मंगलवार, 20 फ़रवरी 2024

भारतीय पराक्रम की स्वर्णिम गाथा है… ‘विजय दिवस’

सोलह दिसंबर दुनिया के इतिहास के पन्नों पर भले ही महज एक तारीख हो लेकिन भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश के इतिहास में यह तारीख कहीं स्वर्णिम तो कहीं काले हर्फो में दर्ज है। भारत में यह तारीख विजय की आभा में दमक रही है तो बांग्लादेश के लिए तो यह जन्मतिथि है । पाकिस्तान के लिए जरूर यह दिन काला अध्याय है क्योंकि इसी दिन उसका एक बड़ा हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान से बांग्लादेश बन गया था। वैसे भी,पाकिस्तान के लिए यह दिन किसी बुरे सपने से कम नहीं था क्योंकि उसकी हजारों सैनिकों को सर झुकाकर भारत की सरपरस्ती में इतिहास की सबसे बड़ी पराजय स्वीकार करनी पड़ी थी। 

इतिहास के पन्नों में दर्ज निर्णायक तारीख जरूर 16 दिसंबर 1971 है, लेकिन पाकिस्तान की कारगुजारियों ने उसकी नींव कई साल पहले डाल दी थी । जब उसकी सेना के अत्याचारों से कराह रहे पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने मदद के लिए भारत से गुहार लगाना शुरू कर दिया था। आखिर, तत्कालीन भारत सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा और फिर भारतीय सैनिकों के शौर्य और पराक्रम का स्वर्णिम पन्ना ‘विजय दिवस’ के नाम से इतिहास में दर्ज हो गया ।

16 दिसंबर 1971 को ढाका में पाकिस्तान की ओर से पूर्वी मोर्चे पर कमान संभाल रहे लेफ्टिनेंट जनरल अमीर अब्दुल्ला खान नियाजी ने भारतीय सेना के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा और हजारों उत्साही लोगों की भीड़ के समक्ष आत्मसमर्पण के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए। हस्ताक्षर के बाद जनरल नियाजी ने अपनी रिवाल्वर जनरल अरोड़ा को सौंपकर पराजय स्वीकार कर ली। इस ऐतिहासिक अवसर पर बांग्लादेश सशस्त्र बल के डिप्टी कमांडर-इन-चीफ एयर कमोडोर ए के खांडकर और भारत की पूर्वी कमान के लेफ्टिनेंट जनरल जे एफ आर जैकब ने आत्मसमर्पण के गवाह की भूमिका निभाई जबकि पाकिस्तान की ओर से तो उसकी सेना के सर झुकाए 90 हजार सैनिक इस पराजय के साक्षी थे।

भारतीय सेनाओं के अदम्य साहस, वीरता, बलिदान और पराक्रम के लिए दुनिया के सैन्य इतिहास की इस अमिट तिथि को हर साल विजय दिवस के रूप में याद किया जाता है। इस दिन ऐतिहासिक युद्ध में जीत हासिल करने वाले भारतीय सैनिकों को देशभर में विनम्र श्रद्धांजलि दी जाती है। इन कार्यक्रमों में प्रधानमंत्री,मुख्यमंत्री सहित देश और प्रदेश की शीर्ष हस्तियां भी शामिल होती हैं। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया पर लिखा 'विजय दिवस पर, हम उन सभी बहादुर नायकों को हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं जिन्होंने 1971 में निर्णायक जीत सुनिश्चित करते हुए कर्तव्यनिष्ठा से भारत की सेवा की. उनकी वीरता और समर्पण राष्ट्र के लिए अत्यंत गौरव का स्रोत है. उनका बलिदान और अटूट भावना हमेशा लोगों के दिलों और हमारे देश के इतिहास में अंकित रहेगी. भारत उनके साहस को सलाम करता है और उनकी अदम्य भावना को याद करता है.' इस साल,रक्षा राज्य मंत्री अजय भट्ट ने नई दिल्ली में विजय दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय युद्ध स्मारक पर श्रद्धांजलि अर्पित की। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और अन्य लोगों के साथ नई दिल्ली में आर्मी हाउस में विजय दिवस की पूर्व संध्या पर 'एट होम' रिसेप्शन में शामिल हुईं।

आइए, अब एक नजर इस विजय दिवस की पृष्ठभूमि पर डालते हैं। दरअसल,भारत से बेमेल विभाजन के बाद बने पाकिस्तान में पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच कभी भी एका नहीं रहा और पश्चिमी पाकिस्तान के प्रभुत्व वाले शासकों ने बंगाली बहुल पूर्वी हिस्से को दबाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह खाई जब और चौड़ी हो गई तब 1970 के दौरान हुए आम चुनावों में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीबुर रहमान की अवामी लीग पार्टी को जबरदस्त समर्थन मिला और उसने सरकार बनाने का दावा किया, लेकिन पाकिस्तानी हुकूमत को यह बर्दाश्त नहीं हुआ कि उसकी नाफरमानी करने वाली कोई पार्टी वहां सत्ता संभाले। 

इसलिए जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व वाली पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार ने येन केन प्रकारेण इस बात के प्रयास शुरू कर दिए कि अवामी लीग को सत्ता न मिले। अपने षड्यंत्र को पूरा करने के लिए उसने सेना को भी मोर्चे पर लगा दिया। पर्याप्त जनसमर्थन के बाद भी सत्ता से दूर रखने की साजिश का अवामी लीग ने राजनीतिक स्तर पर विरोध किया और इससे पूर्वी पाकिस्तान में हालात खराब होते चले गए। लोकतंत्र की आवाज़ को दबाने के लिए पाकिस्तान सरकार ने अवामी लीग के नेता शेख मुजीबुर रहमान को गिरफ्तार कर लिया गया. इस कदम से विरोध हिंसक हो गया और पाकिस्तान के दोनों हिस्सों पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान में हालात बेकाबू होने लगे। पूर्वी पाकिस्तान में हालात बद से बदतर होने के कारण बड़ी संख्या में वहां से शरणार्थी भारत आने लगे।

भारत ने मानवीय आधार पर शरणार्थियों को हरसंभव सहायता प्रदान की। भारत की ओर से मदद देने से पाकिस्तान बौखला गया और उसने भारत को आंख दिखाते हुए हमले करने की धमकियां देना शुरू कर दिया. अपने बिगड़ते अंदरूनी हालात के कारण पाकिस्तानी शासक वास्तव में अपनी सुध बुध खो बैठे और उन्होंने परिणामों और अपने हित अहित की चिंता किए बगैर 3 दिसंबर 1971 को भारत के कई शहरों पर हमला कर दिया. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आधी रात को देश के नाम संबोधन में  पाकिस्तान की ओर से किए गए हमले की जानकारी देते हुए अपनी ओर से भी युद्ध  का ऐलान कर दिया। भारत-पाकिस्तान युद्ध करीब 13 दिन तक चला और 16 दिसंबर को भारत की ऐतिहासिक जीत और बंगलादेश के निर्माण के साथ समाप्त हुआ। युद्ध के समापन पर  93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सेनाओं के समकक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था। इस युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी. इस दौरान  करीब 3 हजार 900 भारतीय सैनिकों को अपना सर्वोच्च बलिदान देना पड़ा। पाकिस्तान का तो अंतर राष्ट्रीय बिरादरी के सामने न केवल सर झुका बल्कि उसे भारी नुकसान उठाना पड़ा । 

पाकिस्तान के साथ इस युद्ध में विजयश्री का वरण करने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूर्वी पाकिस्तान को एक नया राष्ट्र बनाने का एलान किया, जिससे बांग्लादेश का जन्म हुआ. इस युद्ध में भारतीय सैनिकों ने साबित कर दिया कि परम पराक्रमी होने के बाद भी भारतीय नीति के पालन करते हुए कभी भी किसी देश पर हमला नहीं करते लेकिन यदि किसी देश ने गलत इरादों और दुश्मनी की मंशा से भारत पर हमला किया तो वे मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम हैं ।



अपने राम,सबके राम

हरि अनंत हरि कथा अनंता।

कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥

रामचंद्र के चरित सुहाए। 


कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥


हरि अनंत हैं। उनका कोई पार नहीं पा सकता और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। रामचंद्र के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते।


भगवान श्रीराम सर्वव्यापी हैं, वे अनंत हैं,असीमित हैं और अनादि भी। राम सत्यम शिवम् और सुंदरम भी हैं,लोकनायक भी हैं और महानायक भी। राम केवल देवता के रूप में पूज्य नहीं हीं बल्कि मानवीय अवतार में मर्यादा पुरुषोत्तम बनकर वे परमपूज्य हो जाते हैं। राम का मानवीय स्वरूप न केवल परमसत्ता के प्रति सम्मान का भाव जगाता है बल्कि हर व्यक्ति को विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष करने की प्रेरणा भी देता है। जाहिर सी बात है जब राम को अनंत रूपों में देखा जाएगा तो उतने ही तरह से उनकी व्याख्या भी होगी इसलिए विश्व में हमें राम और महाग्रंथ रामायण के अनेक रूप देखने को मिलते हैं। रामचरित मानस में तुलसीदास जी ने लिखा भी है कि जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी अर्थात श्रीराम को जिस व्यक्ति ने जिस भावना से देखा उसे वे वैसे ही दिखाई देने लगे।

आमतौर पर हम भगवान श्रीराम का यशगान महर्षि बाल्मिकी रचित रामायण और संत तुलसीदास रचित रामचरित मानस के जरिए ही करते और सुनते आ रहे हैं। असलियत यह है कि इन दोनों पवित्र ग्रंथों के अलावा दुनिया भर में 300 से ज्यादा रामायण चलन में हैं। इसके अलावा कई भाषाओं में भी रामायण उपलब्ध हैं जैसे तमिल भाषा में कंबन रामायण, ओडिशा में विलंका रामायण, कन्नड़ में पंप रामायण, मराठी में भावार्थ रामायण,बांग्ला में रामायण पांचाली के साथ साथ अध्यात्म रामायण,अद्भुत रामायण और आनंद रामायण जैसे कुछ ग्रंथ चर्चा में भी रहते हैं। रामानंद सागर ने जब पहली बार भगवान राम को रामारण धारावाहिक के रूप में पहली बार छोटे परदे पर उतारा था तो उन्होंने भी पटकथा लेखन में इन सभी रामायणों का अध्ययन किया था और इनके चुनिंदा किस्सों को कथानक में इस्तेमाल किया था। इस धारावाहिक ने लोकप्रियता के सभी रिकार्ड ध्वस्त कर दिए थे और आज भी रामायण केंद्रित तमाम धारावाहिकों के बाद भी रामानंद सागर की रामायण सबसे ज्यादा लोकप्रिय है।

देश और दुनिया में सबसे लोकप्रिय बाल्मीकि रामायण में 24 हजार श्लोक और सात कांड  हैं। ऐसा माना जाता है कि महर्षि वाल्मीकि राम के समकालीन थे और राम के बचपन से लेकर उनके पुत्र लव कुश के लालन पालन में भी बाल्मीकि आश्रम की प्रमुख भूमिका थी इसलिए उन्होंने प्रत्यक्ष महसूस करते हुए श्रीराम के मानवीय स्वरूप का संस्कृत भाषा में चित्रण किया है। हालांकि राम की कथाओं को जन जन तक पहुंचाने में संत तुलसीदास द्वारा अवधी भाषा में रचित रामचरित मानस की महत्वपूर्ण भूमिका है। रामचरित मानस में कुल 10 हजार 902 पद हैं जबकि चौपाई की संख्या 9 हजार 388, दोहों की संख्या 1 हजार 172 और सोरठों की संख्या 87,श्लोक की संख्या 47 और 208 छंद हैं। सबसे ज्यादा 359 दोहे बालकांड में और सबसे कम 31 किष्किंधाकांड में हैं जबकि अयोध्याकांड में 314, अरण्यकांड  में 51, सुंदरकांड में 62,युद्धकांड में 148 और उत्तरकांड में 207 दोहे हैं।


दुनिया की बात करें तो कई देशों में अलग अलग रामायण प्रचलित हैं इनमें कंपूचिया की रामकेर्ति या रिआमकेर रामायण,मलेशिया की हिकायत सेरीराम, थाईलैंड की रामकियेन, श्रीलंका में जानकी हरण और मलेराज की कथा, म्यांमार में रामवत्सु, लाओस में रामजातक या फ्रलक फ्रलाम, इंडोनेशिया में रामायण काकावीन, चीन में अनामकं जातकम्' और 'दशरथ कथानम्',जापान में होबुत्सुशू, मंगोलिया में राजा जीवक की कथा, तिब्बत में किंरस-पुंस-पा, तुर्किस्तान में खोतानी रामायण,

और नेपाल में भानुभक्त रामायण आदि प्रचलित हैं। इसके अलावा भी अन्य कई देशों में वहां की भाषा में रामायण लिखी गई हैं। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि प्रभु श्रीराम की लीलाओं का तमाम देशों और हमारे प्रदेशों में तत्कालीन परिस्थितियों के मुताबिक स्थानीय शैली में अलग अलग से दर्शाया गया है। शायद,इसलिए कहा गया है जाकी रही भावना जैसी,प्रभु मूरत देखी तिन तैसी..।



राम के भाल पर भास्कर

अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥

देखि भानु जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥

राम के जन्म के बाद अवधपुरी ऐसे सुशोभित हो रही जैसे मानो रात्रि प्रभु से मिलने आई हो और सूर्य को देख सकुचा गई हो. इस तरह मन में विचारकर वह संध्या बन गई.

अयोध्या में भगवान श्री राम मंदिर निर्माण की भव्यता से दुनिया अचंभित है। मंदिर की शैली से लेकर इसकी दिव्यता की चर्चाएं हो रही हैं। वैसे तो मंदिर विशिष्ट और विविधाओं से परिपूर्ण है लेकिन राम मंदिर की एक अनूठी विशेषता इसका सूर्य तिलक तंत्र है, जिसे इस तरह से डिजाइन किया गया है कि हर वर्ष श्रीराम नवमी के दिन दोपहर 12 बजे लगभग 6 मिनट के लिए सूर्य की किरणें भगवान राम की मूर्ति के माथे पर पड़ेंगी। उन्होंने कहा कि राम नवमी हिंदू कैलेंडर के पहले महीने के नौवें दिन मनाई जाती है। यह आमतौर पर मार्च-अप्रैल में आती है, जो भगवान विष्णु के सातवें अवतार भगवान राम के जन्मदिन का प्रतीक है।

भगवान श्रीराम को सूर्य तिलक में भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान, बेंगलुरु ने सूर्य पथ पर तकनीकी सहायता प्रदान की और ऑप्टिका, बेंगलुरु लेंस और पीतल ट्यूब के निर्माण में शामिल है। सूर्य तिलक के लिए गियर बॉक्स और परावर्तक दर्पण और लेंस की व्यवस्था इस तरह की गई है कि तीसरी मंजिल से सूर्य की किरणें सूर्य पथ का पालन करते हुए भौतिकी के सिद्धांतों के अनुरूप गर्भ गृह तक पहुंचे।

एक और विशेषता यह है कि राम मंदिर के निर्माण में कहीं भी सीमेंट और लोहे का उपयोग नहीं किया गया है। 3 मंजिला मंदिर का संरचनात्मक डिजाइन भूकंप प्रतिरोधी बनाया गया है और यह 2,500 वर्षों तक रिक्टर पैमाने पर 8 तीव्रता के मजबूत भूकम्पीय झटकों को बर्दाश्‍त कर सकता है।

राम मंदिर के निर्माण में वास्तुकार से लेकर निर्माण कंपनी तक की तो सर्वत्र खूब चर्चा हो रही है लेकिन कुछ ऐसे सरकारी संस्थान भी हैं जिन्होंने बिना किसी प्रचार प्रसार के अहम भूमिका निभाई है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के तहत वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद - सीएसआईआर और विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग-डीएसटी के कम से कम चार प्रमुख राष्ट्रीय संस्थानों द्वारा तकनीकी रूप से सहायता प्रदान की गई है। इसके अलावा, इसरो और आईआईटी जैसे नामी संस्थानों ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इन केंद्रीय संस्थानों में भवन अनुसंधान संस्थान- सीबीआरआ रूड़की, राष्ट्रीय भूभौतिकीय अनुसंधान संस्थान-एनजीआरआई हैदराबाद, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स- आईआईए बेंगलुरु और इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन बायोरिसोर्स टेक्नोलॉजी- आईएचबीटी पालमपुर,हिमाचल प्रदेश शामिल हैं।

सीबीआरआई रूड़की ने राम मंदिर निर्माण में प्रमुख योगदान दिया है जबकि एनजीआरआई हैदराबाद ने नींव डिजाइन और भूकंपीय सुरक्षा पर महत्वपूर्ण इनपुट दिए हैं। इसी प्रकार आईआईए बेंगलुरु ने सूर्य तिलक के लिए सूर्य पथ पर तकनीकी सहायता प्रदान की और आईएचबीटी पालमपुर ने 22 जनवरी को अयोध्या में दिव्य राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह के लिए ट्यूलिप खिलाए ।

सबसे दर्शनीय काम  हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में स्थित आईएचबीटी ने किया है।इस संस्थान ने अयोध्या में बेमौसम में भी ट्यूलिप खिला दिए हैं। आमतौर पर इस मौसम में ट्यूलिप में फूल नहीं आते। यह केवल जम्मू-कश्मीर और कुछ अन्य ऊंचे हिमालयी क्षेत्रों में ही उगता है और वह भी केवल वसंत ऋतु में। लेकिन इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन बायोरिसोर्स टेक्नोलॉजी ने हाल ही में एक स्वदेशी तकनीकी विकसित की है, जिसके माध्यम से ट्यूलिप को उसके मौसम का इंतजार किए बिना पूरे वर्ष उपलब्ध कराया जा सकता है। वैसे, राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान-एनबीआरआई, लखनऊ ने भी ‘एनबीआरआई नमोह 108’नाम से कमल की एक नई किस्म विकसित की है। कमल की यह किस्म - नमोह 108- मार्च से दिसंबर तक खिलती है ।

मंदिर नहीं आस्था की यशगान…!!

नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं।

नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं॥

भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते।


गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असिचर्म सक्ति बिराजते॥


आकाश में नगाड़े बज रहे हैं। गन्धर्व और किन्नर गा रहे हैं। अप्सराएं नाच रही हैं। देवता और मुनि परमानंद प्राप्त कर रहे हैं। भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न, विभीषण, अंगद, हनुमान्‌ और सुग्रीव आदि सहित छत्र, चँवर, पंखा, धनुष, तलवार, ढाल और शक्ति लिए हुए सुशोभित हैं।


भगवान श्रीराम अपने नए महल में विराजमान हो गए हैं। महल यानि श्रीराम का नया मंदिर धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, बुनियादी ढांचे और वास्तुकला के लिहाज से दुनिया में अनूठा और अपनी तरह का इकलौता मंदिर है। आखिर जनमानस की 500 साल की पीड़ा,वेदना, अवहेलना और आस्था को पहुंची चोट के बाद मिले अधिकार को बहुसंख्यक वर्ग ने पूरे आनंद के साथ दूर किया है। खुशी, न्याय और अधिकार जितनी देर से मिलता है उसका आनंद भी उतना ही बढ़ जाता है और यही इन दिनों में अयोध्या में, उप्र में और पूरे देश के साथ दुनिया भर में नजर आ रहा है। लोग उमंग में हैं,उत्साहित हैं,उल्लासित हैं और मुदित भी।


उत्तर प्रदेश सरकार से मिली आधिकारिक जानकारी के अनुसार भगवान राम का मंदिर 57,400 वर्ग फीट क्षेत्र में निर्मित किया जा रहा है। यह मंदिर 360 फीट लंबा 235 फीट चौड़ा और 161 फीट ऊंचा है। मंदिर में कुल तीन तल बनाए गए हैं और प्रत्येक तल 20 फीट ऊंचा है। यहां आने वाले श्रद्धालुओं को मंदिर में शिखर को मिलाकर कुल पांच मंडप नजर आएंगे ।


अयोध्या में मुख्य मंदिर का एरिया करीब पौने तीन एकड़ यानि 2.77 एकड़ के फैला है । मंदिर को भव्य और आकर्षक साज सज्जा वाले स्तंभों से सजाया गया है जो मंदिर की सुंदरता बढ़ाने के साथ साथ इसकी मजबूती में भी सहभागी है। मंदिर में पहली मंजिल पर 131 और दूसरी मंजिल पर 74 स्तंभ बनाए गए हैं, जबकि सबसे नीचे की मंजिल पर 160 खंबे होंगे। संक्षेप में समझे तो मंदिर निर्माण के लिए नींव का काम 2021 में पूरा हुआ था जबकि 2022 में पत्थर लगाने का काम पूरा हुआ और  मंदिर निर्माण समिति ने 2023 में ग्राउंड फ्लोर का काम पूरा कर लिया गया। अब रामलला 22 जनवरी को अपने नए मंदिर में विराजमान हो गए हैं।


 बताया जाता है कि मंदिर में गर्भ गृह की लंबाई और चौड़ाई 20-20 फीट है । यहां एक साथ 1000 श्रद्धालु खड़े हो सकेंगे। मंदिर में अंदर जाने के लिए दो स्वर्ण जड़ित द्वार हैं । मंदिर के आसपास के 3 किलोमीटर के इलाके को सुरक्षा की दृष्टि से रेड जोन नाम दिया गया है। नवनिर्मित अयोध्या धाम रेलवे स्टेशन से मंदिर की दूरी करीब डेढ़ किलोमीटर है जबकि महर्षि वाल्मीकि अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से मंदिर तक पहुंचने के लिए 10 किलोमीटर का फासला तय करना पड़ेगा।


जैसा कि हम सब जानते हैं कि अयोध्या का विवाद करीब 500 साल पहले शुरू हुआ था और 40 दिन तक लगातार सुनवाई के बाद सर्वोच्च न्यायालय के पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने 9 नवम्बर 2019 को 1045 पृष्ठों में मंदिर के पक्ष में फैसला सुनाया था। वही, मुस्लिम पक्ष को मस्जिद निर्माण के लिए 5 एकड़ जमीन अलग से दी गई है। कहा जाता है न कि देर आए दुरुस्त आए…अयोध्या को देर से ही सही उसका हक मिल गया है और अब दुनिया आने वाले हजार सालों और उसके बाद तक पुण्यभूमि अयोध्या का सांस्कृतिक वैभव,आध्यात्मिक उत्थान और इतिहास से वर्तमान तक की समृद्धि का विस्तार और विकास देखेगी।


श्रीराम के विश्वकर्मा

सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।

जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार॥ 


भावार्थ-दशरथ के महल की शोभा का वर्णन कौन कवि कर सकता है, जहाँ समस्त देवताओं के शिरोमणि राम ने अवतार लिया है॥ 



क्या आप कल्पना भी कर सकते हैं कि अयोध्या के जिस भव्य और दिव्य भारतीय नागर शैली के मंदिर को देखने के लिए दुनिया भर के करोड़ों लोगों की निगाहें तड़प रही हैं और हजारों लोग दर्शन के पहुंच रहें हैं उसे शुरुआती तौर पर उच्च तकनीक, एआई और अन्य आधुनिकतम संसाधनों से नहीं बल्कि एक अनुभवी व्यक्ति ने तीन दशक पहले 1987-88 में पैरों से जमीन नापकर नक्शा तैयार कर दिया था। एक बार जमीन की पैमाइश होने के बाद उन्होंने अपने हुनर,अनुभव और कुशलता का ऐसा समां बांधा कि आज दुनिया चकित होकर देख रही है। मंदिर प्रबंधन समिति द्वारा निर्धारित समय सीमा पर जब मंदिर और इसका पूरा परिसर सज धज कर पूरी तरह से तैयार हो जाएगा तो देखने वालों के सिर सम्पूर्ण श्रद्धा से झुक जाएंगे।


हम सभी की आस्था के केंद्र भगवान श्रीराम के इस नए घर (राम मंदिर) को इतने आकर्षक और भव्यतम ढंग से डिजाइन करने का दायित्व और सौभाग्य मशहूर वास्तुकार और गुजरात के अहमदाबाद के रहने वाले चंद्रकांत सोमपुरा को मिला है। सबसे अनूठी बात यह है कि चंद्रकांत सोमपुरा के पास वास्तुकला की न तो कोई डिग्री है और न ही उन्होंने अपने इस पेशे के लिए किसी संस्थान से प्रशिक्षण हासिल किया है।


ज़ाहिर सी बात है इस बात को सुनकर कोई भी चौंक सकता है लेकिन जिस शख्स ने देश और दुनिया के सबसे शानदार करीब 130 मंदिरों को तैयार किया हो,उसे किसी डिग्री या संस्थान से औपचारिक प्रशिक्षण की भला क्या आवश्यकता होगी। श्री सोमपुरा स्वयं एक स्कूल हैं,संस्थान हैं और वास्तुकला के सबसे बड़े आचार्य हैं। उन्होंने अक्षरधाम और बिड़ला मंदिर जैसे सर्वोत्कृष्ट मंदिरों को डिजाइन किया है। चंद्रकांत सोमपुरा के दादाजी ने सोमनाथ मंदिर का नक्शा तैयार किया था जो नागर शैली का सर्वोत्तम उदाहरण है। उनका परिवार पीढ़ियों से यह काम कर रहा है इसलिए राम मंदिर के इस सबसे बड़े और सबसे सम्मानित उत्तरदायित्व में उनके दोनों बेटे निखिल सोमपुरा और आशीष सोमपुरा उनका साथ दे रहे हैं। पिता पुत्र की इस तीन सदस्यीय टीम ने ऐसी बेजोड़ रचना रची है जिसका फिलहाल तो कोई सानी नहीं है क्योंकि करीब 100 से 120 एकड़ भूमि पर पांच गुंबदों वाला तीन मंजिला मंदिर दुनिया में कहीं नहीं है। वहीं, सोमपुरा परिवार के इस उत्कृष्ट डिजाइन को अमली जामा पहनाने का जिम्मा लार्सन एंड टूब्रो ने लिया है।


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 5 अगस्त को जब अयोध्या में मौजूदा राम मंदिर का भूमि पूजन किया था तब भी मंदिर का मूल नक्शा बनकर तैयार था और मामूली सुधारों के साथ उसी नक्शे की बुनियाद पर यह मंदिर बना है। हालांकि, राम मंदिर का शिलान्यास लगभग तीस साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी की अनुमति से 9 नवंबर 1989 को किया गया था और तब शिलान्यास की पहली ईंट दलित समुदाय से आने वाले कामेश्वर चौपाल ने रखी थी।


चंद्रकांत सोमपुरा को यह महती ज़िम्मेदारी विश्व हिंदू परिषद के तत्कालीन अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक सिंघल ने सौंपी थी। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए नक्शा बनाने का काम वाकई चुनौती भरा था। एक तो उस दौरान निर्माण स्थल पर बाबरी मस्जिद का मलवा पड़ा था इसलिए उन्होंने पूरी भूमि को अपने पैरों से मापकर सटीक अनुमान लगाया। इसी अनुमान के आधार पर चंद्रकांत सोमपुरा के बने नक्शा को देख सभी दंग रह गए थे। श्री सोमपुरा ने तीन डिजाइन तैयार किए थे जिसमें से एक को सर्व सम्मति से स्वीकार कर लिया गया। फिर इस डिजाइन के आधार पर लकड़ी के मंदिर का मॉडल तैयार किया गया । 


 मंदिर के निर्माण में एक अन्य चुनौती वे लाखों करोड़ों ईंटें भी थी जो पूरे देश से आस्था का सैलाब बनकर अयोध्या में घर घर से पहुंची थी। श्री सोमपुरा की डिजाइन में इनका बखूबी इस्तेमाल किया गया है।



आराध्य की आराधना


रामो विग्रहवान् धर्मः साधुः सत्य पराक्रमः।

राजा सर्वस्य लोकस्य देवानाम् इव वासवः॥


भगवान श्रीराम धर्म के मूर्त स्वरूप हैं। वे बड़े साधु और सत्य पराक्रमी हैं। जिस प्रकार इंद्र देवताओं के नायक हैं, उसी प्रकार भगवान राम हम सभी के नायक हैं।


अयोध्या में राम लला की प्राण प्रतिष्ठा की गाथा घर घर पहुंच गई है। एक तरह से सनातन ही नहीं अन्य धर्मों के लोग भी वैदिक पूजा पद्धति और प्रतिमा की स्थापना तक की तमाम विधियों को जानने समझने लगे हैं। प्राण प्रतिष्ठा समारोह के साथ ही कई जैसे नए और अनूठे शब्द सामने आए हैं जो धार्मिक रीति रिवाजों से जुड़े विद्वानों को छोड़कर जनमानस को विस्मित करने वाले हैं। इसलिए, हम अध्याय में इन शब्दों की गुत्थी को सुलझाने और उसे सहज बनाने का प्रयास करते हैं। 


जैसा की हम आमतौर पर जानते हैं कि प्रतिष्ठा का अर्थ है स्थापना और प्राण प्रतिष्ठा का शाब्दिक अर्थ हुआ -जीवन शक्ति की स्थापना करना या देवता को जीवन में लाना। सनातन धर्म में प्राण प्रतिष्ठा से पहले किसी भी मूर्ति पूजा के योग्य नहीं मानी जाती है बल्कि उसे निर्जीव मूर्ति माना जाता है। प्राण प्रतिष्ठा के जरिए उनमें प्राण शक्ति का संचार करके उन्हें पूजनीय बनाया जाता है. इसके बाद ही वह प्रतिमा पूजा और भक्ति के योग्य बन जाती है.


रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के दौरान प्रायश्चित पूजा,कर्म कुटी पूजन,जलाधिवास,गंधाधिवास, घृताधिवास, फलाधिवास, मध्याधिवास और शय्याधिवास जैसे कई नए पूजा संस्कार आम लोगों ने सुने हैं। वैदिक परंपरा के मुताबिक प्रायश्चित और कर्म कुटी पूजन किसी मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की शुरुआत में किया जाने वाला सबसे पहला पूजन है. यह पूजा, जाने-अनजाने में जीवन के किसी भी क्षण में होने वाली प्रत्येक गलतियों या पाप का प्रायश्चित है. इस पूजा में शारीरिक, आंतरिक, मानसिक और वाह्य तरीकों से प्रायश्चित किया जाता है। कई बार हम जाने अनजाने में कई प्रकार की ऐसी गलतियां कर लेते हैं, जिसका हमें तनिक भी आभास नहीं हो पाता है इसलिए ऐसे में शुद्धिकरण होना बेहद जरूरी होता है।


 यही वजह है कि प्राण प्रतिष्ठा से पहले प्रायश्चित पूजा की जाती है.  अयोध्या में इस पूजा के ज़रिए रामलला से और पूजन शुरू करने के पहले सभी गलतियों के लिए माफी मांगी गयी। राम लला से इसलिए क्योंकि यह माना गया कि रामलला की प्रतिमा बनाने में छेनी और हथौड़े के इस्तेमाल के चलते उन्हें चोट पहुंची होगी. वहीँ, कर्म कुटी पूजा का मतलब होता है यज्ञशाला पूजन। यज्ञशाला शुरू होने से पहले हवन कुंड अथवा वेदी का पूजन करते हैं। इस पूजा में जगत के पालनहार भगवान विष्णु की आराधना की जाती है। ऐसा करने से भगवान विष्णु मंदिर में जाने का आदेश करते हैं। इसके बाद ही प्राण प्रतिष्ठा के लिए मंदिर में प्रवेश किया जाता है।


इसके बाद, भगवान राम की प्रतिमा को वैदिक मंत्रोचार के बीच गर्भ गृह में रखा गया. इस दौरान ‘प्रधान संकल्प’, ट्रस्ट के सदस्य अनिल मिश्रा ने लिया। ‘प्रधान संकल्प' की भावना यह है कि भगवान राम की 'प्रतिष्ठा' सभी के कल्याण के लिए, राष्ट्र के कल्याण के लिए, मानवता के कल्याण के लिए और उन लोगों के लिए भी की जा रही है जिन्होंने इस कार्य में अपना योगदान दिया है। श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने भी आधिकारिक तौर पर बताया कि अयोध्या में जन्म भूमि स्थित राम- मन्दिर में 18 जनवरी को दिन में 12:30 बजे के बाद भगवान राम की मूर्ति का प्रवेश हुआ. दोपहर 1:20 बजे यजमान द्वारा ‘प्रधान संकल्प’ लिया गया। मूर्ति के जलाधिवास तक के विधान इसी दिन संपन्न हुए। 19 जनवरी शुक्रवार को प्रातः नौ बजे अरणी मन्थन से अग्नि प्रकट की गई। उसके पूर्व गणपति सहित अन्य देवताओं का पूजन हुआ।


अब कई पाठक सोच रहे होंगे कि अरणी मंथन क्या पहेली है। दरअसल, यज्ञ में आहुति के लिए या यज्ञ के निमित्त वैदिक पद्धति से अग्नि प्रकट करने की विधि को अरणी मंथन कहते हैं। इसमें शमी या खेजड़ी और पीपल की लकड़ी का उपयोग किया जाता है। शमी को शास्त्रों में अग्नि का स्वरूप कहा गया है जबकि पीपल को भगवान का स्वरूप माना गया।  इसीलिए इस वृक्ष से अरणी मंथन काष्ठ बनाया जाता है। फिर अग्रि मंत्र का उच्चारण करते हुए अग्रि प्रज्वलित की जाती है। अग्नि प्रकट करने के लिए शमी की लकड़ी से बने छेद युक्त तख्ते को लकड़ी की ही छड़ी से मथा जाता है। इस प्रक्रिया में मथनी को इतनी तेजी से चलाया जाता है कि उससे चिंगारी उत्पन्न होने लगती है, जिसे नीचे रखी घास और रूई में लेकर यज्ञ में उपयोग किया जाता है। अरणी में छड़ी के टुकड़े को उत्तरा और तख्ते को अधरा कहते हैं।


राम लला की प्राण प्रतिष्ठा से पहले उन्हें जलाधिवास कराया गया। इस विधि के तहत राम लला की मूर्ति को जल से भरे हुए विशाल पात्र में शयन कराया गया । इसी तरह, गंधाधिवास विधि के अंतर्गत मूर्ति पर सुगंधित द्रव्यों का लेप लगाया गया। औषधाधिवास की प्रक्रिया में मूर्ति को औषधि में रखा गया और फिर क्रमशः केसराधिवास में मूर्ति को केसर में, घृताधिवास में मूर्ति को घी में और धान्याधिवास में मूर्ति को कई तरह के धान्यों यानी अनाजों में रखा गया। 20 जनवरी की सुबह शर्कराधिवास और फलाधिवास संस्कार हुए । इनमें राम लला को शक्कर और फलों के बीच रखा गया. इसके बाद इसी दिन शाम को पुष्पाधिवास में मूर्ति को रंग बिरंगे और सुगंधित फूलों के साथ रखा गया।


प्राण प्रतिष्ठा के एक दिन पहले 21 जनवरी को मध्याधिवास और शय्याधिवास नामक अनुष्ठान हुए।  मध्याधिवास मूर्ति को शहद के साथ रखा गया जबकि शय्याधिवास में मूर्ति को शय्या पर लिटाया गया। सामान्य भाषा में समझे तो तमाम द्रव्यों,औषध,सुगंध,पुष्प,शहद जैसी सामग्री से स्नान और शुद्धिकरण के बाद भगवान को आराम कराया गया जिससे वे भक्तों को पूरी आभा, दिव्यता और भव्यता के साथ दर्शन देने के लिए तैयार हो सकें। जैसा की हम सभी जानते हैं कि राम लला की मूर्ति का वजन करीब 150 किलो और कमल के पुष्प सहित ऊंचाई काफी ज्यादा हो गई है इसलिए इन तमाम वैदिक परंपराओं के पालन के लिए भगवान राम की रजत प्रतिमा का उपयोग किया गया। इन सभी संस्कारों,विधियों और पद्धतियों के बाद भगवान अपने आसन पर विधि विधान के साथ प्रतिष्ठित हुए।


 







एक भारत श्रेष्ठ भारत

राम राज बैठें त्रैलोका। हरषित भए गए सब सोका॥बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता खोई॥

 रामचंद्रजी के राज्य पर प्रतिष्ठित होने पर तीनों लोक हर्षित हो गए, उनके सारे शोक जाते रहे। कोई किसी से वैर नहीं करता। श्री रामचंद्रजी के प्रताप से सबकी विषमता यानि आंतरिक भेदभाव मिट गया ॥


कश्मीर में बर्फ से ढकी ऊंची चोटियों से लेकर कन्याकुमारी में धूप से सराबोर समुद्र तटों तक,राम नाम की गूंज ने पूरे भारत में भक्ति का माहौल बना दिया है। अब यह भक्ति अयोध्या में ऐतिहासिक राम मंदिर के रूप में मूर्त रूप ले रही है। यह गौरवमय मंदिर भारत की एकता और भक्ति के प्रतीक के रूप में खड़ा है, न केवल भव्यता में, बल्कि देश-विदेश से मिले योगदान के रूप में भी यह मंदिर अद्वितीय है। 'एक भारत श्रेष्ठ भारत 'पहल इस मंदिर के साथ गहराई से जुड़ी दिखती है। यह मंदिर उस अटूट विश्वास और उदारता का प्रमाण है जो किसी सीमा से परे किसी मंदिर के तीर्थाटन के लिए पूरे देश को जोड़ती है।

मंदिर का मुख्य भाग राजसी ठाठ-बाट लिए हुए है। यह राजस्थान के मकराना संगमरमर की प्राचीन श्वेत शोभा से सुसज्जित है। पीआईबी के एक लेख के मुताबिक इस मंदिर में देवताओं की उत्कृष्ट नक्काशी कर्नाटक के चर्मोथी बलुआ पत्थर पर की गई है। जबकि, प्रवेश द्वार की भव्य आकृतियों में राजस्थान के बंसी पहाड़पुर के गुलाबी बलुआ पत्थर का उपयोग किया गया है। गर्भ गृह को मजबूती देने का काम मध्य प्रदेश के छतरपुर और रीवा के पत्थरों ने किया है। भगवान राम की मूर्ति बनाने में इस्तेमाल किया गया काला पत्थर कर्नाटक से आया है। हिमालय की तलहटी से अरुणाचल प्रदेश और त्रिपुरा ने जटिल नक्काशीदार लकड़ी के दरवाजे और हस्तनिर्मित संरचना पेश किए हैं,जो दिव्य क्षेत्र के प्रवेश द्वार के रूप में खड़े हैं।

इस भव्य और दिव्य मंदिर के लिए योगदान की सूची यहीं ख़त्म नहीं होती। पीतल के बर्तन उत्तर प्रदेश से तो पॉलिश की हुई सागौन की लकड़ी महाराष्ट्र से आई है। इस राम मंदिर की कहानी सिर्फ सामग्री और उसकी भौगोलिक उत्पत्ति के बारे में नहीं है। यह उन अनगिनत हजारों प्रतिभाशाली शिल्पकारों और कारीगरों की कहानी है जिन्होंने मंदिर निर्माण के इस पवित्र प्रयास में अपना दिल, आत्मा और कौशल डाला है।

राम मंदिर अयोध्या में सिर्फ एक स्मारक नहीं है; यह विश्वास की एकजुट शक्ति का जीवंत प्रमाण है। हर पत्थर,हर नक्काशी और हर संरचना 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत' की कहानी कहती है। यह भौगोलिक सीमाओं से परे सामूहिक आध्यात्मिक यात्रा में दिलों को जोड़ता है।


अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...