वहीँ, इन अख़बारों का मानना
है कि असम राइफल्स का यह पत्र मीडिया की आज़ादी के खिलाफ है और कहीं न कहीं प्रेस
की स्वतंत्रता का हनन करता है. यहाँ के सबसे प्रमुख समाचार पत्र ‘नागालैंड पोस्ट’
ने सम्पादकीय कालम खाली तो नहीं रखा लेकिन इस आदेश के खिलाफ जरुर लिखा है. समाचार
पत्रों के इस रुख का समर्थन नागालैंड प्रेस एसोसिएशन और यहाँ के सबसे शक्तिशाली
छात्र संगठन नागा स्टूडेंट फेडरेशन ने भी किया है. सम्पादकीय कालम खाली रखने वाले
समाचार पत्रों में मोरुंग एक्सप्रेस, इस्टर्न मिरर और नागालैंड पेज अंग्रेजी में
जबकि कापी डेली(Capi Daily) और तिर यिमयिम (Tir Yimyim) क्रमशः स्थानीय बोली अंगामी तथा आओ में प्रकाशित होते हैं. वैसे असम राइफल्स
ने इसतरह के किसी भी आदेश/आर्डर का खंडन किया है. उसका कहना है कि वह भी मीडिया कि
स्वतंत्रता का पक्षधर है और यह एडवाइजरी समाचार पत्रों को गृह मंत्रालय द्वारा
लगाए गए प्रतिबन्ध से अवगत कराने के लिए थी.
आतंकवाद प्रभावित राज्यों
में अखबार निकालना तलवार की धार पर चलने से ज्यादा मुश्किल होता है क्योंकि एक ओर
तो समाचार पत्र प्रबंधन को सुरक्षा एजेंसियों के कठोर नियमों का सामना करना पड़ता
है वहीँ दूसरी ओर आतंकवादी संगठनों के ज्ञात-अज्ञात दबाव से भी जूझना पड़ता है. ऐसी
सूरत में विज्ञापन जुटाने और प्रसार बढाने के प्रयास कितने कारगर रहते होंगे हम
समझ सकते हैं. सुरक्षा एजेंसियों से जुड़े लोग तो फिर भी प्रत्यक्ष होते हैं परन्तु
आतंकी संगठनों के सदस्य तो गुमनाम होते हैं इसलिए खौफ़ के बीच काम तो करना ही पड़ता
है. वैसे भी दुनिया के सबसे स्वतंत्र और सुरक्षित देशों में शामिल फ्रान्स में ‘चार्ली
हेब्दो’ का हाल तो हम देख ही चुके हैं. इसीतरह पड़ोसी देश बंगलादेश में आये दिन
ब्लागरों की हत्याएं भी यह साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि मीडिया की स्वतंत्रता
पर कैसा खतरा मंडरा रहा है.
समाचार एजेंसी ‘आइएएनएस’ की
एक खबर के मुताबिक इस साल जून माह तक ही दुनिया भर के 24 देशों में 71 पत्रकार
मारे गए हैं. चिंताजनक बात तो यहाँ है कि काम के दौरान पत्रकारों की मौत के मामले
में 7 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है. वहीँ, ‘इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट’ की एक
रिपोर्ट के मुताबिक 2013 में दुनिया भर में कुल 117 मीडिया कर्मी मारे गए थे
जिनमें से 11 की मौत भारत में हुई. इसीतरह 2014 में 138 पत्रकार मारे गए थे. पत्रकारों की
सुरक्षा के लिए कार्यरत संगठन ‘कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’ के अनुसार 1992 से
अब तक दुनिया भर में 1152 पत्रकार मारे गए हैं. यह संख्या उन पत्रकारों की है जिनकी
मौत के सही कारणों का पता चल गया है अन्यथा गुमनाम कारणों और हादसों का रूप देकर
पत्रकारों की हत्या की संख्या तो और भी ज्यादा होगी. ‘कमेटी टू प्रोटेक्ट
जर्नलिस्ट्स’ के अनुसार अब तक काम के दौरान हुई पत्रकारों कि कुल मौतों में सर्वाधिक
533 की मौत राजनीतिक कारणों से और 435 की मौत युद्ध जैसी घटनाओं को कवर करने के
दौरान हुई है. बाकी पत्रकारों की मृत्यु का कारण भ्रष्टाचार,अपराध और मानवाधिकारों
से जुड़े मामलों को कवर करना रहा है. इस संगठन के अनुसार 2011 में 48, 2012 में 74,
2013 में 71, 2014 में 61 तथा 2015 में अब तक 47 पत्रकारों की मौत की सही वजह का
पता लगाया जा चुका है.
इसके सब के बाद भी मुद्दे
की बात यही है कि क्या पत्रकारों के काम की कोई लक्ष्मण रेखा भी होनी चाहिए ?
खासतौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया के बढ़ते प्रभाव और कई बार ख़बरों के साथ खिलवाड़ की
बढ़ती प्रवृत्ति के कारण पत्रकारों को सामान्य नागरिकों एवं विचारधारा विशेष से
सरोकार रखने वाले लोगों की नाराजगी का सामना करना पड़ता है. हाल ही में इसतरह की कई
घटनाएं सामने आई हैं जब किसी चैनल विशेष के खिलाफ गुस्से का खामियाजा उस चैनल के
स्टाफ या फिर पूरी मीडिया बिरादरी को भुगतना पड़ता है. क्या अब समय आ गया है कि
मीडिया बिरादरी स्वयं ही अपने लिए कोई ‘रेखा’ खींचे और उसका कठोरता से पालन करने
की व्यवस्था भी बनाए क्योंकि मौजूदा व्यवस्थाएं तो बस ‘हाथी के दांत खाने के कुछ
और दिखाने के कुछ’ जैसी हैं. इसीतरह किन्ही खास समूहों के मीडिया के सभी अंगों पर
बढ़ते एकाधिकार पर भी चर्चा होनी चाहिए जिससे वास्तव में मीडिया स्वतंत्र रहे. इसके
अलावा पेड न्यूज़,इम्पेक्ट फीचर जैसे तकनीकी नामों से खबर कि शक्ल में विज्ञापनों
कस प्रसारण,निर्मल बाबा जैसे कथित संतों को प्राइम टाइम का समय बेचना जैसे कई और
भी सवाल हैं जो मीडिया कि विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचा रहे हैं जो अपरोक्ष तौर पर
मीडिया की आज़ादी के हनन का कारण भी बन सकते हैं.
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