शनिवार, 11 जुलाई 2015

सूरज और बादलों की आँख-मिचौली के बीच बेहिसाब झरनों का कलरव


ऐसा लग रहा था मानो सूरज और बादलों के बीच ट्वंटी-ट्वंटी जैसा कोई मुकाबला चल रहा हो..कभी बादल भारी तो कभी सूरज. सूरज को जब मौका मिलता वह बादलों का सीना चीरकर अपनी सुनहरी किरणों को धरती पर बिखेर देता और जब बादल अपनी पर आ जाते तो वे सूरज को भी मुंह छिपाने पर मजबूर कर देते. शिलांग से चेरापूंजी जाते समय आपको आमतौर पर सूरज और बादलों की इस आँख-मिचौली का पूरा आनंद उठाने का मौका मिलता है. तक़रीबन पांच से छः हजार फुट की ऊंचाई पर 10 से 20 डिग्री तापमान में एक ओर रिमझिम फुहारों से तरोताज़ा हुए विविध किस्म के आकर्षक पेड़ कतारबद्ध होकर आपका स्वागत करते हैं तो दूसरी ओर हरियाली की चादर को समेटे गहरे ढलान हमारे मन में खौफ़ जगाने की बजाए उन्हें कैमरों में समेटने की चुनौती सी देते हैं.
यहाँ प्रकृति का इतना मनमोहक रूप किस्मत से ही नसीब होता है क्योंकि दुनियाभर में सबसे ज्यादा बारिश के लिए विख्यात चेरापूंजी यहाँ आने वाले पर्यटकों के सामने अपनी इस विशेषता को प्रदर्शित करने का कोई मौका नहीं छोड़ता. इसके परिणामस्वरूप पूरा सफ़र बस एवं कार की बंद खिड़कियों और इसके बाद भी पूरी बेशर्मी से अन्दर आती पानी की बूंदों से बचने-बचाने की जद्दोजहद में निकल जाता है और लोग यहाँ यत्र-तत्र-सर्वत्र फैले सौन्दर्य को अपनी आँखों में भरकर ले जाने से चुक जाते हैं.
पता नहीं, अब बादलों ने हम पर मेहरबानी दिखाई या फिर सूरज ने पहले ही उनकी नकेल कस दी थी इसलिए लगभग 60 किलोमीटर के इस पर्वतीय सफ़र में बादलों की गुस्ताखी तो पूरी मुस्तैदी के साथ चलती रही परन्तु उनकी इस गुस्ताखी ने सफ़र बिगाड़ने के स्थान पर यात्रा को और भी रमणीय बनाने का काम किया. एक बार पहले भी हम गंगटोक से दार्जिलिंग के सड़क मार्ग से सफ़र के दौरान बादलों और सूरज की ऐसी ही जंग के साक्षी बन चुके हैं लेकिन शिलांग से चेरापूंजी की इस यात्रा की बात ही निराली है. पूरे मार्ग में कहीं पहाड़ी ढलानों में छिपती-छिपाती झरने नुमा पानी की पतली से रुपहली धारा तो कहीं पूरे शोर शराबे के साथ अपने आगमन की सूचना देते छोटे-बड़े जलप्रपातों का समूह आपकी आँखों को स्थित नहीं होने देते.
जैसे ही हम सुनहरी धूप देखकर यहाँ की प्राकृतिक छटा को कैमरे में कैद करने की शुरुआत करते हैं तभी दूर कहीं छिपकर हम पर नजर रखे शरारती बादल एकाएक सामने आकर सुबह को शाम बनाने से नहीं चूकते. अब यह पर्यटकों के कौशल पर निर्भर करता है कि वे कैसे इस हक़ीकत को तस्वीरों में बदल पाते हैं लेकिन दिल से कहें तो बादलों की इन शरारतों के बिना चेरापूंजी का सफ़र अधूरा है. पारदर्शी फुहारों के बीच सात धाराओं को एकसाथ देखने का आनंद कुछ कुछ वैसा ही जैसे बारिश से बचने के लिए हम किसी पेड़ के नीचे खड़े हों और पेड़ हमारे साथ शरारत करने हुए अपनी शाखाओं तथा पत्तियों को हौले से झटक कर तन-मन में फुरफुरी सी पैदा कर दे.
वाकई देश के ईशान कोण में कुछ तो है जो बरबस ही यहाँ खींच लाता है. मेघालय की पहचान चेरापूंजी को पहले सोहरा के नाम से जाना जाता था. बताया जाता है कि अँगरेज़ सोहरा को चेर्रा जैसा कुछ बोलते थे और वहां से बनते-बिगड़ते इसका नाम चेरापूंजी हो गया.हालाँकि अब फिर सरकार ने कागज़ों पर इसका नाम सोहरा ही कर दिया है लेकिन पर्यटन मानचित्र पर चेरापूंजी के सोहरा बनने में अभी समय लग सकता है. यहाँ सालभर में औसतन 11 हजार मिलीमीटर यानि 470 सेंटीमीटर बरसात होती है. दिल्ली-मुंबई में तक़रीबन सालभर में बस 300-600 मिलीमीटर वर्षा होती है पर इतने में भी त्राहि-त्राहि मच जाती है.ऐसे में यदि मेघालय के बादल दिल्ली जैसे महानगरों में चंद मिनट ही डेरा डाल लें तो सोचिए क्या हाल होगा.

बहरहाल, यदि आप प्रकृति से साक्षात्कार करना चाहते हैं तो पूर्वोत्तर और यहाँ भी चेरापूंजी जैसी जगह से बेहतर कोई स्थान नहीं हो सकता. हरियाली की चुनर ओढ़े लजाते-शर्माते से पहाड़, हमारे साथ साथ रेस लगाते पेड़,लुका-छिपी खेलता सूरज और नटखट बादलों की धींगामुश्ती...ऐसा लगता है यही रह जाएँ, बस जाएँ जीवन भर के लिए.  

सोमवार, 6 जुलाई 2015

‘नेट न्यूट्रीलिटी’ यानि इंटरनेट को खेमों में बांटने की साजिश


इन दिनों सोशल मीडिया से लेकर न्यूज़ चैनलों तक और अख़बारों से लेकर पत्रिकाओं तक में ‘नेट न्यूट्रीलिटी’ का मुद्दा छाया हुआ है. देश के बहुसंख्यक लोगों के लिए यह शब्द एकदम नया,अबूझ और कुछ विदेशी रंग लिए हुए है. इसको सही परिपेक्ष्य में समझाने के लिए पहले दूसरे क्षेत्रों के कुछ उदाहरणों की बात करते हैं. मसलन यदि आपने किसी बिल्डर को उसकी मनमानी कीमत देकर मकान ख़रीदा और गृह प्रवेश के साथ ही बिल्डर आपसे कहने लगे कि आप फलां कमरे में नहीं सोएंगे या फलां कमरे को अपना ड्राइंग रूम नहीं बनाएंगे तो आपको कैसा लगेगा.ज़ाहिर सी बात है जब घर आपका है तो यह आप पर निर्भर करता है कि आप उसका कैसे इस्तेमाल करें. इस बात को एक और उदाहरण से समझा जा सकता है मसलन आपने बिजली या पानी का कनेक्शन लिया है और उसका पूरा निर्धारित शुल्क चुका रहे हैं तो कोई कंपनी या सरकार आपसे यह नहीं कह सकती कि आप इस पानी से बर्तन मत साफ़ कीजिए या नहाइए मत या इस बिजली से फ्रिज मत चलाइए इत्यादि. कुछ इसीतरह का मामला इंटरनेट के साथ है और इसके इस्तेमाल में भेदभाव को ख़त्म करने के लिए ही ‘नेट न्यूट्रीलिटी’ शब्द का ईजाद हुआ.
बताया जाता है कि ‘नेट न्यू ट्रलिटी’ शब्द  का सबसे पहले इस्तेेमाल कोलंबिया विश्ववविद्यालय में प्रोफेसर टिम वू ने किया था। ‘नेट न्यूदट्रलिटी’ को हम ‘नेट निरपेक्षता’, तटस्थ  इंटरनेट या नेट का समान इस्तेमाल भी कह सकते हैं। यह मसला पूरी तरह से इंटरनेट की आजादी और बिना किसी भेदभाव के स्वतंत्रता पूर्वक इंटरनेट का इस्तेमाल करने देने का मामला है। सामान्य भाषा में कहें तो कोई भी दूरसंचार कम्पनी या सरकार इंटरनेट के इस्तेमाल में भेदभाव नहीं कर सकती और न ही किसी खास वेबसाइट को फायदा और न ही किसी वेबसाइट को नुकसान पहुँचाने जैसा कदम उठा सकती है.

 इंटरनेट की भाषा में बात करें तो जब आप किसी नेट सेवा प्रदाता या ऑपरेटर से इंटरनेट के उपयोग के लिए कोई डाटा पैक लेते हैं तो यह आपका अधिकार होता है कि आप इसका कैसे इस्तेमाल करें मसलन नेट सर्फ करे या फिर व्हाट्सऐप,स्काइप, वाइबर,हाइक जैसे ऐप के जरिये संदेशों का आदान-प्रदान करें या फिर वॉयस या वीडियो कॉल करे. अब यह तो नहीं हो सकता कि आप को इंटरनेट पैक लेने के बाद भी इन सेवाओं के इस्तेमाल के लिए अलग से पैसा देना पड़े या फिर इंटरनेट सेवा दे रही कंपनी यह तय करे कि आप कौन-कौन सी साईट देखेंगे और कौन सी नहीं? क्योंकि आप पर लगने वाला इंटरनेट शुल्क इस बात पर निर्भर करता है कि आपने इस दौरान कितना डाटा इस्तेमाल किया है। यही नेट न्यूट्रलिटी कहलाती है लेकिन अगर नेट न्यूट्रलिटी खत्म हुई तो हो सकता है कि पैसा चुकाने के बाद भी आपको किसी खास ऐप का इस्तेमाल करने के लिए अलग से शुल्क देना पड़े या कम्पनियां किसी खास एप्लीकेशन के इस्तेमाल से ही आपको रोक दें।

भारत में यह मामला तब चर्चा में आया जब इंटरनेट पर की जाने वाली फोन कॉल्स के लिए दूरसंचार कंपनियों ने अलग कीमत तय करने की कोशिशें की. कंपनियां इसके लिए वेब सर्फिंग से ज़्यादा दर पर कीमतें वसूलना चाहती हैं. इसके बाद दूरसंचार क्षेत्र की नियामक संस्था टेलीकाम रेगुलेटरी अथारिटी आफ इंडिया या भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने इस मुद्दे पर हस्तक्षेप करते हुए आम लोगों से 'इंटरनेट तटस्थता' पर राय मांगी .

अब सवाल यह उठता है कि टेलीकॉम कंपनियां इस तटस्थता को भंग क्यों करना चाहती
हैं? दरअसल नई तकनीकी ने दूरसंचार कम्पनियों के व्यवसाय को बहुत नुकसान पहुँचाया है. मसलन एसएमएस के जरिये संदेशों का आदान-प्रदान करने की सुविधा को व्हाट्सऐप,स्काइप, वाइबर,हाइक जैसे तमाम ऐप ने लगभग मुफ़्त में देकर कम्पनियों की अकूत कमाई में सेंध लगा दी है. स्काइप के बाद व्हाट्सऐप और इसके जैसी कई इंटरनेट कॉलिंग सेवाओं से देश में और खासकर विदेशी फोन कॉलों पर काफी प्रभाव पड़ रहा है क्योंकि लंबी दूरी की अंतरराष्ट्रीय फोन कॉल के लिहाज से इंटरनेट के जरिए फोन करना कहीं अधिक सस्ता  पड़ता हैं.

यही कारण है कि देश में एयरटेल की अगुआई में देश की तमाम दिग्गज दूरसंचार कंपनियां खुले या छिपे तौर पर गोलबंद होकर व्हाट्सऐप,स्काइप, वाइबर,हाइक जैसे ऐप के बढ़ते उपयोग को देखते हुए अब वॉयस ओवर इंटरनेट प्रोटोकॉल यानी वीओआईपी सेवाओं के लिए ग्राहकों से अलग से शुल्क वसूलना चाहती हैं। इसकी शुरुआत भी एयरटेल ने की और एक ही डाटा पैक से नेट सर्फ के लिए अलग शुल्क और वाइस कॉल के लिए अलग शुल्क और एयरटेल ज़ीरो जैसी लुभावनी योजनाओं की घोषणा करके नेट निरपेक्षता पर विवाद खड़ा कर दिया। हालांकि जनता,सरकार और इस बदलाव की जद में आने वाली कम्पनियों के दबाव में फोरी तौर पर इन योजनाओं को वापस ले लिया गया लेकिन ‘नेट निरपेक्षता’ का जिन्न अभी पूरी तरह से बोतल में बंद नहीं हुआ है.

वैसे इस मामले में अब तक सरकार का साफ़ कहना है कि इंटरनेट तक पहुंच को लेकर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद कई मंचों पर सरकार की राय स्पष्ट तौर पर रख चुके हैं. उन्होंने इस मामले पर एक कमेटी भी बनाई है जो जल्दी ही इस मसले पर अपनी राय देगी.
इस मुद्दे पर सबसे तीखी प्रतिक्रिया आम जनता या नेट का इस्तेमाल करने वाले लोगों ने दी है। ट्राई को इस बारे में एक लाख से ज्यादा ईमेल भेजे गए हैं। सोशल मीडिया पर भी यह विषय छाया हुआ है। अब सारा दारोमदार सरकारी रपट,ट्राई की भूमिका और इंटरनेट यूजर्स की एकता पर टिका है क्योंकि मसला लाखों-करोड़ों के मुनाफे का है इसलिए दूरसंचार कम्पनियां इसे इतनी आसानी से नहीं छोड़ सकती. वे ट्राई और सरकार पर बीच का रास्ता तलाशने के लिए दबाव बनाए हुए हैं और चुनावी चंदे की राजनीति में राजनीतिक राय कभी भी परिवर्तित हो सकती है इसलिए यह यूजर्स को ही सुनिश्चित करना होगा कि दूरसंचार कंपनियों के झांसे से कैसे बचना है.
 (चित्र सौजन्य:www.learninginfinite.com)




गुरुवार, 11 जून 2015

मोबाइल खोलेगा घर घर में आईआईएम-आईआईटी जैसे नामी शिक्षा संस्थान

इन दिनों छोटे परदे पर प्रसारित हो रही दूरसंचार सेवा प्रदान करने वाली एक निजी कम्पनी की विज्ञापन श्रृंखला टीवी के साथ साथ सोशल मीडिया पर काफी चर्चित है. रचनात्मक दृष्टि से उत्तम इस विज्ञापन श्रृंखला में उस कम्पनी की मोबाइल इंटरनेट सेवा को किसी विश्वविद्यालय या आईआईएम-आईआईटी जैसे नामी शिक्षा संस्थान की तरह दर्शाया गया है और उस कंपनी के ग्राहक अंग्रेजी सीखने से लेकर हवाई जहाज चलाने और वाहन सुधारने जैसे काम भी मोबाइल कंपनी द्वारा सृजित छदम शैक्षणिक संस्थान से सीखते दर्शाए गए हैं. ये तो रही विज्ञापन की बात परन्तु अब हक़ीकत में भी ऐसा कुछ होने जा रहा है और वो भी सरकारी स्तर पर. फिलहाल यह तो खोज का विषय हो सकता है कि सरकार ने इस कंपनी के विज्ञापनों से प्रेरणा ली है या फिर सरकारी योजना से प्रेरणा लेकर और सरकार में काम की जगजाहिर धीमी रफ़्तार का फायदा उठाकर दूरसंचार कम्पनी ने पहले विज्ञापन शुरू कर दिए. बहरहाल सच्चाई जो भी हो लेकिन इस प्रयास से शिक्षा क्षेत्र में क्रांति आ सकती है.  
दरअसल मानव संसाधन विकास मंत्रालय मंत्रालय देश के पूर्वोत्तर राज्यों और खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में आम लोगों तक गुणात्मक शिक्षा की उपलब्धतता को सुनिश्चित करने के लिए केन्द्रीय विश्वविद्यालयों, आईआईटी,आईआईएम और एनआईटी जैसे श्रेष्ठतम शिक्षा संस्थानों के सभी डिप्लोमा और कुछ डिग्री पाठ्यक्रमों को देश के सभी नागरिकों को लगभग मुफ़्त में उपलब्ध कराना चाहता है. इस योजना के अंतर्गत आम लोगों को अपने मोबाइल फोन के जरिये मात्र 500 रुपए में देश के इन नामी संस्थानों में पढने,परीक्षा देने और उत्तीर्ण होने का प्रमाणपत्र हासिल करने की सुविधा मिल जाएगी. इसके लिए देशभर में दूरसंचार सेवाओं से सुसज्जित ऐसे 500 केन्द्रों की पहचान की जा रही है जहाँ इन पाठ्यक्रमों से सम्बंधित पढाई और परीक्षा देने की सुविधा मिलेगी.
मानव संसाधन विकास मंत्रालय की मुखिया स्मृति ईरानी ने खुद यह बात हाल ही में पूर्वोत्तर के अपने पहले दौरे के समय पत्रकारों को बतायी. ईरानी का कहना था कि उनका मंत्रालय इसीतरह की कुछ अनूठी योजनाओं पर काम कर रहा है. इन योजनाओं पर अमल से स्कूली शिक्षा ही नहीं बल्कि उच्च शिक्षा भी मोबाइल फोन पर उपलब्ध हो जाएगी और इसका सबसे अधिक फायदा पूर्वोत्तर के राज्यों और इसीतरह के पिछड़ेपन के शिकार अन्य क्षेत्रों के लोगों को होगा.
मानव संसाधन मंत्रालय ने एक मोबाइल ऐप तैयार इसकी शुरुआत भी कर दी है. इस ऐप की मदद से कक्षा पहली से लेकर बारहवीं तक पढाई जाने वाली एनसीआरटीई की सभी पुस्तकें मोबाइल फोन में मुफ़्त डाउनलोड की जा सकेंगी. इससे दूर दराज के इलाकों के बच्चों के सामने समय पर पुस्तकें नहीं मिल पाने की समस्या नहीं रहेगी. इंटरनेट के मामूली शुल्क पर पुस्तकें मिल जाने से अमीर-गरीब सभी परिवारों के बच्चों को न तो हर साल किताबें खरीदनी पड़ेगीं, न ही उन्हें सहेजकर रखने का झंझट होगा और न ही फिर हर दिन बोरे जैसे बस्ते को ढोकर स्कूल ले जाना पड़ेगा बल्कि एक फोन उनका जीवन में पढाई को आसान कर देगा. यह ऐप जल्द जारी होने की सम्भावना है. यही नहीं, दूसरे चरण में अर्थात् दो-तीन माह के भीतर मंत्रालय इसी श्रृंखला का दूसरा ऐप जारी करेगा. यह दूसरा ऐप पहली कक्षा से आठवीं कक्षा तक के बच्चों को इन पुस्तकों पढ़ने और उनके शिक्षकों को इन पुस्तकों से पढ़ाने का तरीका सिखाएगा. इसका तात्पर्य यह हुआ कि देश की समूची स्कूली शिक्षा महज एक मोबाइल फोन में समा जाएगी.

सोचिए, भविष्य में उच्च शिक्षा कितनी सहज,सरल और सस्ती हो जाएगी. घर घर में मोबाइल फोन की तरह आईआईएम-आईआईटी जैसे ‘इलीट’ शिक्षा संस्थानों के डिप्लोमा-डिग्री धारी मिलने लगेंगे और शिक्षा में इन दिनों बन रही अमीर-गरीब,ऊँच-नीच जैसी बुराइयों को जड़ से ख़त्म करने में मदद मिलेगी. सबसे अहम बात तो यह है कि 10 करोड़ से ज्यादा मोबाइल फोन ग्राहकों के फलस्वरूप सभी को शिक्षा देने का संकल्प भी बिना किसी अतिरिक्त खर्च के पूरा किया जा सकेगा. योजना देखने,सुनने,पढने में तो अच्छी लगती है लेकिन यह तो अमल के बाद ही पता चल पायेगा कि जमीनी स्तर पर ये कितनी कामयाब हो पाती हैं और तब तक घर बैठे आईआईएम-आईआईटी में पढ़ने के अपने सपने को जीवित रखिए.

सोमवार, 23 मार्च 2015

चंद रुपयों की खातिर देश की पहचान को ख़त्म करने की साज़िश..!!!


जब कुदरत की नियामत ही कहर बन जाए तो फिर किसी के लिए भी इससे बदतर हालात और क्या हो सकते हैं और जब ऐसी स्थिति का सामना किसी मूक जानवर को करना पड़े तो समस्या और भी मुश्किल हो जाती है. बीते कुछ सालों से कुछ ऐसी ही बदकिस्मती का सामना दुनिया भर में विख्यात असम के एक सींग वाले गैंडे को करना पड़ रहा है. इन गैंडों की दुर्लभ पहचान उनका सींग ही उनकी जान का दुश्मन बन गया है. इस छोटे से सींग की खातिर शिकारी इस विशालकाय जानवर का क़त्ल करने में भी नहीं हिचकिचा रहे. गैंडों के बढ़ते शिकार पर पर्यावरण विशेषज्ञों से लेकर राजनेता तक चिंता जता रहे हैं लेकिन गैंडों का शिकार बेरोकटोक जारी है.
असम दुनिया भर में अपने एक सींग वाले गैंडे के लिए विख्यात है क्योंकि दुनिया में सबसे अधिक एक सींग वाले गैंडे असम में ही हैं. राज्य का काजीरंगा नेशनल पार्क इन विशालकाय जानवरों की सर्वाधिक आबादी के कारण विश्व विरासतों की खास सूची में भी शामिल है. 31 दिसंबर 2012 की गणना के मुताबिक पूरी  दुनिया में एक सींग वाले गैंडों की संख्या 3 हज़ार 333 है. इनमें से लगभग 75 फीसदी गैंडे असम में हैं. सिर्फ काजीरंगा में ही दो हज़ार से ज्यादा एक सींग वाले गैंडे हैं. इसके अलावा असम के अन्य क्षेत्रों में भी बड़ी तादात में ये गैंडे मौजूद हैं. सरकारी और गैर सरकारी संगठनों के अथक प्रयासों से एक दशक पहले तक गैंडों के अवैध शिकार पर तक़रीबन रोक लग गयी थी परन्तु 2007 के बाद से इसमें फिर तेज़ी आ गयी है. अब प्रतिवर्ष शिकारियों के हाथों जान गंवाने वाले गैंडों की संख्या बढती जा रही है. आंकड़ों पर नजर डाले तो 2007 में 20 गैंडे मारे गए थे. 2008 में 16, 2009 में 14, 2010 में 18, 2011 में 5 और 2012 में 25 गैंडे मारे गए. हाल ही विधानसभा में पेश की गयी रिपोर्ट में राज्य सरकार ने भी स्वीकार किया है कि 2013 से अब तक 70 से ज्यादा गैंडे मारे गए हैं. 2013 में 37 तो 2014 में 32 और इस साल के शुरूआती तीन महीनों में ही आधा दर्जन से ज्यादा गैंडों की हत्या हो चुकी है. वहीँ, इसी समय अंतराल में 145 गैंडों ने बीमारी का शिकार बनकर दम तोड़ दिया. हालात की गंभीरता को देखते हुए राज्य सरकार ने गैंडों के सींग काट देने की योजना ही बना ली थी लेकिन पर्यावरण विदों के विरोध के कारण इस योजना पर अमल नहीं हो पाया है. जानकारों का मानना है कि गैंडों की जान बचाने के लिए उनकी यह अनूठी पहचान ही ख़त्म कर देना उचित नहीं है. दरअसल दुनिया भर में फैली तमाम भ्रांतियों के कारण गैंडे का सींग काफी मंहगे दामों में बिकता है और इस मोटी रकम के लालच में लोग इनका अवैध शिकार करने के लिए खुद की जान से भी खेल जाते हैं.
इसी बीच कभी केंद्र, तो कभी राज्य सरकार गैंडों की सुरक्षा को लेकर कागजों पर बहुत कुछ मजबूत प्रयास करती आ रही है लेकिन अब तक जमीन पर इन प्रयासों का कोई असर नजर नहीं आता. अब नई सरकार ने एक बार फिर स्थानीय युवकों को भर्ती कर एक टास्क फ़ोर्स बनाने का ऐलान किया है ताकि शिकारियों को स्थानीय मदद नहीं मिल सके. अब देखना यह है कि गैंडों के अमूल्य जीवन और बहुमूल्य सींग और सबसे जरुरी देश की इस शान को बचाने में यह योजना कितनी और कब तक कामयाब होती है. वैसे, गैंडों की संख्या बढाने के लिए इन्डियन राइनो विजन 2020 के नाम से एक कार्यक्रम भी शुरू किया गया है. इसका उद्देश्य वर्ष 2030 तक असम में एक सींग वाले गैंडों की आबादी बढ़ाकर 3 हज़ार करना है. लेकिन यदि शिकारी इसीतरह आसानी से गैंडों को अपना शिकार बनाते रहे तो ऐसे तमाम कार्यक्रम कागज़ों में ही सिमट कर रह जाएंगे और भविष्य में हमारी आने वाली पीढियां इस अद्भुत प्राणी को शायद किताबों में ही देख पाए.


मंगलवार, 17 मार्च 2015

जब एक रेल इंजन के लिए हजारों लोगों ने किया घंटों इंतज़ार और मांगी दिल से दुआ..!!!

जनसैलाब शब्द भी असम के सिलचर रेलवे स्टेशन में उमड़ी भीड़ के लिए छोटा प्रतीत होता है. यदि इससे भी बड़ा कोई शब्द इस्तेमाल किया जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. चारों ओर बस सर ही सर नजर आ रहे थे. सभी ओर बस जनसमूह था- प्लेटफार्म पर,पटरियों पर, स्टेशन आने वाली सड़क पर. ऐसा लग रहा था जैसे आज शहर की सारी सड़कें एक ही दिशा में मोड़ दी गयी हों. बूढ़े, बच्चे, सजी-धजी महिलाएं और मोबाइल कैमरों से लैस नयी पीढ़ी, परिवार के परिवार. पूरा शहर उमड़ आया था वह भी बिना किसी दबाव या लालच के, अपने आप, स्व-प्रेरणा से, राजनीतिक दलों द्वारा उपलब्ध कराये जाने वाले वाहनों पर सवार होकर शहर घूमने आए लोगों की तरह तो बिल्कुल नहीं. मैंने तो आज तक अपने जीवन में कभी किसी रेल इंजन को देखने, उसे छूने, साथ में फोटो खिंचाने और उस पर चढ़ने की पुरजोर कसरत करते लोगों की इतनी भीड़ नहीं देखी.
दरअसल, जब इंतज़ार सारी हदें पार कर जाता है तो सब्र का बाँध भी टूटने लगता है और फिर उम्मीद की छोटी सी किरण भी उल्लास का कारण बन जाती है. कुछ ऐसा ही पूर्वोत्तर के दक्षिण असम के लोगों के साथ हुआ. बराक घाटी के नाम से विख्यात यह इलाका अब तक ‘लैंड लाक’ क्षेत्र माना जाता है अर्थात् जहाँ आना और फिर वहां से वापस लौटना एवरेस्ट शिखर पर चढ़ने जैसा दुष्कर होता है. बंगलादेश के साथ गलबैयां डाले यह क्षेत्र अपनी भाषा, संस्कृति, खान-पान के कारण पहले ही स्वयं को असम के ज्यादा निकट नहीं पाता और ऊपर से परिवहन सुविधाओं की कमी ने इसे और भी अलग-थलग कर दिया है. कुछ यही परेशानी बराक घाटी से सटे मिज़ोरम,मणिपुर और त्रिपुरा की थी लेकिन अब हालात बदलने लगे हैं. दो दशकों से इस घनघोर पहाड़ी इलाक़े में छोटी लाइन पर कछुए की गति से रेंगती मीटरगेज को ब्राडगेज में बदलने का अरमान पूरा हो गया है. परिवर्तन की आहट लेकर पहले खाली इंजन आया और अपनी गुर्राहट से लोगों को समय और गति के बदलाव का संकेत दे गया. फिर नौ डब्बों की स्पेशल ट्रेन और उसमें सवार रेलवे के आला अधिकारियों ने भी सहमति दे दी. बस रेलवे सुरक्षा आयुक्त की हरी झंडी मिलते ही भारत की सबसे रोमांचक रेल यात्राओं में से एक सिलचर-लामडिंग रेलमार्ग पर भी 70 किमी प्रति घंटा की रफ़्तार से ट्रेन दौड़ने लगेगी. दिल्ली-आगरा जैसे रेलमार्ग पर 160 – 200 किमी की रफ़्तार से पटरियों पर उड़ान भरने और अहमदाबाद-मुंबई मार्ग पर बुलेट ट्रेन का सपना देख रहे लोगों के लिए 70 किमी की स्पीड शायद खिलौना ट्रेन सी लगे परन्तु पूर्वोत्तर में अब तक छुक-छुक करती मीटरगेज पर घंटों का सफ़र दिनों में पूरा करने वाले लोगों के लिए तो यह स्पीड किसी बुलेट ट्रेन से कम नहीं है और जब महज 210 किमी की यह यात्रा 21 सुरंगों और 400 से ज्यादा छोटे-बड़े पुलों से होकर करनी हो तो फिर इस रोमांच के आगे बुलेट ट्रेन की आंधी-तूफ़ान सी गति भी फीकी लगेगी. इस मार्ग पर सबसे लम्बी सुरंग तीन किमी से ज्यादा की है तो सबसे ऊँचा पुल लगभग 180 फुट ऊँचा है. 28 जाने-अनजाने स्टेशनों से गुजरती ट्रेन कई बार 7 डिग्री तक घूमकर जायेगी. 1996-97 में तक़रीबन 600 करोड़ के बजट में तैयार की गयी यह राष्ट्रीय रेल परियोजना लगभग दो दशक बाद 2015 में जाकर 5 हज़ार करोड़ रुपए में मूर्त रूप ले पायी है. इस रेल मार्ग को हक़ीकत में तब्दील करना किसी मायने में प्रकृति की अनजानी विपदाओं से युद्ध लड़ने से कम नहीं था. कभी जमीन धंस जाती थी तो कभी चट्टान खिसक जाती थी लेकिन लगभग 70 सहयोगियों की जान गंवाने के बाद भी मानव श्रम ने हार नहीं मानी और उसी का नतीजा है कि पूरे पूर्वोत्तर में उल्लास और उत्साह का माहौल है.

हम-आप सभी के लिए शायद महज ये रेल पटरियों का बदलना हो लेकिन बराक घाटी और त्रिपुरा-मिज़ोरम के लाखों लोगों के लिए ये विकास की उड़ान के नए पंख हैं, दो दशकों से पीढ़ी दर पीढ़ी पल रहे सपने के साकार होने की तस्वीर है और प्रगति की बाट जोह रहे पूर्वोत्तर की नए सिरे से लिखी जा रही तकदीर है। जब नई बिछी ब्राडगेज रेल लाइन पर कुलांचे भरता हुआ इंजन यहाँ पहुंचा तो उसे टकटकी लगाए निहार रही लाखों आँखों में तृप्ति की ठंडक और भविष्य की उम्मीदों की चमक आ गयी। यदि सब कुछ योजना के मुताबिक रहा तो 1 अप्रैल से दिल की धड़कनों के साथ दौड़ती ट्रेन भी पूरी रफ़्तार से दौड़ने लगेगी। तो दुआ कीजिए देश के 'ईशान कोण' के लिए क्योंकि वास्तु के मुताबिक यह कोण(हिस्सा) खुश हुआ तो देश के बाकी हिस्सों में भी खुशहाली बरसेगी।  

सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

हमारी चाय की चुस्कियों पर टिकी उनकी रोजी-रोटी


असम अपनी कड़क और तन-मन में ऊर्जा का संचार कर देने वाली चाय के लिए मशहूर है. राज्य में चाय बागान बेरोज़गारी को कम करने और राज्य की वित्तीय स्थिति को बेहतर बनाने में भी अहम भूमिका निभा रहे हैं. यहाँ चाय उत्पादन में बराक घाटी के नाम से मशहूर दक्षिण असम की अहम भूमिका है. हाल ही में बराक घाटी में सेहत के अनुकूल पर्पल यानि बैंगनी चाय के उत्पादन की संभावनाए भी नजर आई हैं.
ऐतिहासिक रूप से नज़र डाले तो सुरमा घाटी और अब बराक घाटी के नाम से विख्यात दक्षिण असम के चाय बागानों का इतिहास सौ साल से भी ज्यादा पुराना है. यहाँ प्रतिकूल मौसमीय परिस्थितियों के बाद भी चाय उत्पादन में लगभग 3 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है और कछार चाय की कीमत में भी तुलनात्मक रूप से 8 फीसदी से ज्यादा का इज़ाफा हुआ है. जानकारों का कहना है कि यदि परिवहन,बिजली और संचार सुविधाएँ बेहतर हो जाएँ तो कछार चाय देश के कुल चाय उत्पादन में और भी ज्यादा योगदान दे सकती है. जिसका असर पूर्वोत्तर के विकास पर भी स्पष्ट नज़र आएगा.
वैसे,असम में कुल मिलाकर 70 हज़ार से ज्यादा छोटे-बड़े चाय बागान हैं और लाखों परिवारों की रोजी-रोटी इन बागानों के सहारे चल रही है. यही नहीं, राज्य की अर्थव्यवस्था में भी चाय बागानों का महत्वपूर्ण योगदान है इसलिए असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई चाय को स्टेट ड्रिंक अर्थात राजकीय पेय का दर्जा भी दे चुके हैं. हालाँकि बीते कुछ समय से प्रतिकूल मौसम,कम वर्षा और तकनीकी परेशानियों के कारण छोटे चाय बागानों को तमाम समस्याओं का सामना करना पड रहा है. इसके अलावा, तकनीकी प्रगति के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने और प्रतिस्पर्धा में बने रहने में छोटे चाय बागानों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. ऐसे में भारतीय स्टेट बैंक की नई पहल उनके लिए राहत बनकर आई है.
 अब स्टेट बैंक ने छोटे चाय बागानों की वित्तीय परेशानियों को दूर करने के लिए आर्थिक सहायता देने की योजना बनायीं है. योजना के अंतर्गत बैंक पहले चरण में 3 हज़ार चाय बागानों को यह सहायता देगा. इसके लिए सौ करोड़ रुपए निर्धारित किये गए हैं. बताया जाता है कि चाय बागानों में स्थित स्टेट बैंक की शाखाएं जल्दी ही सर्वेक्षण का काम शुरू करेंगी और फिर इस सर्वे के आधार पर आर्थिक मदद प्रदान की जाएगी. बैंक के आधिकारिक सूत्रों के मुताबिक वित्तीय सहायता केवल उन्हीं चाय बागानों को दी जाएगी जो भारतीय चाय बोर्ड के मापदंडों पर खरे उतरेंगे.
बैंक असम के साथ साथ पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में स्थित चाय बागानों को भी इस योजना में शामिल करेगा. यही नहीं,स्टेट बैंक ने प्रधानमंत्री जन-धन योजना की तर्ज पर चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों के खाते खोलने की एक अन्य योजना पर भी काम शुरू किया है. इससे उनकी दिहाड़ी का भुगतान सीधे बैंक खाते के जरिये हो सकेगा.
प्रधानमंत्री द्वारा पूर्वोत्तर के विकास के लिए की जा रही पहल में हाथ बटाने के लिए स्टेट बैंक अब इस क्षेत्र के युवाओं को भी वित्तीय मदद के रास्ते तलाश रहा है. प्रारंभिक तौर पर पर्यटन के क्षेत्र में काम करने वाले युवाओं को आर्थिक मदद देकर प्रोत्साहित किया जाएगा ताकि क्षेत्र में पर्यटन विकास के साथ साथ बेरोज़गारी को भी दूर किया जा सके.


बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

पूर्वोत्तर में एक साल...समय का पता ही नहीं चला...!!!

आज सिलचर में एक साल हो गया. आज ही के दिन (11 फरवरी 2014) आकाशवाणी, सिलचर में अपना कार्यभार संभाला था. पता ही नहीं चला कैसे इतना वक्त बीत गया. अभी की ही तो बात लगती है जैसे चंद हफ्ते या महीने पहले यहाँ आना हुआ है. इस बारे में दोस्तों का कहना है कि जब काम में मन रम जाए या फिर मनपसंद काम करना हो तो समय कैसे गुजर जाता है इसका पता नहीं चलता. हो सकता है यह भी एक कारण हो या फिर अपनी घुमंतू प्रवृत्ति या फिर परिवार का साथ या फिर सिलचर के लोग,नए दोस्त,आकाशवाणी का स्टाफ,यहाँ का वातावरण....कुछ तो है जिसने सालभर एक अनजान शहर में,अपने घर और अपने जानने वालों से ढाई-तीन हजार किलोमीटर दूर रहने के बाद भी वक्त का अहसास ही नहीं होने दिया.
शायद पूर्वोत्तर के लोगों की सहजता,सरलता,अपनापन और मिलनसारिता ने घर की,अपनों की याद नहीं आने दी. मजे की बात तो यह है कि दिल्ली में पांच दिन काम करने के बाद दो दिन की छुट्टी मिलती थी और आए दिन पड़ने वाले तीज-त्यौहार की छुट्टियाँ अलग मिलती थी,फिर भी कहीं न कहीं एक दबाव सा महसूस होता था..शायद भीड़ का,लाखों की संख्या में वाहनों का,बस से लेकर मेट्रो तक में धक्कामुक्की का और घंटों के जाम का. पर यहाँ न तो उतनी भीड़-भाड है और न ही दिल्ली की तरह की चिल्लपों. न्यूज़ सेक्शन में अकेले पीर-भिश्ती-बाबर्ची (न्यूज़ की भाषा में संपादक, रिपोर्टर, कम्प्यूटर आपरेटर) का दायित्व सँभालने और बिना किसी छुट्टी के सालभर गुजार देना...कुछ तो है जिसने अहसास नहीं होने दिया.
यहाँ जब तबादला हुआ तो अपन ने भी गूगल मेप में जाकर पहली बार सिलचर को जाना था. फिर किसी ने असम के हालात समझाए तो किसी ने रसूख का इस्तेमाल कर तबादला रुकवाने का परामर्श दिया लेकिन रेलवे में आए दिन तबादलों से दो-चार होते रहे पापा(पिताजी) ने जाने का हौंसला दिया और दिल्ली से ऊब रही पत्नी ने मानसिक सहारा,बस फिर क्या था अपन भी निकल पड़े और आज सालभर बाद यह महसूस हो रहा है कि यदि यहाँ नहीं आते तो शायद गलती करते, देश के एक अटूट हिस्से को जानने-समझने से वंचित रह जाते.
यहाँ सब-कुछ नया सा लगा मसलन सुपारी से लेकर अनन्नास(पाइन एप्पल) तक के अनजाने पेड़,चाय के लम्बे-चौड़े बागान,बांस,असम शैली में बने घर,भाषा,खान-पान,सूखी मछलियाँ और बिना जैकेट-रजाई के ठण्ड का मौसम. सुबह की सैर(मार्निंग वाक) के दौरान आधे शहर को देख लेने का उत्साह और बिग बाज़ार,विशाल मेगामार्ट,गोलदिघी,नाहटा,डिजीटल सिनेमा जैसे माल नुमा बाजारों-सिनेमाघरों में मनोरंजन की तलाश. जिन्होंने अब तक साल बीत जाने का अहसास ही नहीं होने दिया.
ऐसा नहीं है कि सिलचर में सभी कुछ ‘हरा-हरा’ है. यहाँ भरपूर काला धुंआ उगलती गाड़ियाँ हैं तो धूल से पटी सड़कें, बेतरतीब चलते वाहन हैं तो सामान्य से कई गुना महँगी दरों पर मिलता सामान, उमस वाली गर्मी है तो नाक में दम कर देने वाली बारिश भी, डाक्टरों को दिखाने के लिए सुबह 4 बजे से लगती लाइनें हैं तो सड़कों पर सरेआम पान-तम्बाखू उगलते और बेशर्मी से मूत्र विसर्जन करते लोग...फिर भी कुछ तो है जिसने सालभर गुजार लेने का अहसास नहीं होने दिया.

एक साल बिताने के बाद,मैं,यह बात दावे से कह सकता हूँ कि रसूख का इस्तेमाल कर तबादला रुकवाने की बजाए यहाँ आकर मैंने गलती नहीं की. यदि यहाँ न आता तो शायद छोटे शहर में महानगरों जैसी सुविधाओं को नहीं जान पाता..बस और सालभर बाद शुरू होगी तलाश भविष्य के लिए पूर्वोत्तर जैसे ही देश के किसी दूसरे हिस्से में जाने और उसे जानने की. 
(चित्र परिचय: सिलचर में बराक नदी पर बना सदर घाट पुल)

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...