गरीब-अनपढ़ पेंगू ने मारा हिन्दू-मुस्लिम में बांटने वालों को तमाचा !!
आज के समय में जब खून के रिश्तों का मोल नहीं है,परिवार टूट
रहे हैं , लोग अपनों तो दूर मां-बाप की भी जिम्मेदारी उठाने से बच रहे हैं और
जाति-धर्म की दीवारें समाज को निरंतर बाँट रहीं हैं, ऐसे में किसी दूसरे धर्म के तीन
अनाथ बच्चों को सहारा देना वाकई काबिले तारीफ़ है और वह भी तब इन तीन बच्चों में से
दो विकलांग हों...लेकिन कहते हैं न कि यदि कुछ करने की चाह हो तो इंसानियत सबसे
बड़ा धर्म बन जाती है और फिर यही भावना मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाने की ताकत देती है.
कुछ ऐसा ही हाल पेंगू अहमद बड़भुइयां का है. मणिपुरी मूल के मुस्लिम पेंगू अहमद
सिलचर फुटबाल अकादमी में चौकीदार हैं और अपनी सीमित आय में सिलचर से दूर गाँव में
रह रहे अपने मूल परिवार में चार बच्चों का किसीतरह भरण पोषण करते हैं लेकिन इसके
बाद भी इन अनाथ-बेसहारा बच्चों को अपनाने में उन्होंने जरा भी हिचक नहीं दिखाई.
पेंगू के मानवता परिवार में सबसे पहले विष्णु शामिल हुआ. विष्णु
के पैर जन्म से ख़राब हैं और जब वह छोटा ही था तभी मां चल बसी. इसके बाद विष्णु के
पिता ने दूसरी शादी कर ली और जैसा कि आमतौर पर होता है कि सौतेली मां ने विकलांग
बच्चे को नहीं अपनाया और घर से निकाल दिया. असहाय पेंगू सिलचर रेलवे स्टेशन पर भीख
मानकर गुजर बसर करने लगा लेकिन एक बार किसी वीआईपी के दौरे के समय रेलवे पुलिस ने
उसे स्टेशन से भी बाहर निकाल दिया. विष्णु ने फिर एक पेड़ के नीचे शरण ली. एक दिन
भारी बारिश में भीगते और ठण्ड से थर थर कांपते विष्णु पर पेंगू की नज़र पड़ी तो वो
उसे अपने साथ ले आया. अब दोनों का साथ 7 साल का हो गया है.
दूसरा बच्चा लक्खी(लक्ष्मी) प्रसाद के पैर एक आग दुर्घटना
में इतनी बुरीतरह जल गए कि उसके घुटने ही नहीं है इसलिए हाथों के सहारे चलता है.
लक्खी के पिता के निधन के बाद मां ने दूसरी शादी कर ली और नए पिता ने विकलांग
लक्खी को बोझ समझकर अपने घर से निकाल दिया. वह सड़क पर,दुकानों के बरामदों या
फुटपाथ पर रात गुजारता था. सैंकड़ों लोग रोज देखते थे लेकिन किसी ने भी सहारा नहीं
दिया परन्तु पेंगू की स्नेहमयी दृष्टि पड़ गयी और वह भी उसके साथ रहने के लिए
फ़ुटबाल अकादमी के एक कमरे के घर में आ गया. तीसरा बच्चा प्रदीप अपने आप आ गया.वह
अनाथ था और विष्णु-लक्खी से उसे पेंगू अहमद के बारे में पता चला तो पितृतुल्य
पेंगू ने उसे भी अपना लिया. सबसे अच्छी बात यह हुई कि फ़ुटबाल अकादमी के
पदाधिकारियों ने भी इन अनाथ विकलांग बच्चों को अपने परिसर में रखने पर आपत्ति नहीं
की और पेंगू का यह परिवार भी समय के साथ पटरी पर आ गया. लगभग ५५ साल के पेंगू को
सारे बच्चे प्यार से दादू कहते हैं
पेंगू ने अपने संपर्कों की मदद से दोनों विकलांग बच्चों
को मुफ्त में ट्राई साइकिल दिलवा दी जिससे
उनका चलना-फिरना आसान हो गया. इतने साल से पेंगू ही मां-बाप बनकर इन बच्चों की
देखभाल कर रहा है. उन्हें नहलाने धुलाने से लेकर उनका बिस्तर लगाना और खाना बनाने,बीमार
पड़ने पर दवाई कराना जैसे तमाम काम पेंगू अपनी व्यस्त दिनचर्या के बाद भी माथे पर
शिकन लाये बिना सालों से करता आ रहा है.अब प्रदीप को नौकरी पर रखवा दिया सिलिये
जिम्मेदारियों का बोझ कुछ कम हुआ है . पेंगू का परिवार भी इन बच्चों से घुल मिल
गया है और पेंगू जब भी अपने घर जाता है तो उसकी पत्नी इन बच्चों के लिए भी
खाने-पीने का सामान भेजती है.वाकई आज के मतलबी और आत्मकेंद्रित समय में पेंगू अहमद
बड़भुइयां किसी फ़रिश्ते से कम नहीं है और समाज के लिए अनुकरणीय भी.
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