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एक शहर से साक्षात्कार…!!

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नब्बे के दशक में जवानी की दहलीज पर पांव रखते और आंखों में उजले सपने लिए हम लोग अपने अपने कस्बों से भोपाल के लिए उड़ चले थे। पृष्ठभूमि समान थी और परवरिश भी,सपने भी साझा थे और संघर्ष भी, पैसे भी सीमित थे और परिवारिक संस्कार भी एक जैसे, इसलिए ‘दुनिया गोल है’ के सिद्धांत पर अमल करते हुए हम साल-छह महीने के अंतराल में आखिर एक दूसरे से मिल ही गए और फिर हमने शुरू किया अपने सपनों का साझा सफर। तब एक गीत की यह पंक्तियां हमें राष्ट्रीय गीत सी लगती थी: ‘छोटे-छोटे शहरों से, खाली भोर-दुपहरों से, हम तो झोला उठाके चले। बारिश कम-कम लगती है, नदियां मद्धम लगती है, हम समंदर के अंदर चले।’ वाकई, हमारा सफर कुएं से समंदर का था..अपने कस्बे से भोपाल जैसे बड़े शहर और प्रदेश की राजधानी में आना, किसी समंदर से कम नहीं था। यह बात अलग है कि प्रदेश की राजधानी भी बाद में पीछे छूट गई और कैरियर के विस्तार की रफ्तार राष्ट्रीय राजधानी तक ले गई। बहरहाल,सफर साझा था तो सामान भी,साथ भी और परस्पर सहयोग भी साझा ही था। इसका परिणाम यह हुआ कि ‘हम’ यानि मैं, इस पुस्तक के लेखक संजीव परसाई,मित्र संजय सक्सेना और अग्रज जैसे मित्र और इस प...

अब्बू खां का कुत्ता

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भोपाल का नाम तो सुना ही होगा आपने...तालाबों-झीलों और खूबसूरत वादियों वाला शहर अपनी फुट-हिल्स और हरियाली के लिए प्रसिद्ध है. यहाँ का बड़ा तालाब समंदर सा नजर आता है और पूरे शहर की प्यास बुझाने का काम करता है.  बड़े तालाब के किनारे बसा है भोपाल का सबसे वीआईपी और सुन्दर इलाका श्यामला हिल्स. यही की एक बस्ती में रहते थे अब्बू खां. वैसे तो अब्बू खां का भरा पूरा परिवार था लेकिन जवान होते ही बच्चे पंख फैलाकर उड़ गए और उन्होंने शहर में दीगर ठिकानों पर अपने घोंसले बना लिए. बेग़म असमय ही खुदा को प्यारी हो गयीं और अब्बू खां निपट अकेले रह गए. दरअसल, वे अपने खानदानी आशियाने का मोह छोड़ नहीं पाए और बच्चों के दड़बे नुमा घोंसलों में इतनी जगह नहीं थी कि वे अपनी हसरतों के साथ अब्बू खां की इच्छाओं को जगह दे सकें.  जैसा की होता है, अब्बू खां और बच्चों के बीच ईद का समझौता हो गया मतलब ईद पर बच्चे या तो अब्बू खां से मिलने आ जाते या फिर अब्बू खां किसी बच्चे के साथ ईद मनाने चले जाते. समय सुकून से गुजर रहा था और रही अकेलेपन की बात तो अब्बू खां को कुत्ता पालने का शौक था और वे कुत्ते को ही अपना साथी बना लेते थे,...

ढाई राज्यपाल और दो मुख्यमंत्रियों वाला अनूठा शहर…!!

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एक शहर में ढाई राज्यपाल और दो मुख्यमंत्री!!…पढ़कर आप भी चौंक गए  न? हम-आप क्या, कोई भी आश्चर्य में पड़ जाएगा कि कैसे एक शहर या सीधे शब्दों में कहें तो एक राजधानी में कैसे दो मुख्यमंत्री और ढाई राज्यपाल हो सकते हैं। राजनीति की स्थिति तो यह है कि अब एक ही दल में वर्तमान मुख्यमंत्री अपने ही दल के पूर्व मुख्यमंत्री को बर्दाश्त नहीं करते तो फिर एक ही शहर में यह कैसे संभव है कि ढाई राज्यपाल और दो मुख्यमंत्री हों और फिर भी कोई राजनीतिक विवाद की स्थिति नहीं बनती।   अब तक मुख्यमंत्री पद पर एक से ज्यादा दावेदारियां, ढाई-ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री और कई उपमुख्यमंत्री जैसी तमाम कहानियां हम आए दिन समाचार पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते रहते हैं लेकिन कोई शहर अपने सीने पर बिना किसी विवाद के दो मुख्यमंत्रियों की कुर्सी रखे हो और उस पर तुर्रा यह कि मुख्यमंत्रियो से ज्यादा राज्यपाल हों तो उस शहर पर बात करना बनता है।   देश का सबसे सुव्यवस्थित शहर चंडीगढ़ वैसे तो अपने आंचल में अनेक खूबियां समेटे है लेकिन दो मुख्यमंत्री और ढाई राज्यपाल की खूबी इसे देश ही क्या दुनिया भर में अतिविशिष्ट बनात...

‘बालूशाही’ के बहाने बदलाव की बात…!!

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बालूशाही के बहाने आज बदलाव की बात…दरअसल, पिछले कुछ महीनों का अनुभव है कि बालूशाही एक बार फिर मिठाइयों की जीतोड़ प्रतिस्पर्धा में अपनी पहचान बनाती दिख रही है। पिछले दिनों हुए कुछ बड़े और अहम् आयोजनों में मिठाई के लिए आरक्षित स्थान पर बालूशाही ठाठ से बैठी दिखी…कहीं इसे गुलाब जामुन का साथ मिला तो कहीं किसी और मिठाई का और कहीं-कहीं तो इसकी अकेले की बादशाहत देखने को मिली। इससे शुरूआती नतीजा यही निकाला कि बालूशाही मिठाइयों की मुख्य धारा में लौट रही है और धीरे-धीरे अपना खोया हुआ अस्तित्व पुनः हासिल कर रही है।  इन दिनों पिज़्ज़ा, बर्गर,केक और पेस्ट्री में डूब-उतरा रही नयी पीढ़ी ने तो शायद बालूशाही का नाम भी नहीं सुना होगा। इस पीढ़ी को समझाने के लिए हम कह सकते हैं कि बालूशाही हमारे जमाने का मीठा बर्गर था या फिर आज का उनका प्रिय डोनट। समझाने तक तो ठीक है, लेकिन ‘कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली’ वाले अंदाज में कहें तो बालूशाही की बात और अंदाज़ ही निराला है।  मैदे और आटे की देशी घी के साथ गुत्थम गुत्था वाली नूराकुश्ती के बाद उठती सौंधी और भीनी सुगंध और फिर चीनी की चाशनी में इलायची की खुशबू के सा...

वे अपने से हैं, सभी के हैं, तभी तो परम प्रिय हैं गणेश…,!!

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वे खुश मिजाज हैं, बुद्धि, विवेक, शक्ति, समृद्धि, रिद्धि-सिद्धि के दाता हैं, अष्ट सिद्धि और नौ निधि के ज्ञानी हैं, फिर भी उनमें जरा भी घमंड नहीं है, बिलकुल सहज और सरल हैं इसलिए लोकप्रिय है और प्रथम पूज्य भी । भक्तों की रक्षा के लिए वे दुष्टों का संहार करते हैं तो भक्तों की इच्छा पर अपना सर्वत्र देने में भी पीछे नहीं रहते। वे सभी के हैं…सभी के लिए हैं तभी तो परम प्रिय हैं गणेश।    वे सहज हैं, सरल हैं और सर्व प्रिय भी। बच्चों को वे अपने बालसखा लगते हैं तो युवा उन्हें सभी परेशानियों का हल मानते हैं । बुजुर्गों के लिए वे आरोग्यदाता और विघ्नहर्ता हैं तो महिलाओं के लिए सुख समृद्धि देने वाले मंगलमूर्ति। यह देवताओं में तुलना की बात नहीं है लेकिन भगवान गणेश जैसी व्यापक, सर्व वर्ग और हर उम्र में लोकप्रियता ईश्वर के किसी भी अन्य रूप को इतने व्यापक स्तर पर हासिल नहीं है। सभी वर्ग, जाति और उम्र के लोग श्री गणेश को अपने सबसे करीब पाते हैं इसलिए वे लोक देव हैं।    उनकी भक्ति और आराधना के कोई कठोर नियम नहीं हैं। उनकी पूजा में सरलता, सार्वभौमत्व और व्यापक अपील है। आप ढाई दिन पूजिए या ...

गणेश विसर्जन…मानो, मतदान की रात!!

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  कबीर दास जी ने लिखा है..’लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल, लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल'...कुछ यही हाल अनंत चतुर्दशी के दिन मुंबई,भोपाल और जबलपुर जैसे तमाम शहरों का था। कबीर ने यह दोहा भले ही किसी और भाव में लिखा था लेकिन फिलहाल तो यह गणेश विसर्जन के माहौल पर सटीक लग रहा था क्योंकि हर तरफ गणेश जी ही गणेश जी थे..कहीं छोटे से खूबसूरत गणेश तो कहीं लंबे चौड़े लंबोदर, कहीं पंडाल को छूते गणेश तो कहीं भित्ति चित्र में सिमटे गणेश। भोपाल में एक पंडाल ने तो भगवान गणेश के जरिए मां भगवती और भोले शंकर दोनों को साध लिया। उन्होंने शेर पर मां दुर्गा की वर मुद्रा वाली शैली में भगवान गणेश को बिठा दिया और उन्हें शिवशंकर की तरह जटा जूट के साथ नीले रंग में रंग दिया…मतलब, आप विघ्नहर्ता के साथ शक्ति और शिव को भी महसूस कर सकें।  खैर, अनंत चतुर्दशी के माहौल पर ही कायम रहें तो तमाम घाटों पर एक के बाद एक गणेश चले आ रहे थे। कहीं, साइकिल पर गणेश तो कहीं रिक्शे पर, मोटरसाइकिल पर, कार में और यहां तक कि ट्रैक्टर और ट्रक में भी। जहां देखो वहां बस भगवान गणेश और उनके साथ था हजारों स्त्री/पुरुष/युवाओं...

भारतीय पराक्रम की स्वर्णिम गाथा है… ‘विजय दिवस’

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सोलह दिसंबर दुनिया के इतिहास के पन्नों पर भले ही महज एक तारीख हो लेकिन भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश के इतिहास में यह तारीख कहीं स्वर्णिम तो कहीं काले हर्फो में दर्ज है। भारत में यह तारीख विजय की आभा में दमक रही है तो बांग्लादेश के लिए तो यह जन्मतिथि है । पाकिस्तान के लिए जरूर यह दिन काला अध्याय है क्योंकि इसी दिन उसका एक बड़ा हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान से बांग्लादेश बन गया था। वैसे भी,पाकिस्तान के लिए यह दिन किसी बुरे सपने से कम नहीं था क्योंकि उसकी हजारों सैनिकों को सर झुकाकर भारत की सरपरस्ती में इतिहास की सबसे बड़ी पराजय स्वीकार करनी पड़ी थी।  इतिहास के पन्नों में दर्ज निर्णायक तारीख जरूर 16 दिसंबर 1971 है, लेकिन पाकिस्तान की कारगुजारियों ने उसकी नींव कई साल पहले डाल दी थी । जब उसकी सेना के अत्याचारों से कराह रहे पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने मदद के लिए भारत से गुहार लगाना शुरू कर दिया था। आखिर, तत्कालीन भारत सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा और फिर भारतीय सैनिकों के शौर्य और पराक्रम का स्वर्णिम पन्ना ‘विजय दिवस’ के नाम से इतिहास में दर्ज हो गया । 16 दिसंबर 1971 को ढाका में पाकिस्तान की ओ...