गुरुवार, 17 नवंबर 2016

सोचिए, कहीं आप देश विरोधी तत्वों की कठपुतली तो नहीं बन रहे !!

नोट बदलने की प्रक्रिया को आमजन की समस्या से देशव्यापी विकराल मुद्दा बनाने के पीछे कहीं वे लोग तो नहीं है जिनकी करोड़ों की संपत्ति पर चंद घंटों में पानी फिर गया? आम जनता की आड़ में कहीं पेशेवर दिमाग तो काम नहीं कर रहे जो समस्या को हाहाकार में बदलने में जुटे हैं और भविष्य में सरकार के इस अच्छे कदम को बुरे अंजाम में बदलने की साजिश रच रहे हैं ? जैसे कश्मीर में भीड़ की आड़ में आतंकियों के सुरक्षा बलों पर हमला करने की ख़बरें मिली रहती हैं इसीतरह धीरज और स्वेच्छा से नोट बदलने लाइन में लगे आम आदमी के मनोबल को तोड़ने के लिए कहीं राजनीतिक ताकतें और माफिया तो षड्यंत्र में नहीं जुट गए हैं ? और मीडिया महज उनके हाथ की कठपुतली बन रहा हो ? मुझे पता है मेरी इस बात से असहमत लोग मुझे ‘भक्त’ करार दे सकते हैं परन्तु कुछ तो खटक रहा है और कहीं न कहीं कुछ तो पक रहा है !
भीड़ को अराजक बनाने के लिए एक पत्थर ही काफी होता है जबकि यहाँ तो पूरा मसाला मौजूद है. कहीं भीड़ की आड़ में काले धन को सफ़ेद करने का धंधा तो शुरू नहीं हो गया ? सामान्य समझ तो यही कहती है कि कुछ तो गड़बड़ है और शायद सरकार ने भी इसे भांप लिया है तभी नोट बदलने वालों के हाथ पर चुनाव स्याही जैसा कुछ निशान लगाने और उनकी पहचान सुनिश्चित करने की पहल शुरू हो रही है. आखिर क्या कारण है कि सालभर से सूखे पड़े जन-धन एकाउंट एकाएक लबालब भरने लगे है तो वहीँ,वर्षों से बैंक का रुख नहीं करने वाले भी दावा कर रहे हैं कि वे दो बजे रात से लाइन में लगे हैं. मजे की बात तो यह है कि ये सभी किस्से महानगरों और बड़े शहरों में ज्यादा सुनने/देखने को मिल रहे हैं. हालाँकि ये भी हो सकता है कि महानगरों को ही देश मानने वाला और अपनी सुविधा के मुताबिक रिपोर्टिंग करने वाला मीडिया अपने आप ही शहरों की ख़बरों तक सीमित हो परन्तु मेरे सवालों या आशंकाओं को समझने के लिए कुछ बातों पर गौर करना जरुरी है. मसलन जिन महानगरों/शहरों में हाहाकार दिखाया जा रहा है वहां बहुसंख्यक लोग प्लास्टिक मनी( डेबिट/क्रेडिट/एटीएम कार्ड) और आनलाइन बैंकिंग को अपना चुके हैं. वैसे भी शहरों में बिग बाज़ार नुमा खरीद-फरोख्त केन्द्रों की भरमार हैं जहाँ सब कुछ कैशलैस है इसलिए यदि वे दो-चार हफ्ते रुपए न निकाले/बदले तो भी उनकी दिनचर्या पर जरा भी फर्क नहीं पड़ेगा. इसके बाद भी यदि आपने एक बार में दो-चार हजार रुपए भी निकाल लिए तो वह हफ्ते-दो हफ्ते की सब्जी-भाजी-दूध जैसी बुनियादी जरूरतों के लिए काफी हैं. तब तक स्थिति सामान्य हो जाएगी और बैंकिंग व्यवस्था भी. ऐसे लोग या तो लाइन में नहीं होंगे या एक बार के बाद फिलहाल नहीं आएंगे.
लाइन में लगे लोग अक्सर टीवी का कैमरा देखते ही कहना शुरू कर देते हैं कि घर में आटा नहीं है, बच्चे की फ़ीस नहीं है इत्यादि इत्यादि. आजकल फीस से लेकर दूध तक सब या तो आनलाइन है या फिर प्लास्टिक मनी से मिल जाता है फिर किस बात की जल्दबाजी. इसके अलावा चैक से पेमेंट की व्यवस्था तो कायम है ही. मैं अपने ऐसे कई दोस्तों को जानता हूँ जो कभी भी सब्जी मंडी जाकर सब्जी-फल नहीं खरीदते क्योंकि उनके मुताबिक वहां सब ‘अन-हाइजीनिक’ मिलता है परन्तु इन दिनों वे भी सोशल मीडिया पर ऐसा दिखा रहे हैं मानो नोट बदलने से उनके घर में भी कई दिन से चूल्हा नहीं जला.
अब रही बात वाकई गरीब परिवारों की, तो ऐसे अधिकतर परिवार रोज कमाने-खाने वाले होते हैं और उन्हें मजदूरी में पांच सौ-हजार के नोट नहीं मिलते जिन्हें बदलने के लिए उन्हें दो बजे रात से लाइन में लगना पड़े. हमारे देश में अभी भी असंगठित वर्ग की मजदूरी सौ-पचास के नोटों तक ही केन्द्रित है. इस वर्ग को फिलहाल नोट बदलने की जगह मजदूरी मिलने की समस्या है क्योंकि उनके कथित मालिकों ने सरकार के इस फैसले की आड़ में फिलहाल मजदूरी देना या तो बंद कर दिया है या फिर अपने बड़े नोट निकलने का जरिया बना लिया है. मसलन असम सहित पूर्वोत्तर में चाय श्रमिकों को मजदूरी देने के नाम पर चाय बागानों के मालिकों ने अनाप-सनाप पैसा निकालने की अनुमति सरकार से मांगी और जब सरकार ने इसे मंजूर नहीं किया तो मजदूरी देना बंद कर दिया. हालाँकि सरकार ने सम्बंधित ज़िले के कलेक्टर/डीसी के नाम पर खाता खुलवा कर उनके इरादों पर पानी फेर दिया और अब मजदूरी की प्रक्रिया भी सामान्य होने लगी है. कहने का आशय यह है कि इस वर्ग को भी लाइन में लगने की जरुरत तुलनात्मक रूप से कम ही है.
ऐसे में यह सवाल उठता है कि कहीं भीड़ में गरीबों के नाम पर लगे लोग काला धन रखने वालों के ‘कमीशन एजेंट’ तो नहीं है जो सौ-पांच सौ रुपये के लालच में उनके हाथ की कठपुतली बन गए हैं. यदि एक धन्ना सेठ प्रतिदिन सौ लोगों को लाइन में लगा दे तो वह 4 से 5 लाख रुपए के काले धन को एक दिन में नए नोट में बदल सकता है. अब इसी आंकड़े को हफ्ते भर में तोलिये तो स्थिति साफ़ हो जाती है. ऐसा भी हो सकता है कि अपने दिहाड़ी मजदूरों को नोटों के जमाखोरों ने इसी काम में लगा दिया हो. इसीतरह देश के कुछ राज्यों और समुदायों में तो महिलाओं को सामान्यतौर पर घूँघट में भी घर से बाहर नहीं निकलने दिया जाता परन्तु अब उन्हीं क्षेत्रों में महिलायें आधी रात से लाइन में लगी हैं,पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिलकर, वह भी कम्बल-चादर लेकर, तो बात खटकती है और खटकनी भी चाहिए.
मेरे कहने का यह आशय कतई नहीं है कि देश में नोट बदलने/निकालने को लेकर कोई दिक्कत नहीं है. दिक्कत तो है और बहुत है लेकिन जो कृत्रिम हाहाकार मचाया जा रहा है वह चिंताजनक है. ऐसा न हो ही देश विरोधी तत्व इसका फायदा उठाकर हमारी-आपकी शांति और कानून व्यवस्था को खतरे में डाल दें और हम चंद लोगों के हाथ की कठपुतली बनकर अपना और अपने देश का नुकसान करा बैठे. मीडिया में यह ख़बरें भी आने लगी हैं कि एक तरह पूर्वोत्तर में उल्फा,एनडीएफबी, बोडो जैसे तमाम उग्रवादी संगठनों की अब तक की काली कमाई काग़ज में बदल गयी है और उनकी छटपटाहट बढ़ रही है. देश के अन्य राज्यों में भी विद्रोही संगठनों की कमोवेश यही स्थिति है. दाउद जैसे माफिया सरगना भी बेचैन हैं. वहीँ दूसरी तरफ, कई राजनीतिक दल भी कंगाल हो गए हैं और वे अपनी जमीन बचाने के लिए विरोध के नाम पर किसी भी हद तक जा सकते हैं.
पैसा देकर राजनीतिक सभाओं में भीड़ जुटाना, पैसा देकर दंगे कराना और पत्थर फिंकवाना देश के लिए कोई नई बात नहीं है और जब बात राजनीतिक विरोध की हो,माफिया का पैसा बर्बाद होने की हो या फिर सरकार को गलत साबित करने की तो देश विरोधी तत्वों के लिए सबसे आसान शिकार आम लोग ही हैं इसलिए हमारा भी यह दायित्व बनता है कि हम न तो किसी की कठपुतली बने और न ही किसी को अपने कंधे से बंदूक चलाने दे वरना न केवल काला धन बाहर निकलवाने की यह मुहिम धरी रह जाएगी बल्कि भविष्य में कोई भी सरकार ऐसा कठोर फैसला लेने से भी डरेगी.(picture courtesy :rediff.com)

    

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