए जबकि उसके लिए पुरुष पापा,भाई,अंकल,ताऊ,दादा जैसे रिश्तों के अलावा और कुछ नहीं होते और जिनकी गोद में वह स्त्री-पुरुष का भेद किये बिना आराम से बैठ एवं खेल सकती है. यदि अभी से बच्चियों पर इस तरह की पाबन्दी थोपनी पड़ी तो फिर वह भविष्य में लार टपकाते पुरुषों का सामना कैसे करेगी?आखिर कहाँ जा रहा है हमारा समाज! हम बेटियों को कोख में ही मारने का षड्यंत्र रचते हैं,यदि वे किसी तरह बच गयी तो सड़क पर या कूड़ेदान में फेंक दी जाती हैं और यदि यहाँ भी उनमें जीवन की लालसा रह गयी तो फिर हम कामुक निगाहों से घूरते हुए उनके साथ अशालीन हरकतों पर उतर आते हैं.किसी तरह उनकी शादी हुई तो दहेज के नाम पर शोषण और फिर बेटी को जन्म देने के नाम पर तो घर से ही छुट्टी मानो बेटी पैदा करने में उसकी अकेले की भूमिका है? यह सिलसिला चलता आ रहा है और हम चुपचाप देख रहे हैं. क्या हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? क्यों नहीं हम अपने बेटे को भैया और उसकी निगाहों को शालीन रहने के संस्कार देते?बड़े होने पर उसे लड़कियों का भक्षक बनने की बजाय रक्षक बनने की शिक्षा क्यों नहीं देते?बच्चियों को ताऊ,पिता और भैया की आयु के पुरुषों  और शिक्षक से भी यौन हिंसा का डर सताने लगे तो फिर इस सामाजिक ताने-बाने का क्या होगा? महिला में हमें उपभोग की वस्तु ही क्यों दिखती है? ऐसे कई ज्वलंत प्रश्न हैं जिन पर अभी विचार नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब हमारा समाज महिला विहीन हो जायेगा और माँ-बहन-बेटी जैसे रिश्ते पौराणिक कथाओं के पात्र!.         

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

विश्व मच्छर दिवस यानि एक दिन मच्छरों के नाम


विश्व मच्छर दिवस? चौंकिए मत, हर साल 20 अगस्त को दुनियाभर में विश्व मच्छर दिवस मनाया जाता है. अभी तक वैलेंटाइन डे से लेकर फादर-मदर डे,नेशनल यूथ डे,आर्मी डे,रिपब्लिक डे और स्वतंत्रता दिवस से लेकर पर्यावरण दिवस एवं बाल दिवस जैसे तमाम राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय दिवसों के बारे में तो हम सभी ने खूब सुना और पढ़ा है लेकिन मच्छरों का भी कोई दिवस मनाया जा सकता है यह बात मेरी तरह कई और लोगों के लिए भी कल्पना से परे होगी. खासतौर पर उस मच्छर को समारोहिक तौर पर याद करना जो मानव प्रजाति के सबसे बड़े दुश्मनों में से एक है,बात समझ से परे लगती है. यह कपोल कल्पना नहीं बल्कि वास्तविकता है कि हर साल दुनिया भर के सभी प्रमुख देश अगस्त महीने की २० तारीख को मच्छरों का यह दिवस मनाते हैं. एक और मजेदार बात यह है कि विश्व मच्छर दिवस न तो गिफ्ट और कार्ड आधारित बाजार की देन है और न ही युवा पीढ़ी के विभिन्न नव-रचित पर्वों की तरह का कोई आधारहीन त्यौहार बल्कि इसका आयोजन लगभग सवा सौ साल से हो रहा है.
  दरअसल, इस दिन का नाम भले ही विश्व मच्छर दिवस है परन्तु इसको मनाने का उद्देश्य मच्छरों को महिमामंडित करना नहीं बल्कि मच्छरों के खात्मे के लिए नई दवाओं और नए तरीकों के निर्माण के लिए मिल-जुलकर प्रयास करना है.विश्व मच्छर दिवस की शुरुआत 20 अगस्त 1897 को हुई थी जब भारत में कार्यरत ब्रिटिश डाक्टर सर रोनाल्ड रास ने लंबे शोध और परिश्रम के बाद इस तथ्य को खोज निकाला कि मनुष्य में मलेरिया जैसी जानलेवा बीमारी के लिए मादा मच्छर जिम्मेदार है.आज शायद यह जानकारी उतनी महत्वपूर्ण न लगे लेकिन एक सदी पूर्व उस दौर की कल्पना कीजिये जब हर साल लाखों-करोड़ों लोग मलेरिया के कारण जान गवां देते थे और विशेषज्ञ यह समझ ही नहीं पाते थे कि इतनी बड़ी संख्या में लोग क्यों बेमौत मारे जा रहे हैं. डाक्टर रोनाल्ड रास की इस खोज से मच्छरों के संक्रमण से निपटने के तरीके और दवाएं खोजी जा सकी और मलेरिया पर नियंत्रण के उपाय शुरू हुए.

     वैसे, अफ़्रीकी देशों के साथ-साथ भारत में भी मच्छर किसी समस्या से कम नहीं हैं. हमारे वैज्ञानिक और चिकित्सा विशेषज्ञ मच्छरों से निपटने के नए-नए तरीके तलाशते हैं और मच्छर स्वयं को इन तरीकों तथा दवाओं के अनुकूल ढालकर मानव प्रजाति के लिए खतरे को कम नहीं होने देते. यही कारण है दशकों बाद भी मलेरिया पर पूरी तरह से काबू नहीं पाया जा सका है. आज भी पूर्वोत्तर के राज्यों में हमारी फौज के जांबाज़ सिपाहियों के लिए दुश्मन से ज्यादा खतरा मच्छरों से है. अब तो मच्छरों ने अपनी बिरादरी और भाई-बंधुओं के साथ मिलकर जानलेवा बीमारियों की पूरी सूची बना ली है जिसमें चिकनगुनिया, जापानी इंसेफ्लाइटिस और डेंगू प्रमुख हैं. इन बीमारियों के कारण अभी भी दुनिया भर में लाखों लोग अपने प्राण गंवा रहे हैं. सिर्फ हमारे देश में ही हर साल 40 से 50 हजार लोगों की मौत मच्छरों के कारण हो जाती है और तक़रीबन 10 लाख लोग इन बीमारियों का शिकार बन जाते हैं.भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के अनुसार 2010 में 46,800 लोगों को मलेरिया लील गया था. बच्चों के लिए तो मच्छर जानी दुश्मन से कम नहीं है.अफ्रीकी देशों में तो हर 45 सेकेण्ड में एक बच्चे की मौत मलेरिया के कारण हो जाती है इसलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर भारत सरकार तक मच्छरों के खिलाफ़ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कार्यक्रम चला रहे हैं. इन कार्यक्रमों से उम्मीदें तो जगी हैं लेकिन मच्छरों के साथ भ्रष्टाचार के मिल जाने से उम्मीदों पर पानी फिरने में भी देर नहीं लगेगी. डाक्टर रोनाल्ड रास के लिए विश्व मच्छर दिवस का मतलब मच्छरों से छुटकारा दिलाना था लेकिन आज सरकारी योजनाओं के जरिये मच्छरों से निपटने में जुटे महकमों के लिए इस दिन का मतलब पैसा बनाना हो गया है.शायद इसलिए तमाम अच्छी योजनाओं और प्रयासों के बाद भी मच्छर फल-फूल रहे हैं और उसी अनुपात में  योजनाओं का बजट एवं बीमारियों का संक्रमण भी साल-दर-साल बढ़ता जा रहा है.(picture courtesy:jokes-prank.com)   


रविवार, 22 जुलाई 2012

महंगाई,मीडिया और मैंगो मैन



मैंगो मैन यानी आम आदमी के लिए दो जून की रोटी तक मयस्सर नहीं होने देने में क्या मीडिया की कोई भूमिका है? क्या महंगाई बढ़ाने में मीडिया और खासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया खलनायक की भूमिका निभा रहा है ? या फिर दिल्ली की समस्याओं के देशव्यापी विस्तार में मीडिया की भूमिका है? दरअसल ऐसे कई प्रश्न हैं जिन पर विचार आवश्यक हो गया है. फौरी तौर पर तो यही नजर आता है कि मीडिया आम आदमी के दुःख दर्द का सच्चा साथी है और वह देश में आम जनता की समस्याओं से लेकर भ्रष्टाचार और महा-घोटालों को सामने लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. यह बात काफी हद तक सही भी है लेकिन मीडिया का उत्साह कभी कभी समस्याएं भी पैदा कर देता है. यदि इस मामले में उदाहरणों की बात करे तो शायद हर एक व्यक्ति के पास एक-न-एक उदाहरण जरुर मिल जायेगा जिसमें मीडिया ने अपनी अति-सक्रियता से समस्याएं सुलझाने की बजाए परेशानियां बढ़ाई होंगी. खैर अभी बात सिर्फ महंगाई की क्योंकि यह ऐसी समस्या है जिसने हर खासो-आम का जीना मुश्किल कर दिया है.
  यदि हम प्रिंट मीडिया के वर्चस्व वाले दौर की बात करें तो तब मीडिया की अति-सक्रियता से होने वाली परेशानी उतनी विकट नहीं थी. इसका एक प्रमुख कारण यह था कि दिल्ली से प्रकाशित होने वाले कथित राष्ट्रीय समाचार पत्र राज्यों के नगरों और छोटे शहरों तक उस दिन शाम तक या फिर दूसरे दिन पहुँच पाते थे. ये अखबार पहले पन्ने पर देश-विदेश के बड़े घटनाक्रम से भरे होते थे. दिल्ली की बिजली-पानी और महंगाई जैसी समस्याएं अंदर के चौथे-पांचवे पन्नों पर जगह बना पाती थीं इसलिए उनका प्रभाव भी देशव्यापी नहीं हो पता था. वहीं,राज्यों से प्रकाशित होने वाले अखबार दिल्ली के स्थान पर अपने राज्य के घटनाक्रम को महत्त्व देते थे. इसके अलावा इन अखबारों के जिलावार संस्करणों में तो समाचारों की व्यापकता उस जिले के समाचारों तक ही मुख्य रूप से सिमट जाती थी इसलिए किसी समस्या विशेष की व्यापकता का प्रभाव तुलनात्मकता में घटता जाता था.
         माना जाता है कि एक चित्र हजार शब्दों के बराबर असरकारी होता है तो सोचिए इलेट्रॉनिक मीडिया(न्यूज़ चैनलों) पर चौबीस घंटे बार-बार चलने वाले एक ही समस्या के दृश्य जनमानस पर कितना असर डालते होंगे? दरअसल महंगाई जैसी समस्या के देश व्यापी हो जाने की मूल वजह न्यूज़ चैनलों का दिल्ली को ही देश मान लेने का नजरिया है. इनके लिए दिल्ली की कोई भी समस्या देश की समस्या बन जाती है और फिर क्या न्यूज़ चैनल टूट पड़ते हैं उस समस्या पर. अब इसे टीआरपी की जंग माने या गलाकाट प्रतिस्पर्धा, पर हकीकत यही है कि एक चैनल की खींची लकीर से बड़ी लकीर खींचने की होड़ में तमाम न्यूज़ चैनल दिन-भर किसी विषय विशेष  की बखिया उधेड़ने से लेकर उस विषय/समस्या को देशव्यापी बनाने के लिए पिल पड़ते हैं. इससे समस्या दूर तो नहीं होती उल्टा दिल्ली से फैलकर हर छोटे-बड़े शहर तक पहुँच जाती है. अब तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया देश के साथ-साथ प्रिंट मीडिया के लिए भी ‘एजेंडा’ तय करने लगा है. जो खबर न्यूज़ चैनलों पर दिन भर चलती है वही दूसरे दिन अख़बारों की सुर्खियां बन जाती है मतलब यह है कि अब न्यूज़ चैनल तय करते हैं कि कल के अखबार में किस खबर को कितना स्थान मिलेगा. यहाँ तक कि संपादक भी जिम्मेदारी से बचने के लिए न्यूज़ चैनलों की ख़बरों के आधार पर ही अपने पेज और कवरेज निर्धारित करने लगे हैं. कई बार मीडिया की इस अति-सक्रियता से दिल्ली में तो समस्या दुरुस्त हो जाती है परन्तु छोटे शहरों को उससे उबरने में महीनों लग जाते हैं. अभी हाल ही में दिल्ली में आलू-टमाटर की कीमतें चढती रहीं परन्तु देश के बाकी हिस्से बढती कीमतों से अनछुए रहे लेकिन जैसे ही न्यूज़ चैनलों ने महंगाई को लपका तत्काल ही छोटे शहर भी गिरफ्त में आ गए.टीवी देखकर फुटकर सब्जी बेचने वाले भी दोगुने दाम पर सब्जी बेचने लगे और तर्क यही कि दिल्ली से ही महंगा आ रहा है या दिल्ली में भी महंगा बिक रहा है.अब यह अलग बात है कि ज्यादातर सब्जियों का उत्पादन स्थानीय स्तर पर ही होता है और यही से वे दिल्ली जैसे महानगरों में भेजी जाती हैं.सवाल खाने-पीने की वस्तुओं की बढ़ती कीमतों भर का नहीं है बल्कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया किसी एक मंत्री/नेता के मुंह से निकले चंद शब्दों को लपककर और फिर उन्हें अपनी इच्छानुसार तोड़-मरोड़कर,मनमाना विश्लेषण कर और बार-बार सुनाकर शहर तो दूर कस्बों और गाँव के छुटभैये दुकानदारों में भी स्टाक रोकने,कालाबाजारी करने और बेतहाशा दाम बढाने की समझ पैदा कर देता है. इसका असर यह होता है कि महाराष्ट्र का प्याज नासिक-पुणे तक में दिल्ली-मुंबई के बराबर दामों में बिकने लगता है.यही हाल पंजाब-उप्र में आलू का,मप्र में दाल का और हिमाचल-कश्मीर में सेब का होने लगा है.
   अब सवाल एक बार फिर वही है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा कौन ? सरकार को तो अपनी समस्याओं से ही फुर्सत नहीं है और वैसे भी मीडिया को नाराज करने की हिम्मत किस राजनीतिक दल में है. सरकार ने जरा कड़ाई बरती भी तो मीडिया के पैरोकार इसे मीडिया पर लगाम कसने की साजिश करार देने लगते हैं और सरकार डरकर पीछे हट जाती है.विपक्षी पार्टियां भी वस्तु स्थिति समझने की बजाए मौके का फायदा उठाने लगती हैं इसलिए पहल मीडिया को ही करनी होगी वरना नए दौर का पाठक/श्रोता कुछ कर पाए या न कर पाए रिमोट के  इस्तेमाल से चैनल बदलकर मीडिया को असलियत जरुर बता सकता है.(चित्र राजेश चेतन की वेबसाइट से साभार)                


सोमवार, 11 जून 2012

क्या हो हमारा ‘राष्ट्रीय पेय’ चाय, लस्सी या फिर कुछ और



देश में इन दिनों ‘राष्ट्रीय पेय’ को लेकर बहस जोरों पर है. इस चर्चा की शुरुआत योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने की है. उन्होंने चाय को राष्ट्रीय पेय बनाने का सुझाव दिया है. अहलुवालिया का मानना है कि देश में दशकों से भरपूर मात्रा में चाय पी जा रही है इसलिए इसे राष्ट्रीय पेय का दर्जा दे देना चाहिए. इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि किसी एक पेय को राष्ट्रीय पेय का दर्जा दिया जाना चाहिए.जब देश राष्ट्रीय पशु,पक्षी,वृक्ष इत्यादि घोषित कर सकता है तो राष्ट्रीय पेय में क्या बुराई है? यह भी देश को एक नई पहचान दे सकता है और परस्पर जोड़ने का माध्यम बन सकता है. हां ,यह बात जरुर है कि किसी भी पेय को राष्ट्रीय पेय के सम्मानित स्थान पर बिठाने से पहले उसे देश के एक अरब से ज्यादा लोगों की पसंद-नापसंद की कसौटियों पर खरा उतरना जरुरी है.
चाय को राष्ट्रीय पेय बनाने का सुझाव  सामने आते ही चाय का विरोध भी शुरू हो गया. चाय विरोधियों का मानना है कि चाय गुलामी की प्रतीक है क्योंकि इसे अंग्रेज भारत लेकर आये थे और यदि चाय को राष्ट्रीय पेय बना दिया गया तो यह उसीतरह देश को स्वाद का गुलाम बना देगी जिसतरह अंग्रेजी भाषा ने देश को मानसिक रूप से गुलाम बना दिया है. चाय विरोधी लाबी ने चाय के स्थान पर लस्सी को राष्ट्रीय पेय बनाने का सुझाव दिया है. लस्सी प्रेमियों का कहना है कि चाय जहाँ सेहत के लिए नुकसानदेह है,वहीं लस्सी स्वास्थ्य वर्धक है. लस्सी के साथ देश की मिट्टी की और अपनेपन की खुशबू भी जुडी है. राष्ट्रीय पेय को लेकर शुरू हुई इस बहस से खांचों में बंटे मुल्क के लोगों को एक नया मुद्दा मिल गया है और विरोध के साथ-साथ समर्थन में भी आवाज उठाने लगी हैं.चाय समर्थकों का कहना है कि चाय अमीरों और गरीबों के बीच भेद नहीं करती और सभी को सामान रूप से अपने अनूठे स्वाद का आनंद देती है. यही नहीं चाय की सर्वसुलभता,कम खर्च और स्थानीयता के अनुरूप ढल जाने जैसी खूबियां इसे राष्ट्रीय पेय की दौड़ में अव्वल बनाती हैं.यह बेरोजगारी दूर करने का जरिया भी है. अदरक, तुलसी, हल्दी, नींबू के साथ मिलकर और दूध से पिण्ड छुड़ाकर चाय सेहत के लिए भी कारगर बन जाती है. इसे किसी भी मौसम में पिया जा सकता है मसलन गर्मी में कोल्ड टी तो ठण्ड में अदरक वाली गरमा-गरम चाय.
  चाय विरोधी इन सभी तर्कों और चाय की खूबियों से तो इत्तेफ़ाक रख्रे हैं लेकिन वे अंग्रेजों की इस देन को अपनाने को तैयार नहीं है.उनके मुताबिक लस्सी पंजाब से लेकर गुजरात तक लोकप्रिय है और फिर छाछ/मही/मट्ठा के रूप में इसके सस्ते परन्तु सेहत के अनुरूप विकल्प भी मौजूद हैं. यह अनादिकाल से हमारी दिनचर्या में शुमार है और रामायण-महाभारत जैसे पावन ग्रंथों तक में इसका उल्लेख मिलता है.सबसे खास बात यह है कि यह हमारी संस्कृति और परंपरा से जुडी गाय और उससे मिलने वाले उत्पादों दूध-दही-घी-मक्खन की बहुपयोगी श्रृंखला का ही हिस्सा है. चाय और लस्सी से शुरू हुई इस बहस में अब दक्षिण भारत के घर-घर में पी जाने वाली और दुनिया भर में अत्यधिक लोकप्रिय काफ़ी, फलों के रस, हर छोटे-बड़े शहर में मिलने वाला गन्ने का रस और नींबू पानी से लेकर नारियल पानी जैसे तमाम घरेलू पेय भी जुड़ते जा रहे हैं. अपनी कम कीमत,सेहत के अनुकूल और आसानी से उपलब्धता के फलस्वरूप इन पेय पदार्थों को न तो राष्ट्रीय पेय की दौड़ से हटाया जा सकता है और न ही इनके महत्व को कम करके आँका जा सकता है.अब चिंता इस बात की है राष्ट्रीय पेय को लेकर छिड़ी यह बहस पहले ही भाषा और धर्म के आधार पर बंटे देश को टकराव का एक मौका और न दे दे .  

गुरुवार, 24 मई 2012

आप क्या बनना चाहेंगे ‘माटी के लाल’ या ‘मिट्टी के माधो’


पिछले दिनों राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के खून से सनी मिट्टी की नीलामी और इसके लिए लगे लाखों रुपये के दामों ने एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि माटी की महिमा भी अपरम्पार है. कभी यह ‘माटी मोल’ होकर हम इंसानों को कमतरी का अहसास करा जाती है तो कभी ‘देश की अनमोल माटी’ बनकर हमारे माथे का तिलक बन जाती है. जब यही माटी देश के लिए मर मिटने वाले अमर शहीदों और महात्मा गाँधी जैसे महान व्यक्तित्व से जुड़ती है तो इतनी बेशकीमती हो जाती है कि वह घर-घर में पूजनीय बन जाती है. वास्तव में माटी का अस्तित्व महज मिट्टी के रूप में भर नहीं है बल्कि यह हमारी संस्कृति,जीवन शैली,आचार-विचार और परम्पराओं का अटूट हिस्सा है तभी तो जीवन की शुरुआत से लेकर अंत तक माटी हमारे साथ जुडी रहती है.जीवन के साथ माटी के इसी जुड़ाव ने ऐसे तमाम मुहावरों,लोकोक्तियों और सामाजिक शिष्टाचारों को जन्म दिया है जो अपने अर्थों में जीवन का सार छिपाएँ हुए हैं. सोचिए ‘माटी के लाल’ में जिस बड़प्पन,सम्मान और गर्व के भाव का अहसास होता है वही अहसास ‘मिट्टी के माधो’ का तमगा लगते ही जमीन पर या यों कहे कि रसातल में पहुँच जाता है. हम ‘माटी के मोती’ भी गढ़ सकते हैं तो ‘माटी के पुतले’ भी. अपने ‘बदन पर माटी लगाकर’ कोई भी पहलवान जब अखाड़े में उतरता है तो वह ताकत से शराबोर होता है लेकिन थोड़ी ही देर में वह ‘धूल में मिलकर’ अपना पूरा प्रभाव खो बैठता है.यही नहीं अगर यहाँ ‘धूल में मिलने’ के स्थान पर ‘माटी में मिलने’ का प्रयोग कर ले तो वह दुनिया छोड़ने का सा भाव उत्पन्न कर देता है.कई और भी ऐसे प्रयोग हैं जहाँ माटी की महिमा प्रतिबिम्बित होती है मसलन ‘काठ की हांड़ी’ और ‘माटी की हांड़ी’ के बीच का फर्क महसूस कीजिये. यहाँ पहली हांड़ी अर्थ की दृष्टि से मूर्खता की पर्याय है तो दूसरी हांड़ी में उपयोगिता का भाव है.जब यही हांड़ी ‘माटी के घड़े’ में बदलती है तो शीतलता का स्त्रोत बनकर लाखों-करोड़ों लोगों की प्यास बुझाने का जरिया बन जाती है.
   कुछ इसीतरह का दर्शन ‘मिट्टी संवारना’ और ‘मिट्टी खराब करना’ में है क्योंकि मिट्टी संवारने से भविष्य के प्रति आदर्श सोच को बल मिलता है तो ‘मिट्टी खराब करने’ से बदनामी का भाव प्रकट होता है और यदि ‘बुढ़ापे में मिट्टी खराब हो जाए’ तो समझो खुद के साथ-साथ पूरे खानदान का भगवान ही मालिक है. इसके अलावा ‘माटी मिले’ को तो बुंदेलखंड के घर-घर में सुना जा सकता है. अभिनेता आमिर खान की मेहरबानी से ‘चोला माटी का’ भी भर्पुत लोकप्रियता बटोर चूका है. माटी की महिमा ने मुहावरों ही नहीं जाने-माने कवियों को भी अपने मोहपाश में बाँध लिया है तभी तो पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘पुष्प की अभिलाषा’ कविता में लिखा है मुझे फेंक देना उस पथ पर जिस पथ जाए वीर अनेक”. एक अन्य कवि ने लिखा है-वीरों का अंदाज़ कुछ निराला हुजूर होता है इन्हें वतन से इश्क का अजीब सरूर होता है तिलक माटी का लगा रण में निकलते जब हैं ये माटी तो इनकी नज़रों में माँ का सिंदूर होता हैतो किसी ने कहा कि चन्दन है इस देश की माटी तपोभूमि हर ग्राम है.. और कबीरदास जी ने तो आज से लगभग ढाई सौ साल पहले माटी के महत्त्व और इंसान को उसकी औकात बताते हुए कह दिया था-माटी कहे कुम्हार से तू क्या रुंदे मोय एक दिन ऐसा आएगा मैं रुन्दुंगी तोय”......!  

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

‘ईयर-प्लग जनरेशन’ यानि बर्बाद होती नई पीढ़ी


महानगरों की मेट्रो ट्रेन हो या सामान्य ट्रेनें या फिर सार्वजनिक परिवहन सेवा से लेकर शहर की भीड़-भाड़ वाली सड़कें, इन सभी जगहों पर एक बात समान नजर आती है वह है-कानों में ईयर प्लग ठूंसे आज की नई पीढ़ी और इस पीढ़ी के हमकदम बनते उससे पहले की पीढ़ियों के लोग..! इसे अगर ‘ईयर प्लग वाली पीढ़ी’ कहा जाए तो कुछ गलत नहीं होगा. वैसे अभी तक युवा या नई पीढ़ी को जनरेशन एक्स और जनरेशन वाय जैसे विविध नामों से संबोधित किया जाता रहा है लेकिन अब इस पीढ़ी को ईयर प्लग जनरेशन कहना ज्यादा उचित होगा क्योंकि यह हमारी ऐसी नस्ल है जिसके लिए मोबाइल फोन,आइपैड,आइपॉड कम्प्यूटर,लैपटाप और इसने जुड़े ईयर प्लग ही सब-कुछ हैं. अपने कान में ईयर प्लग लगाकर यह पीढ़ी अपने आपको दीन-दुनिया के मोह से दूर कर लेती है.
इस पीढ़ी को हम कभी भी और कहीं भी देख सकते हैं. ईयर प्लग के मोह में जकड़ी यह ऐसी पीढ़ी है जो एफएम चैनलों पर रेडियो जाकी की चटर-पटर सुनते हुए अपने आप को दुनिया के दुःख-दर्दों और सामाजिक सरोकारों तक से अलग कर लेती है. इनके लिए ईयर प्लग और उसके जरिये कान में घुस रही बेफ़िजूल की बातें इतनी जरुरी हैं कि वे अपनी जान तक गँवा देते हैं. यही कारण है कि आये दिन हम अखबारों और न्यूज़ चैनलों पर पढते-सुनते रहते हैं कि मोबाइल फोन पर गाना सुनते हुए युवक ट्रेन की चपेट में आ गया, फलां शहर में युवतियां ट्रेन से कट गयी या फिर बाइक सवार युवक मोबाइल के चक्कर में बस से जा भिड़े लेकिन इसके बाद भी इस पीढ़ी के कान में जूं तक नहीं रेंगती. लगातार घट रहीं ऐसी घटनाओं के बाद भी ईयर प्लग लगाकर अपनी सुध-बुध खोने वालों की संख्या बढ़ ही रही है. खास बात यह है कि ईयर प्लग जनरेशन की नक़ल करते हुए अब उन पीढ़ियों के लोग भी इसकी चपेट में आने लगे हैं जो अपनी जवानी के दिनों में भी इस मायाजाल से दूर रहे थे. मुझे इस बात पर कतई आपत्ति नहीं है कि नई पीढ़ी ईयर प्लग को इतना महत्व क्यों दे रही है?..और न ही उनके अपने मनोरंजन के साधनों पर मैं सवाल खड़े करना चाहता हूँ? मेरी दिक्कत यह है कि ईयर प्लग के चक्कर में हमारी युवा पीढ़ी स्वयं को सामाजिक सरोकारों,पारिवारिक संस्कारों और नैतिक जिम्मेदारियों से दूर करती जा रही है.मेट्रो/बस/ट्रेन में एक बार ईयर प्लग लगा लेने के बाद यह पीढ़ी अपने आप में इतनी खो जाती है कि वह अपने पास खड़े बुजुर्ग/महिला या शारीरिक रूप से अशक्त व्यक्ति को सौजन्यवश सीट देना तक जरुरी नहीं समझती. कई बार तो वे इन वर्गों के लिए आरक्षित सीटों पर बैठे होने के बाद भी नहीं उठते क्योंकि ईयर प्लग उन्हें किसी ओर की बात सुनने नहीं देता और आँखों की शर्मिंदगी को वे आँख मूंदकर सोने का नाटक करते हुए छिपा लेते हैं. यह स्थिति घर से बाहर भर की नहीं है बल्कि घर के अंदर भी कुछ यही हाल रहता है.घर में सोशल नेटवर्किंग साइटों से लेकर मोबाइल फोन,आइपैड,आइपॉड कम्प्यूटर,लैपटाप से जुड़ा यही ईयर प्लग उन्हें अपने परिवार के साथ उठने-बैठने,गप्प लड़ाने और एक साथ भोजन करने का अवसर तक  नहीं देता. इसके फलस्वरूप न वे पारिवारिक जिम्मेदारियां समझ पाते हैं और न ही अपनी परेशानियों को परिवार के साथ साझा कर पाते हैं. फिर यही दूरियां कालांतर में उन्हें अवसादग्रस्त बनाने से लेकर नशीले पदार्थों के शिकंजे में ढकेलने का काम करती हैं. मनोवैज्ञानिक और चिकित्सक भी अब ईयर प्लग से दूरी बनाने की सलाह दे रहे हैं क्योंकि इससे बहरे होने के साथ-साथ रेडिएशन जैसे तमाम खतरे बढ़ रहे हैं. इसके अलावा, लगातार ईयर प्लग के जरिये कुछ न कुछ सुनते रहने से चिडचिडापन भी बढ़ रहा है जो हमारे नैतिक  मूल्यों और सामाजिक ताने-बाने को भी प्रभावित कर रहा है. यदि समय रहते ईयर-प्लग से  इस लत पर रोक नहीं लगाईं गई तो भविष्य में हमें नकारा,सामाजिक रूप से अलग-थलग और एकाकी जीवन जीने वाली ऐसी पीढ़ी मिलेगी जो देश तो क्या परिवार के काम भी नहीं आ पायेगी.  

रविवार, 8 अप्रैल 2012

‘पाठक’ नहीं अब अखबारों को चाहिए सिर्फ ‘ग्राहक’...!


क्या देश के तमाम राष्ट्रीय अख़बारों को अब ‘पाठकों’ की जरुरत नहीं रह गई है और क्या वे ‘ग्राहकों’ को ही पाठक मानने लगे हैं? क्या अब समाचार पत्र वाकई ‘मिशन’ को भूलकर ‘मुनाफे’ को मूलमंत्र मान बैठे  हैं? क्या पाठकों की प्रतिक्रियाएं या फीडबैक अब अख़बारों के लिए कोई मायने नहीं रखता? कम से कम मौजूदा दौर के अधिकतर समाचार पत्रों की स्थिति देखकर तो यही लगता है. इन दिनों समाचार पत्रों में पाठकों की भागीदारी धीरे-धीरे न केवल कम हो रही है बल्कि कई अख़बारों में तो सिमटने के कगार पर है. यहाँ बात समाचार पत्रों में प्रकाशित ‘संपादक के नाम पत्र’ की हो रही है जिसे पाठकनामा,पाठक पीठ,पाठक वीथिका,आपकी प्रतिक्रिया,आपके पत्र जैसे विभिन्न नामों से जाना जाता है.

 एक समय था जब अधिकांश समाचार पत्रों के सम्पादकीय पृष्ठ पाठकों की प्रतिक्रियाओं से भरे रहते थे और पाठक भी बढ़-चढ़कर अपनी राय से अवगत कराते थे.इस दौर में पाठक एक तरह से सम्पादकीय पृष्ठ का राजा होता था.कई बार पाठकों की राय इतनी सशक्त होती थी कि वह सम्पादकीय पृष्ठ पर लेख या किसी सम्पादकीय की बुनियाद तक बन जाती थी. इन पत्रों के आधार पर सरकारें भी कार्यवाही करने पर मजबूर हो जाती थी. पाठकों द्वारा व्यक्त प्रतिक्रियाओं से अखबारों में किसी विषय पर अपनी नीति बनाने और बदलने जैसी स्थिति तक बन जाती थी. पाठकों की अधिक से अधिक प्रतिक्रियाएं हासिल करने और उन्हें बड़ी संख्या में अपने साथ जोड़े रखने के लिए अखबार सर्वश्रेष्ठ पत्र को पुरस्कृत करने,चुनिन्दा पत्रों को बॉक्स में छापने या फिर किसी खास पत्र को अलग ढंग से पेश करने जैसी तमाम कवायदें करते थे लेकिन इन दिनों मानो समाचार पत्रों में पाठकों के पत्रों का अकाल सा आ गया है.अब पाठकों ने ही कम पत्र लिखना शुरू कर दिया है या फिर अख़बारों के पन्नों पर पाठकों के पत्रों के लिए जगह कम होती जा रही है इस पर किसी नतीजे के लिए तो शायद गहन शोध की आवश्यकता पड़ेगी लेकिन टाइम्स आफ इंडिया से लेकर दैनिक भास्कर और हिन्दुस्तान टाइम्स से लेकर राजस्थान पत्रिका जैसे दर्जनभर प्रमुख समाचार पत्रों के विश्लेषण से तो यही लगता है कि अब अखबारों में पाठकों की प्रतिक्रियाओं के लिए स्थान कम होता जा रहा है. इस वर्ष मार्च के अंतिम सप्ताह में (26 मार्च से लेकर 1 अप्रैल तक) दिल्ली के सभी प्रमुख अख़बारों में प्रकाशित ‘संपादक के नाम पत्र’ कालम के अध्ययन से मिले आंकड़े भी इस बात की तस्दीक करते हैं कि समाचार पत्रों के ‘ग्राहक’ तो दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे हैं परन्तु ‘पाठक’ उतनी ही तेजी से कम हो रहे हैं..
   सप्ताह भर के इस अध्ययन में दिल्ली से प्रकाशित हिंदी के नवभारत टाइम्स, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, पंजाब केसरी, राष्ट्रीय सहारा, हिंदुस्तान, नई दुनिया(मार्च के बाद नेशनल दुनिया), जनसत्ता, अमर उजाला, हरिभूमि, राजस्थान पत्रिका और ट्रिब्यून को शामिल किया गया जबकि अंग्रेजी भाषा के टाइम्स आफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स और इंडियन एक्सप्रेस को शामिल किया गया.सप्ताह की शुरुआत अर्थात सोमवार से लेकर अगले सोमवार के बीच किये गए इस अध्ययन से मौटे तौर इन सभी अख़बारों में पाठकों के पत्रों की स्थिति का अंदाजा लग जाता है. इस अध्ययन के अनुसार आज पाठकों के पत्रों को सबसे ज्यादा स्थान और सम्मान ट्रिब्यून द्वारा दिया जा रहा है.इसमें प्रतिदिन औसतन 5 से 6 पत्र छपते हैं.इसके बाद नवभारत टाइम्स में औसतन 5,दैनिक जागरण,हिंदुस्तान और नई दुनिया में लगभग 4-4 पत्रों को स्थान मिल रहा है जबकि पंजाब केसरी,राष्ट्रीय सहारा,हरिभूमि और राजस्थान पत्रिका में 3-3,अमर उजाला और जनसत्ता में 2-2 पत्र प्रकाशित किये गए. नवभारत टाइम्स में अभी भी अंतिम पत्र के रूप किसी चुटीले पत्र को छापा जाता है जबकि जनसत्ता को इस लिहाज से अलग माना जा सकता है कि इसमें प्रकाशित पत्रों की संख्या भलेहि कम हो परन्तु पाठकों को विस्तार से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने का अवसर दिया जा रहा है. सबसे चिंताजनक स्थिति दैनिक भास्कर की है क्योंकि हिंदी के इस लोकप्रिय अखबार में महज एक छोटा सा पत्र ही छापा जा रहा है.
  वहीं,अंग्रेजी के अख़बारों की बात करें तो इस मामले में इंडियन एक्सप्रेस पाठकों को सम्मान देने के लिहाज से सबसे अव्वल नजर आता है. इस अखबार में प्रतिदिन पाठकों के पांच पत्रों को स्थान दिया जा रहा है जबकि अंग्रेजी के दो सबसे ज्यादा प्रसारित और सर्वाधिक पृष्ठ संख्या वाले अख़बारों टाइम्स आफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स में औसतन 3-3 पत्रों को ही स्थान दिया जा रहा है. इस अध्ययन में एक और खास बात यह पता चली कि लगभग सभी समाचार पत्रों ने पाठकों की प्रतिक्रिया जल्द हासिल करने के लिए ई-मेल की सुविधा जरुर शुरू कर दी है ताकि पाठकों को अपने पत्र डाक से न भेजने पड़ें लेकिन पत्रों को छापने की जगह घटा दी है. अख़बारों में पाठकों की घटती भागीदारी पर इस क्षेत्र के जानकारों का मानना है कि अधिकतर समाचार पत्रों में अब ‘प्रतिबद्धता’ का स्थान ‘पैसे’ ने और ‘जन-भागीदारी’ की जगह ‘विज्ञापनों’ ने ले ली है. वैसे भी समाचार पत्रों के ‘उत्पाद’ बन जाने के बाद से तो पाठकों को ग्राहक के रूप में देखा जाने लगा है इसलिए अब पाठकों की भागीदारी से ज्यादा महत्त्व अखबारों की पैकेजिंग पर दिया जा रहा है. अब विज्ञापनों से अटे पड़े एवं मार्केटिंग टीम के इशारों पर सज-संवर रहे दैनिक समाचार पत्र स्वयं को इलेक्ट्रानिक मीडिया(न्यूज़ चैनलों) से मुकाबले के लिए तैयार कर रहे हैं इसलिए ‘टीआरपी’ की तुलना में ‘ग्राहक’ जुटाने-बढ़ाने का खेल चल रहा है.ऐसे में पाठकों और उनकी बहुमूल्य प्रतिक्रियाओं की किसे परवाह है? 
             

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...