सोमवार, 10 मई 2010

बेटी की हत्या और माँ की पूजा:ये कैसा मदर्स डे

हम भारतीय लोग दिखावे के मामले में शायद दुनिया में सबसे अव्वल हैं तभी तो बेटी को तो पैदा होते ही या जन्म लेने के पहले ही मार देते हैं और मदर्स डे इतनी धूमधाम से मानते हैं मानो हमसे बड़ा माँ का भक्त कोई और नहीं है.मेरे इस बात से शायद अधिकतर लोग इत्तेफाक रखते होंगे की दिल्ली सहित पंजाब,हरियाणा और उन तमाम राज्यों में जहाँ पुरुष-महिलाओं के बीच अंतर सबसे ज्यादा है और जहाँ सबसे ज्यादा भ्रूण हत्या का मामले सामने आ रहें हैं वाही के लोग बढ-चढ़कर मदर्स डे मना रहे हैं. हमारी साड्डी दिल्ली में तो कार्ड और गिफ्ट गैलरिओं में बीते कई दिनों से मेला सा लगा है ..हर मॉल में दुकाने सजी हैं ..होटलों में उस माँ के नाम पर नई-नई डिशे परोसी और भकोसी जा रहे हैं जिसे शायद सामान्य दिनों में पानी के लिए भी नहीं पूछते.पूरा बाज़ार ममतामय है माँ की ममता में .वही दूसरी और घर लौटते ही इनमे से कई लोग अपनी पत्नी (माँ का इक और रूप ) को कोसने,गरियाने और लतियाने में पीछे नहीं रहते . कुछ ऐसे भी हैं जो शायद मदर्स डे के दिन ही अपनी पत्नी को डॉक्टर को दिखाकर ये सुनिश्चित कर आयें हो की उसके पेट में बेटा ही है और यदि बाती है तो डॉक्टर से उसके सफाई का समय निर्धारित करवा आयें होंगे.ये सब करने के बाद भी वे मदर्स डे मनाने में कई कमी नहीं छोड़ रहे होंगे?आखिर माँ आती कहाँ से है-आसमान से ,पहाड़ से या फिर समुद्र से निकलती है ?अरे आज की बेटी ही तो कल किसी की माँ होगी ?तो फिर हम कौन होते हैं सृष्टि के इस चक्र को बदलने वाले?यदि हम्मरे पूर्वजों ने भी यही किया होता तो आज हमारा अस्तित्व ही नहीं होता?जब हमने माँ का पूरा लाड-प्यार पाया है तो नई पीढी को इससे वंचित रखने वाले हम कौन होते हैं?

मदर्स डे तो हमने धूमधाम से मना लिया लेकिन यह जानने की कोशिश भी की है की हम्मरे देश में हर १००००० प्रसव के दौरान २५४ माएं धाम तोड़ देती हैं क्यूकि उन्हें समय पर इलाज नहीं मिल पता .इसका मतलब है की हर आठवे मिनट में बच्चे को जन्म देते समय इक माँ की मौत!इस तरह देश में हर साल ६५००० महिलाओं की जान चली जाती है .विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है की भारत में इस स्थिति में सुधार की २०७६ तक कोई सम्भावना नहीं है क्यूकि हमारी सरकार के पास हथियार खरीदने के लिए तो पैसा है पर इन महिलाओं की बेहतरी के लिए नहीं है.हमारे पास भी मदर्स डे की तरह हर छोटा-बड़ा पर्व मनाने के लिए तो समय और भरपूर पैसा है पर माँ के इलाज के नाम पर जेब खाली है .तो फिर मदर्स डे के नाम पर ये ढकोसला क्यों?

रविवार, 9 मई 2010

निरुपमा के बहाने चैनल चर्चा

टी वी चैनल पर मेरे साथ बैठकर निरुपमा पाठक मामले दे सम्बंधित न्यूज़(?) देख रही मेरी आठ साल की बेटी की बेटी ने पूछा-‘पापा आप और मम्मा तो ऐसा नहीं करोगे?” सवाल सुनकर मेरे तो होश उड गए.फिर लगा जब मेरे बेटी ऐसा सोच सकती है तो और भी बच्चों के मन में यह सवाल ज़रूर आया होगा?कई तो और भी चिती उम्र के बच्चे होंगे?क्या मीडिया को बालमन से इसतरह खिलवाड़ करने देना चाहिए?इसलिए इस विषय पर कुछ लिखने और आप सबसे अपने मन की बात साझा करने से अपने आपको रोक नहीं पाया...

इन दिनों टी वी चैनेलों में निरुपमा को न्याय दिलाने कि होड़ मची है –हमारी नीरू,बेचारी नीरू,निरुपमा को न्याय जैसे लुभावने शीर्षकों के ज़रिए खबर बेचने का बाजार लगा है.इस होड़ में हर चैनल जज बन गया है.अभी नीरू कि मौत कि जांच ठीक से रफ़्तार भी नहीं पकड़ पाई है और हमारे “खबर जासूस” रोज नया फैसला सुना रहे हैं.कभी नीरू कि माँ तो कभी उसका प्रेमी(शायद पति?) के सर हत्या का फैसला सुनाया जा रहा है.हत्या जैसे जघन्य मामले को भी ऑनर किलिंग कहा जा रहा है.इकतरफा ख़बरों का यह आलम है कि इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाते चंद कम उम्र के बच्चों,इनमें भी ज़्यादातर प्रियाभान्शु के दोस्त थे की राय जानकार आधा घंटे का बेशकीमती वक्त जाया कर दिया गया जबकि पत्रकारिता के सिद्धांतों के मुताबिक दूसरे पक्ष की बात शामिल करना भी उतना ही ज़रुरी है.ऐसा भी नहीं है कि इन चैनलों के पास नीरू के घर जाने के साधान नहीं हैं जब वे माइकल जैक्सन को दिखाने के लिए अमेरिका और इंग्लैंड जा सकते हैं तो झारखंड कितना दूर है?

इससे भी बड़ा सवाल यह है कि इस तरह के कार्यक्रमों को टी वी पर देख रहे लाखों बच्चों और उनके माता-पिता की दशा क्या होगी ?क्या उनके मन में आपस में दुराव पैदा नहीं हो जायगा?इन लोगों से जुड़े परिवारों,उनके रिश्तेदारों पर क्या बीत रही होगी? जो नुकसान छोटे परदे की महारानी एकता कपूर ने अपने सास-बहू मार्का धारावाहिकों से हमारे समाज और परिवारों का पांच साल में किया था वही नुकसान टी वी पर प्रसारित इस तरह कि ख़बरें चंद मिनटों में कर दे रही हैं.टी वी चैनल नीरू कि मौत को भी खाफ पंचायतों के ऊल ज़लूल फैसलों से जोड़कर दिखा रहें हैं.कुछ यही हाल इन्होंने नॉएडा की आरुषि के मामले का किया था.

क्या बिना सच जाने माँ-बाप और बच्चों के बीच ऐसा अविश्वास पैदा करना उचित है?टीआरपी की होड़ में कुछ भी दिखा-सुना रहे इन चैनलों की समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनतीं?वैसे भी मामले कि जांच करना या फैसला देना तो न्यायपालिका का काम है,हाँ मीडिया उसके लिए दबाव ज़रूर बना सकता है पर सीधे-सीधे फैसला सुना देना तो मीडिया का काम नहीं है?अब भी टी आर पी की यह जंग नहीं रुकी तो भविष्य के स्थिति का अंदाज़ा लगाया जा सकता है ?

नोट: मेरी बात का कुछ और मतलब निकला जाय या फिर बात का बतंगड बनाया जाय इसलिए मैं साफ़ कर देना चाहता हूँ कि पत्रकार बिरादरी का सदस्य होने के नाते मुझे भी पत्रकार निरुपमा पाठक कि मौत का उतना ही दुःख है जितना उसके साथिओं को होगा.इस टिप्पडी का उद्देश्य निरुपमा कि असामयिक मौत के बाद टी वी चैनलों पर मचे तमाशे और उसके दुष्परिणामों कि ओर इशारा करना है.

शनिवार, 8 मई 2010

मेरी माँ .....मम्मा





शुरुआत दो अलग अलग तेवरों वाले उदाहरणों से ...

प्रथम :एक बार स्वामी विवेकानंद से किसी ने पूछा कि हमेशा माँ को इतना महत्त्व क्यों दिया जाता है तो उन्होंने उस व्यक्ति दे कहा कि ये दो किलो का पत्थर लो और इसे अपने पेट पर बांधकर शाम तक घूमों.जब तुम वापस आओगे तब मैं इसका उत्तर दूँगा.शाम को जब वह व्यक्ति वापस आया तो उसकी हालत खराब थी उसने कहाँ स्वामीजी आपकी शर्त ने तो मेरे प्राण ही निकल दिए तब विवेकानंद ने कहाँ सोचो यदि इस भार  के साथ दिन भर में तुम्हारी हालत खराब हो गई तो तुम्हारी माँ ने तो इस भार  को पूरे नौ माह तक खुशी –खुशी बर्दाश्त किया है इसलिए माँ कि महानता को सबसे ऊंचा दर्ज़ा हासिल है.

द्वितीय:एक अँगरेज़ से भारतीय ने पूछा कि मेरे तीन भाई बहन हैं ,तुम्हारे कितने भाई-बहन हैं तो अँगरेज़ ने उत्तर दिया एक भी नहीं परन्तु मेरी एक माँ से चार पिता और मेरे पहले पिता से पांच माँ ज़रूर हैं .

ये दोनों उदाहरण दो भिन्न भिन्न संस्कृतिओं को अभिव्यक्त करते हैं.इसलिए भले ही मदर डे कि शुरुआत पश्चिमी देशों से हुई हो लेकिन इसका महत्त्व हम भारत वासी ही जानते हैं.भारत से याद आया कि भारत कुमार के नाम से चर्चित अभिनेता मनोज कुमार ने तो अपनी एक फिल्म में बकायदा गीत के ज़रिए माँ का महत्त्व बताया है.याद है वो मशहूर पंक्तियाँ जिनमें उन्होंने बताया था कि हमारे देश में नदियों को भी माता कहकर बुलातें हैं.वाकई हम गंगा को गंगा माँ ही तो कहतें हैं और कहें भी क्यों न जब वो हमारी पूरी गंदगी  को अपने में समाहित कर लेती है.दरअसल माँ भी तो यही करती है हमारी सारी गलतियों को माफ कर हमें अपने आँचल की छाँव  प्रदान करती है.तो हुई न माँ सबसे महान.मदर डे के बहाने ही सही क्यों न माँ के लाड़-प्यार,मनुहार,मीठी लोरिओं,प्यार से पगी बोलियों और स्वादिष्ट भोजन को याद कर लें.माँ के इस क़र्ज़ को चुकाना तो नामुमकिन है फिर भी उसकी खुशी कि खातिर कम से कम एक दिन के लिए ही हम अपना आडम्बर,दिखावा और बड़े हो जाने का एहसास त्याग दें और फिर उसके आँचल का सहारा ले लें .शायद इससे माँ को जो खुशी मिलेगी वह खुशी उसे हम मॉल कि मंहगी साड़ी,इत्र और नकलीपन से भरे वातावरण में खाना खिलाकर भी नहीं दे सकते.

माँ के बारे में मशहूर शायर मुनव्बर राणा ने लिखा है:

लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती

बस एक माँ है जो मुझसे खफा नहीं होती

मेरी ख्वाहिश है कि में फिर से फरिश्ता हो जाऊँ

माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि फिर से बच्चा बन जाऊँ

गुरुवार, 6 मई 2010

नेताओं की टी आर पी

सामान्य पाठकों के लिए टी आर पी का मतलब टी वी रेटिंग प्वान्ट होता है और इसको नापने का पैमाना यही है की किसी भी कार्यक्रम को कितने दर्शक देख रहें हैं.कार्यक्रम जितना ज्यादा लोकप्रिय होगा उसकी टीआरपी भी उतनी ही ज्यादा होगी .सोचिये यदि हमारे नेताओं अर्थात सांसदों और मंत्रिओं की भी संसद में उनकी भागेदारी को लेकर टीआरपी भी नापी जाने लगे और इसके लिए पैमाना टेली विजन वाला ही रखा जाये तो क्या स्थिति होगी ? जो नेता दूरदर्शन और निजी समाचार चैनलों पर जितना ज्यादा दिखेगा उसकी टी आर पी भी उतनी ही ज्यादा होगी....यदि ऐसा हो गया तो अभी तक लोकसभा के बेल (कुआं नहीं ,वहां तो वे जनता को गिराते हैं) में जाकर हंगामा करने वाले सांसदों की तो लाटरी ही लग जाएगी.कुछ यही हाल बात बात पर गला फाड़कर चिल्लाने वाले नेताओं का होगा .सबसे अच्छी टीआरपी पाने की होड़ में हमारे नेता संसद का और भी वक्त बर्बाद करने लगेंगे और आम जनता के गाढे पसीने की कमाई इसी तरह लुटती रहेगी .मज़ा तो तब आयेगा जब एस टी आर पी के आधार पर "एड देने लगें तब तो हंगामे के कमाई का नया रास्ता ही खुल जायेगा .संसद की हुल्लड़ ब्रिगेड के मुखिया लालू प्रसाद तो एड से रचे बसे नज़र आयेंगे .उनके सीने पर अडिदास का लोगो होगा तो बाजू पर नाएके और पीठ पर हल्दीराम या पेप्सी -कोक जैसी किसी कम्पनी का ठप्पा लगा नज़र आएगा .मुलायम सिंह की समाजवादी लाल टोपी पर भी गोदरेज या वीडियोकोन के रंग दिखाई देंगे .रामविलास पासवान ,रघुवंश प्रताप सिंह ,मणि शंकर अय्यर ,चाचाजी(अभिषेक बच्चन के) अमर सिंह,अनंत कुमार जैसे तमाम चिल्लपों वीर वेतन से ज्यादा एड से कमा रहें होंगे .इसी तरह सुषमा स्वराज ,ममता बनर्जी ,मेनका गाँधी की साड़ियाँ भी अलग अलग कम्पनी का प्रचार करती दिखाई देंगी .नेताओं में अपनी अपनी टी आर पी बढ़ाने की होड़ मच जाएगी और फिर संसद का हाल क्या होगा इसका तो भगवान ही मालिक होगा? जूते-चप्पल चलना आम बात हो जायेगा क्योंकि जो जितना विवादित होगा उसकी टी आर पी भी उतनी ही ज्यादा होती जायगी और एड से कमाई भी .तो फिर तैयार रहिये भारतीय राजनीति की इस नई नौटंकी को देखने के लिए ......

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...