एक शहर से साक्षात्कार…!!
‘छोटे-छोटे शहरों से,
खाली भोर-दुपहरों से,
हम तो झोला उठाके चले।
बारिश कम-कम लगती है,
नदियां मद्धम लगती है,
हम समंदर के अंदर चले।’
वाकई, हमारा सफर कुएं से समंदर का था..अपने कस्बे से भोपाल जैसे बड़े शहर और प्रदेश की राजधानी में आना, किसी समंदर से कम नहीं था। यह बात अलग है कि प्रदेश की राजधानी भी बाद में पीछे छूट गई और कैरियर के विस्तार की रफ्तार राष्ट्रीय राजधानी तक ले गई। बहरहाल,सफर साझा था तो सामान भी,साथ भी और परस्पर सहयोग भी साझा ही था। इसका परिणाम यह हुआ कि ‘हम’ यानि मैं, इस पुस्तक के लेखक संजीव परसाई,मित्र संजय सक्सेना और अग्रज जैसे मित्र और इस पुस्तक के प्रकाशक प्रो मनोज कुमार यानि हमारे मनोज भैया और बिल्लू भैया मतलब अरविंद सिंह भाल जल्दी ही ‘मैं रंग शरबतों का तू मीठे घाट का पानी’ वाले अंदाज में इतने घुल-मिल गए कि आज तीन दशक बाद हमारी आधी दुनिया और परिवार की दूसरी पीढ़ी ने मिलकर हमारी दोस्ती को संयुक्त परिवार का सा रूप दे दिया है । हम सभी ने शहर-ए-भोपाल में सपने बुने और उन्हें पूरा भी किया। कभी शाहपुरा, तो कभी होशंगाबाद रोड, तो कभी श्यामला हिल्स होते हुए हमने भोपाल को करीब से जानने का हरसंभव प्रयास किया इसलिए जब संजीव (परसाई) ने भोपाल पर किताब लिखने का मन बनाया तो लगा कि यह किताब नहीं बल्कि साथ साथ जिए पलों की साझा यात्रा है। हम में से कुछ भोपाल से आते जाते रहे और संजीव जैसे कुछ दोस्तों के घर हमारे प्रवास का अड्डा। हमारी हर मुलाकात भोपाल को हमारे और क़रीब ले आती। शायद, ऐसी ही किसी परिस्थिति में जाने माने कवि ध्रुव शुक्ल को लिखना पड़ा होगा:
‘उसी शहर में नाल गड़ी है मेरी
उसी शहर में दाल पकी है मेरी
उसी शहर में रहते मेरे दोस्त
उसी शहर में बीवी बच्चे
उसी शहर खाल खिंची है मेरी
उसी शहर में बहुत दिनों तक
रहने से दुख होता है
उसी शहर में बहुत दिनों के बाद
लौट आने से सुख होता है।।’
संजीव अपनी लेखनी से हमें भोपाल को नए सिरे से जानने समझने का मौका देते हैं। हर पन्ने पर हमारी तीन दशकों की यादें उभर आई हैं। उनकी लेखन शैली सुसंगत और सुगम है। उन्होंने पाठकों को भोपाल की संस्कृति और इतिहास में गहराई से डुबोने के लिए प्रासंगिक संदर्भों और विवरणों का संतुलित समावेश किया है। ऐतिहासिक घटनाओं और सांस्कृतिक तत्वों का वर्णन बहुत ही सरल और स्पष्ट तरीके से किया गया है, जिससे पाठक आसानी से विषय को समझ सकते हैं। संजीव बिना कुछ कहे चुपचाप शब्दों का ऐसा मायाजाल रचते हैं कि हम भी उसमें खो जाना चाहते हैं। भोपाल को लेकर जो भाव हमारे हैं,शायद वही सोच जाने माने कवि/कलाकार हेमंत देवलेकर की भी रही होगी। तभी तो उन्होंने लिखा:
‘सुंदरता वह प्रतिभा है/जिसे रियाज़ की ज़रूरत नहीं/
भोपाल ऐसी ही प्रतिभा से संपन्न और सिद्ध/यह शहर कविताएँ लिखने के लिए पैदा हुआ/आप इसे पचमढ़ी का लाड़ला बेटा कह सकते हैं/पहाड़ यहाँ के आदिम नागरिक/झीलों ने आकर उनकी गृहस्थियाँ बसाई हैं/इस शहर में पानी की खदानें हैं/जिनमें तैर रहा है मछलियों का अक्षय खनिज भंडार/इस शहर में जितनी मीनारें हैं/उतने ही मंदिर भी/लेकिन बाग़ीचों की तादाद उन दोनों से ज़्यादा/रात भर चलते मुशायरों और क़व्वालियों के जलसों में/चाँद की तरह जागते इस शहर की नवाबी यादें/गुंबदों के उखड़ते पलस्तरों में से आज भी झाँकती हैं/इस शहर का सबसे ख़ूबसूरत वक़्त/शाम को झीलों के किनारे उतरता है/और यह शहर अपनी कमर के पट्टे ढीले कर/पहाड़ से पीठ टिका/अपने पाँव पानी में बहा देता है/और झील में दीये तैरने लगते हैं।’
अब बात पुस्तक की, ‘भोपाल: एक शहर हजार किस्से’ पुस्तक में संजीव परसाई ने भोपाल शहर की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, और सामाजिक विविधताओं को अलग अलग किस्सों में पिरोया है। यह पुस्तक भोपाल शहर की तमाम कहानियाँ, अतीत के घटनाक्रम और स्थानीय किंवदंतियों को जीवंत तरीके से सिलसिलेवार पेश करती है। संजीव परसाई की धाराप्रवाह लेखनी भोपाल शहर की व्यापक और विविध तस्वीर उकेरती है। लेखक ने इस शहर के इतिहास, संस्कृति, और सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से प्रस्तुत किया है।"भोपाल: एक शहर हजार किस्से" पुस्तक में भोपाल की ऐतिहासिक घटनाएँ, प्रमुख व्यक्तित्व और सांस्कृतिक परंपराओं की विविध कहानियाँ शामिल हैं। प्रत्येक कहानी एक अलग दृष्टिकोण से शहर के विभिन्न पहलुओं को उजागर करती है, जैसे कि रानी कमलापति की कथा,नवाबी दौर, विलीनीकरण आंदोलन, स्थानीय किंवदंतियाँ और शहर की सांस्कृतिक पहचान। पुस्तक बदलते और संवरते भोपाल की बहुरंगी तस्वीर पेश करती है। जब कैनवास बड़ा होता है तो उसमें रंग भी बढ़ते जाते हैं। भोपाल के विस्तारित कैनवास में भी हमें इस पुस्तक के जरिए कहीं सांस्कृतिक इंद्रधनुष देखने को मिलता है तो कहीं भोपालियों का अलग मिजाज। कहीं बड़े तालाब की विशालता आश्चर्य से आंखें फैला देती है तो कहीं कंक्रीट के नए उगते पेड़ दिल में फांस सी चुभा देते हैं। कुछ ऐसी ही स्थितियों से दो चार हुए कवि राही डूमरचीर को लिखना पड़ा होगा:
‘दरमियाँ एक तालाब था
जो नदी-सा बहता था
अब कंक्रीट के महल हैं दरमियाँ
जो पानी की क़ब्र पर उगे हैं।’
भोपाल: एक शहर,हजार किस्से’ पुस्तक की लेखन शैली कथात्मक और जीवंत है। लेखक ने भोपाल की कहानियों को एक सम्मोहक तरीके से प्रस्तुत किया है, जिससे पाठकों को शहर की प्राचीनता और आधुनिकता के समन्वय का रोचक अनुभव होता है। कहानियों की शैली और भाषा पाठकों को समय और स्थान की सीमा से परे ले जाती है।
पुस्तक में ऐतिहासिक घटनाओं के साथ-साथ सांस्कृतिक परंपराओं का भी समावेश है। पाठक भोपाल की नवाबी धरोहर, ऐतिहासिक स्थल जैसे इस्लामपुर और भारत भवन सहित स्थानीय धरोहरों की कहानियों से परिचित होते हैं। पुस्तक में प्रस्तुत तथ्य और शोध गहन और सटीक हैं। श्री परसाई ने विभिन्न स्रोतों से जानकारी एकत्र की है और उसे विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। ऐतिहासिक डेटा, सांस्कृतिक संदर्भ, और अन्य विवरण वास्तविकता पर आधारित हैं, जो पुस्तक की विश्वसनीयता को बढ़ाते हैं।
पुस्तक हमें भोपाल शहर के इतिहास,परंपरा,समृद्धि, संस्कृति और विविधता को एक नए दृष्टिकोण से समझाती है। यह न केवल इतिहास प्रेमियों के लिए है, बल्कि उन लोगों के लिए भी है जो स्थानीय कहानियों और सांस्कृतिक परंपराओं में रुचि रखते हैं। "भोपाल: एक शहर हजार किस्से" एक समृद्ध और मनोरंजक पुस्तक है जो भोपाल की अनगिनत कहानियों को प्रस्तुत करती है। यह पुस्तक शहर के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को एक दिलचस्प और कथात्मक तरीके से उजागर करती है। यह एक उत्कृष्ट पुस्तक है जो भोपाल शहर की गहरी समझ प्रदान करती है। इसके माध्यम से पाठक भोपाल की ऐतिहासिक यात्रा और सांस्कृतिक समृद्धि के एक अनूठे दृष्टिकोण को जान सकते हैं। पुस्तक की उपयोगिता और विस्तृत विवरण इसे एक महत्वपूर्ण संदर्भ पुस्तक भी बनाते हैं।
अंत में,भोपाल एक ऐसा शहर है जहां हमें प्राकृतिक सौंदर्य, ऐतिहासिक विरासत और आधुनिक विकास का एक अनूठा मिश्रण देखने को मिलता है ।भोपाल विभिन्न संस्कृतियों का संगम है। यहां हिंदू, मुस्लिम और अन्य धर्मों के लोग एक साथ रहते हैं। यहां की हरी भरी वादियां,तालाब झीलें,पहाड़ और सांस्कृतिक सरोकारों का असर ऐसा है कि जो एक बार यहां आता है,यहीं का होकर रह जाता है। तभी तो प्रख्यात साहित्यकार मंगलेश डबराल ने लिखा है:
‘मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कराया
वहाँ कोई कैसे रह सकता है
यह जानने मैं गया
और वापस न आया।’
मित्र संजीव ने ‘भोपाल: एक शहर हजार किस्से’ पुस्तक के जरिए भोपाल के दो सौ सालों से ज्यादा के विस्तार को डेढ़ सौ पन्नों में समेट दिया है। भोपाल शहर के लोगों,पर्यटकों और यहां आने वाले लोगों के लिए यह पुस्तक एक ज्ञानवर्धक,मनोरंजक और भावनात्मक सहयोगी साबित होगी…बधाई और अनेक शुभकामनाएं।
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