'शाल के तले' नाटक: प्रकृति और संस्कृति का अनूठा तालमेल

असम में शाल के पेड़ों के तले होने वाला नाट्योत्सव न केवल समकालीन नाट्यकला के अद्वितीय प्रारूप का एक सशक्त उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है बल्कि प्रकृति के संरक्षण का अनूठा सन्देश भी फैला रहा है । अब तो इस नाट्य समारोह में दर्शकों के साथ साथ देश के बाहर से आने वाले नाटकों की संख्या भी बढ़ने लगी है । 

असम की राजधानी गुवाहाटी से लगभग 150  किमी दूर और जिला मुख्यालय ग्वालपाड़ा से 15 किमी दूर स्थित रामपुर धीरे धीरे देश ही नहीं बल्कि दूसरे देशों में भी आकर्षण का केंद्र बन रहा है । इसका कारण है शाल के पेड़ों के नीचे वाला सालाना नाट्य उत्सव ।

इस अनूठे नाट्य उत्सव का श्रेय रामपुर निवासी शुक्रचर्या राभा को जाता है  जिन्होंने तक़रीबन 10 साल पहले अर्थात् वर्ष 2008 में इस तीन-दिवसीय नाट्योत्सव की नींव रखी थी । अब प्रतिवर्ष मध्य-दिसम्बर में 15 से 18 दिसंबर के बीच शाल के घने जंगल में यह आयोजन होता है । उत्सव के दौरान, प्रतिदिन उमड़ने वाली लोगों की भीड़ इस उत्सव की सफलता की कहानी बताती है ।
दूर-दराज के गाँवों से आने वाले दर्शकों की संख्या में लगातार वृद्धि होने से स्थानीय लोगों के लिये भी यह एक वार्षिक उत्सव बन गया है, जो अब "शाल के तले"नाम से लोकप्रिय है ।

 इस नाट्य उत्सव की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसमें अब तक बांग्लादेश,ब्राजील, दक्षिण कोरिया, श्रीलंका और पोलैण्ड जैसे देशों से नाट्य समूह शामिल हो चुके हैं । अब तो संगीत नाटक अकादमी, संस्कृति विभाग एवं असम सरकार से भी इस आयोजन के लिए सहायता मिलने लगी है ।

इस समारोह के लिए, प्रति वर्ष दिसम्बर में, शाल के वृक्षों के नीचे मिट्टी का एक मंच बनाया जाता है । मंच की पृष्ठभूमि में भूसे की बाड़ और मंच के चारों ओर बाँस से दर्शकदीर्घा बनायी जाती है । बाहर से आने वाले कलाकारों को भी पूस के बने घरों में रखा जाता है।  जंगल के भीतर स्थित होने के अतिरिक्त इस नाट्यमंच का एक और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि यहाँ कलाकार कृत्रिम ध्वनि एवं प्रकाश का प्रयोग नहीं करते । पार्श्व संगीत सजीव होता है और शाल के वृक्षों से छन कर आती सूर्य की किरणें  स्पॅाटलाइट का काम करती हैं । शाल वृक्ष भी प्राकृतिक पात्र की भाँति ध्वनि संयोजन में मदद करते है ।

इस अनूठे नाट्य उत्सव के शुरू होने के पीछे भी एक कहानी है। दरअसल शाल से घिरे इस इलाके में गाँव वासियों ने रबड़ के पेड़ उगाने के लिये शाल के सभी पुराने जंगलों को काटना शुरू कर दिया । शाल के वृक्ष से लगभग 25 वर्षों के पश्चात पैसे मिलते हैं जबकि रबड़ के वृक्ष से मात्र 7 वर्ष में ही कमाई होने लगती है । यही कारण है कि गाँव के ज्यादातर शाल के वृक्षों के स्थान पर अब रबड़ के वृक्ष दिखाई देते हैं ।


राभा संस्कृति में शाल को पूज्य माना जाता है । यहाँ तक कि मरणोपरान्त, लोगों को इन्हीं वृक्षों के नीचे दफन करने का भी रिवाज है ।  संस्कृति और प्रकृति पर इस आघात ने ही शुक्रचर्या को शाल वृक्षों के तले नाट्य महोत्सव की प्रेरणा दी । उन्हें विश्वास है कि नाट्य महोत्सव की लोकप्रियता से इन वृक्षों की रक्षा हो सकेगी और जंगलों का प्राकृतिक सौन्दर्य वापस पुनः स्थापित हो जायेगा ।

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