अब्बू खां का कुत्ता
बड़े तालाब के किनारे बसा है भोपाल का सबसे वीआईपी और सुन्दर इलाका श्यामला हिल्स. यही की एक बस्ती में रहते थे अब्बू खां. वैसे तो अब्बू खां का भरा पूरा परिवार था लेकिन जवान होते ही बच्चे पंख फैलाकर उड़ गए और उन्होंने शहर में दीगर ठिकानों पर अपने घोंसले बना लिए. बेग़म असमय ही खुदा को प्यारी हो गयीं और अब्बू खां निपट अकेले रह गए. दरअसल, वे अपने खानदानी आशियाने का मोह छोड़ नहीं पाए और बच्चों के दड़बे नुमा घोंसलों में इतनी जगह नहीं थी कि वे अपनी हसरतों के साथ अब्बू खां की इच्छाओं को जगह दे सकें.
जैसा की होता है, अब्बू खां और बच्चों के बीच ईद का समझौता हो गया मतलब ईद पर बच्चे या तो अब्बू खां से मिलने आ जाते या फिर अब्बू खां किसी बच्चे के साथ ईद मनाने चले जाते. समय सुकून से गुजर रहा था और रही अकेलेपन की बात तो अब्बू खां को कुत्ता पालने का शौक था और वे कुत्ते को ही अपना साथी बना लेते थे,,,इससे समय भी व्यतीत हो जाता और उनका मन भी लगा रहता था.
परन्तु, अब्बू खां जितने गरीब थे उससे ज्यादा बदनसीब क्योंकि वे जब भी कुत्ते के साथ मन के तार जोड़ने लगते वह बच्चों की तरह उनके लाड प्यार से किनारा कर सड़क के आवारा कुत्तों के साथ जा मिलता और बेचारे अब्बू खां उदास एवं अकेले रह जाते. प्यार-मनुहार के साथ पाले गए कुत्ते के भाग जाने के बाद अब्बू खां ठान लेते कि अब किसी और कुत्ते को नहीं पालेंगे.
कुछ दिन तो वे अकेले गुजारते लेकिन किसी ठण्ड में कांपते या हड्डियों का दांचा बनी मां के स्तनों से भूख मिटाने के व्यर्थ प्रयास में जुटे आठ-दस पिल्लों और फिर उन्हें भूख से बिलबिलाते देखकर अब्बू खां का मन पसीज जाता और वे एक पिल्ले को अपने साथ ले आते. अब्बू खां का मन तो सभी को लाने का रहता था लेकिन खुद अब्बू खां के लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ मुश्किल से हो पाता था तो वे दर्जन भर पिल्लों का बंदोबस्त कहाँ से करते इसलिए मन मारकर एक ही पिल्ला गोद ले लेते थे.
अब्बू खां अपनी तरफ पिल्ले को पाल पोसकर बड़ा करने में हरसंभव प्रयास करते थे जैसे ब्रेड खिलाना,कभी कभी बिस्किट तो कभी दूध में रोटी गलाकर देना और कभी जुगाड़ हो जाए तो अपने हिस्से में से मटन-चिकन का स्वाद भी लगा ही देते थे. पिल्ला जब तक पिल्ला रहता तो दिनभर अब्बू खां के सामने कूं कूं कर दुम हिलाता रहता,उनके पैरों को कभी चाटता तो कभी लोट-पोट होता रहता.
अब्बू खां का भी मन लगा रहता था. दिक्कत पिल्ले के बड़े होने के बाद शुरू होती थी क्योंकि जैसे ही उसे बाहर की हवा लगती वह धीरे धीरे अब्बू खां से कन्नी काटने लगता और फिर किसी दिन फुर्र हो जाता. बेचारे अब्बू खां गम में डूब जाते और फिर कभी कुत्ता नहीं पालने की कस्में खाते. इस बार, तो अब्बू खां ने वाकई ठान लिया था तभी तो गली-मोहल्ले में किकियाते-चिचियाते और उनके पैरों में लोट पीट होते पिल्लों को देखकर भी उन्होंने अपना मन कड़ा कर लिया था. कुछ महीने यूँ ही बीत गए और अब पास-पड़ोस के लोग भी समझ चुके थे कि इस बार अब्बू खां अकेले रहने का मन बना चुके हैं.
सब कुछ ठीक चल रहा था तभी उनकी जिन्दगी में रुस्तम की घुसपैठ हुई. घुसपैठ इसलिए क्योंकि अब्बू खां ने तो कुत्ता नहीं पालने की जिद ठान ली थी लेकिन मासूम और पनीली आखों वाला,भूरे रंग का तथा किसी विदेशी नस्ल के कुत्ते को मात करता रुस्तम आते जाते उनकी ओर टकटकी लगाये देखता रहता और अब्बू खां के पास आते ही उनसे लिपट जाता. उसकी मासूमियत और सुन्दरता इतनी मनमोहक थी कि अब्बू खां को अपनी कसम तोडनी पड़ी और वे रुस्तम को घर ले आए.
दरअसल,रुस्तम उसका नाम नहीं था बल्कि अब्बू खां ने प्यार से उसका नाम रुस्तम रख दिया था. रुस्तम के आते ही अब्बू खां का आशियाना फिर चहल पहल का अड्डा बन गया. अडोस-पड़ोस के बच्चे रुस्तम के साथ खेलने लगे और रुस्तम के बहाने अब्बू खां के नियमित खानपान की व्यवस्था भी होने लगी.
रुस्तम वाकई में अब्बू खां के अब तक पाले गए कुत्तों से अलग था. जब वे उसे मोहल्ले के इकलौते हैंडपंप के नीचे बिठाकर नहलाते तो उसका रोम रोम खिल उठता और फिर उसके सामने श्यामला हिल्स के साहबों के यहाँ पेडिग्री खाकर एसी में मस्त गुलगुले बिछौने पर सोने वाले और मेमसाहबों की गोद में चढ़कर लड़ियाने वाले विदेशी नस्ल के महंगे पिल्ले भी फीके पड़ जाते. विदेशी नस्ल के झबरे,बड़े मुंह वाले,लम्बे मुंह वाले और बालों से आँख तक ढककर घूमने वाले कुत्ते तो कुत्ते उनके मालिक और मैडम भी रुस्तम को ईर्ष्या से देखते थे और फिर अंग्रेजी में बड़-बड़ करते हुए अपने विदेशी कुत्ते को देशी सड़क पर पूर्ण देशी अंदाज में हगा-मुताकर अन्दर ले जाते.
अब्बू खां को न उनकी अंग्रेजी समझ में आती और न ही जलन...वे तो बस, रुस्तम की मस्ती में मगन रहते. अब्बू खां का घर मस्जिद के करीब था और वैसे भी मस्जिद के मौलाना साहब गला फाड़कर इतनी ऊँची आवाज़ में अज़ान भरते थे कि गैर नमाजियों की भी हडबडाकर नींद खुल जाती थी. रुस्तम को पता नहीं क्यों मौलाना साहब की आवाज़ खूब पसंद आने लगी थी क्योंकि जब भी वे अज़ान भरते रुस्तम उनके सुर में सुर मिलाकर ऊँचा मुंह करके आवाज निकालने लगता. कुछ दिन में उसका अभ्यास और समय इतना सध गया कि मौलाना साहब के साथ उसकी सुरबंदी देखने लायक हो गयी. अब्बू खां के पैर तो जमीन पर नहीं पड़ते थे क्योंकि गली मोहल्ले के लोग भी रुस्तम के इस हुनर की जमकर प्रशंसा करते नहीं थकते थे.
अब्बू खां तो रुस्तम को ख़ुदा की नेमत मानने लगे और उसकी और भी ज्यादा देखभाल और सत्कार करने लगे. अब्बू खां और रुस्तम के सम्बन्ध समय के साथ गहरे होते गए और अब उनका दिनभर रुस्तम के साथ ही बीतते लगा. उधर,समय के साथ रुस्तम का आकार भी बढ़ने लगा और अब वह भरा-पूरा, जवान और किसी उम्दा नस्ल का कुत्ता दिखता था. रुस्तम के बड़े होने के साथ ही अब्बू खां की चिंता बढ़ने लगी और वे उसे बाहरी या यों कहें सड़क की दुनिया की हवा लगने से बचाने के लिए तमाम जतन करने लगे.
किसी तरह कबाड़ी से जुगाड़ कर अब्बू खां एक पुरानी जंजीर ले आए और रुस्तम को पहना दी. जब भी अब्बू खां रोटी-पानी के प्रबंध के लिए जाते रुस्तम को जंजीर से बाँध देते थे जिससे वो घर से बाहर नहीं जा सके. अब्बू खां अब निश्चिन्त थे कि रुस्तम अब नहीं भाग पायेगा लेकिन रुस्तम तो रुस्तम था. वह मौलाना साहब की आवाज़ के साथ साथ अपनी बिरादरी की आवाज भी पहचानने लगा था और अक्सर उनके साथ अपनी आवाज बुलंद कर अपनी मौजूदगी का अहसास भी करा ही देता था.
अब्बू खां की जंजीर ने रुस्तम को तो रोक लिया था लेकिन उसकी बिरादरी को कैसे रोकते इसलिए गाहे-बगाहे गली के आवारा कुत्तों का झुण्ड रुस्तम के दीदार को आ ही जाता. इस झुण्ड में रुस्तम की हमउम्र जैसी भूरी भी थी जो कुछ देर रूककर रुस्तम को निहार लेती थी.धीरे धीरे रुस्तम और भूरी में नैन-मटक्का शुरू हो गया और भूरी अपने झुण्ड से विद्रोह कर रुस्तम के आसपास मंडराने लगी.
अब रुस्तम को भूरी और बाहर की दुनिया अच्छी लगने लगी. आखिर बुजुर्ग अब्बू खां और उनकी पुरानी जंजीर जवान-तंदुरुस्त रुस्तम को कब तक रोक पाते. उसने एक दिन जोर लगाया और जंजीर के टुकड़े टुकड़े हो गए. फिर क्या था रुस्तम ने ‘जब हम जवां होंगे,जाने कहाँ होंगे...’ अंदाज में भूरी के साथ अब्बू खां का आशियाना छोड़ दिया.
अब्बू खां ने भरसक कोशिश की रुस्तम को रोकने की लेकिन जवानी के सामने लाचार बुढापे का क्या जोर. रुस्तम और भूरी दिनभर साथ साथ घूमे-खेले और अपनी तमाम हसरतें पूरी करते रहे. इस दौरान वे अब्बू खां के इलाक़े से काफी दूर निकल आए. अँधेरा होते ही भूरी अपने झुण्ड के साथ अपने सुरक्षित ठिकाने पर निकल गयी और रुस्तम नयी मंजिल की ओर.
रुस्तम को अब तक बाहर की दुनिया लाज़वाब लगने लगी थी क्योंकि कहाँ अब्बू खां की जरा सी झोपडी और जंजीर वाला कैदखाना और कहाँ भूरी,पार्क,सड़क,बिजली और सड़क पर मौजूद खाने-पीने के साधनों से भरी आज़ाद दुनिया...इसलिए रुस्तम ने वापस नहीं लौटने का फैसला किया. यहाँ तक की मौलाना साहब की आवाज़ भी रुस्तम को वापस नहीं बुला सकी. रात ढलते ही रुस्तम ने एक पार्क में बेंच के ऊपर अपना ठिकाना बनाया और सो गया.
कुछ ही वक्त बीता होगा कि उसने खुद को उस इलाक़े के खूंखार,गंदे,डरावने और पैने दांतों वाले दर्जन भर कुत्तों की गैंग से घिरा पाया. अब तक अब्बू खां के लाड में पले रुस्तम को लड़ना तो आता नहीं था इसलिए उसने झुककर और बचकर निकलना चाहा. गली के कुत्तों के लिए तो रुस्तम बंगलों में ऐशो आराम से पल रहे कुत्तों का प्रतिनिधि था और वे किसी भी अमीर कुत्ते को अपने बीच सुख से सोते हुए कैसे बर्दाश्त कर सकते थे इसलिए उन्होंने विदेशी कुत्तों के प्रति अपनी पूरी नाराजगी रुस्तम पर उतार दी.
रुस्तम ने हरसंभव प्रतिशोध किया लेकिन कहाँ लड़ाई में पारंगत सड़क के कुत्ते और कहाँ नाजो में पला रुस्तम...कुछ देर में ही उसकी हिम्मत जवाब दे गयी और फिर क्या था गली के कुत्तों ने नोंच नोचकर रुस्तम से विदेशी कुत्तों की शान शौकत भरी जिन्दगी के प्रति अपने विरोध का बदला ले लिया...कुछ ही देर में रुस्तम ने दुनिया छोड़ दी.
रुस्तम और कुत्तों की गैंग की इस लड़ाई को उस पार्क के पेड़ पर बैठी चिड़ियाओं का एक समूह भी देख रहा था. लड़ाई पूरी होते ही जवान चिड़ियाओं ने कहा कुत्तों का गैंग जीता,परन्तु एक बूढी चिड़िया ने कहा –रुस्तम जीता क्योंकि उसने गुलामी की बेड़ियाँ तोड़कर आज़ादी को चुना. सुबह रुस्तम को तलाशते पार्क पहुँचे अब्बू खां का कलेजा मुंह को आ गया और उन्होंने फिर कसम खाई कि अब कोई कुत्ता नहीं पालेंगे.
(पूर्व राष्ट्रपति और शिक्षाविद जाकिर हुसैन की सुप्रसिद्ध कहानी ‘अब्बू खां की बकरी’ से प्रेरित)
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