बुधवार, 20 जुलाई 2016


अभिशाप नहीं,सीधे संवाद का सटीक माध्यम है सोशल मीडिया

इन दिनों इलेक्ट्रानिक मीडिया खासकर न्यूज़ चैनलों और सोशल मीडिया को खरी-खोटी सुनाना एक फैशन बन गया है. मीडिया की कार्यप्रणाली के बारे में ‘क-ख-ग’ जैसी प्रारंभिक समझ न रखने वाला व्यक्ति भी ज्ञान देने में पीछे नहीं रहता. हालाँकि यह आलोचना कोई एकतरफा भी नहीं है बल्कि टीआरपी/विज्ञापन और कम समय में ज्यादा चर्चित होने की होड़ में कई बार मीडिया भी अपनी सीमाएं लांघता रहता है और निजता और सार्वजनिक जीवन के अंतर तक को भुला देता है. वैसे जन-अभिरुचि की ख़बरों और भ्रष्टाचार को सामने लाने के कारण न्यूज़ चैनल तो फिर भी कई बार तारीफ़ के हक़दार बन जाते हैं लेकिन सोशल मीडिया को तो समय की बर्बादी तथा अफवाहों का गढ़ माना लिया गया है. 
आलम यह है कि सोशल मीडिया पर वायरल होते संदेशों के कारण अब ‘वायरल सच’ जैसे कार्यक्रम तक आने लगे हैं  लेकिन, वास्तविक धरातल पर देखें तो न्यू मीडिया के नाम से सुर्खियाँ बटोर रहे  मीडिया के इस नए स्तम्भ का सही ढंग से इस्तेमाल किया जाए तो यह वरदान बन सकता है. कई बार मुसीबत में फंसे लोगों तक सहायता पहुँचाने में फेसबुक,ट्विटर जैसे सोशल मीडिया के लोकप्रिय प्लेटफार्म ने गज़ब की तेज़ी दिखाते हुए अनुकरणीय उदाहरण पेश किए हैं. बाढ़,भूकंप,आग प्राकृतिक आपदाओं के दौरान इस मीडिया की सकारात्मक भूमिका अब सामने आने लगी है. निजी तौर पर सोशल मीडिया की सक्रियता के तो बेशुमार उदाहरण मौजूद हैं लेकिन सरकारी स्तर पर भी यह मीडिया इन दिनों कारगर भूमिका निभा रहा है. हाल ही में रेलमंत्री और उनके मंत्रालय की ट्विटर पर सक्रियता के कारण मुसीबत में फंसे यात्रियों को समय पर सार्थक मदद मिलने के कई किस्से सामने आ रहे है. यहाँ तक कि इस मीडिया के चलते नवजात बच्चे को ट्रेन में दूध से लेकर डायपर तक उपलब्ध कराने जैसी मानवीय पहल देखने को मिली है. ट्रेन में महिलाओं से छेड़छाड़ रोकने और बदमाशों को मौके पर ही गिरफ्त में लेने में भी इस मीडिया ने अहम् भूमिका निभाई है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सोशल मीडिया पर सक्रियता किसी से छिपी नहीं है. वे इस मंच का इस्तेमाल आम जनता के संपर्क में रहने के लिए बखूबी करते हैं और शायद यही कारण है कि ‘स्वच्छ भारत’ और ‘बेटी बचाओ-बेटी पढाओ’ जैसे सामाजिक कल्याण से जुड़े कार्यक्रम शुरू होते ही न केवल आम जनता तक पहुँच जाते हैं बल्कि जन-सामान्य के मन की थाह लेने में भी सहायक बनते हैं. यदि कुछ साल पहले के परिपेक्ष्य में देखे तो यह सब अविश्वसनीय सा लगता है. पहले सामाजिक कल्याण से जुडी सरकारी योजनाएं जन-सामान्य तक तब पहुँच पाती थीं जब कि वे या तो समाप्त होने के कगार पर होती थीं या फिर जन-भागीदारी के अभाव में वे असफल हो जाती थीं. आकाशवाणी से प्रसारित प्रधानमंत्री के ‘मन की बात’ कार्यक्रम में आम लोगों की भागीदारी सोशल मीडिया की वजह से ही संभव हो पायी है. प्रधानमंत्री द्वारा विभिन्न देशों की यात्रा के दौरान सोशल मीडिया के जरिए उस देश की भाषा में सन्देश प्रेषित करने से गर्मजोशी और परस्पर उत्साह का जो माहौल बनता है उससे सुदृढ़ रणनीतिक संबंधों की नींव रखने में भी मदद मिलती है.     
अब तो सरकार के अधिकतर मंत्रालय सोशल मीडिया पर सक्रिय है लेकिन विदेश मंत्रालय की ट्विटर पर सक्रियता से हाल ही में असम के दो परिवारों को नया जीवन मिल गया. चंद शब्दों में अपनी बात को सीधे सम्बंधित व्यक्ति तक तुरंत पहुंचा पाने की कुशलता के कारण इस नए मीडिया ने इन परिवारों के परिजनों को विदेश से सुरक्षित वापस लाने में अनुकरणीय सहायता की.
असम की आराधना बरुआ यूक्रेन में डाक्टरी की पढाई कर रही हैं और सालभर में कम से कम एक बार अपने वतन आना उनके लिए सामान्य बात थी,लेकिन हाल ही में आराधना के लिए यूक्रेन से इन्स्ताबुल होते हुए गुवाहाटी का सफ़र किसी बुरे सपने से कम नहीं था. चूँकि इन्स्ताबुल में विमान को काफी देर तक रुकना था इसलिए आदत के मुताबिक आराधना विमान से बाहर निकलकर चहलकदमी करने लगी. पहले भी वे ऐसा करती रही हैं और यह सामान्य बात थी लेकिन इन्स्ताबुल में हाल ही हुए आतंकी हमले के बाद वहां के सुरक्षा हालात बदल गए थे. इस बार जैसे ही आराधना विमान से बाहर निकली सुरक्षा एजेंसियों ने बिना ट्रांजिट वीसा के बाहर घूमने के आरोप में उसे हिरासत में ले लिया. बिन बुलाए आई इस मुसीबत ने आराधना के होश उड़ा दिए. फिर धीरज से काम लेते हुए उसने किसी तरह असम की बराक घाटी में इन्स्पेक्टर आफ स्कूल के पद पर तैनात अपने पिता को फोन किया. मामले की गंभीरता को समझते हुए बदहवास पिता ने अपने ज़िले हैलाकांदी के डिप्टी कमिश्नर से मदद मांगी. डिप्टी कमिश्नर मलय बोरा ने भी मामले की नजाकत को समझते हुए और सूझ-बूझ का इस्तेमाल कर बिना समय गँवाए तत्काल ट्विटर पर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को सन्देश भेजकर सहायता की गुहार लगाई. विदेश मंत्री ने भी बिना देर किए इन्स्ताबुल में भारतीय दूतावास के एक अधिकारी को आराधना को सुरक्षित भारत भेजने का दायित्व सौंप दिया.
सोशल मीडिया की इस सक्रियता का असर दिखा और आराधना के लिए न केवल सभी जरुरी दस्तावेजों का इंतजाम हो गया बल्कि उसे दूसरी फ्लाइट से भारत रवाना भी कर दिया गया. असम में अपने घर पहुंचकर आराधना ने चैन की सांस ली और सरकार की इस मानवीय पहल के प्रति आभार जताया क्योंकि इसके फलस्वरूप ही वह सुरक्षित अपने घर आ पायी.
असम के ही सिलचर के निवासी जायफुल रोंग्मेई की कहानी तो और भी दिल दहलाने वाली है. एक तेल कंपनी के जहाज पर नाविक की नौकरी कर रहे रोंग्मेई को बिना किसी गलती के नाइजीरिया में तेल चोरी के आरोप में बंदी बना लिया गया था जबकि असलियत में उसके जहाज को ईंधन की कमी के कारण मज़बूरी में नाइजीरिया की सीमा में लंगर डालना पड़ा था. किसी तरह रोंग्मेई की परेशानी की कहानी उसके घर तक पहुंची और फिर स्थानीय विधायक और सांसद के जरिए विदेश मंत्री को इस बात का पता चला तो उन्होंने बिना देर किए रोंग्मेई और उनके साथ नाइजीरिया की जेल में बंद उनके ग्यारह अन्य  भारतीय साथियों को छुड़ाने के प्रयास तेज कर दिए. सरकार की मध्यस्तता के फलस्वरूप रोंग्मेई बीते सप्ताह अपनी पत्नी और छह साल के बेटे के पास घर वापस आ गए.
जरा सोचिए, संपर्कों और साधनों के लिहाज से देश के सबसे कमजोर इलाके पूर्वोत्तर के भी दूर दराज के हिस्सों में रहने वाले इन लोगों के न तो कोई बड़े संपर्क थे और न ही इतना पैसा की उन देशों तक जाकर अपने परिजनों की कोई मदद कर पाते लेकिन सोशल मीडिया के विस्तार ने एक के बाद एक कड़ियाँ जोड़ दी और महीनों का सफ़र मिनटों में पूरा हो गया. नए भारत के इस नए मीडिया के इन सकारात्मक पहलुओं से एक बात तो पूरी तरह साफ़ हो जाती है कि यदि सोशल मीडिया का समझदारी से इस्तेमाल किया जाए तो यह मीडिया आम जनता के कल्याण में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है और उन इलाकों तक भी अपनी पहुँच बना सकता है जहाँ आज तक ट्रेन जैसी बुनियादी सेवा भी उपलब्ध नहीं है.



मंगलवार, 12 जुलाई 2016

बराक घाटी को चाहिए ही क्या...सिर्फ़ संपर्क और सम्मान !!

देश के कई राज्यों के बराबर होने के बाद भी महज तीन जिलों में लगभग 40 लाख लोगों को समेटे बराक घाटी की समस्याओं के बारे में यदि यहाँ किसी से भी पूछा जाए तो पूरा पिटारा खुल जाता है  लेकिन वास्तविक और व्यावहारिक धरातल पर विचार किया जाए तो इस इलाके के लोगों को ज्यादा कुछ नहीं चाहिए. यहाँ के लोगों, सैंकड़ों गैर सरकारी सामाजिक-सांस्कृतिक-शैक्षणिक संगठनों, राजनीतिक दलों सहित अन्य छोटे-बड़े तमाम समूहों के संघर्ष का प्रमुख लक्ष्य बस सम्मानजनक जीवन और देश के अन्य हिस्सों के साथ नियमित संपर्क तक सीमित है. संपर्क तथा सम्मान की यह लड़ाई सालों से चली आ रही है और आज भी जारी है. इस लिहाज से बराक घाटी के वाशिंदों को देश के सबसे सहनशील,धैर्यवान और अमन पसंद नागरिक कहा जा सकता है. सम्मान और संपर्क की यह जद्दोजहद बीते दिनों राज्य के नए मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल के सामने भी खुलकर महसूस की गयी.
दरअसल,हाल ही में राज्य के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल पदभार सँभालने के बाद पहली बार बराक घाटी के दौरे पर आए. चूँकि बतौर मुख्यमंत्री यह उनका पहला दौरा था इसलिए बराक वासियों की उम्मीदें परवान पर थी और वैसे भी बराक घाटी ने इस बार परिवर्तन और विकास के लिए मतदान किया था तो उम्मीदें पालना गलत भी नहीं है. कछार ज़िले ने तो सात में से छह सीटें भाजपा की झोली में डालकर बदलाव की आहट को उद्घोष में बदल दिया था. बहरहाल, उम्मीद के अनुरूप सर्बानंद सोनोवाल ने बराक वासियों को भरपूर वक्त दिया और बंग भवन में आयोजित कार्यक्रम को तो हम ‘बराक जनसंवाद’ कह सकते हैं. यहाँ उन्होंने बराक घाटी के बुद्धिजीवियों,प्रबुद्ध नागरिकों,शिक्षा शास्त्रियों,पत्रकारों सहित समाज के विभिन्न क्षेत्रों की हस्तियों के साथ बैठकर बराक घाटी के विकास की रुपरेखा और यहाँ की समस्याओं को समझा. नागरिकों में यहाँ की परेशानियाँ बताने को लेकर इतनी उत्कंठा थी कि लगभग ढाई घंटे के कार्यक्रम के दौरान बमुश्किल 20-25 मिनट ही मुख्यमंत्री के हिस्से में आए और शेष वक्त में सभाकक्ष में मौजूद लोग यहाँ की समस्याएं, परेशानियाँ, कमियां और अब तक हुए भेदभाव की बातें बताते रहे. आलम यह था कि कार्यक्रम के संचालक बार बार  यह अनुरोध करते रह गए कि संक्षेप में समस्या बताएं, किसी समस्या के दोहराव से बचे, केवल सुझाव दें इत्यादि, परन्तु जब बात सालों से दबे गुबार को निकालने की हो या फिर पुरानी पीड़ा को अभिव्यक्त करने की या फिर मन की भड़ास निकालना हो तो समय कम हो सकता है शब्द नहीं. यही वजह रही कि लोग बोले और खूब बोले, माइक छीन-छीनकर बोले, संचालक के अनुरोध को दरकिनार कर बोले और यहाँ तक की मंच पर मौजूद वरिष्ठ भाजपा नेताओं के इशारों की अनदेखी करके बोले.
लोग बोलते रहे और बोलते क्या रहे अधिकतर लोग हर बार एक ही बात को अपने अपने ढंग से दोहराते रहे, सुझाव कम समस्या अधिक बताते रहे और मुख्यमंत्री भी चुपचाप सुनते रहे, पूरे धीरज के साथ, शांत भाव से और हल्की मुस्कराहट के साथ. शायद वे भी इस बात को समझ रहे थे कि दशक भर से ज्यादा की पीड़ा निकालने देनी चाहिए क्योंकि दिल का दर्द कम होगा तभी तो बदलाव की बात आगे बढ़ेगी. समय गुजरता जा रहा था परन्तु न तो अपनी बात रखने को आतुर लोगों की संख्या घट रही थी और न ही शिकायतों का सिलसिला कम होने का नाम ले रहा था. घड़ी की सुइयां आगे बढ़ती देख, कभी विधानसभा उपाध्यक्ष और स्थानीय विधायक दिलीप पाल को मोर्चा संभालना पड़ा तो कभी राजदीप रॉय को क्योंकि मुख्यमंत्री के सिलसिलेवार कार्यक्रमों के गड़बड़ाने का खतरा था इसलिए स्थिति यहाँ तक आ गयी कि माइक बंद कर दिया गया फिर भी लोग बिना माइक के मंच के पास आकर अपनी बात रखते रहे. कहने का आशय यह है कि सुनने-सुनाने का यह सिलसिला अबाध रूप से चलता रहा. बहुत देर बाद और कई बार आग्रह के बाद लोग यह समझ पाए कि उन्हें सुनाना भर नहीं है बल्कि मुख्यमंत्री का जवाब सुनना भी है. आखिर ऐसे सवाल का फायदा ही क्या जिसका उत्तर न मिले. आखिरकार आयोजकों के इस आश्वासन कि मुख्यमंत्री यहाँ आते रहेंगे और सोनोवाल को शिकायतों का प्रतिउत्तर देने के समय देने के नाम पर यह सिलसिला थमा. मुख्यमंत्री ने उत्तर में जो कहा वह तो दूसरे दिन सभी समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर लीड बना इसलिए यहाँ उसे दोहराना उचित नहीं है. 
इस कार्यक्रम में एक निरपेक्ष श्रोता के तौर पर उपस्थित होने के कारण मुझे भी यहाँ की पीड़ा और परिस्थितियों को भलीभांति समझने का अवसर मिला. मैंने देखा कि इस पूरे कार्यक्रम के दौरान दो दर्जन से ज्यादा लोगों को सुझाव देने का मौका मिल पाया क्योंकि मौका मिलने पर हर व्यक्ति ने पूरी तल्लीनता से अपनी बात रखी. हाँ यदि सभी लोगों ने सवाल और सुझाव की समय सीमा का पालन किया होता तो शायद और दर्जन भर लोग अपनी बात मुख्यमंत्री तक पहुंचा पाते. फिर यह भी लगा कि यदि और दस-बारह लोगों को बात रखने का मौका मिल भी गया होता तो क्या होता. वे भी तो उन्हों बातों को दोहराते जो दूसरे वक्ताओं ने कहीं थी क्योंकि सभी की मूल चिंता सम्मान और संपर्क ही तो थी.
जहाँ तक संपर्क की बात है तो सभी सुझाव बराक घाटी की खस्ताहाल सड़कों की तत्काल मरम्मत, महासड़क जल्द शुरू करने, राष्ट्रीय राजमार्गों की स्थिति सुधारने, डांवाडोल ब्राडगेज को फिर से पटरी पर लाने, गुवाहाटी और कोलकाता तक के मंहगे हवाई सफ़र को आम लोगों कि जेब के अनुकूल करने के इर्द-गिर्द ही केन्द्रित थे. यह चिंता जायज भी है क्योंकि दशक भर बाद भी महासड़क यानि सिलचर को सौराष्ट्र से जोड़ने का सपना अधूरा है तो दो दशक के इंतज़ार के बाद शुरू हुई ब्राडगेज अभी से हांफने लगी है. राष्ट्रीय राजमार्ग से लेकर शहरों के अन्दर-बाहर की सड़कों का यह हाल है कि कई सड़के तो धान की खेती करने लायक हो गयी हैं और कुछ अपनी पहचान खो बैठी हैं. हवाई सफ़र तो यहाँ के आम आदमी के लिए बस सपने जैसा है क्योंकि वह न तो इतना किराया दे सकता है और न ही छोटे से जहाज में समय पर सीट का जुगाड़ कर सकता है.
सम्मान का मसला जरुर गंभीर है और यहाँ की सबसे अहम प्राथमिकता भी. सम्मान यानि अपने ही राज्य में बेख़ौफ़ रहने का अधिकार, विदेशी-घुसपैठिए-डी वोटर जैसे असम्मानजनक तमगों से छुटकारा, अपनी भाषा में बोलने/पढ़ने/काम करने की पूरी आज़ादी और इस सम्मान की लड़ाई में अब तक कुर्बान होने वाले लोगों का सरकारी तौर पर सम्मान चाहे फिर वह रेलवे स्टेशन का नाम बदलने से हो या फिर उन्हें आधिकारिक रूप से शहीद का दर्जा देने से. अपने ही देश में, अपनी ही ज़मीन और बाप - दादाओं की विरासत पर अधिकार छोड़कर ‘बाहरी’ का लेबल किसी भी समाज को भावनात्मक रूप से तोड़ सकता है. यहाँ देश की भौगोलिक सीमाएं क्या बदली दिल में ही दरार पड़ गयी और अपने ही पराया कहने लगे. यह दर्द लेकर हजारों-लाखों परिवार सालों से यहाँ डर डरकर जी रहे हैं. हमेशा यह चिंता सालती रहती है कि कहीं उन्हें अपनी मिट्टी से पराया न होना पड़ जाए इसलिए राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण (एनआरसी) से लेकर डी वोटर तक और स्थायी नागरिकता से लेकर सारा कामकाज बंगाली भाषा में करने के हक़ का मुद्दा इस कार्यक्रम में प्रमुखता से छाया रहा.

कुल मिलाकर बात फिर वहीँ पहुँच गयी है जहाँ से शुरू हुई थी कि क्या चालीस लाख की आबादी को उनका अपना देश महज संपर्क की सुविधा, सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन व्यापन की व्यवस्था नहीं दे सकता? क्यों आज़ादी के सत्तर साल बाद भी नागरिकों को यह साबित करना पड़ रहा है कि वे बाहरी नहीं है ? शायद अब तक सत्ता के गलियारों में इन विषयों को गंभीरता से महसूस नहीं किया गया या फिर साल दर साल वोटों की फसल काटने का फार्मूला समझा गया. जो भी हो, पर अब बदली परिस्थितियों, सोशल मीडिया की सक्रियता और अधिकारों को लेकर जागरूक होती नयी पीढ़ी के कारण इन विषयों को लम्बे समय तक दरकिनार नहीं किया जा सकता. वैसे भी सत्ता परिवर्तन ने बराक घाटी के लोगों की आशाओं को पंख लगा दे दिए हैं. बस अब यह देखना बाकी है कि कब ये पंख खुले आकाश में उड़ने का सामर्थ्य भी पैदा करते हैं.     

रविवार, 19 जून 2016

बराक घाटी: अभिशप्त लोग/मौत की सड़क और मूक मीडिया

 ...और 25 परिवारों ने अपने घर के मुखिया खो दिए. किसी की आँखों का तारा नहीं रहा तो किसी की रोजी-रोटी का सहारा. कहीं परिवार में शादी के सपने मातम में बदल गए तो किसी परिवार में पिता के चले जाने से बिटिया की शादी का संकट आ गया. एक साथ इतने निर्दोष लोगों की जान चले जाना कोई मामूली घटना नहीं है लेकिन ‘कथित’ राष्ट्रीय मीडिया और बाईट-वीरों को इसमें ज़रा भी टीआरपी नजर नहीं आई. किसी भी ऐरे-गैरे नेता के फालतू के बयान पर दिनभर चर्चा/बड़ी बहस कराकर देश के अवाम का कीमती वक्त बर्बाद करने वाले चैनलों को 25 लोगों की मौत में कोई बड़ी खबर नजर नहीं आई. किसी ने रस्म अदायगी कर दी तो किसी ने इतना भी जरुरी नहीं समझा.चैनल तो चैनल हिंदी-अंग्रेजी के अधिकतर राष्ट्रीय समाचार पत्रों ने भी इसे पहले पृष्ठ के लायक समाचार नहीं माना और अखबारी भाषा में ‘सिंगल कलम’ छापकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली.
क्या असम में 25 लोगों का बस दुर्घटना में मरना दिल्ली में किसी बस हादसे में एक-दो व्यक्तियों की मौत से छोटी घटना है. मेरे कहने का यह आशय कतई नहीं है कि कम या ज्यादा संख्यामें मौत  से खबर बड़ी या छोटी होती है बल्कि मैं यह कहना चाहता हूँ कि यदि आप राष्ट्रीय मीडिया होने का दावा करने हैं तो आपको सभी घटनाओं को समान नजरिये से देखना चाहिए. यह नहीं कि दिल्ली में घटना घटी है तो पूरे दिन देश की नाक में दम कर दो और दिल्ली से दूर का मामला है तो खबर बेकार. इसके लिए भौगोलिक दूरी नहीं बल्कि मीडिया के संसाधन और नीति जिम्मेदार हैं क्योंकि दिल्ली में आप बैठे हैं और सारे साधन हैं तो दिनभर किसी भी घटिया बयान या मामूली से घटना पर डंका पीटते रहो और असम में आपने खर्च बचने के लिए ओबी वैन तो दूर एक ढंग का स्ट्रिंगर भी नहीं रखा इसलिए बड़ी से बड़ी घटना भी आपको खबर नजर नहीं आती. जब तक साधनों और ख़बरों के बीच का यह पक्षपात समाप्त नहीं होता तब तक हमारे मीडिया को स्वयं को नेशनल टेलीविजन या राष्ट्रीय मीडिया कह कर अपने मुंह मियां मिट्ठू नहीं बनना चाहिए.
इस घटना से अनजान पाठकों की जानकारी के लिए यह बताना जरुरी है कि हाल ही में असम में सिलचर से गुवाहाटी जा रही एक बस मेघालय की सीमा में गहरी खाई में गिर गयी. यह दुर्घटना इतनी भीषण थी कि नींद के आगोश में बेफिक्र डूबे 25 लोगों की मौके पर ही मौत हो गयी और नौ लोग आज भी विभिन्न अस्पतालों में  जिन्दगी और मौत से संघर्ष कर रहे हैं. घटना के कई दिन बाद तक भी यह पता नहीं लग पाया कि बस में कुल कितने लोग थे और दुर्घटना का कारण क्या था. कोई ओवर स्पीड को वजह मान रहा है तो कोई ओवर लोडिंग को और किसी को ड्राइवर (बस चालक) कम अनुभवी लग रहा है.
इस दुर्घटना की असली वजह ‘सड़क’ यानी राष्ट्रीय राजमार्ग (नेशनल हाइवे) पर कोई गंभीरता से बात ही नहीं कर रहा है. सबसे पहले तो इसे राष्ट्रीय राजमार्ग कहना ही शर्म की बात है. सिलचर से गुवाहाटी के बीच लगभग साढे तीन सौ किलोमीटर के इस राजमार्ग में आधे से ज्यादा को तो सड़क ही नहीं माना जा सकता. एक तरफ पहाड़ और एक ओर गहरी खाई वाले इस रास्ते को सही ढंग से रखा जाता तो शायद यह देश की सबसे रोमांचक यात्राओं में से एक का दर्जा हासिल कर लेता लेकिन सरकारी लापरवाही ने अब इसे देश का सबसे जानलेवा राजमार्ग बनाकर रख दिया है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस साल सिलचर से शिलांग के बीच एक जनवरी से अब तक अर्थात महज छह माह में 42 लोगों की इस सड़क पर दुर्घटना में मौत हो चुकी है. इसका मतलब यह है कि हर माह सात लोगों की बलि यह सड़क ले लेती हैं. यदि इसमें सिलचर से आगे के सफ़र को भी जोड़ दिया जाए तो मौतों का आंकड़ा और भी बढ़ जायेगा.इस राजमार्ग पर न सड़क है,न सड़क के जरुरी साइन और न ही सुरक्षा के कोई उपाय.
सबसे बड़ी चिंता की बात तो यह है कि बराक घाटी के नाम से मशहूर दक्षिण असम के लगभग 40 लाख लोग अपनी ही राजधानी गुवाहाटी तक जाने के लिए इस ‘मौत की सड़क’ पर सफ़र करने के लिए शापित हैं. इसके अलावा बराक घाटी से सटे त्रिपुरा,मणिपुर और मिज़ोरम के लाखों लोगों को भी गुवाहाटी जाने के लिए यहीं से गुजरना होता है. इन इलाकों में वैकल्पिक रास्ता तो दूर राष्ट्रीय राजमार्गों का यह हाल है कि सड़क तलाशना भी किसी पहेली को हल करने से कम नहीं है. राजमार्ग में इतने बड़े बड़े गड्ढे हैं कि कई बार हाथियों की मदद से गड्ढों में फंसे वाहनों को खींचकर बाहर निकलना पड़ता है. पूर्वोत्तर में वैसे भी बरसात ज्यादा होती है और खासकर मानसून के दौरान तो हजारों वाहन कई कई दिन तक यहाँ फंसे रहते हैं.  इसके फलस्वरूप अनाज,फल,सब्जियां,रसोई गैस,पेट्रोल जैसी जरुरी चीजें समय पर नहीं पहुँच पाती और भुगतना आम लोगों को पड़ता है.
ऐसा नहीं है कि वैकल्पिक मार्ग तलाशने के कोई उपाय नहीं हुए लेकिन वे उपाय या तो बस कागजों पर हैं या फिर दशकों बाद भी पूरा होने का इंतज़ार कर रहे हैं. कहने को तो बराक घटी हवाई मार्ग,रेलमार्ग और सड़क तीनों से जुडी है लेकिन असलियत यह है कि इनमें से एक भी काम का नहीं है. मसलन सिलचर को सौराष्ट्र से जोड़ने के लिए ईस्ट-वेस्ट कारीडोर की शुरुआत अटल बिहारी बाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते हुए 1999 में हुई थी. यहाँ इसे महासड़क के नाम से जाना जाता है. लगभग 18 साल और हजारों करोड़ रुपए लीलने के बाद भी यह महासड़क आज तक गुवाहाटी तक भी नहीं पहुँच पाई है. यदि यह सड़क शुरू हो जाती है तो असम से असम में जाने के लिए मेघालय के पहाड़ी इलाकों से नहीं गुजरना पड़ेगा और सफ़र भी 6 से 8 घंटों में पूरा हो जायेगा. दशक भर से ज्यादा के इन्तजार के बाद भी अब यह सपना कब पूरा होगा इस बारे में स्थानीय लोगों ने सोचना भी छोड़ दिया है. 
जहाँ तक रेलमार्ग की बात है तो इसकी आधारशिला तो अंग्रेजों ने रख दी थी और यहाँ चाय के व्यापार से कमाई के लिए मीटर गेज ट्रेन  भी दौड़ा दी थी. समस्या तब शुरू हुई जब हमारी सरकार ने इसे ब्राडगेज में बदलने का फैसला लिया. आधे पूर्वोत्तर की लाइफलाइन इस ट्रेन सेवा के गेज परिवर्तन के काम का श्रीगणेश 1996 में एच दी देवगौड़ा के प्रधानमंत्री रहते हुआ था और कछुए को भी मात देती गति से होता रहा काम अंततः तक़रीबन बीस साल बाद 21 नवम्बर 2015 को यह ‘सिंगल ट्रेक’ पूरा हुआ और इस पटरी पर पहली ट्रेन चली. ट्रेन चली तो आम लोगों ने राहत की सांस ली कि शायद अब मौत की सड़क से नहीं गुजरना पड़ेगा परन्तु वही ‘ढाक के तीन पात’ क्योंकि चलने के साथ ही ट्रेन की सांस फूलने लगी. आए दिन होने वाले भूस्खलन के कारण ट्रेन के पहिये थमने लगे और अब तो आलम यह है कि विदेशी विशेषज्ञ की मदद लेने के बाद भी रेल मंत्रालय इस समस्या का समाधान नहीं तलाश पा रहा और पहले किस्तों में बंद होने वाली ट्रेन अब महीने भर से बंद है. जानकारों को चिंता तो इस बात की है कि अभी जब एक जोड़ा ट्रेन का बोझ यह नई ब्राडगेज पटरी नहीं उठा पा रही है तो भविष्य में क्या होगा जब मणिपुर,मिज़ोरम और त्रिपुरा को जोड़ने वाली सुपरफास्ट ट्रेने यहाँ से गुजरेंगी. रेल मंत्रालय ने 2020 पूर्वोत्तर की सभी राजधानियों को रेल नेटवर्क से जोड़ने का फैसला किया है.
हवाई मार्ग की बात करें तो सिलचर से उड़ने वाले इकलौते विमान में सफ़र के लिए यदि आपने महीनों पहले योजना नहीं बनायीं तो आपको इतना किराया देना पड़ जायेगा जितने में आप लन्दन और अमेरिका जा सकते हैं. जी हाँ, सिलचर से गुवाहाटी के बीच आकस्मिक यात्रा के लिए 15 से 18 हजार रुपए प्रति व्यक्ति किराया सामान्य बात है. वैसे भी आम तौर पर 5 हज़ार रुपए से कम में आप गुवाहाटी नहीं जा ही सकते. यही कारण है कि स्थानीय लोग आम दिनों में भी सिलचर से सीधे गुवाहाटी जाने की बजाए पहले सड़क/रेल मार्ग से अगरतला और फिर वहां से हवाई मार्ग से गुवाहाटी या फिर सिलचर से कोलकाता जाकर गुवाहाटी जाना पसंद करते हैं जो समय भले ही ज्यादा लेता है  परन्तु जेब पर बोझ कम डालता है. सही मायनों में कहा जाए तो आम लोगों के लिए ये हवाई यात्रा बस दिखावटी है क्योंकि न वे इतना खर्च वहन कर सकते और न ही छोटे से उड़न खटोले में समय रहते सीट पा सकते हैं.

यदि राष्ट्रीय मीडिया इस अभिशप्त बराक घाटी पर जरा भी ध्यान दे दे तो शायद निर्दोष लोगों को बेवजह दुर्घटना का शिकार न बनना पड़े. आलम यह है कि लगातार आश्वासनों और कोरे भाषणों के कारण यहाँ के निवासियों का व्यवस्था से ही मोह भंग हो गया है. अब वे भगवान भरोसे हैं क्योंकि उनका सब्र पराकाष्ठा को पार कर चुका है और अभी भी कोई रौशनी की किरण नजर नहीं आ रही. शायद देश के अन्य लोगों को मिल रहीं अच्छी सड़क/अच्छी ट्रेन और सस्ती हवाई सेवा जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए भी बराक घाटी को और इंतज़ार करना होगा. तब तक मौत की सड़क पर हर दिन निर्दोष लोग यूँ ही मरते रहेंगे और कथित राष्ट्रीय मीडिया यहाँ से आँख मूंदकर दिल्ली की डुगडुगी बजाता रहेगा.                  

मंगलवार, 8 मार्च 2016

हम तो रंग में भी भेदभाव पर उतर आए...!!!

हम तो रंग के मामले में भी भेदभाव पर उतारू हो गए. सदियों से महिलाओं के साथ भेदभाव करने की हमारी आदत बरकरार है तभी तो प्रकृति के रंगों के इन्द्रधनुष में से छः रंग हमने अधिकार पूर्वक अपने आप रख लिए और एक गुलाबी रंग महिलाओं के नाम कर दिया. मतलब फिर वही आधिपत्य भाव और एक रंग भी यह अहसान जताते हुए दे रहे हैं कि देखो हम कितना सम्मान करते हैं तुम्हारा. यदि वैज्ञानिक नज़रिए से देखा जाए तो गुलाबी तो मूल रंग भी नहीं है बल्कि यह भी लाल-सफेद के मेल से बना है अर्थात् जो इकलौता रंग महिलाओं को दे रहे हैं वह भी खालिस रंग नहीं मिलावटी है.  
दिलचस्प बात तो यह है कि यहाँ भी हमने इतना जरुरी नहीं समझा कि महिलाओं से एक बार पूछ लें कि उन्हें अपने लिए कौन सा रंग चाहिए मसलन बलिदानी केसरिया या खेतों में परिश्रम और उन्नति का प्रतीक हरा या ताक़त को प्रतिबिंबित करता लाल. चूँकि गुलाबी रंग में हमें अपना मर्दानापन, अपना रौब और अपनी ताक़त कुछ कम लगी तो हमने महिलाओं पर अहसान करते हुए यह रंग उन्हें थमा दिया. यदि इस रंग में भी हमें कहीं से ‘पुरुष-भाव’ नजर आता तो शायद इस पर भी हम कब्ज़ा किये रहते और महिलाओं पर सफेद/काला जैसा कोई ऐसा रंग थोप देते तो उन्हें उनकी हैसियत हमेशा याद दिलाता रहता कभी विधवा के रूप में तो कभी डायनी के तौर पर.
आज सब कुछ गुलाबी रंग में रंगा है..लोग गुलाबी, उनके कपडे गुलाबी, विज्ञापन गुलाबी, साज-सज्जा गुलाबी...गुलाबी रंग पर न्यौछावर होने के लिए एक से बढ़कर एक जतन..कोई भी यह दिखाने में पीछे नहीं रहना चाहता कि वह महिलाओं का, उनके अधिकारों का, उनके सम्मान का कितना बड़ा हिमायती है. आज के दिन सब के सब रंगे सियार..चतुर सुजान और महिलाएं भी जन्म-जन्मान्तर से सीखते आ रही ‘संतोषी सदा सुखी’ की नसीहत के चलते यही सोचकर खुश हैं कि चलो एक रंग तो मिला. महिलामय दिखाने का यह आलम है कि कहीं कोई सरकार गुलाबी वस्त्र पहनने का फरमान जारी कर रही है तो किसी कम्पनी ने इसे ड्रेस कोड बना दिया और कोई होटल पूरा ही गुलाबी हो गया है.
यह सही है कि वक्त के साथ गुलाबी रंग रूमानियत का,प्रेम का, मधुरता का प्रतीक बन गया है. लेकिन क्या समाज में महिलाओं की पहचान या जरुरत बस इतनी ही है? क्या प्यार के नाम पर, उनकी स्वाभाविक मधुरता के कारण और हमारी रूमानियत की खुराक के तौर पर उन्हें इतने छोटे दायरे में सीमित कर देना उचित है? वैसे हम सालों से यही तो करते आ रहे हैं.महिलाओं को किसी न किसी नाम पर सीमाओं में ही तो बाँध रहे हैं इसलिए एक सीमा रंग की भी सही!!

महिलाएं, मानव सभ्यता के लिए कुदरत का सबसे कीमती सृजन हैं. उन्हें सदियों से हम बेड़ियों में तो बांधते आ रहे हैं पर रंगों में तो न बांधो. रंग तो शायद प्रकृति ने महिलाओं के लिए ही बनाएं हैं, खूबसूरत रंग बिलकुल महिलाओं के सौन्दर्य की तरह, सब कुछ सहकर भी प्रसन्नता से जीने की उनकी जीवटता को प्रदर्शित करते, बंधनों को तोड़ने की आकुलता को जाहिर करते और आगे बढ़ने की जिजीविषा को दर्शाते...तो फिर हम क्यों उन्हें एक रंग तक सीमित कर रहे हैं..खेलने दीजिये उन्हें रंगों से....खिलखिलाने दीजिये प्रकृति के प्रत्येक रंग में और रंगने दीजिए उन्हें विकास के हर रंग में...तभी तो आसमान में बिखरे सितारों की तरह उनकी चमक से हमारी-आपकी दुनिया जगमगाएगी वरना दीपावली के दियों की तरह उनकी आभा भी क्षणिक टिमटिमाकर फिर सालभर के लिए अँधेरे में खो जाएगी.      

मंगलवार, 1 मार्च 2016

भगवान कहीं आप भी तो मज़ाक नहीं कर रहे न.....

 “मैसेजबाज़ी कर लो, फीवर है, बोलना मुश्किल है”.....यही आखिरी संवाद था शाहिद भाई के साथ 2 फरवरी को और हम ठहरे निरे मूरख की उनकी बात ही नहीं समझ पाए. सोचा बीमार हैं तो क्यों परेशान करें उन्हें, बाद में बात कर लेंगे और ये सोच ही नहीं पाए कि यह ‘बाद’ अब कभी नहीं आएगा. क्या लिखूं..कैसे लिखूं ..आज वाकई हाथ कांप रहे हैं, दिमाग और हाथों के बीच कोई तालमेल ही नहीं बन रहा. पर यदि शाहिद भाई धुन के पक्के थे तो मैं भी उनसे काम ज़िद्दी नहीं हूँ. कुछ भी हो जाए उनके बारे में लिखूंगा जरुर और आज ही,फिर चाहे वाक्य न बने,व्याकरण गड़बड़ हो या फिर शब्द साथ छोड़ दे.
आसान नहीं है शाहिद अनवर होना...और न ही हम जैसे रोजी-रोटी,निजी स्वार्थ और अपने में सिमटे व्यक्ति उनकी तरह हो सकते हैं. उनकी तरह होना तो दूर शाहिद भाई के पदचिन्हों पर चल भी पाएं तो शायद जीवन धन्य हो जाएगा. क्या नहीं थे शाहिद भाई मेरे लिए....मेरे लिए ही हम सभी के लिए...हम सभी यानि सुदीप्त,चिदंबरम,नलिनी,सुप्रशांति,मनीषा,बुलबुल,अजीत, नीरज और राजीव..नाम लिखने बैठूं तो कागज़ कम पड़ जाएंगे पर शाहिद भाई के मुरीद/चाहने वालों/दीवानों के नाम अधूरे रह जाएंगे. बस एक बार उनसे कोई मिला तो समझो उसे ‘शाहिद संक्रमण’ हुआ और वह भी जीवन भर के लिए.
हिंदी-उर्दू-अंग्रेजी के सिद्धहस्त शाहिद भाई क्या नहीं थे बड़े भाई/ अभिभावक/ दोस्त/ सहकर्मी/ लेखक/ रंगकर्मी/ शिक्षक/ दुनियाभर की सभी अच्छी बातों के अनुवादक/ जाति-धर्म से परे/ सब जानने वाले-समझने वाले फिर भी घमंड से कोसों दूर,सहज,सादगी पसंद,कोई दिखावा नहीं,कोई आडम्बर नहीं और हमेशा मदद को तत्पर. मददगार ऐसे की अपनी कार दूसरे को देकर खुद किराये के ऑटो में और कई बार पैदल घर जाने वाले, ठण्ड में अपना कोट ड्राइवर तक को पहनाकर चल देने वाले और लंच टाइम में अपना टिफिन यह कहकर दे देने वाले कि आज भूख नहीं है और फिर बाद में, चलो फल खाते हैं... यदि वे साथ हैं तो आप जेब में हाथ डालने की जुर्रत भी नहीं कर सकते और ज़ेब ही क्यों वे साथ हैं तो आप बेफिक्र-बेख़ौफ़ हो सकते हैं. सिलचर में दिल्ली से हजारों किलोमीटर दूर रहकर अपने बीबी-बच्चों को दिल्ली में बिना डर के छोड़ सकते हैं क्योंकि शाहिद भाई है न....और शाहिद भाई भी ऐसे कि पूनम भाभी-कासनी बिटिया को किसी ओर के भरोसे छोड़कर आपके बीबी-बच्चों के फिक्रमंद.
क्या इंसान थे शाहिद भाई..आपकी-मेरी-हमारी सोच से परे,बहुत आगे.....राह चलते ऑटो वाले को उसकी बीमार माँ के इलाज के लिए अपने एटीएम से 10 हज़ार रुपये दे देने वाले, वह भी बिना यह जाने कि उसकी बात सच है या झूठ या बिना उसका पता/फोन नंबर पूछे और फिर किसी साथी से उधार लेकर बिटिया के स्कूल की फीस भरते शाहिद भाई..समझाने पर कहते यार छोड़ो पैसा ही तो है पर इसी बहाने उसका अच्छे लोगों पर विस्वास कायम रहेगा.हम में से कौन और कितने यह काम कर सकते हैं...जेएनयू के दसियों विद्यार्थियों के पास ऐसे ही अनेक किस्से मिल जाएंगे...कितनों को वे कलाकार बना गए और कितनों को प्राध्यापक...दूसरों की हर परेशानी का रामबाण नुस्खा रखने वाले परन्तु अपने ही प्रति लापरवाह...वाकई आसान नहीं है शाहिद भाई होना.

आप सब में आदर्श थे लेकिन असमय साथ छोड़कर आपने अच्छा नहीं किया शाहिद भैया, आप क्या सोचते हैं आप हमसे दूर जा सकते हैं..आप मन लग जाएगा और आप मन लगा भी ले तो हम क्या करेंगे..किससे मांगेंगे सलाह, कौन संभालेगा हमें...काश कोई ये कह दे कि अरे संजीव कुछ नहीं हुआ शाहिद भाई ठीक हैं वो खबर झूठी थी..ऐसे ही किसी ने मज़ाक किया था...भगवान कहीं आप भी तो मज़ाक नहीं कर रहे न.....         

शनिवार, 2 जनवरी 2016

बिंदास,बेलौस,बेख़ौफ़...फिर भी अनुशासित जीवनशैली का पर्याय आइज़ोल


आइज़ोल...खूबसूरत लोगों का सुन्दर शहर...खूबसूरती केवल चेहरों की नहीं बल्कि व्यवहार की, साफ़ दिल की, शांति और सद्भाव की, अपने शहर को साफ़-स्वच्छ बनाने की जिजीविषा की और मदद को हमेशा तत्पर सहयोगी स्वभाव की. सड़कों पर बिंदास एसयूवी दौड़ाती युवतियां, स्कूटी पर फर्राटा भरती लड़कियां और पेट्रोल पम्प से लेकर हर छोटी-बड़ी दुकान को संभालती महिलाएं.. बेख़ौफ़, बिंदास, बिना किसी भेदभाव के सिगरेट के कश लगाती और नए दौर की बाइक पर खिलखिलाती मस्तीखोर युवा पीढ़ी....न कोई डर और न ही कोई बंदिश...जीने का कुछ अलहदा सा अंदाज़ और इसके बाद भी पूरी तरह से अनुशासित जीवनशैली.
उत्सवधर्मिता ऐसी की चार दिन बाद भी क्रिसमस और नए साल की थकान नहीं उतर सकी है इसलिए सरकारी दफ्तरों से लेकर बाज़ार तक चार दिन से बंद हैं. सड़कों/गलियों/मोहल्लों में क्रिसमस की छाप अब तक देखी जा सकती है.पूरा शहर रोशनी से नहाया हुआ है. जगह जगह मौजूद विशालकाय सांता,क्रिसमस ट्री और स्नो मेन, बहुरंगी लाइट से शराबोर चर्च और केक की मनमोहक खुशबू में डूबा पूरा शहर अब तक उनींदा सा है. लोग बस सुबह शाम चर्च में प्रार्थना और सेवा के लिए सज-धजकर निकलते हैं और बाकी समय पार्कों में समय काटते हैं. शहर में न तो कोई सिनेमाघर है और न ही कोई नामी मॉल,फिर भी मस्ती से समय काटते लोग.
फैशन का यह हाल है कि शायद समूचे पूर्वोत्तर में आइज़ोल का कोई मुकाबला नहीं है. साड़ी तो दूर सलवार कमीज में भी कोई महिला दिख जाए तो आपकी किस्मत वरना घुटनों तक चढ़े शानदार बूट,जींस,स्कर्ट और टॉप पहने लड़कियां और जींस-टीशर्ट में कसे लड़के यहाँ की पहचान हैं. ‘जियो और जीने दो’ को चरितार्थ करते हाथों में हाथ डाले बेलौस घूमते जोड़े आपस में ही खोये रहते हैं. मैदानी इलाकों के उलट न तो वे किसी को घूरते हैं और न ही उन्हें कोई घूरता है. यदि कोई मुड़कर देखते नज़र आ रहा है तो आप सीधे जाकर हिंदी में बात कर सकते हैं क्योंकि शर्तियाँ वह किसी मैदानी इलाक़े से ही होगा. हाँ पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों की तरह पान यहाँ की भी कमजोरी है.  
लगभग 175 वर्ग किलोमीटर में बसा यह शहर तक़रीबन 4 हजार फुट की ऊंचाई पर बसा है इसलिए तापमान आमतौर पर 10 से 30 डिग्री सेल्शियस के बीच बना रहता है. पूर्वोत्तर की पहचान बारिश यहाँ भी जमकर होती है. पत्रकारों के लिए तो यह इस लिहाज से स्वर्ग है कि महज तीन से चार किलोमीटर के दायरे में पूरी रिपोर्टिंग हो जाती है. मसलन राजभवन, मिज़ोरम विधानसभा, राज्य सरकार का सचिवालय, आकाशवाणी, पीआईबी और राज्य का जनसंपर्क कार्यालय जैसे राज्य और केंद्र सरकार के तमाम महत्वपूर्ण कार्यालय आसपास ही हैं. अगर आप पहाडी सड़कों के आदी हैं तो पैदल ही दिन में दो चक्कर लगा कर आ सकते हैं. वैसे भी यहाँ न तो समाचारों के लिए दूसरे प्रदेशों की राजधानियों की तरह मारामारी है और न ही उतनी गहमागहमी. पड़ोसी राज्य मणिपुर, नागालैंड और असम की तुलना में तो यह बिलकुल शांत हैं.
पहाड़ पर दूर दूर तक फैले रंग-बिरंगे और आकर्षक घर बरबस ही अपनी और ध्यान खींच लेते हैं. खासतौर पर हम जैसे मैदानी इलाकों से आने वाले लोगों के लिए तो ये घर भी किसी आकर्षण से कम नहीं हैं. वैसे तो आमतौर पर पहाड़ी इलाकों में इसतरह के घर आम बात है लेकिन पूर्वोत्तर और फिर आइज़ोल में तो यहाँ की विरासत की छाप खुलकर नज़र आती है. रात में यह शहर ऐसा दिखाई देता है जैसे किसी ने पहाड़ पर रंग-बिरंगे सितारे बिखेर दिए हों. वक्त मिले तो एक बार आइज़ोल जरुर आइये क्योंकि महज तीन दिन में आप अपने देश में मौजूद इस ‘विदेशी शहर’ का लुत्फ़ उठा सकते हैं. वैसे यहाँ आने के लिए एक तरह के पासपोर्ट अर्थात ‘इनर लाइन परमिट’ की जरुरत पड़ती है इसलिए भी यहाँ की यात्रा और भी रोमांचक लगने लगती है.


अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...