गणेश विसर्जन…मानो, मतदान की रात!!

 

कबीर दास जी ने लिखा है..’लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल, लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल'...कुछ यही हाल अनंत चतुर्दशी के दिन मुंबई,भोपाल और जबलपुर जैसे तमाम शहरों का था। कबीर ने यह दोहा भले ही किसी और भाव में लिखा था लेकिन फिलहाल तो यह गणेश विसर्जन के माहौल पर सटीक लग रहा था क्योंकि

हर तरफ गणेश जी ही गणेश जी थे..कहीं छोटे से खूबसूरत गणेश तो कहीं लंबे चौड़े लंबोदर, कहीं पंडाल को छूते गणेश तो कहीं भित्ति चित्र में सिमटे गणेश। भोपाल में एक पंडाल ने तो भगवान गणेश के जरिए मां भगवती और भोले शंकर दोनों को साध लिया। उन्होंने शेर पर मां दुर्गा की वर मुद्रा वाली शैली में भगवान गणेश को बिठा दिया और उन्हें शिवशंकर की तरह जटा जूट के साथ नीले रंग में रंग दिया…मतलब, आप विघ्नहर्ता के साथ शक्ति और शिव को भी महसूस कर सकें। 

खैर, अनंत चतुर्दशी के माहौल पर ही कायम रहें तो तमाम घाटों पर एक के बाद एक गणेश चले आ रहे थे। कहीं, साइकिल पर गणेश तो कहीं रिक्शे पर, मोटरसाइकिल पर, कार में और यहां तक कि ट्रैक्टर और ट्रक में भी। जहां देखो वहां बस भगवान गणेश और उनके साथ था हजारों स्त्री/पुरुष/युवाओं/बच्चों का हुजूम…जो डीजे पर बज रहे अलग अलग धुन के कानफोडू गीतों पर एक ही ढंग से नाचता-कूदता सड़कों/घाटों को रौंदने पर आमादा था।

सड़कों पर गूंजती पुलिस की सीटियां और इशारे उनके नृत्य के जोश को कम करने के बजाए बढ़ाने में ‘बघार लगाने जैसा’ काम कर रहे थे। सबसे दर्शनीय आलम तो घाटों पर था…बिल्कुल मतदान वाले दिन जैसा। कल्पना कीजिए,मतदान के बाद मतपेटी और अन्य चुनावी सामग्री जमा कराने के लिए कैसा कोहराम मचता है…सभी चाहते हैं कि उनकी वोटिंग मशीन जमा हो और वे गंगा नहाएं। कुछ यही हाल विसर्जन स्थल पर प्रतिमाएं सौंपने का था। सभी इस चक्कर में थे कि फटाफट अपनी मूर्ति सौंपे और घर पहुंचे लेकिन ‘पहले मैं,पहले मैं’ की चिल्लपो में कोई भी आगे नहीं बढ़ पा रहा था जबकि भोपाल सहित तमाम शहरों में नगर निगम और जिला प्रशासन ने क्रेन और भीमकाय मशीनों के जरिए विसर्जन की आसान व्यवस्था कायम की थी।  

वैसे भी,हम भारतीय मौलिक रूप से आसान व्यवस्था को भी कठिन बनाने में माहिर हैं इसलिए किसी को भगवान गणेश को क्रेन के हवाले करने की जल्दी थी तो कोई मंडल सपरिवार यहां भी फुरसत से आरती करने में जुटा था।

बारिश और कारों की धमा चौकड़ी के कारण विसर्जन घाट में बना कीचड़ का दरिया मानो चप्पल जूतों से होकर कपड़ों पर मॉर्डन आर्ट बनाने को बेताब था । फिर भी, उसी में छप छप करके अपने साथ साथ अन्य लोगों को अपनी कीचड़-कारी का नमूना पेश करते लोगों में अपनी अपनी प्रतिमाएं सौंपने की होड़ मची थी। हड़बड़ी में कुछ लोगों ने अपने वाहन भी इतने बेतरतीब तरीके से खड़े किए थे कि गलती से भी कोई बिना कीचड़ में लिपटे न निकल सके। इस सबके बाद भी विसर्जन वीर पूरे जोश में थे और कुछ तो होश तक खो चुके थे। इस तरह के टुन्न बहादुरों को नियंत्रित करना ज्यादा मुश्किल था क्योंकि उत्साह में उनके क्रेन पर चढ़कर प्रतिमा की जगह खुद विसर्जित होने का खतरा ज्यादा था। फिर भी सरकारी अमले ने आपा नहीं खोया और विसर्जन कार्यक्रम ‘गणपति बप्पा मोरया अगले बरस तू जल्दी आ..’ की गर्जना और मंगल कामना के साथ बिना किसी अमंगल के पूरा हो गया।



 


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